Friday, January 13, 2023

गाँधी - गोडसे : आखिर वैचारिक असहमति हत्या का अधिकार तो नहीं देती


 #मनोज_जोशी 

फिल्म डायरेक्टर राजकुमार संतोषी की आने वाली फिल्म गांधी-गोडसे एक युद्ध का ट्रेलर रिलीज होने के दो दिन बाद ही इसका विरोध शुरु हो गया है। और इस विरोध के साथ ही गांधीजी और गोडसे को लेकर चलने वाली बहस एक बार फिर आम हो गई है। 

पिछले महीने मेरी पुस्तक "हिंदुत्व और गाँधी" का लोकार्पण हुआ है। इस पुस्तक के लेखन के लिए जब मैं अध्ययन कर रहा था तो स्वाभाविक रूप से गोडसे के बारे में काफी कुछ समझा और पढ़ा। 

लेकिन अंत में मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि गोडसे का पक्ष सामने लाना और उस पर चर्चा करना वास्तव में हिंदुत्व का नुक़सान ही है। और यही वज़ह है कि मैंने अपनी पुस्तक में गोडसे का जिक्र नहीं किया, बल्कि मैं उसका नाम भी लेना उचित नहीं समझता।

लेकिन इस विवाद को देखते हुए आज कुछ ऐसी बातें जो किताब में नहीं लिखी और कुछ ऐसी जो उसमें लिखी है सब मिलाकर अपनी बात कहना चाहता हूं। 

यह बात सही है कि नाथूराम गोडसे के बयान वाले दिन यानी ८ नवम्बर १९४८ को अदालत में काफी भीड़ थी और गोडसे का बयान सुनते हुए अदालत में मौजूद लोगों की आँखें नम हो गई थी। १० फरवरी १९४९ को गोडसे को फाँसी की सजा सुनाते हुए जस्टिस जीडी खोसला ने लिखा कि .."मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि यदि उस दिन अदालत में उपस्थित दर्शकों को संगठित कर ज्यूरी बना दिया जाता। इसके साथ ही उन्हें नाथूराम गोडसे पर फैसला सुनाने को कहा जाता, तो भारी बहुमत के आधार पर गोडसे 'निर्दोष' (Not Guilty) करार दिया जाता। 

लेकिन मेरी मान्यता है कि इतने भर से गोडसे का अपराध तो कम नहीं हो जाता। यह भी सच है कि गाँधीजी विभाजन को नहीं रोक पाए और विभाजन के बाद और पहले गाँधीजी के कई फैसलों से हम असहमत हो सकते हैं। लेकिन इस असहमति का अर्थ क्या है कि हम जिससे असहमत हैं उसकी हत्या कर दें। यह तो जंगलराज ही होगा। एक तथ्य यह भी है कि गाँधीजी स्वयं इस आजादी से खुश नहीं थे और वह दिल्ली में हुए आजादी के जश्न में शामिल नहीं हुए थे।‌ शायद वे विभाजन को मन से स्वीकार नहीं कर सके थे । इसलिए ऐसी व्यवस्था चाहते थे कि दोनों देशों में बिना पासपोर्ट वीजा के आना-जाना हो सके

यदि आप हिंदुत्व की बात करें तो एक परिभाषा यह भी है - जिसका ह्रदय इंदु यानी चंद्रमा के समान पवित्र है वह हिंदु है। चंद्रमा के समान पवित्र हृदय वाला व्यक्ति तो असहमति पर हत्या नहीं करेगा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ विचारक स्व एमजी वैद्य के एक बयान का मैंने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है। एमजी वैद्य ने कहा है ...'मैं नाथूराम गोडसे का सम्मान करने और उन्हें सम्मान देने के खिलाफ हूँ. वह एक हत्यारा है। इसके आगे वे और भी महत्वपूर्ण बात कहते हैं - 'कुछ लोग कहते हैं कि इससे (गोडसे के महिमामंडन) हिंदुत्व का गौरव बढ़ेगा। नहीं इससे हिंदुत्व का नाम खराब होगा...मैं तो यहां तक कहता हूं कि गांधी की हत्या से हिंदुत्व को नुकसान पहुंचा है।'

वैद्य ने गाँधीजी के विचारों को लेकर असहमति को भी स्वीकारा और कहा, 'महात्मा गांँधी ने अपने जीवनकाल में आजादी के बारे में जागरूकता फैलाई। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम उनकी सभी नीतियों से सहमत हों। लेकिन विचारों की लड़ाई को विचार से लड़ा जाना चाहिए, इसके लिए खून की होली खेलने की इजाजत नहीं दी जा सकती।'

कुछ और तथ्य जिनका पुस्तक में जिक्र है वह भी दोहराना चाहूंगा। महात्मा गाँधी की हत्या की जानकारी मिलने पर गुरु गोलवलकर जी की पहली प्रतिक्रिया थी "यह देश का दुर्भाग्य है।" उन्होंने 13 दिन तक शोक मनाने की घोषणा की।‌ 

इसके बावजूद संघ पर प्रतिबंध लगा। गाँधीजी की हत्या के पाँचवें दिन संघ पर हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगाकर ४ फरवरी १९४८ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

११ जुलाई १९४९ को यह प्रतिबंध उठा लिया गया, जबकि गाँधीजी की हत्या पर अदालत का फैसला संघ से प्रतिबंध हटाने के लगभग ४ महीने बाद ८ नवंबर १९४९ को आया। क्या इसका यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को अपनी गलती का एहसास हो गया था।

 यदि आप गांधी जी की हत्या को लेकर आज भी संघ पर आरोप लगाते हैं या गोडसे को संघ से जोड़ते हैं तो यह सुप्रीम कोर्ट का अपमान है और उस समय की सरकार का अपमान है। संघ तो आज भी रोजाना अपने प्रातः स्मरण में गाँधीजी को याद करता है।

बात यहीं खत्म नहीं होती मैं तो यह पूछना चाहता हूँ कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नाती जीवी केतकर पर गांधी जी की हत्या के षड्यंत्र की जानकारी होने का आरोप लगाते समय लोगों को शर्म नहीं आई क्या? उन पर हत्या के षड्यंत्र की जानकार छिपाने के आधार पर रासुका लगाई गई। इसके बाद एक आयोग बना। आयोग की रिपोर्ट केतकर के साथ सावरकर और संघ को भी निर्दोष साबित करती है।

(फोटो साभार गूगल)