Wednesday, August 26, 2020
Friday, August 14, 2020
न हिंदुओं में जातिवाद होता और न पाकिस्तान बनता
न हिंदुओं में जातिवाद होता और न पाकिस्तान बनता
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आज अखण्ड भारत संकल्प दिवस है। यदि कोई आपसे पूछे कि भारत का 1947 में विभाजन क्यों हुआ ? इसका सीधा जवाब देंगे कि मुस्लिम लीग ने माँग की, अंग्रेजों ने स्वीकार कर ली और तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने मन या बेमन से सहमति दे दी और देश का विभाजन हो गया। लेकिन मेरा तर्क है कि माँग उठने तक की स्थिति तब बनी ना जब एक बङी आबादी ने अपनी पूजा पद्धति बदल ली।
क्या केवल जबरदस्ती ही पंथ परिवर्तन हुआ ? मेरा जवाब है नहीं । हिंदुओं की कमजोरी का फायदा उठाकर पंथ परिवर्तन कराए गए।
मोहम्मद अली जिन्ना की कहानी का यह हिस्सा पढ़ कर आप समझ सकते हैं कि हिंदु जातिवाद ने देश का कितना बङा नुकसान कराया है।हिंदुओं में जातिवाद की कमजोरी का नतीजा जिन्ना के पिता मुस्लिम बने और फिर पाकिस्तान अस्तित्व में आया।
आगे पढिए ...
जिन्ना के पिता मुस्लिम नहीं थे बल्कि उन्होंने नाराजगी में मुस्लिम धर्म ग्रहण किया।
`पाकिस्तान एंड इस्लामिक आइडेंटिटी` में इस बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। जिन्ना का परिवार गुजरात के काठियावाड़ का रहने वाला था। गांधीजी भी इसी क्षेत्र के थे। उनके दादा का नाम प्रेमजीभाई मेघजी ठक्कर था. वो हिंदु थे. वो काठियावाड़ के गांव पनेली के रहने वाले थे। प्रेमजी भाई ने मछली के कारोबार से बहुत पैसा कमाया. वो ऐसे व्यापारी थे, जिनका कारोबार विदेशों में भी था. लेकिन उनके लोहना जाति से ताल्लुक रखने वालों को उनका ये व्यवसाय नापसंद था. लोहना कट्टर तौर शाकाहारी थे और धार्मिक तौर पर मांसाहार से सख्त परहेज करते थे । लोहाना मूल तौर पर वैश्य होते हैं, जो गुजरात, सिंध और कच्छ में होते हैं. कुछ लोहाना राजपूत जाति से भी ताल्लुक रखते हैं।
जब प्रेमजी भाई ने मछली का कारोबार शुरू किया और वो इससे पैसा कमाने लगे तो उनके ही जाति से इसका विरोध होना शुरू हो गया. उनसे कहा गया कि अगर उन्होंने यह बिजनेस बंद नहीं किया तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जाएगा. प्रेमजी ने बिजनेस जारी रखने के साथ जाति समुदाय में लौटने का प्रयास किया लेकिन बात नहीं बनी. उनका बहिष्कार जारी रहा।
इस बहिष्कार के बाद भी प्रेमजी तो लगातार हिंदु बने रहे लेकिन उनके बेटे पुंजालाल ठक्कर को पिता और परिवार का बहिष्कार इतना अपमानजनक लगा कि उन्होंने गुस्से में पत्नी के साथ तब तक हो चुके अपने चारों बेटों का धर्म ही बदल डाला. वो मुस्लिम बन गए. हालांकि प्रेमजी के बाकी बेटे ( यानी जिन्ना के काका ) हिंदु ही रहे. इसके बाद जिन्ना के पिता पुंजालालअपने भाइयों और रिश्तेदारों तक से अलग हो गए. वो काठियावाड़ से कराची चले गए. वहां उनका बिजनेस और फला-फूला. वो इतने समृद्ध व्यापारी बन गए कि उनकी कंपनी का ऑफिस लंदन तक में खुल गया. कहा जाता है कि जिन्ना के बहुत से रिश्तेदार अब भी हिंदु हैं और गुजरात में रहते हैं.
इसके बाद जिन्ना के परिवार के सभी लोग न केवल मुस्लिम हो गए बल्कि इसी धर्म में अपनी पहचान बनाई. हालांकि पिता-मां ने अपने बच्चों की परवरिश खुले धार्मिक माहौल में की. जिसमें हिंदु और मुस्लिम दोनों का प्रभाव था. इसलिए जिन्ना शुरुआत में धार्मिक तौर पर काफी उदारवादी थे. वो लंबे समय तक लंदन में रहे.मुस्लिम लीग में आने से पहले उनके जीने का अंदाज मुस्लिम धर्म से एकदम अलग था. शुरुआती दौर में वो खुद की पहचान मुस्लिम बताए जाने से भी परहेज करते थे। बाद में वो धार्मिक आधार पर ही पाकिस्तान के ऐसे पैरोकार बने कि देश के दो टुकड़े ही करा डाले.
अब जब विचार करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा न हिंदुओं में जातिवाद होता और न पाकिस्तान बनता।
इसी आधार पर विचार करने पर हमें १९४७ से पहले अलग हुए हिस्सों की कहानी में भी हिंदुओं की एकता की कमजोरी समझ आएगी ।
आगे भी खेल जारी है
बहुत कम लोग जानते हैं कि कश्मीर में अलगाव और आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले और देश के अन्य हिस्सों में मुसलमानों को भङकाने वाले नेता तीन चार पीढ़ी पहले हिंदु थे।
सार यह कि हिंदुत्व ही भारत की एकता और अखण्डता की गारंटी है।
अखण्ड भारत ही पूर्ण भारत है और उसकी सीमाएं पाकिस्तान पर समाप्त नहीं होती। जिस दिन लोग हिंदु शब्द का सही अर्थ समझ जाएंगे उस दिन उसे religion से नहीं जोङेंगे। यह हमारी राष्ट्रियता की पहचान होगी। फिर यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका की तर्ज पर यूनाइटेड स्टेट्स आफ हिंदुस्थान (या भारत बनेगा) । या फिर यूरोपियन यूनियन की तरह एक यूनियन बनेगा ।कुल मिलाकर सब देश अलग अलग लेकिन राष्ट्र एक राष्ट्रियता एक ... !
#अखण्ड_भारत_संकल्प_दिवस का संदेश
समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते ।
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव ॥
अर्थ : समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनोंवाली एवं भगवान श्रीविष्णुकी पत्नी हे भूमिदेवी, मैं आपको नमस्कार करता हूं । मेरे पैरों का आपको स्पर्श होगा । इसके लिए आप मुझे क्षमा करें ।
भारत भूमि मेरी माँ है और अखण्ड भारत मेरा सपना नहीं ध्येय है। अखण्ड भारत महज सपना नहीं, श्रद्धा है, निष्ठा है, ध्येय है। और विश्वास है कि इसी जन्म में, इसी देह में , इन्हीं आंखो से इसे पूरा होते हुए देखेंगे।
जिन आंखों ने भारत को भूमि से अधिक माता के रूप में देखा हो, जो स्वयं को इसका पुत्र मानता हो, जो प्रात: उठकर ऊपर उल्लिखित श्लोक के अनुसार वंदन करते और क्षमा माँगते हुए उसकी रज को माथे से लगाता हो, वन्देमातरम् जिनका राष्ट्रघोष और राष्ट्रगान हो, ऐसे असंख्य अंत:करण मातृभूमि के विभाजन की वेदना को कैसे भूल सकते हैं, अखण्ड भारत के संकल्प को कैसे त्याग सकते हैं?.....
#भारतमाताकीजय
- मनोज जोशी
(फोटो - गूगल साभार)
Wednesday, August 12, 2020
पुरानी गलतियाँ सुधार कर युवाओं के समग्र विकास का खाका है राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
पुरानी गलतियाँ सुधार कर युवाओं के समग्र विकास का खाका है राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
मनोज जोशी
पिछले महीने केन्द्र सरकार ने नई शिक्षा नीति घोषित कर दी। विद्यार्थी परिषद के कारण छात्र राजनीति मे सक्रिय रहने से शिक्षा क्षेत्र हमेशा ही पसंदीदा विषय है, लेकिन यह शिक्षा नीति ऐसे समय आई जब मेरा मन अयोध्या के राम जन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास की तैयारियों में लगा हुआ था।
शिक्षा नीति घोषित होते ही अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में मैंने संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने का स्वागत किया था। संस्कृत भविष्य की कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा है। यदि हमने हमारी अगली पीढ़ी को संस्कृत नहीं सिखाई तो भविष्य हमारे हाथ से खिसक जाएगा । दूसरी बात मैंने शिक्षा व्यय को जीडीपी का ६ प्रतिशत किए जाने पर कहा था कि इसे १० प्रतिशत तक बढ़ाया जाना होगा। अभी तो यह केवल २ प्रतिशत है इसलिए ६ प्रतिशत का स्वागत स
रामजी के उत्सव के बाद पिछले दो - तीन दिन में शिक्षा नीति के अध्ययन में मेरी पहली पूर्ण प्रतिक्रिया तो यही है कि नई शिक्षा नीति पुरानी गलतियाँ सुधार कर युवाओं के समग्र विकास का खाका है।
स्कूली शिक्षा के साथ ही उच्च शिक्षा में भी समयानुकूल बदलाव किए गए हैं । छह साल तक शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, विचारकों, शिक्षा क्षेत्र का वास्तविक नेतृत्व करने वालों, शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत प्रशासकीय अधिकारियों और अन्य संबंधित पक्षों से सलाह मशविरा और चर्चा करके नीति को अंतिम रूप दिया गया है। संभवतः यही वजह है कि नीति में शिक्षा क्षेत्र में सुधार का एक व्यापक रूप दिखाई देता है, साथ ही देश के संघीय ढांचे और संविधान का ध्यान रखते हुए इसमें कोई भी बात थोपी नहीं गई है। स्थानीय और मातृ भाषा में शिक्षा की बात नीति में की गई है। इसे लेकर वामपंथी हल्ला मचा रहे हैं। पहली बात तो यह कि विश्व के अनेक संपन्न देशों में प्राथमिक शिक्षा तो क्या पूरी पढ़ाई ही मातृ भाषा में है। फिर भारत में क्यों नहीं ? हमारे देश की सभी भाषाओं पर संस्कृत का प्रभाव है इसलिए हर भाषा अपने आप में परिपूर्ण है। यदि प्रयास किया जाए तो इन भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जा सकता है। दूसरी बात यह कि मातृ भाषा में पढ़ाई का विकल्प दिया गया है, यानी वह जरुरी नहीं है। संविधान की भावना का ध्यान रखते हुए इसे राज्यों पर छोङा गया है। शिक्षा नीति में संगीत, कला, खेल, विज्ञान, कॉमर्स आदि विषयों को रुचि अनुसार पढ़ने के पर्याप्त अवसर हैं। विद्यार्थी के व्यक्तित्व एवं कौशल विकास के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास का भी पर्याप्त अवसर इस शिक्षा नीति में नजर आ रहा है। निजी शैक्षणिक संस्थाओं की फीस पर नियंत्रण विद्यार्थियों के साथ अभिभावकों के लिए भी राहत की बात है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रमुख बिन्दुओं की बात करें तो स्कूली शिक्षा के ढांचे में परिवर्तन कर उसे 5+3+3+4 बना कर उसे व्यावसायिक शिक्षा के साथ जोड़ा गया है।
Early Childhood Care and Education- ECCE देश में 10 लाख आंगनबाड़ी केन्द्रों के माध्यम से लगभग 7 करोड़ बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने में सहायक होगी।पढाई पूरी किए बिना मजबूरी में स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति पर रोक के लिए औपचारिक तथा अनौपचारिक रास्ते खोलने की नयी व्यवस्था इस शिक्षा नीति का एक महत्वपूर्ण बिंदु है जो देश में एक बङा परिवर्तन लाएगा।
छात्र के मूल्यांकन के तरीके में होने वाले नए प्रयोग के अच्छे परिणाम की उम्मीद की जाना चाहिए ।
यदि उच्च शिक्षा की बात करें तो उच्च शिक्षा में भी कई परिवर्तनों की लंबे समय से जरुरत महसूस की जा रही थी। स्नातक स्तर के चार वर्षीय पाठ्यक्रम में एक से अधिक प्रवेश-निर्गम बिन्दु दिए जा रहे हैं, नियामक संस्थाओं का विलय कर एक सशक्त नियामक संस्थान का गठन किया जाना भी एक जरूरी बदलाव है ।
अब शिक्षा क्षेत्र से जुड़े सभी व्यक्तियों और संगठनों को शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में अपनी भूमिका निभाना होगी।केन्द्र सरकार के साथ राज्य सरकारों के बेहतर समन्वय से ही देश शिक्षा क्षेत्र के नए लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है।
Tuesday, August 11, 2020
५००० वर्ष पहले स्त्रियों को अधिकार दिलाने वाले श्रीकृष्ण
५००० वर्ष पहले स्त्रियों को अधिकार दिलाने वाले श्रीकृष्ण
आज कृष्ण जन्माष्टमी है। यानी कृष्ण का जन्मोत्सव है।
३११२ ईसा पूर्व इस पृथ्वी पर आए श्रीकृष्ण एक राजनीतिक, आध्यात्मिक और योद्धा थे वे हर तरह की विद्याओं में पारंगत थे। श्रीकृष्ण ने धर्म, राजनीति, समाज के व्यावहारिक नीति-नियम बनाए। लेकिन आप थोड़ी देर के लिए भूल जाइए कि कृष्ण कोई देवता या अवतार हैं । केवल उनके जीवन और कार्यों को सामान्य व्यक्ति की तरह देखिए। आप पाएंगे कि श्रीकृष्ण ने महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने का अद्वितीय कार्य किया।
जेल में जन्म हुआ , जन्म होते ही जान पर संकट आ गया। फिर जिस माँ ने जन्म दिया वह छूट गई और पालने वाली माँ दूसरी ...! शायद इन विपरीत परिस्थितियों में लालन- पालन के कारण ही कृष्ण महिलाओं के अधिकार को लेकर बहुत संवेदनशील थे। गीता का ज्ञान समझना तो आम आदमी के बस की बाता नहीं लेकिन मुझे लगता है कि महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता और उनके अधिकारों के लिए की गई पहल के ही कारण श्रीकृष्ण ५००० से अधिक वर्ष बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं ।
१६ हजार महिलाओं को मुक्त कराया
श्रीकृष्ण इस पृथ्वी पर अब तक के सबसे बङे स्त्री संरक्षक हैं । कृष्ण की जिन 16 हजार पटरानियों का जिक्र किया जाता है दरअसल वे सभी भौमासर जिसे नरकासुर भी कहते हैं के यहां बंधक बनाई गई महिलाएं थीं जिनको श्रीकृष्ण ने मुक्त कराया था।
यह अकेला उदाहरण नहीं है , बल्कि श्रीकृष्ण की छोटी बहन सुभद्रा के विवाह की भी कहानी भी एक बहन को उसकी पसंद का वर चुनने की आजादी की कहानी है। कृष्ण के बड़े भाई बलराम (दाऊ) ने सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से तय कर दिया। इस विवाह में अर्जुन भी द्रोपदी संग आए थे। विवाह के लिए जाते वक्त सुभद्रा और अर्जुन की मुलाकात हुई और यहीं उन्होंने एक-दूसरे से विवाह करने का मन बना लिया। यह बात अर्जुन ने कृष्ण को बताई। इस पर उन्होंने कहा कि बलराम भैया इसके लिए तैयार नहीं होंगे। कृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम सुभद्रा का हरण कर लो। लेकिन रथ सुभद्रा से चलवाओ ताकि वे दाऊ से कह सकें अर्जुन ने सुभद्रा का नहीं बल्कि सुभद्रा ने अर्जुन का हरण किया है क्योंकि वह अर्जुन को पसंद करती है।
रुक्मिणी और कृष्ण के विवाह की कहानी भी महिला सम्मान की ही कहानी है । देवी रुक्मिणी विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री थी। उनका पूरा बचपन श्रीकृष्ण की साहस और वीरता की कहानियां सुनते हुए बीता था। लेकिन इनके पिता और भाई का संबंध जरासंध, कंस और शिशुपाल से था। इस वजह से वे वे श्रीकृष्ण से रुक्मिणी का विवाह नहीं करवाना चाहते थे। जब रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से तय कर दिया गया तो उन्होंने पत्र लिखकर अपनी सहेली सुनन्दा के हाथ श्रीकृष्ण के पास भेज दिया। पत्र पढ़कर श्रीकृष्ण को समझ आया कि रुक्मिणीजी संकट में हैं। शिशुपाल बारात लेकर रुक्मिणीजी के द्वार आए और श्रीकृष्ण ने अपने भाई बलराम की मदद से रुक्मिणीजी का अपहरण कर लिया।
Thursday, August 6, 2020
इस मंदिर के पूर्ण होने पहले हमारा मन मंदिर बनकर तैयार रहना चाहिए.
Wednesday, August 5, 2020
अयोध्या का आंदोलन और राजीव गांधी
Tuesday, August 4, 2020
एक सशक्त व गौरवशाली भारत का आधार बनेगा अयोध्या में राम मंदिर
एक सशक्त व गौरवशाली भारत का आधार बनेगा अयोध्या में राम मंदिर
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लेकर करीब 492 साल से चल रहा संघर्ष का सुखद अंत होने जा रहा है। अयोध्या में राम मंदिर का पुनर्निमाण एक सशक्त और गौरवशाली भारत के पुनर्निमाण का आधार बनेगा। यह मंदिर इस बात का प्रमाण है कि जब कोई समाज अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करने के लिए उठ खड़ा होता है तो दुनिया की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती।
राष्ट्रीयता का गौरव किसी भी देश के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरक तत्व होता है परंतु, विभाजनकारी तुष्टीकरण की राजनीति के कारण भारत की राष्ट्रीयता की परिभाषा भ्रमित कर दी गई थी। अब भारत की राष्ट्रीयता को किसी विदेशी आक्रांता से नहीं जोड़ा जा सकता।
एक विदेशी आक्रांता बाबर द्वारा निर्मित स्मृतियों को ढहा कर राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक भगवान राम का मंदिर बनाने के लिए हिंदू समाज ने निरंतर संघर्ष किए हैं। 1984 से प्रारंभ हुए आंदोलन में तीन लाख से अधिक गांवों के साथ 16 करोड़ राम भक्तों ने भाग लिया। 9 नवंबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय देने तक यह संघर्ष निरंतर चलता रहा। इस अद्वितीय अभियान का ही परिणाम था कि राष्ट्रीय शर्म का प्रतीक बाबरी ढांचा 6 दिसंबर 1992 को ढहा दिया गया। प्रश्न यह है कि आखिर एक मंदिर राष्ट्र के पुनर्निर्माण का आधार कैसे बन सकता है? या यह भी पूछा जा सकता है कि आखिर एक मंदिर के निर्माण की इतनी जिद क्यों थी?
आइए सिलसिलेवार बात शुरू करते हैं। और मैं अपने अनुभव से ही शुरू करता हूं। 1988 में हायर सेकेंडरी पास करने के बाद कैरियर से संबंधित एक मसले पर आंदोलन चलाने की बात दिमाग में आई( हम वह पीढ़ी हैं जिसने स्कूल- कॉलेजों में आंदोलन और हड़ताल देखीं हैं और बाद में कराईं भी) लेकिन तब किसी संगठन से कोई जुड़ाव नहीं था। आंदोलन के लिए समर्थन जुटाते- जुटाते विद्यार्थी परिषद से जुड़ गए। छोटे से प्रयास से ही वह मुद्दा समाप्त हो गया। लेकिन विद्यार्थी परिषद का संगठन पसंद आ गया। और उसी समय अयोध्या का यह आंदोलन अपने चरम पर था। आचार्य गिरिराज किशोर, अशोक सिंघल जी, साध्वी ऋतंभरा जी, साध्वी उमा भारती जी आदि की सभाएं और उन सभाओं की ऑडियो कैसेट अयोध्या पर पुस्तकें, लेख आदि सुनते पढ़ते थे।
इतने वर्षों बाद भी उन भाषण के कुछ अंश भुलाए नहीं जा सकते। मंच से बताया जाता था - ‘यह शाही फरमान एक प्रसिद्ध पत्रिका ‘मार्डन रिव्यू’ के जुलाई 1924 के अंक में इस तरह छपा था – ‘शहंशाह हिन्द मुस्लिम मालिकुल जहां बादशाह बाबर के हुक्म व हजरत जलालशाह के हुक्म के बमूजिब अयोध्या में राम जन्मभूमि को मिसार करके उसके जगह उसी के मलबे व मसाले से मस्जिद तामीर करने की इजाजत दे दी गई है। बजरिए इस हुक्मनामे के तुम को इत्तिला किया जाता है कि हिन्दुस्तान के किसी भी सूबे से कोई हिन्दू अयोध्या न आने पाए’। हिन्दुओं ने मीरबांकी की विशाल सेना की ईंट से ईंट बजा दी. जमकर संघर्ष हुआ, मंदिर के पुजारी, साधु संत, निकटवर्ती राजाओं के सैनिक और साधारण नागरिक सभी ने मंदिर की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी। कई लेखकों ने इस बात का उल्लेख किया कि अंग्रेज इतिहासकार और मीरबांकी के प्रशासनिक अधिकारी हेमिल्टन ने इस जालिम मुगल सेनापति के कुकृत्यों का परिचय बाराबंकी के गजेटियर में इस प्रकार दिया है – ‘जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बनाकर लखौरी ईंटों को मस्जिद की नींव में लगा दिया। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम ने लिखा है -‘जन्मभूमि के गिराए जाने के समय हिन्दुओं ने अपनी जान की बाजी लगा दी और 1लाख 73 हजार लाशें गिर जाने के बाद ही मीरबांकी मंदिर को तोप से गिराने में सफल हो सका।’ इतने खून-खराबे के बाद बाबर ने मंदिर के स्वरूप को बिगाड़कर जो मस्जिदनुमा ढांचा खड़ा कर दिया था, उसे हिन्दुओं ने कभी स्वीकार नहीं किया।श्रीराम जन्मभूमि के स्थान पर मंदिर का पुनर्निर्माण करने के लिए हिन्दू समाज ने 76 बार आक्रमण करके 4 लाख से भी ज्यादा बलिदान दिए।
हर भाषण में कम से कम यह तो साफ था कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और योगेश्वर कृष्ण कोई मिथक या किसी कहानीकार की कल्पना नहीं हैं। वे हमारे इतिहास पुरुष हैं। हमारे पूर्वज हैं। हमारे पूर्वज उनके जन्म स्थान पर नहीं पूजे जाएंगे तो कहां पूजे जाएंगे?
नारा लगता था-
राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे।
यह नारा अयोध्या की विवादित जमीन को लेकर था। सरकार ढांचे के पास की जमीन देने को राजी थी। लेकिन आंदोलन के नेतृत्व का कहना था जिस स्थान पर हुआ, हम ठीक उसी स्थान पर मंदिर बनाएंगे। लेकिन आपको कैसे पता कि जन्म यहीं हुआ था? 500 वर्ष पूर्व जिस मंदिर को खंडित किया गया था, उसके गर्भ गृह को ही जन्म स्थान के रूप में मान्यता है इसलिए मंदिर वहीं बनाएंगे।
1989 में भूमि पूजन का सच क्या है?
1989 में राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे। विश्व हिंदू परिषद मंदिर का शिलान्यास करना चाहती थी। काफी दबाव और अशोक सिंघल जी के प्रभाव में राजीव गांधी ने इसकी इजाजत दे दी। लेकिन शिलान्यास विवादित स्थल से दूर हुआ। इसमें राजीव गांधी के शामिल होने की बात गलत है। जिस स्थान पर शिलान्यास हुआ वहां सिंहद्वार का निर्माण होगा। इसलिए उसे सिंहद्वार का शिलान्यास माना गया।
क्या अब 500 वर्षों में देश में शांति की खातिर उस स्थान के आसपास मंदिर नहीं बना सकते थे?
यह सबसे महत्वपूर्ण है। जिस तरह से मुगल शासक ने उस मंदिर को तोड़ा था और उसके बाद जिस तरह हमारे पूर्वजों ने इसके लिए संघर्ष किया। इसलिए ठीक उस स्थान पर पुन: मंदिर का निर्माण हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है। हम हमारे पूर्वजों के खोए सम्मान को पाना चाहते हैं। वर्तमान मुस्लिम भी भारत के नागरिक उनके और हमारे पूर्वज एक हैं। भारत के मुसलमानों के पूर्वज मुगल नहीं हैं। पूजा पद्धति बदल जाने से पूर्वज नहीं बदलते। यदि इतिहास के किसी कालखण्ड में कोई गलती हुई है तो उसे सुधारा जाना चाहिए। मुस्लिम समाज को यह समझाने की कोशिश की गई कि यदि वे हिंदुओं को उनके आराध्य का स्थल लौटा देंगे तो दोनों समुदायों के बीच सौहार्द्र बढ़ेगा। लेकिन कट्टरपंथियों और राजनीति ने यह होने नहीं दिया। भारत में मुगल और अंग्रेजों की 1000 साल की गुलामी में अपना सांस्कृतिक गौरव खो चुके सोए हुए हिंदू समाज को भी नींद से जगाना आसान नहीं था। हिंदू समाज को षड्यंत्रपूर्वक न केवल काल्पनिक आधारों पर बांटा गया बल्कि हिंदुओं में एक हीन भावना का निर्माण भी किया गया। इस आंदोलन ने इसे समाप्त कर दिया है। जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र आदि से ऊपर उठकर हिंदू संगठित हुआ है। इसी स्वाभिमान, आत्मविश्वास व राष्ट्रीय गौरव के परिणाम स्वरूप भारत में विभाजनकारी राजनीति जीवन के सभी क्षेत्रों से लुप्त होती जा रही है।
संपूर्ण देश अब आत्मविश्वास से परिपूर्ण होकर हर क्षेत्र में कल्याणकारी परिवर्तन ला रहा है। भगवान राम से बढ़कर राष्ट्रपुरुष कौन हो सकता है? इसे स्वयं देश के संविधान ने स्वीकार किया है। राष्ट्र पुरुषों की प्रेरक गाथाएं ही इस को परिभाषित करती हैं। । भगवान राम के मंदिर का शीर्ष कलश स्थापित होने तक सभी विभाजनकारी तत्व पूर्ण रूप से निरर्थक व निष्तेज हो जाएंगे और आत्म गौरव स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास से युक्त एक नए भारत का संकल्प साकार होगा।
अयोध्या में राम मंदिर बनने और अंतिम बार तोड़े जाने तक का इतिहास
इतिहासकारों के अनुसार कौशल प्रदेश की प्राचीन राजधानी अवध को कालांतर में अयोध्या और बौद्धकाल में साकेत कहा जाने लगा। अयोध्या मूल रूप से मंदिरों का शहर था। हालांकि यहां आज भी हिन्दू, बौद्ध एवं जैन धर्म से जुड़े मंदिरों के अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहां आदिनाथ सहित 5 तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। बौद्ध मत के अनुसार यहां भगवान बुद्ध ने कुछ माह विहार किया था।
अयोध्या को भगवान श्रीराम के पूर्वज विवस्वान (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु ने बसाया था, तभी से इस नगरी पर सूर्यवंशी राजाओं का राज महाभारतकाल तक रहा। यहीं पर प्रभु श्रीराम का दशरथ के महल में जन्म हुआ था। महर्षि वाल्मीकि ने भी रामायण में जन्मभूमि की शोभा एवं महत्ता की तुलना दूसरे इन्द्रलोक से की है। धन-धान्य व रत्नों से भरी हुई अयोध्या नगरी की अतुलनीय छटा एवं गगनचुंबी इमारतों के अयोध्या नगरी में होने का वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में मिलता है।
कहते हैं कि भगवान श्रीराम के पश्चात अयोध्या कुछ काल के लिए उजाड़-सी हो गई थी, लेकिन उनकी जन्मभूमि पर बना महल बरकरार था। भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार पुन: राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया। इस निर्माण के बाद सूर्यवंश की 44 वीं पीढ़ी के महाराजा बृहद्बल तक अपने चरम पर रहा। कौशलराज बृहद्बल की मृत्यु महाभारत युद्ध में अभिमन्यु के हाथों हुई थी। महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड़-सी हो गई, मगर श्रीराम जन्मभूमि का अस्तित्व फिर भी बना रहा।
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ईसा के लगभग 100 वर्ष पूर्व उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य एक दिन आखेट करते-करते अयोध्या पहुंच गए। थकान होने के कारण अयोध्या में सरयू नदी के किनारे एक आम के वृक्ष के नीचे वे अपनी सेना सहित आराम करने लगे। उस समय यहां घना जंगल हो चला था। कोई बसावट नहीं थी। महाराज विक्रमादित्य को इस भूमि में कुछ चमत्कार दिखाई देने लगे। तब उन्होंने खोज आरंभ की और पास के योगी व संतों की कृपा से उन्हें ज्ञात हुआ कि यह श्रीराम की अवध भूमि है। उन संतों के निर्देश से सम्राट ने यहां एक भव्य मंदिर के साथ ही कूप, सरोवर, महल आदि बनवाए। उन्होंने श्रीराम जन्मभूमि पर काले रंग के कसौटी पत्थर वाले 84 स्तंभों पर विशाल भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था।
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विक्रमादित्य के बाद के राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर की देख-रेख की। उन्हीं में से एक शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र शुंग ने भी मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। पुष्यमित्र का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के किए जाने का वर्णन है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय और तत्पश्चात काफी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघुवंश में कई बार उल्लेख किया है।
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600 ईसा पूर्व अयोध्या में एक महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र था। इस स्थान को अंतरराष्ट्रीय पहचान 5वीं शताब्दी में ईसा पूर्व के दौरान तब मिली जबकि यह एक प्रमुख बौद्ध केंद्र के रूप में विकसित हुआ। तब इसका नाम साकेत था। कहते हैं कि चीनी भिक्षु फा-हियान ने यहां देखा कि कई बौद्ध मठों का रिकॉर्ड रखा गया है। यहां पर 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री हेनत्सांग आया था। उसके अनुसार यहां 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3,000 भिक्षु रहते थे और यहां हिन्दुओं का एक प्रमुख और भव्य मंदिर भी था, जहां रोज हजारों की संख्या में लोग दर्शन करने आते थे।
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इसके बाद ईसा की 11वीं शताब्दी में कन्नौज नरेश जयचंद आया तो उसने मंदिर पर सम्राट विक्रमादित्य के प्रशस्ति शिलालेख को उखाड़कर अपना नाम लिखवा दिया। पानीपत के युद्ध के बाद जयचंद का भी अंत हो गया। इसके बाद भारतवर्ष पर आक्रांताओं का आक्रमण और बढ़ गया। आक्रमणकारियों ने काशी, मथुरा के साथ ही अयोध्या में भी लूटपाट की और पुजारियों की हत्या कर मूर्तियां तोड़ने का क्रम जारी रखा। लेकिन 14वीं सदी तक वे अयोध्या में राम मंदिर को तोड़ने में सफल नहीं हो पाए।
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विभिन्न आक्रमणों के बाद भी सभी झंझावातों को झेलते हुए श्रीराम की जन्मभूमि पर बना भव्य मंदिर 14वीं शताब्दी तक बचा रहा। कहते हैं कि सिकंदर लोदी के शासनकाल के दौरान यहां मंदिर मौजूद था। 14वीं शताब्दी में हिन्दुस्तान पर मुगलों का अधिकार हो गया और उसके बाद ही राम जन्मभूमि एवं अयोध्या को नष्ट करने के लिए कई अभियान चलाए गए। अंतत: 1527-28 में इस भव्य मंदिर को तोड़ दिया गया और उसकी जगह बाबरी ढांचा खड़ा किया गया।
बाबरनामा के अनुसार 1528 में अयोध्या पड़ाव के दौरान बाबर ने मस्जिद निर्माण का आदेश दिया था। अयोध्या में बनाई गई मस्जिद में खुदे दो संदेशों से इसका संकेत भी मिलता है। इसमें एक खासतौर से उल्लेखनीय है। इसका सार है, 'जन्नत तक जिसके न्याय के चर्चे हैं, ऐसे महान शासक बाबर के आदेश पर दयालु मीर बकी ने फरिश्तों की इस जगह को मुकम्मल रूप दिया।’