Friday, August 14, 2020

न हिंदुओं में जातिवाद होता और न पाकिस्तान बनता



 

न हिंदुओं  में जातिवाद होता और न पाकिस्तान बनता

- मनोज जोशी 


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आज अखण्ड भारत संकल्प दिवस है। यदि कोई आपसे पूछे कि भारत का 1947 में विभाजन क्यों हुआ ? इसका सीधा जवाब देंगे कि मुस्लिम लीग ने माँग की, अंग्रेजों ने स्वीकार कर ली और तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने मन या बेमन से सहमति दे दी और देश का विभाजन हो गया। लेकिन मेरा तर्क  है कि माँग उठने तक की स्थिति तब बनी ना जब एक बङी आबादी ने अपनी पूजा पद्धति बदल ली।

क्या केवल जबरदस्ती ही पंथ परिवर्तन हुआ ? मेरा जवाब है नहीं । हिंदुओं की कमजोरी का फायदा उठाकर पंथ परिवर्तन कराए गए। 

मोहम्मद अली जिन्ना की कहानी का यह हिस्सा पढ़ कर आप समझ सकते हैं कि हिंदु जातिवाद ने देश का कितना बङा नुकसान कराया है।हिंदुओं में जातिवाद की कमजोरी का नतीजा जिन्ना के पिता मुस्लिम बने और फिर पाकिस्तान अस्तित्व में आया।

आगे पढिए ...


जिन्ना के पिता मुस्लिम नहीं  थे बल्कि उन्होंने नाराजगी में मुस्लिम धर्म ग्रहण किया। 


`पाकिस्तान एंड इस्लामिक आइडेंटिटी` में इस बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। जिन्ना का परिवार  गुजरात के काठियावाड़ का रहने वाला था। गांधीजी भी इसी क्षेत्र के थे।  उनके  दादा का नाम प्रेमजीभाई मेघजी ठक्कर था. वो हिंदु थे. वो काठियावाड़ के गांव पनेली के रहने वाले थे। प्रेमजी भाई ने मछली के कारोबार से बहुत पैसा कमाया. वो ऐसे व्यापारी थे, जिनका कारोबार विदेशों में भी था. लेकिन उनके लोहना जाति से ताल्लुक रखने वालों को उनका ये व्यवसाय  नापसंद था. लोहना कट्टर तौर शाकाहारी थे और धार्मिक तौर पर मांसाहार से सख्त परहेज करते थे । लोहाना मूल तौर पर वैश्य होते हैं, जो गुजरात, सिंध और कच्छ में होते हैं. कुछ लोहाना राजपूत जाति से भी ताल्लुक रखते हैं।


 जब प्रेमजी भाई ने मछली का कारोबार शुरू किया और वो इससे पैसा कमाने लगे तो उनके ही जाति से इसका विरोध होना शुरू हो गया. उनसे कहा गया कि अगर उन्होंने यह बिजनेस बंद नहीं किया तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जाएगा. प्रेमजी ने बिजनेस जारी रखने के साथ जाति समुदाय में लौटने का प्रयास किया लेकिन बात नहीं बनी. उनका बहिष्कार जारी रहा।


इस बहिष्कार के बाद भी प्रेमजी तो लगातार हिंदु बने रहे लेकिन उनके बेटे पुंजालाल ठक्कर को पिता और परिवार का बहिष्कार इतना अपमानजनक लगा कि उन्होंने गुस्से में पत्नी के साथ तब तक हो चुके अपने चारों बेटों का धर्म ही बदल डाला. वो मुस्लिम बन गए. हालांकि प्रेमजी के बाकी बेटे ( यानी जिन्ना के काका )  हिंदु ही रहे. इसके बाद जिन्ना के पिता पुंजालालअपने भाइयों और रिश्तेदारों तक से अलग हो गए. वो काठियावाड़ से कराची चले गए. वहां उनका बिजनेस और फला-फूला. वो इतने समृद्ध व्यापारी बन गए कि उनकी कंपनी का ऑफिस लंदन तक में खुल गया. कहा जाता है कि जिन्ना के बहुत से रिश्तेदार अब भी हिंदु हैं और गुजरात में रहते हैं.


इसके बाद जिन्ना के परिवार के सभी लोग न केवल मुस्लिम हो गए बल्कि इसी धर्म में अपनी पहचान बनाई. हालांकि पिता-मां ने अपने बच्चों की परवरिश खुले धार्मिक माहौल में की. जिसमें हिंदु और मुस्लिम दोनों का प्रभाव था. इसलिए जिन्ना शुरुआत में धार्मिक तौर पर काफी  उदारवादी थे. वो लंबे समय तक लंदन में रहे.मुस्लिम लीग में आने से पहले उनके जीने का अंदाज मुस्लिम धर्म से एकदम अलग था. शुरुआती दौर में वो खुद की पहचान मुस्लिम बताए जाने से भी परहेज करते थे। बाद में वो धार्मिक आधार पर ही पाकिस्तान के ऐसे पैरोकार बने कि देश के दो टुकड़े ही करा डाले.


अब जब विचार करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा न हिंदुओं में जातिवाद होता और न पाकिस्तान बनता।


इसी आधार पर विचार करने पर हमें १९४७ से पहले अलग हुए हिस्सों की कहानी में भी हिंदुओं की एकता की कमजोरी समझ आएगी । 

आगे भी खेल जारी है

बहुत कम लोग जानते हैं कि कश्मीर में अलगाव और आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले और देश के अन्य हिस्सों में मुसलमानों को भङकाने वाले नेता तीन चार पीढ़ी पहले हिंदु थे।

सार यह कि हिंदुत्व ही भारत की एकता और अखण्डता की गारंटी है। 

अखण्ड भारत ही पूर्ण  भारत है और उसकी सीमाएं पाकिस्तान पर समाप्त नहीं होती। जिस दिन लोग हिंदु शब्द का सही अर्थ समझ जाएंगे उस दिन उसे religion से नहीं जोङेंगे। यह हमारी राष्ट्रियता की पहचान होगी। फिर यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका की तर्ज पर यूनाइटेड स्टेट्स आफ हिंदुस्थान (या भारत बनेगा) ।  या फिर यूरोपियन यूनियन की तरह एक यूनियन बनेगा ।कुल मिलाकर सब देश अलग अलग लेकिन राष्ट्र एक राष्ट्रियता एक ... !

#अखण्ड_भारत_संकल्प_दिवस का संदेश 


समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते ।

विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव ॥


अर्थ : समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनोंवाली एवं भगवान श्रीविष्णुकी पत्नी हे भूमिदेवी, मैं आपको नमस्कार करता हूं । मेरे पैरों का आपको स्पर्श होगा । इसके लिए आप मुझे क्षमा करें ।


भारत भूमि मेरी माँ है और अखण्ड भारत मेरा सपना नहीं ध्येय है। अखण्ड भारत महज सपना नहीं, श्रद्धा है, निष्ठा है, ध्येय है। और विश्वास है कि इसी जन्म में, इसी देह में , इन्हीं आंखो से इसे पूरा होते हुए देखेंगे।

जिन आंखों ने भारत को भूमि से अधिक माता के रूप में देखा हो, जो स्वयं को इसका पुत्र मानता हो, जो प्रात: उठकर ऊपर उल्लिखित श्लोक के अनुसार वंदन करते और क्षमा माँगते हुए उसकी रज को माथे से लगाता हो, वन्देमातरम् जिनका राष्ट्रघोष और राष्ट्रगान हो, ऐसे असंख्य अंत:करण मातृभूमि के विभाजन की वेदना को कैसे भूल सकते हैं, अखण्ड भारत के संकल्प को कैसे त्याग सकते हैं?.....

#भारतमाताकीजय

- मनोज जोशी

(फोटो - गूगल साभार)

Wednesday, August 12, 2020

पुरानी गलतियाँ सुधार कर युवाओं के समग्र विकास का खाका है राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

पुरानी गलतियाँ सुधार कर युवाओं के समग्र विकास का खाका है राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 


मनोज जोशी



पिछले महीने केन्द्र सरकार ने नई शिक्षा नीति घोषित कर दी। विद्यार्थी परिषद के कारण छात्र राजनीति मे सक्रिय रहने से शिक्षा क्षेत्र हमेशा ही पसंदीदा विषय है, लेकिन यह शिक्षा नीति ऐसे समय आई जब मेरा मन अयोध्या के राम जन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास की तैयारियों में लगा हुआ था। 

शिक्षा नीति घोषित होते ही अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में मैंने संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने का स्वागत किया था। संस्कृत भविष्य की कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा है। यदि हमने हमारी अगली पीढ़ी को संस्कृत नहीं सिखाई तो भविष्य हमारे हाथ से खिसक जाएगा । दूसरी बात मैंने शिक्षा व्यय को जीडीपी का ६ प्रतिशत किए जाने पर कहा था कि इसे १० प्रतिशत तक बढ़ाया जाना होगा। अभी तो यह केवल २ प्रतिशत है इसलिए ६ प्रतिशत का स्वागत स

रामजी के उत्सव के बाद पिछले दो - तीन दिन में शिक्षा नीति के अध्ययन में मेरी पहली पूर्ण  प्रतिक्रिया तो यही है कि नई शिक्षा नीति पुरानी गलतियाँ सुधार कर युवाओं के समग्र विकास का खाका है। 

स्कूली शिक्षा के साथ ही उच्च शिक्षा में भी समयानुकूल बदलाव किए गए हैं । छह साल तक शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, विचारकों, शिक्षा क्षेत्र का वास्तविक नेतृत्व करने वालों, शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत प्रशासकीय अधिकारियों और अन्य संबंधित पक्षों से सलाह मशविरा और चर्चा करके नीति को अंतिम रूप दिया गया है। संभवतः यही वजह है कि नीति में शिक्षा क्षेत्र में सुधार का एक व्यापक रूप दिखाई देता है, साथ ही देश के संघीय ढांचे और संविधान का ध्यान रखते हुए इसमें कोई भी बात थोपी नहीं गई है। स्थानीय और मातृ भाषा में शिक्षा की बात नीति में की गई है। इसे लेकर वामपंथी हल्ला मचा रहे हैं। पहली बात तो यह कि विश्व के अनेक संपन्न देशों में प्राथमिक शिक्षा तो क्या पूरी पढ़ाई ही मातृ भाषा में है। फिर भारत में क्यों नहीं ?  हमारे देश की सभी भाषाओं पर संस्कृत का प्रभाव है इसलिए हर भाषा अपने आप में परिपूर्ण है। यदि प्रयास किया जाए तो इन भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जा सकता है। दूसरी बात यह कि मातृ भाषा में  पढ़ाई का विकल्प दिया गया है, यानी वह जरुरी नहीं है। संविधान की भावना का ध्यान रखते हुए  इसे राज्यों पर छोङा गया है। शिक्षा नीति में संगीत, कला, खेल, विज्ञान, कॉमर्स आदि विषयों को रुचि अनुसार पढ़ने के पर्याप्त  अवसर हैं। विद्यार्थी के व्यक्तित्व एवं कौशल विकास के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास का भी पर्याप्त अवसर इस शिक्षा नीति में नजर आ रहा है। निजी शैक्षणिक संस्थाओं की फीस पर नियंत्रण विद्यार्थियों के साथ अभिभावकों के लिए भी राहत की बात है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रमुख बिन्दुओं की बात करें तो स्कूली  शिक्षा के ढांचे में  परिवर्तन कर उसे 5+3+3+4 बना कर उसे व्यावसायिक शिक्षा के साथ जोड़ा गया  है।

Early Childhood Care and Education- ECCE  देश में 10 लाख आंगनबाड़ी केन्द्रों के माध्यम से  लगभग 7 करोड़ बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने में सहायक होगी।पढाई पूरी किए बिना मजबूरी में स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति पर रोक के लिए औपचारिक तथा अनौपचारिक रास्ते खोलने की नयी व्यवस्था इस शिक्षा नीति का एक महत्वपूर्ण बिंदु है जो देश में एक बङा परिवर्तन लाएगा। 

 छात्र के मूल्यांकन के तरीके में  होने वाले नए प्रयोग के अच्छे परिणाम की उम्मीद की जाना चाहिए ।

यदि उच्च शिक्षा की बात करें तो उच्च शिक्षा में भी कई परिवर्तनों की लंबे समय से जरुरत महसूस की जा रही थी।  स्नातक स्तर के चार वर्षीय पाठ्यक्रम में एक से अधिक प्रवेश-निर्गम बिन्दु दिए जा रहे हैं, नियामक संस्थाओं का विलय कर एक सशक्त नियामक संस्थान का गठन किया जाना भी एक  जरूरी बदलाव है ।

अब शिक्षा क्षेत्र से जुड़े  सभी व्यक्तियों और संगठनों  को शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में अपनी भूमिका निभाना होगी।केन्द्र सरकार के साथ राज्य सरकारों के बेहतर समन्वय से ही देश शिक्षा क्षेत्र के नए लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है।


Tuesday, August 11, 2020

५००० वर्ष पहले स्त्रियों को अधिकार दिलाने वाले श्रीकृष्ण

००० वर्ष पहले स्त्रियों को अधिकार दिलाने वाले श्रीकृष्ण

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मनोज जोशी

आज कृष्ण जन्माष्टमी है। यानी कृष्ण का जन्मोत्सव है।

३११२  ईसा पूर्व इस पृथ्वी पर आए श्रीकृष्ण एक राजनीतिक, आध्यात्मिक और योद्धा थे वे हर तरह की विद्याओं में पारंगत थे। श्रीकृष्ण ने धर्म, राजनीति, समाज के व्यावहारिक नीति-नियम बनाए। लेकिन  आप थोड़ी देर के लिए भूल जाइए कि कृष्ण कोई देवता या अवतार हैं । केवल उनके जीवन और कार्यों को सामान्य व्यक्ति की तरह देखिए। आप पाएंगे कि श्रीकृष्ण ने महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने का अद्वितीय कार्य किया।

जेल में जन्म हुआ , जन्म होते ही जान पर संकट आ गया। फिर जिस माँ ने जन्म दिया वह छूट गई और पालने वाली माँ दूसरी ...! शायद इन विपरीत परिस्थितियों में लालन- पालन के कारण ही कृष्ण महिलाओं के अधिकार को लेकर बहुत संवेदनशील थे। गीता का ज्ञान समझना तो आम आदमी के बस की बाता नहीं लेकिन मुझे लगता है कि महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता और उनके अधिकारों के लिए की गई पहल के ही कारण श्रीकृष्ण  ५००० से अधिक वर्ष बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं ।


१६ हजार महिलाओं को मुक्त कराया 

श्रीकृष्ण इस पृथ्वी पर अब तक के सबसे बङे स्त्री संरक्षक हैं । कृष्ण की जिन 16 हजार पटरानियों का जिक्र किया  जाता है दरअसल वे सभी भौमासर जिसे नरकासुर भी कहते हैं के यहां बंधक बनाई गई महिलाएं थीं जिनको श्रीकृष्‍ण ने  मुक्त कराया था।  

यह अकेला उदाहरण नहीं है , बल्कि श्रीकृष्ण की छोटी बहन सुभद्रा के विवाह की भी कहानी भी एक बहन को उसकी पसंद का वर चुनने की आजादी की कहानी है।     कृष्ण के बड़े भाई बलराम (दाऊ) ने सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से तय कर दिया। इस विवाह में अर्जुन भी द्रोपदी संग आए थे। विवाह के लिए जाते वक्त सुभद्रा और अर्जुन की मुलाकात हुई और यहीं उन्होंने एक-दूसरे से विवाह करने का मन बना लिया। यह बात अर्जुन ने कृष्ण को बताई। इस पर उन्होंने कहा कि बलराम भैया इसके लिए तैयार नहीं होंगे। कृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम सुभद्रा का हरण कर लो। लेकिन रथ सुभद्रा से चलवाओ ताकि वे दाऊ से कह सकें अर्जुन ने सुभद्रा का नहीं बल्कि सुभद्रा ने अर्जुन का हरण किया है क्योंकि वह अर्जुन को पसंद करती है। 

रुक्मिणी और कृष्ण के विवाह की कहानी भी महिला सम्मान की ही कहानी है । देवी रुक्मिणी विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री थी। उनका पूरा बचपन श्रीकृष्ण की साहस और वीरता की कहानियां सुनते हुए बीता था। लेकिन इनके पिता और भाई का संबंध जरासंध, कंस और शिशुपाल से था। इस वजह से वे वे श्रीकृष्ण से रुक्मिणी का विवाह नहीं करवाना चाहते थे।  जब रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से तय कर दिया गया तो उन्होंने पत्र लिखकर अपनी सहेली सुनन्दा के हाथ श्रीकृष्ण के पास भेज दिया। पत्र पढ़कर श्रीकृष्‍ण को समझ आया कि रुक्मिणीजी संकट में हैं। शिशुपाल बारात लेकर रुक्मिणीजी के द्वार आए और श्रीकृष्‍ण ने अपने भाई बलराम की मदद से रुक्मिणीजी का अपहरण कर लिया।



Thursday, August 6, 2020

इस मंदिर के पूर्ण होने पहले हमारा मन मंदिर बनकर तैयार रहना चाहिए.





डा.मोहन भागवत जी का अयोध्या में  उद्बोधन 


श्रद्धेय महंत नृत्यगोपाल जी महाराज सहित उपस्थित सभी संत चरण
भारत के आदरणीय और जनप्रिय प्रधानमंत्री जी, उत्तर प्रदेश की मा. राज्यपाल जी, उत्तर प्रदेश के मा. मुख्यमंत्री जी, सभी नागरिक सज्जन माता-भगिनी
आनंद का क्षण है. बहुत प्रकार से आनंद है. एक संकल्प लिया था. और मुझे स्मरण है कि तब के हमारे संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस जी ने, ये बात हमको कदम आगे बढ़ाने से पहले बात याद दिलाई थी कि बहुत लग के बीस-तीस साल काम करना पड़ेगा. तब कभी ये काम होगा और बीस-तीस साल हमने किया. तीसवें साल के प्रारंभ में हमको संकल्प पूर्ति का आनंद मिल रहा है. प्रयास किये हैं, जी-जान से अनेक लोगों ने बलिदान दिए हैं, वह सूक्ष्म रूप में आज यहां उपस्थित हैं, प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं हो सकते. ऐसे भी हैं जो हैं, लेकिन यहां आ नहीं सकते. रथ यात्रा का नेतृत्व करने वाले अडवानी जी अपने घर पर बैठ कर इस कार्यक्रम को देख रहे होंगे. कितने ही लोग हैं जो आ भी सकते हैं, लेकिन बुलाये नहीं जा सकते, परिस्थिति ऐसी है. लेकिन वो भी अपनी-अपनी जगह कार्यक्रम देख रहे होंगे, पूरे देश में देख रहा हूं, आनंद की लहर है, सदियों की आस पूरी होने का आनंद है. लेकिन सबसे बडा आनंद है, भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जिस आत्मविश्वास की आवश्यकता थी और जिस आत्मभान की आवश्यकता थी, उसका सगुण-साकार अधिष्ठान बनने का शुभारंभ आज हो रहा है.
वो अधिष्ठान है आध्यामिक दृष्टि का. सिया राममय सब जग जानी. सारे जगत को अपने में देखने और अपने में जगत को देखने की भारत की दृष्टि, जिसके कारण उसके प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार आज भी विश्व में सबसे अधिक सज्जनता का व्यवहार होता है और उस देश का सामूहिक व्यवहार सबके साथ वसुधैव कुटुम्बकम का होता है. ऐसा स्वभाव और ऐसे अपने कर्तव्य का निर्वाह, व्यवहारिक जगत के माया के दुविधा में से रास्ते निकालते हुए, जितना हो सके सबको साथ लेकर चलने की जो विधि एक बनती है, उसका अधिष्ठान आज यहां पर बन रहा है. परमवैभव संपन्न और सबका कल्याण करने वाला भारत, उसके निर्माण का शुभारंभ आज ऐसे निर्माण के व्यवस्थागत का नेतृत्व जिनके हाथ से है, उनके हाथ से हो रहा है, ये और आनंद की बात है. और इसलिए उन सबका स्मरण होता है, लगता है अशोक जी यहां रहते तो कितना अच्छा होता, महंत परमहंस दास जी आज होते तो कितना अच्छा होता, लेकिन जो इच्छा उसकी है वैसा होता है. लेकिन मेरा विश्वास है जो हैं वो मन से और जो नहीं हैं, वो सूक्ष्म रूप से आज यहां उस आनंद को उठा रहे हैं. उस आनंद को शतगुणित भी कर रहे हैं. लेकिन इस आनंद में एक स्फुरण है, एक उत्साह है, हम कर सकते हैं, हमको करना है, वही करना है.
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
 स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः

जीवन जीने जीने की शिक्षा देनी है. अभी कोरोना का दौर चल रहा है, सारा विश्व अंर्तमुख हो गया है. विचार कर रहा है, कहां गलती हुई, कैसे रास्ता निकले. दो रास्तों को देख लिया, तीसरा रास्ता कोई है क्या, हां है. हमारे पास है. हम दे सकते हैं, देने का काम हमको करना है. उसकी तैयारी करने के संकल्प करने का भी आज दिवस है. उसके लिए आश्यक तप पुरुषार्थ हमने किया है. प्रभु श्रीराम के चरित्र से आज तक हम देखेंगे तो सारा पुरुषार्थ, पराक्रम, वीरवृत्ति हमारे रग-रग में है, उसको हमने खोया नहीं है, वो हमारे पास है. हम शुरू करें हो जाएगा. इस प्रकार का विश्वास, प्ररेणा, स्फुरण आज हमको इस दिन से मिलती है. सारे भारतवासियों को मिलती है, कोई भी अपवाद नहीं है क्योंकि सबके राम हैं और सबमें राम है.
और इसलिए अब यहां भव्य मंदिर बनेगा, सारी प्रक्रिया शुरू हो गई है. दायित्व बांटे गए हैं, जिनका जो काम है वो करेंगे. उस समय हम सब लोगों को क्या काम रहेगा, हम सब लोगों को अपने मन की अयोध्या को सजाना संवारना है. इस भव्य कार्य के लिए प्रभु श्रीराम जिस धर्म के विग्रह माने जाते हैं, वह जोड़ने वाला, धारण करने वाला, ऊपर उठाने वाला, सबकी उन्नति करने वाला धर्म, सबको अपना मानने वाला धर्म, उसकी ध्वजा को अपने कंधे पर लेकर संपूर्ण विश्व को सुख-शांति देने वाला भारत हम खड़ा कर सकें, इसलिए हमको अपने मन की अयोध्या बनाना है. यहां पर जैसे-जैसे मंदिर बनेगा, वो अयोध्या भी बनती चली जानी चाहिए. और इस मंदिर के पूर्ण होने पहले हमारा मन मंदिर बनकर तैयार रहना चाहिए. इसकी आवश्यकता है. और वह मन मंदिर कैसा रहेगा, बताया है – 
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥
जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई।प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥                                                                                                                 सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥
हमारा हृदय भी राम का बसेरा होना चाहिए. इसलिए सभी दोषों से, विकारों से, द्वेषों से, शत्रुता से मुक्त, दुनिया की माया कैसी भी हो उस में सब प्रकार के व्यवहार करने के लिए समर्थ. और हृदय से सब प्रकार के भेदों को तिलांजलि देकर, केवल अपने देशवासी ही क्या, संपूर्ण जगत को अपनाने की क्षमता रखने वाला इस देश का व्यक्ति, और इस देश का समाज, यह गढ़ने का काम है. उस गढ़ने के काम का एक सगुण साकार प्रतीक, जो सदैव प्रेरणा देता रहेगा वो यहां खड़ा होने वाला है. भव्य राम मंदिर बनाने का काम भारतवर्ष के लाखों मंदिरों में और एक मंदिर बनाने का काम नहीं है. उन सारे मंदिरों में मूर्तियों का जो आशय है, उस आशय के पुनर्प्रकटीकरण और उसका पुनर्स्थापन करने का शुभारंभ आज यहां बहुत ही समर्थ हाथों से हुआ है. इस मंगल अवसर पर, इस सब आनंद में मैं आप सबका अभिनंदन करता हूं. और जो मेरे मन में इस समय विचार आए उसको आपके चिंतन के लिए आपके सामने रखता हुआ, आपसे विदा लेता हूं.
बहुत-बहुत धन्यवाद

Wednesday, August 5, 2020

अयोध्या का आंदोलन और राजीव गांधी

1989 के भूमिपूजन और 1986 में ताला खोलने के दावों की हकीकत क्या है ? 

(1) सोशल मीडिया पर दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की एक तस्वीर वायरल हो रही है। ब्लैक एंड वॉइट इस तस्वीर में राजीव गांधी के साथ कुछ लोग धार्मिक वेषभूषा में दिख रहे हैं। इस तस्वीर के साथ दावा किया जा रहा है कि ये तस्वीर राम मंदिर के 'उस भूमि पूजन की हैं जो 9 नवंबर, 1989 को हो चुका है।' सोशल मीडिया पर ये तस्वीर काफी तेजी से वायरल हो रही है।

फैक्ट चेकिंग में आइए जानते हैं कि आखिर सच क्या है? 
सोशल मीडिया पर वायरल एक पोस्ट में कहा गया 
" ये तस्वीरें हैं उस भूमिपूजन की जो 9 नवम्बर 1989 को हो चुका है। याने कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को, जिसे हम देवउठनी एकादशी कहते हैं। कोंग्रेस की सरकार ने भी उस समय तिथि का खयाल रखा था। तब के पण्डे आज की तरह ढोंगी नहीं थे। उन्हें सब बातों का खयाल था। माफ कीजिये सरकार, आप सिर्फ हिन्दुत्व का ढोंग करते हैं, सनातन वैदिक धर्म व उसकी परम्परा का चुटकी भर ज्ञान नहीं आपको।'

गूगल फैक्ट चेक में रिवर्स सर्च की मदद लीजिए तो आप पाएंगे  कि ये तस्वीर कई वेबसाइट्स के अलावा 'Wikimedia Commons ' पर भी उपलब्ध है। यहां फोटो के विवरण में लिखा गया है, 'भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी सोवियत के हरे कृष्णा सदस्यों से भगवद्गीता की प्रति प्राप्त करते हुए जो कि रूसी भाषा में है। नई दिल्ली 1989' इस फोटो का कॉपीराइट रूसी इस्कॉन के पास बताया गया है। ये तस्वीर इस्कॉन की ओर प्रकाशित एक किताब की कवर पर मौजूद कोलाज में भी है। इस किताब का नाम है, 'द कृष्णा कॉन्शसनेस मूवमेंट इन द USSR: ए हिस्टोरिकल आउटलाइन फ्रॉम 1971-89'

फिर सच क्या है ? 
यह सच है कि राजीव गांधी सरकार ने राम जन्मभूमि के पास 9 नवंबर, 1989 को "शिलान्यास" की अनुमति दी थी। और यह भूमिपूजन विश्व हिंदू परिषद का आयोजन था। लेकिन ध्यान से पढ़ें - "जन्मभूमि स्थल के पास"। जिस स्थान पर भूमिपूजन हुआ वह सिंहद्वार का भूमिपूजन हुआ । 

और माँग क्या थी
मंदिर "वहीं" बनाएंगे

यह वहीं कहाँ था अब बताने की जरूरत नहीं है।

जरा तार्किक बुद्धि से विचार कीजिए 
- यदि 1989 में भूमिपूजन हो गया था तो आंदोलन आगे क्यों चला ? 
- 1992 में ढाँचा ढहाने की नौबत क्यों आई ? 
- इस सबके साथ सोचिए 1989 के बाद 2014 तक दस वर्ष कांग्रेस समर्थित सरकार भी केन्द्र में रही फिर मंदिर निर्माण क्यों नहीं हुआ ? 

यानी कोई न कोई अङचन थी ! 
क्या थी विचार करेंगे तो सब ध्यान आ जाएगा ।

(2) एक और दावा 1986 में ताला राजीवजी ने खुलवाया 

इसका सच भी जान लीजिए ।

25 जनवरी 1986 को अयोध्या के वकील उमेश चंद्र पांडेय ने फैजाबाद के मुंसिफ (सदर) हरिशंकर द्विवेदी की अदालत में विवादास्पद ढांचे को रामजन्मभूमि मंदिर बताते हुए उसके दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिए याचिका दाखिल की। यह कहते हुए कि रामजन्मभूमि पर पूजा-अर्चना करना उनका बुनियादी अधिकार है। मुंसिफ ने इस मामले में कोई आदेश पारित नहीं किया क्योंकि इस संदर्भ में मुख्य वाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में विचाराधीन था।उन्होंने कहा कि मुख्यवाद के रिकार्ड के बिना वह आदेश पारित नहीं कर सकते। 
उमेश चंद्र पांडेय ने इसके खिलाफ 31 जनवरी 1986 को जिला एवं सत्र न्यायाधीश फैजाबाद की अदालत में अपील दायर की। उनकी दलील थी कि मंदिर में ताला लगाने का आदेश पूर्व में जिला प्रशासन ने दिया था, किसी अदालत ने नहीं। 
एक फरवरी 1986 को जिला एवं सत्र न्यायाधीश कृष्ण मोहन पांडेय ने उनकी अपील स्वीकार की। इस मामले में जज ने फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी इंदु कुमार पांडेय और एसएसपी कर्मवीर सिंह को कोर्ट में तलब किया था। दोनों ने अदालत को बताया कि ताला खोलने से कानून व्यवस्था के बिगड़ने की आशंका नहीं है। जज ने इस मामले में बाबरी मस्जिद के मुख्य मुद्दई मोहम्मद हाशिम व एक अन्य पक्षकार के तर्कों को भी सुना।

राज्य सरकार ने जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत में वकील उमेश चंद्र पांडेय की याचिका का विरोध किया। यह कहते हुए कि रामजन्मभूमि के गेट पर लगे ताले को खोलने से कानून व्यवस्था भंग होने की आशंका है। न्यायाधीश ने सरकार की यह दलील ठुकराते हुए कहा कि रामजन्मभूमि पर ताला लगाने का कोई भी आदेश किसी भी अदालत में पूर्व में नहीं दिया है।
शाम 4.15 बजे उन्होंने ताला खोलने का आदेश दे दिया। इस आदेश में न्यायाधीश ने यह अनुमति भी दे दी थी कि दर्शन व पूजा के लिए लोग रामजन्मभूमि जा सकते है। न्यायाधीश के आदेश देने के बमुश्किल 40 मिनट बाद ही सिटी मजिस्ट्रेट फैजाबाद रामजन्मभूमि मंदिर पहुंचे और उन्होंने गेट पर लगे ताले खोल दिए।
केवल यह एक संयोग है कि 1986 में राजीवजी प्रधानमंत्री थे।

(फोटो - गूगल साभार)

Tuesday, August 4, 2020

एक सशक्त व गौरवशाली भारत का आधार बनेगा अयोध्या में राम मंदिर

एक सशक्त व गौरवशाली भारत का आधार बनेगा अयोध्या में राम मंदिर



अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लेकर करीब 492 साल से चल रहा संघर्ष का सुखद अंत होने जा रहा है। अयोध्या में राम मंदिर  का पुनर्निमाण एक सशक्त और गौरवशाली भारत के पुनर्निमाण का आधार बनेगा। यह मंदिर इस बात का प्रमाण है कि जब कोई समाज अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करने के लिए उठ खड़ा होता है तो दुनिया की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती।
राष्ट्रीयता का गौरव किसी भी देश के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरक तत्व होता है परंतु, विभाजनकारी तुष्टीकरण की राजनीति के कारण भारत की राष्ट्रीयता की परिभाषा भ्रमित कर दी गई थी। अब भारत की राष्ट्रीयता को किसी विदेशी आक्रांता से नहीं जोड़ा जा सकता।
एक विदेशी आक्रांता बाबर द्वारा निर्मित स्मृतियों को ढहा कर राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक भगवान राम का मंदिर बनाने के लिए हिंदू समाज ने निरंतर संघर्ष किए हैं। 1984 से प्रारंभ हुए आंदोलन में तीन लाख से अधिक गांवों के साथ 16 करोड़ राम भक्तों ने भाग लिया। 9 नवंबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय देने तक यह संघर्ष निरंतर चलता रहा। इस अद्वितीय अभियान का ही परिणाम था कि राष्ट्रीय शर्म का प्रतीक बाबरी ढांचा 6 दिसंबर 1992 को ढहा दिया गया। प्रश्न यह है कि आखिर एक मंदिर राष्ट्र के पुनर्निर्माण का आधार कैसे बन सकता है? या यह भी पूछा जा सकता है कि आखिर एक मंदिर के निर्माण की इतनी जिद क्यों थी?
आइए सिलसिलेवार बात शुरू करते हैं। और मैं अपने अनुभव से ही शुरू करता हूं। 1988 में हायर सेकेंडरी पास करने के बाद कैरियर से संबंधित एक मसले पर आंदोलन चलाने की बात दिमाग में आई( हम वह पीढ़ी हैं जिसने स्कूल- कॉलेजों में आंदोलन और हड़ताल देखीं हैं और बाद में कराईं भी) लेकिन तब किसी संगठन से कोई जुड़ाव नहीं था। आंदोलन के लिए समर्थन जुटाते- जुटाते विद्यार्थी परिषद से जुड़ गए। छोटे से प्रयास से ही वह मुद्दा समाप्त हो गया। लेकिन विद्यार्थी परिषद का संगठन पसंद आ गया। और उसी समय अयोध्या का यह आंदोलन अपने चरम पर था। आचार्य गिरिराज किशोर, अशोक सिंघल जी, साध्वी ऋतंभरा जी, साध्वी उमा भारती जी आदि की सभाएं और उन सभाओं की ऑडियो कैसेट अयोध्या पर पुस्तकें, लेख आदि सुनते पढ़ते थे।
इतने वर्षों बाद भी उन भाषण के कुछ अंश भुलाए नहीं जा सकते। मंच से बताया जाता था - ‘यह शाही फरमान एक प्रसिद्ध पत्रिका ‘मार्डन रिव्यू’ के जुलाई 1924 के अंक में इस तरह छपा था – ‘शहंशाह हिन्द मुस्लिम मालिकुल जहां बादशाह बाबर के हुक्म व हजरत जलालशाह के हुक्म के बमूजिब अयोध्या में राम जन्मभूमि को मिसार करके उसके जगह उसी के मलबे व मसाले से मस्जिद तामीर करने की इजाजत दे दी गई है। बजरिए इस हुक्मनामे के तुम को इत्तिला किया जाता है कि हिन्दुस्तान के किसी भी सूबे से कोई हिन्दू अयोध्या न आने पाए’। हिन्दुओं ने मीरबांकी की विशाल सेना की ईंट से ईंट बजा दी. जमकर संघर्ष हुआ, मंदिर के पुजारी, साधु संत, निकटवर्ती राजाओं के सैनिक और साधारण नागरिक सभी ने मंदिर की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी। कई लेखकों ने इस बात का उल्लेख किया कि अंग्रेज इतिहासकार और मीरबांकी के प्रशासनिक अधिकारी हेमिल्टन ने इस जालिम मुगल सेनापति के कुकृत्यों का परिचय बाराबंकी के गजेटियर में इस प्रकार दिया है – ‘जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बनाकर लखौरी ईंटों को मस्जिद की नींव में लगा दिया। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम ने लिखा है -‘जन्मभूमि के गिराए जाने के समय हिन्दुओं ने अपनी जान की बाजी लगा दी और 1लाख 73 हजार लाशें गिर जाने के बाद ही मीरबांकी मंदिर को तोप से गिराने में सफल हो सका।’ इतने खून-खराबे के बाद बाबर ने मंदिर के स्वरूप को बिगाड़कर जो मस्जिदनुमा ढांचा खड़ा कर दिया था, उसे हिन्दुओं ने कभी स्वीकार नहीं किया।श्रीराम जन्मभूमि के स्थान पर मंदिर का पुनर्निर्माण करने के लिए हिन्दू समाज ने 76 बार आक्रमण करके 4 लाख से भी ज्यादा बलिदान दिए।
हर भाषण में कम से कम यह तो साफ था कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और योगेश्वर कृष्ण कोई मिथक या किसी कहानीकार की कल्पना नहीं हैं। वे हमारे इतिहास पुरुष हैं। हमारे पूर्वज हैं। हमारे पूर्वज उनके जन्म स्थान पर नहीं पूजे जाएंगे तो कहां पूजे जाएंगे?
नारा लगता था-
राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे।
यह नारा अयोध्या की विवादित जमीन को लेकर था। सरकार ढांचे  के पास की जमीन देने को राजी थी। लेकिन आंदोलन के नेतृत्व का कहना था जिस स्थान पर हुआ, हम ठीक उसी स्थान पर मंदिर बनाएंगे। लेकिन आपको कैसे पता कि जन्म यहीं हुआ था? 500 वर्ष पूर्व जिस मंदिर को खंडित किया गया था, उसके गर्भ गृह को ही जन्म स्थान के रूप में मान्यता है इसलिए मंदिर वहीं बनाएंगे।

1989 में भूमि पूजन का सच क्या है?
1989 में राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे। विश्व हिंदू परिषद मंदिर का शिलान्यास करना चाहती थी। काफी दबाव और अशोक सिंघल जी के प्रभाव में राजीव गांधी ने इसकी इजाजत दे दी। लेकिन शिलान्यास विवादित स्थल से दूर हुआ। इसमें राजीव गांधी के शामिल होने की बात गलत है। जिस स्थान पर शिलान्यास हुआ वहां सिंहद्वार का निर्माण होगा। इसलिए उसे सिंहद्वार का शिलान्यास माना गया।

क्या अब 500 वर्षों में देश में शांति की खातिर उस स्थान के आसपास मंदिर नहीं बना सकते थे?
यह सबसे महत्वपूर्ण है। जिस तरह से मुगल शासक ने उस मंदिर को तोड़ा था और उसके बाद जिस तरह हमारे पूर्वजों ने इसके लिए संघर्ष किया। इसलिए ठीक उस स्थान पर पुन: मंदिर का निर्माण हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है। हम हमारे पूर्वजों के खोए सम्मान को पाना चाहते हैं। वर्तमान मुस्लिम भी भारत के नागरिक उनके और हमारे पूर्वज एक हैं। भारत के मुसलमानों के पूर्वज मुगल नहीं हैं। पूजा पद्धति बदल जाने से पूर्वज नहीं बदलते। यदि इतिहास के किसी कालखण्ड में कोई गलती हुई है तो उसे सुधारा जाना चाहिए। मुस्लिम समाज को यह समझाने की कोशिश की गई कि यदि वे हिंदुओं को उनके आराध्य का स्थल लौटा देंगे तो दोनों समुदायों के बीच सौहार्द्र बढ़ेगा। लेकिन कट्‌टरपंथियों और राजनीति ने यह होने नहीं दिया।  भारत में मुगल और अंग्रेजों की 1000 साल की गुलामी में अपना सांस्कृतिक गौरव खो चुके सोए हुए हिंदू समाज को भी नींद से जगाना आसान नहीं था। हिंदू समाज को षड्यंत्रपूर्वक न केवल काल्पनिक आधारों पर बांटा गया बल्कि हिंदुओं में एक हीन भावना का निर्माण भी किया गया। इस आंदोलन ने इसे समाप्त कर दिया है। जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र आदि से ऊपर उठकर हिंदू संगठित हुआ है। इसी स्वाभिमान, आत्मविश्वास व राष्ट्रीय गौरव के परिणाम स्वरूप भारत में विभाजनकारी राजनीति जीवन के सभी क्षेत्रों से लुप्त होती जा रही है। 

संपूर्ण देश अब आत्मविश्वास से परिपूर्ण होकर हर क्षेत्र में कल्याणकारी परिवर्तन ला रहा है। भगवान राम से बढ़कर राष्ट्रपुरुष कौन हो सकता है? इसे स्वयं देश के संविधान ने स्वीकार किया है। राष्ट्र पुरुषों की प्रेरक गाथाएं ही इस को परिभाषित करती हैं। । भगवान राम के मंदिर का शीर्ष कलश स्थापित होने तक सभी विभाजनकारी तत्व पूर्ण रूप से निरर्थक व निष्तेज हो जाएंगे और आत्म गौरव स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास से युक्त एक नए भारत का संकल्प साकार होगा।




अयोध्‍या में राम मंदिर बनने और अंतिम बार तोड़े जाने तक का इतिहास


इतिहासकारों के अनुसार कौशल प्रदेश की प्राचीन राजधानी अवध को कालांतर में अयोध्या और बौद्धकाल में साकेत कहा जाने लगा। अयोध्या मूल रूप से मंदिरों का शहर था। हालांकि यहां आज भी हिन्दू, बौद्ध एवं जैन धर्म से जुड़े मंदिरों के अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहां आदिनाथ सहित 5 तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। बौद्ध मत के अनुसार यहां भगवान बुद्ध ने कुछ माह विहार किया था।

 

 

अयोध्या को भगवान श्रीराम के पूर्वज विवस्वान (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु ने बसाया था, तभी से इस नगरी पर सूर्यवंशी राजाओं का राज महाभारतकाल तक रहा। यहीं पर प्रभु श्रीराम का दशरथ के महल में जन्म हुआ था। महर्षि वाल्मीकि ने भी रामायण में जन्मभूमि की शोभा एवं महत्ता की तुलना दूसरे इन्द्रलोक से की है। धन-धान्य व रत्नों से भरी हुई अयोध्या नगरी की अतुलनीय छटा एवं गगनचुंबी इमारतों के अयोध्या नगरी में होने का वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में मिलता है।

 

 

कहते हैं कि भगवान श्रीराम के पश्चात अयोध्या कुछ काल के लिए उजाड़-सी हो गई थी, लेकिन उनकी जन्मभूमि पर बना महल बरकरार था। भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार पुन: राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया। इस निर्माण के बाद सूर्यवंश की 44 वीं पीढ़ी के महाराजा बृहद्बल तक अपने चरम पर रहा। कौशलराज बृहद्बल की मृत्यु महाभारत युद्ध में अभिमन्यु के हाथों हुई थी। महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड़-सी हो गई, मगर श्रीराम जन्मभूमि का अस्तित्व फिर भी बना रहा।



 

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ईसा के लगभग 100 वर्ष पूर्व उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य एक दिन आखेट करते-करते अयोध्या पहुंच गए। थकान होने के कारण अयोध्या में सरयू नदी के किनारे एक आम के वृक्ष के नीचे वे अपनी सेना सहित आराम करने लगे। उस समय यहां घना जंगल हो चला था। कोई बसावट नहीं थी। महाराज विक्रमादित्य को इस भूमि में कुछ चमत्कार दिखाई देने लगे। तब उन्होंने खोज आरंभ की और पास के योगी व संतों की कृपा से उन्हें ज्ञात हुआ कि यह श्रीराम की अवध भूमि है। उन संतों के निर्देश से सम्राट ने यहां एक भव्य मंदिर के साथ ही कूप, सरोवर, महल आदि बनवाए। उन्होंने श्रीराम जन्मभूमि पर काले रंग के कसौटी पत्थर वाले 84 स्तंभों पर विशाल भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था।  

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विक्रमादित्य के बाद के राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर की देख-रेख की। उन्हीं में से एक शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र शुंग ने भी मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। पुष्यमित्र का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के किए जाने का वर्णन है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय और तत्पश्चात काफी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघुवंश में कई बार उल्लेख किया है।

 

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600 ईसा पूर्व अयोध्या में एक महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र था। इस स्थान को अंतरराष्ट्रीय पहचान 5वीं शताब्दी में ईसा पूर्व के दौरान तब मिली जबकि यह एक प्रमुख बौद्ध केंद्र के रूप में विकसित हुआ। तब इसका नाम साकेत था। कहते हैं कि चीनी भिक्षु फा-हियान ने यहां देखा कि कई बौद्ध मठों का रिकॉर्ड रखा गया है। यहां पर 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री हेनत्सांग आया था। उसके अनुसार यहां 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3,000 भिक्षु रहते थे और यहां हिन्दुओं का एक प्रमुख और भव्य मंदिर भी था, जहां रोज हजारों की संख्या में लोग दर्शन करने आते थे।

 

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इसके बाद ईसा की 11वीं शताब्दी में कन्नौज नरेश जयचंद आया तो उसने मंदिर पर सम्राट विक्रमादित्य के प्रशस्ति शिलालेख को उखाड़कर अपना नाम लिखवा दिया। पानीपत के युद्ध के बाद जयचंद का भी अंत हो गया। इसके बाद भारतवर्ष पर आक्रांताओं का आक्रमण और बढ़ गया। आक्रमणकारियों ने काशी, मथुरा के साथ ही अयोध्या में भी लूटपाट की और पुजारियों की हत्या कर मूर्तियां तोड़ने का क्रम जारी रखा। लेकिन 14वीं सदी तक वे अयोध्या में राम मंदिर को तोड़ने में सफल नहीं हो पाए।

 

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विभिन्न आक्रमणों के बाद भी सभी झंझावातों को झेलते हुए श्रीराम की जन्मभूमि पर बना भव्य मंदिर 14वीं शताब्दी तक बचा रहा। कहते हैं कि सिकंदर लोदी के शासनकाल के दौरान यहां मंदिर मौजूद था। 14वीं शताब्दी में हिन्दुस्तान पर मुगलों का अधिकार हो गया और उसके बाद ही राम जन्मभूमि एवं अयोध्या को नष्ट करने के लिए कई अभियान चलाए गए। अंतत: 1527-28 में इस भव्य मंदिर को तोड़ दिया गया और उसकी जगह बाबरी ढांचा खड़ा किया गया।

 बाबरनामा के अनुसार 1528 में अयोध्या पड़ाव के दौरान बाबर ने मस्जिद निर्माण का आदेश दिया था। अयोध्या में बनाई गई मस्जिद में खुदे दो संदेशों से इसका संकेत भी मिलता है। इसमें एक खासतौर से उल्लेखनीय है। इसका सार है, 'जन्नत तक जिसके न्याय के चर्चे हैं, ऐसे महान शासक बाबर के आदेश पर दयालु मीर बकी ने फरिश्तों की इस जगह को मुकम्मल रूप दिया।’




 



Sunday, August 2, 2020

रामलला ने तय किया है मंदिर निर्माण का मुहू

बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।


- #मनोज_जोशी

भाद्रपद कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि अर्थात ग्रेगोरियन कैलेंडर की दिनांक ५ अगस्त को अयोध्या में दोपहर में भूमि पूजन प्रधानमंत्री के हाथों किया जाएगा। जो कभी मंदिर निर्माण में अङंगे लगा रहे थे आज मुहूर्त को लेकर विवाद कर रहे हैं । मैं सबसे पहले इन अङंगेबाजों का आभार व्यक्त करता हूँ  कि इनकी वजह से मैंने  ज्योतिष शास्त्र की कुछ पुस्तकों का अध्ययन किया। कुछ विद्वानों से चर्चा की और अनेक  ज्योतिषी के आलेखों का भी अध्ययन किया।

ताकि मैं समझ सकूं कि  रामकाज और मंदिर निर्माण के मुहूर्त को लेकर शास्त्र क्या कहते हैं  और परम्पराएं क्या हैं ? 

इस शुभ मुहूर्त में होगा भूमिपूजन 

राम मंदिर के भूमिपूजन का मुहूर्त १२ बजकर १५ मिनट १५ सेकेंड से १२ बजकर १५ मिनट ४७ सेकेंड तक है. यानी प्रधानमंत्री ३२ सेकंड में भूमि पूजन करेंगे। प्रधानमंत्री  के हाथों आधारशिला के रूप में ५ नक्षत्रों की परिचायक पांच रजत शिलाएं रखी जाएंगी। बताया जाता है की मुहूर्त की गणना में प्रधानमंत्री के पूर्ण नाम नरेन्द्र दामोदर दास मोदी और उनके पद आदि का भी ध्यान रखा गया है।

मैं अब अपनी बात शुरू करता हूँ ।

सबसे पहले श्रीरामचरितमानस की बात… ! 

श्रीरामचरितमानस के अयोध्या कांड के चौथे दोहे में कहा गया है, जब राजा दशरथ महर्षि वशिष्ठ से श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए शुभ मुहूर्त बताने को कहा  तो महर्षि वशिष्ठ बोले

बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।

सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।

अर्थात्- हे राजन! अब देर न कीजिए, शीघ्र सब सामान सजाइए। शुभ दिन और सुंदर मंगल तभी है, जब श्रीरामचंद्रजी युवराज हो जाएं। अर्थात् उनके राज्याभिषेक के लिए सभी दिन शुभ और मंगलमय हैं। 

इस हिसाब से देखें तो जिस दिन राम मंदिर निर्माण कार्य प्रारंभ होगा, वह दिन शुभ बन जाएगा। 

एक और बात

मुहूर्त पर विवाद ही बेमानी है, क्योंकि ये रामलला के मन्दिर का न तो नवनिर्माण है और ना ही इसमें विराजने वाले अधिष्ठाता मुख्य देवता की प्राणप्रतिष्ठा होनी है। ना ही नई जगह गर्भगृह बनना है और ना ही जगह नई है।  ये तो रामलला के मन्दिर का पुनर्निर्माण है। वही प्राणप्रतिष्ठित विग्रह है और वही गर्भगृह है। ऐसे में शुभ चौघड़िए में भूमिपूजन करने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए । भाद्रपद माह को देवालय के जीर्णोद्धार में स्वीकार किया जाता है।

फिर भी पूछा जा सकता है मुहूर्त शुभ है या नहीं ! हिंदु समाज जीवंत समाज है। शास्त्रार्थ हमारी परम्परा है। इसलिए प्रश्न पूछना एक अधिकार है। लेकिन मंशा अङंगेबाजी की नहीं होना चाहिए।

सबसे पहले  जानिए - कैसे तय होता है मुहूर्त 

किसी भी शुभ कार्य का मुहूर्त तय करने के लिए पंचांग शुद्धि होना आवश्यक है। पंचांग अर्थात तिथि, वार, नक्षत्र, करण और योग।

अब जानिए ५ अगस्त को मुहूर्त क्यों और कैसे शुभ है 

ज्योतिष के विद्वानों से चर्चा करने पर जो बिंदु सामने आए हैं। वह इस प्रकार हैं 

१) मंदिर निर्माण कार्य प्रारंभ करने के लिए सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार और रविवार शुभ होते हैं। ५ अगस्त को बुधवार है, जो शुभ है।

२)  तिथि द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी शुभ होती हैं। ५अगस्त को द्वितिया तिथि है।

३) ग्रह गोचर में ५ अगस्त के दिन नवम भाव (भाग्य भाव) में मंगल मीन का रहेगा और सूर्य-बुध केंद्र स्थान में बैठकर कर्क राशि में रहेंगे। इससे केंद्र और त्रिकोण का नवम पंचम दृष्टि संबंध बन रहा है। मंगल का सूर्य-बुध से इस तरह का दृष्टि संबंध बनना धर्म की दृष्टि से अच्छा योग माना जाता है। ऐसे में किए गए धार्मिक कार्य शुभ परिणाम देने वाले होते हैं।

४)  मुहूर्त मंदिर के लिए नहीं होता, मुहूर्त वास्तु के लिए होता है। पुनः इस बात को दोहराया जाना उचित है कि   यह तो पहले से देवालय है, ऐसे में यह केवल जीर्णोद्धार है और जीर्णोद्धार में भाद्रपद का महीना स्वीकार किया  जाता है।

५) इस दिन शोभन योग है, जिसके स्वामी बृहस्पति होते हैं। बृहस्पति न्याय, धर्म, दर्शन, आध्यात्मिकता और धार्मिक कार्यों के प्रतिनिधि ग्रह हैं। इसलिए योग शुभ है।

६) देवशयनी एकादशी से देवोत्थान एकादशी के बीच विवाह, सगाई, मुंडन, गृह प्रवेश आदि पर रोक रहती है, लेकिन देवालय कार्य प्रारंभ और अन्य धार्मिक कार्यों पर कोई प्रतिबंध नहीं रहता है।

महत्वपूर्ण बात - मान सम्मान में होगी वृद्धि 

विद्वानों के अनुसार भूमिपूजन के  समय तुला लग्न राहु के नक्षत्र स्वाति में होगा। राहु उच्च राशि मिथुन में कुंडली के नवम भाव में होगा जिससे धर्म से संबंधित काम होने से मान सम्मान की बढ़ोतरी होगी। 

भव्य और सुंदर होगा मंदिर 

लग्न का स्वामी शुक्र भी राहु के साथ स्थित होगा जिससे यह पता लगता है कि यह मंदिर काफी भव्य बनेगा और सुंदर होगा। यहाँ होकर राहु शुक्र युति करके योगकारक बन गया है। 

यह मुहूर्त शत्रु हंता है

 एक और महत्वपूर्ण बात राहु मंगल के नक्षत्र धनिष्ठा में हैं जो छठे भाव में बैठकर शत्रु हन्ता बना हुआ है।

धार्मिकता बढेगी

धार्मिक कार्यों के अधिपति देव गुरु बृहस्पति धार्मिक ग्रह केतु के साथ धनु राशि में कुंडली के तीसरे भाव में बैठकर नवम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखेंगे इससे धार्मिकता का प्रभाव भी बढेगा। 

अब पंचक की बात

कहा जा रहा है कि ५ अगस्त को पंचक है और मान्यता है कि पंचक में शुभ कार्य वर्जित है।

पहले समझें पंचक यानी क्या 

अपने परिपथ भ्रमण के काल में गोचरवश जब-जब चंद्रमा कुंभ और मीन राशियों में अथवा कहें कि धनिष्ठा नक्षत्र के उत्तरार्ध में, शतभिषा, पूर्वामाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्रों में होता है, तो इस काल को पंचक कहते हैं। 

यह है भ्रम

आम जनों में यह भ्रम और भय व्याप्त है कि इन नक्षत्रों में शुभ कर्म वर्जित होते हैं। यह मान्यता भी चली आ रही है कि पंचकों में कहीं से कोई सगे-सम्बन्धी की मृत्यु की सूचना मिलती है तो ऐसे में पांच दुःखद समाचार और भी सुनने को मिलते हैं। 

सबसे पहले तो इस भ्रम को दूर कर लें। सच्चाई यह है कि यह पांच नक्षत्र सदैव अहितकारी सिद्ध नहीं होते हैं। अनेक ज्योतिष ग्रथों और खास तौर से मुहूर्त चिन्तामणि और राज भार्तण्ड में पंचको के शुभ अशुभ विचार का विस्तार से  विवरण मिलता है।

मुहूर्त चिंतामणि में स्पष्ट लिखा है कि अति आावश्यक कार्यों के लिए पंचको में भी घनिष्ठा नक्षत्र का अंत, शतमिषा नक्षत्र का मध्य, भाद्रपद का प्रारम्भ और उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के अन्त की पांच घड़िया कार्य के लिए चुनी जा सकती हैं। यदि गहनता से पंचकों के विषय में अध्ययन किया जाए तो पता चलता है  कि इनका निषेध केवल पांच कर्मों में ही किया जाता है और उनमें भी स्पष्ट रुप से आवश्यक कार्यों के लिए विकल्प भी दिए गए हैं । उदाहरण के लिए पंचको में शव दाह नहीं करते। कहा जाता है कि ऐसा करने से पाँच निकट  संबंधियों की मृत्यु होती है। लेकिन पंचक में  शव दाह के समय शास्त्रों में कुछ कर्म दिए गए हैं। यदि कुछ नहीं करना है तो आटे अथवा कुशा के पांच पुतले बनाकर शव के साथ संस्कार करने की परंपरा है।

कुल मिलाकर पंचक का अर्थ पूर्ण निषेध नहीं है।

विश्वास कीजिए स्वयं रामलला ही सब तय कर रहे हैं । हम में से कुछ कर्ता की भूमिका में हैं और ज्यादातर दर्शक की। 

इसी शरीर में इन्हीं नेत्रों से हम राम मंदिर निर्माण का सपना पूरा होते देख पा रहे हैं । इस लोक में इससे बङा सुख हो नहीं सकता ।

५ अगस्त २०२० का पंचांग

माह- भाद्रपद

पक्ष- कृष्ण

आयन- दक्षिणायन

तिथि- द्वितिया रात्रि १०.४९ बजे तक

वार- बुधवार

नक्षत्र- धनिष्ठा प्रात: ९.२९तक, पश्चात शतभिषा

योग- शोभन

करण- तैतिल

५ अगस्त की ग्रह गोचर स्थिति

सूर्य- कर्क

चंद्र- कुंभ

मंगल- मीन

बुध- कर्क

गुरु- धनु

शुक्र- मिथुन

शनि- मकर

राहु- मिथुन

केतु- धनु

- #मनोज_जोशी

Saturday, August 1, 2020

दिल हो ! दर्द ! न हो, तो ?

दिल हो ! ! दर्द न हो, तो ?
के. विक्रम राव 

यह पोस्ट आज (1 अगस्त 2020) बकरीद के उपलक्ष्य पर है| मेरे जीवन की निजी घटना पर आधारित है| करीब तीन दशक पुरानी| विषय मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा है| करुणावाली भावना के मुतल्लिक| मेरा कनिष्ठ पुत्र (तीसरी पीढ़ी का श्रमजीवी पत्रकार) बालक के. विश्वदेव राव एक शाम रुआंसा होकर मेरे सामने आया| अपने दुःख का कारण उसने बताया| बंदरियाबाग (लखनऊ) में अपनी माँ के रेलवे बंगले के अहाते में वह स्कूटर चला रहा था | तभी एक गिलहरी उसके अगले पहिये के नीचे दबकर मर गई| वह बोला कि “मैंने हैंडल घुमाकर उसे बचाने की भरसक कोशिश की| नहीं हो पाया| वह कुचल गई, मैं गिर पड़ा, चोटिल हो गया|” खैर, उसकी डॉक्टर माँ ने बेटे की मरहम पट्टी कर दी | पर मैंने उसे ढांढ़स बंधाया और कहा, “ तुम्हारा दोष नहीं है| ईश्वर निर्दोष मानकर तुम्हें जरूर माफ़ कर देगा|” आत्मपरिशीलन करने पर मुझे अपने पुत्र पर नाज हुआ| कान्वेंट में पढने के बावजूद उसके दिल में दया की भावना जीवंत है| दर्द की अनुभूति है| आखिर अल्लाह का भी असली नाम तो रहीम (महादयालु) ही है| श्रीराम चन्द्र के नाम “हरण भव भय दारुणम” के प्रारंभ में भी “कृपालु” शब्द आता है| 

अब सन्दर्भ यहाँ कुछ लोभी, निर्मम व्यक्तियों द्वारा रची गई मजहबी प्रथाओं का है| मैं गुवाहाटी कई बार कामख्या माँ के दर्शन करने गया| मगर अब उस मन्दिर में नहीं जाता हूँ| वहाँ कबूतर, मुर्गी, बत्तख, बकरी आदि निरीह, गूंगे जीवों की बलि चढ़ाते हैं | 

प्रश्न है कि क्या कोई ममतामयी माँ अपनी ही संतानों का भक्षण करेगी ?
 यही बात बापू (गाँधीजी) ने कलकत्तेवाली कालीबाड़ी में कही थी| 

अतः जब इलाहबाद उच्च न्यायालय (लखनऊ खंडपीठ) के न्यायमूर्ति-द्वय पंकज मित्तल और डॉ. योगेश कुमार श्रीवास्तव ने डॉ. मोहम्मद अयूब की जनहित याचिका (749/2020)  को गत बुधवार को निरस्त कर दिया तो बहुत ही अच्छा, मनभावन लगा| पीस पार्टी के इस अध्यक्ष डॉ. मोहम्मद का आरोप था कि बकरीद मनाने पर योगी सरकार द्वारा लगाये गए प्रतिबंधों से उनके इस्लामी मजहबी हकों का हनन हुआ है| मगर हाई कोर्ट ने कहा : “संविधान की धारा 25 के तहत प्रदत्त मूलाधिकार का उपयोग भी पब्लिक ऑर्डर, नैतिकता तथा स्वास्थ्य की आवश्यकताओं से बंधा है|” यूं आम जन की शिकायत भी रहती है कि मुस्लिम रिहायशी इलाकों में बकरीद के बाद नालियां खून और हड्डियों से पटी रहती हैं| जनस्वास्थ्य को खतरा बन जाता है|

लौकिक विधान और पारलौकिक बाध्यताओं से भी ऊपर उठकर चन्द बिन्दुओं पर चर्चा हो| 

पशु से मनुष्य ऊँचा क्यों है ?

 बेहतर किसलिए है? 

इसलिए क्योंकि उसमें सहानुभूति है, उसका ह्रदय संवेदनशील होता है | पर एक गंगाजमुनी हिन्दू ने कहा कि हलाल पर विरोध जायज है, क्योंकि उसमें पशु को यातना दी जाती है| वह जघन्य है|

अर्थात परोक्ष रूप से मान लें कि झटके से मिला गोश्त स्वीकार्य है| तब यहाँ चर्चा को भटकाने वाली बात हो जाएगी| सामिष व निरामिष पर बहस अटकेगी| मगर रिश्ता यहाँ मानवीय भावनाओं की बाबत है| जब कोई बालक, आयु के कारण अपरिपक्व अवयवों वाला होता है, तो वह कटते चौपायों के आर्तनाद से क्रन्दन करता है| मगर क्रमशः आदी होता जायेगा| परिणामतः उसकी संवेदनाएं चट्टानी हो जाती हैं| परपीड़ा का उसे बोध कभी भी नहीं होता| यही बुनियादी सवाल है| सारांश यही कि परपीड़ा से कोई दुखित न हो तो उसके मानव होने पर संशय तो होगा ही| 

फिर मुझे मेरे चिरकाल से व्यथित कर रहे प्रश्न का उत्तर मिल गया| इतिहास के पठन के दौर में मैं अक्सर खुद से पूछा करता था कि लगभग नौ सदियों की लम्बी अवधि तक भारतीय लोग मुसलमान और अंग्रेज आक्रमणकारियों से लड़े, भिड़े, मगर उन्हें हरा क्यों नहीं पाए ? इसका कुछ हद तक कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रथम आक्रमणकारी राबर्ट क्लाइव द्वारा लन्दन में कम्पनी मुख्यालय को लिखे परिपत्र में मिलता है| इस साम्राज्यवादी फौजी ने लिखा था कि “इन हिन्दुओं को लाल रंग देखकर ही सिहरन हो जाती है| अतः हम इस महाद्वीप पर युगों तक राज कर सकते हैं|” सही भी है| क्योंकि बुद्ध-महावीर के ढाई हजार वर्षों की कालावधि से गाँधी तक अहिंसा ही परम धर्म हो गया था| “उत्तिष्ठ, युद्धाय” वाली भावना ही लुप्त हो गयी थी| 

अर्थात केवल हिंसा, अन्यायपूर्ण ही सही, सभ्यता के विकास का पैमाना है, न कि न्यायसंगत अहिंसा| 

इसी किस्म की बात पर अभी शास्त्रार्थ चल रहा है कि विकास का तराजू क्या है ? 

तुरंत न्यायवाला एनकाउंटर बनाम मंथर गतिवाली अदालती प्रक्रिया ? 

अर्थात बकरीद पर कटते, मिमियाते छाग के बहते लहू से और उसे हलाल होते देखकर जिसका कलेजा न पिघले वह कितना इंसानियत से भरा हो सकता है?

पीर परायी वह समझ पायेगा ?

 पशुता या मानवता में उसका किससे कितना सामीप्य, तादात्म्य बनेगा ? 

अतः सभ्यता के उत्कर्ष पर दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की उक्ति याद आती है कि “ईसा को सूली पर चढ़ाया, सुकरात को हेमलक (विष) दिया गया| गाँधी को गोली मारी गयी | क्या वस्तुतः गत ढाई हजार वर्षों में मानवता का कोई विकास हुआ है ?”

K Vikram Rao
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माता सीता की अग्नि परीक्षा की बात निराधार

रामायण का उत्तर कांड वाल्मीकि जी ने लिखा ही नहीं फिर माता सीता की अग्नि परीक्षा का आधार क्या ? - मनोज जोशी

माता सीता का प्राकट्य त्रेतायुग में वैशाख शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुआ था। ईस्वी सन के अनुसार यह सीता नवमी आज यानी 2 मई को थी। एक तरफ सीता नवमी पर माता सीता की पूजा और दूसरी तरफ टीवी पर आ रहे सिरीयल के कारण माता सीता की अग्नि परीक्षा से लेकर उनके धरती में समा जाने तक की चर्चा । आखिर सच्चाई क्या है ! भगवान राम को हम मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं । सोचिए इस पदवी वाला व्यक्ति समाज के सामने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करेगा और उसके बाद भी पूजा जाएगा ? यह तार्किक नहीं लगता। अब मैं आपसे कहूँ कि राम ने सीता-परित्याग कभी किया ही नहीं …
जिस उत्तर कांड में सीता परित्याग जैसी बातें दर्ज हैं वह वाल्मीकि जी ने लिखा ही नहीं । इसे बहुत बाद में जोड़ दिया गया।
रामकथा पर प्रामाणिक शोधकर्ता माने जाने वाले फ़ादर कामिल बुल्के का स्पष्ट मत है कि  उत्तरकांड बहुत बाद की प्रक्षिप्त रचना है। उत्तरकांड की भाषा, शैली और कथानक के वर्णन की गति युद्धकांड तक की रामायण से  एकदम अलग है। यही नहीं ब्रह्मांड पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, कूर्म पुराण, वाराह पुराण, लिंग पुराण, नारद पुराण,स्कंद पुराण, पद्म पुराण, हरिवंश पुराण, नरसिंह पुराण में भी रामकथा का वर्णन है, लेकिन इनमें कहीं भी
सीता-परित्याग  का कोई  उल्लेख तक नहीं किया गया है, रामायण का पूरा उत्तरकांड कल्पनिक है और वर्षों बाद मूल में जोड़ा गया। शास्त्र तो कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी ने ग्यारह सहस्त्र वर्षों तक जनकनन्दिनी सीता एवं समस्त भ्राताओं के साथ राजनगरी अयोध्या से प्रजा-पालन करते हुए कौशल देश पर सुखपूर्वक राज किया था।

श्रीतुलसीपीठाधीश्वर स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ने सीता निर्वासन पर एक पुस्तक की रचना की है -“सीता निर्वासन नहीं “। उनकी स्पष्ट मान्यता है “सीता जी के द्वितीय वनवास की कल्पना बिल्कुल निराधार है, अशास्त्रीय है । इस पुस्तक का अध्ययन कीजिए । स्वामी जी के प्रवचन यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं उन्हें सुनिए । धर्म ग्रंथों पर उनके अध्ययन के आधार पर जब आप उनके तर्क पर गौर करेंगे तो आप भी मेरी तरह यही कहेंगे कि रामायण का उत्तर कांड वाल्मीकि जी ने लिखा ही नहीं ।

बोलिए - सियावर रामचंद्र जी की जय।
- #मनोज_जोशी

राजनीति के रहनुमा

राजनीति के रहनुमा

- राकेश दीवान

इन दिनों राजस्थान में सत्ता पर चढने-उतरने की खातिर जो-जो कारनामे हो रहे हैं उन्हें क्या राजनीति कहा जा सकता है? बहुमत वाली एक भली-चंगी सरकार को राज्यपाल की मार्फत खुलेआम गिराने का कौतुक क्या राजनीति की आधुनिक परिभाषा में शामिल मान लिया गया है? खासकर तब, जब यह पिछले कुछ सालों का अकेला करतब भर नहीं है? अभी इसी साल कुछ महीने पहले मध्यप्रदेश में भी इसी तरकीब से बहुमत-प्राप्त सरकार को कुलटइयां खिला दी गई थी। तीन साल पहले 2017 में गोवा और मणिपुर में इसी कारनामे की बदौलत भाजपा की सरकारें बनाई गई थीं। इसके ठीक अगले साल 2018 में, राजनीति के नाम पर यही करतब कर्नाटक और 2019 में महाराष्ट्र  में दोहराया गया था। ‘संविधान में सच्ची  निष्ठा व कर्तव्यों  का शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करने’ की शपथ लेकर मंत्री और विधायक बने नरपुंगव किस तरह इस-या-उस राजनीतिक पार्टी के उकसावे पर रातम-रात पाला बदलकर सरकारें बना या बिगाड देते हैं, यह भारतीय राजनीति के लिए कोई अजूबा नहीं रह गया है। तो क्या चुनाव में साडी, शक्कर, पैसा और लालच बांटकर विधायक बनने और फिर मंत्री या ऐसे मलाईदार पदों के लिए खुद भी बिकने को तैयार हो जाने को राजनीति कहा जा सकता है? और ‘मौका मिलने’ पर इस राजनीति को ‘धक्का  मारने’ के नारे पर जनता के उत्साहपूर्वक शामिल हो जाने को इसी राजनीति को खारिज करने की पहल माना जा सकता है? 

ध्यान से देखें तो राजनीति की इस बदहाली की वजह राजनीति की शास्त्रीय परिभाषा, यानि ‘राज’ चलाए रखने वाली ‘नीति’ के अक्षरश: पालन में ही दिखाई देती है। आजादी के आंदोलन में विदेशी राज को भगाने के अलावा कई और मुद्दे शामिल थे। इनमें ग्राम-स्वराज से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग आदि के विकास की बात होती थी। कहा जाता था कि समाज का अंतिम व्यक्ति ‘राज’ की नीतियों में हस्तक्षेप करने लगे तो ही राजनीति सफल मानी जा सकती है। धीरे-धीरे यह मान्यता तिरोहित होती गई और सत्ता पर कब्जा जमाना राजनीति का एकमात्र और सबसे जरूरी मकसद हो गया। सब मानने लगे कि देश-दुनिया को बदलने के लिए सत्ता या सरकार पर नियंत्रण करना बुनियादी राजनीतिक काम है। सरकार की मार्फत समाज को बदलने की इस आपाधापी में सभी के सामने केवल चुनाव और उनमें जीत हासिल करना ही एकमात्र राजनीतिक गतिविधि बनती गई। ऐसे में जाहिर है, वैध-अवैध तरीकों से चुनाव जीतकर, उतने ही वैध-अवैध तरीकों से सत्ता में भागीदारी करना राजनीति का कुल हासिल होता गया। 

राजनीति के इस तौर-तरीके ने विपक्ष और उसकी राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित किया है। सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर कई ऐसे मुद्दे उठे जिन पर विपक्ष की कोई आवाज ही नहीं रही। विधायिका के वेतन-भत्तों  की बढौतरी की तरह विस्थापन, पर्यावरण-प्रदूषण, कृषि जैसे आम लोगों के मुद्दे केवल सरकारी मुद्दे भर रह गए, उन पर विपक्ष की कोई राय सुनाई देना बंद होता गया। राजस्थान की मौजूदा राजनीतिक उठापटक से और कुछ हो-न-हो, इतना पक्का है कि वहां के राजनेताओं को देशभर को हलाकान करने वाला कोरोना वायरस अस्तित्व-हीन लगता है। गरीबी, भुखमरी और तिल-तिल कर मरता आम जीवन राजस्थान के राजनेताओं के लिए लगभग बेमानी है, खासकर तब तक, जब तक वहां की सत्ता पर काबिज होने वालों के नाम पक्के नहीं हो जाते। कुछ महीने पहले ठीक यही परिस्थिति मध्यरप्रदेश में भी बनी थी जहां कोविड-19 की शुरुआत में उससे निपटने की बजाए राजनीति सरकार गिराने-बनाने पर ज्यादा ध्यान दे रही थी। सवाल है कि क्या इस राजनीति का आम लोगों से कोई लेना-देना भी होता है? क्या‍ राजनेताओं को सरकार बनाते-बिगाडते समय अपने वोटरों की कोई फिक्र नहीं होती?
केवल सत्ता के इर्द-गिर्द नाचने वाली राजनीति ने अव्वल तो अपने लिए शहरी मध्यमवर्गीय वोटर तैयार कर लिए हैं। 

नब्बे‍ के दशक में कांग्रेस की पहल पर आए और फिर समूचे भारत की राजनीतिक जमातों पर छा गए भूमंडलीकरण ने शहरों में ऐसे मध्यमवर्गीय लोगों की भरपूर फसल बोई जिसे अपने दायरे के बाहर किसी बात की कोई चिंता नहीं रहती। भर-कोरोना में यह तबका बेशर्मी से अपने हितों की बात करता रहा। आखिर करोडों मजदूरों की दर्दनाक घर-वापसी इसी शहरी मध्मवर्ग के मकान और उद्योग मालिकों की बेदखली का ही तो नतीजा थी। अपने में मगन इस तबके ने राजनीति को भी बेहद सीमित, स्वार्थी और सत्ता -प्रेमी बना दिया। वोटर की हैसियत में यह तबका सत्ता-केन्द्रित राजनीति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त रहता है, लेकिन केवल करीब तीस फीसदी आबादी वाले इस तबके की मदद से सत्ता की राजनीति नहीं की जा सकती। इसलिए बची हुई सत्ता उनके वोटों से हासिल की गई जिन्हें  भूख, कपडा, मकान से अधिक कुछ और दिखाई देने लायक नहीं छोडा गया। आज के चुनावों में ऐसी खबरें आम होती हैं जिनमें ‘मलिन-बस्तियों’ के वाशिंदों ने मामूली साडी, शक्कर, शराब के बदले में अपना वोट इस-या-उस पार्टी के नुमाइंदे को थमा दिया था। लोकतंत्र, संविधान आदि की दुहाई देते हुए जब इन लोगों से उनके ‘राजनीतिक कुकर्म’ के बारे में पूछा जाता है तो जबाव साफ मिलता है – ‘पांच साल में कम-से-कम एकाध साडी, किलो-आधा किलो शक्कर या थोडी-बहुत शराब तो मिल जाने दो। बाकी लोकतंत्र के नाम पर हमें और कुछ तो कभी मिलता नहीं है।’ जाहिर है, ये लोग बेहद सस्ते  और थोक में मिलने वाले वोटर होते हैं। 

शहर का बेपरवाह, अपने स्वार्थ में डूबा और बेहद डरपोक मध्यमवर्ग और मामूली भोजन तक के लिए ललचाते गरीब एक बेहतरीन, डेडली वोटर-कॉलेज, तैयार कर देते हैं। इनसे वोट कबाडना आज की राजनीति के लिए सर्वाधिक सरल और लगभग फोकट का काम है। ध्यान से देखें तो ऐसे वोटरों को तैयार करने की जुगत राजनेता ही बैठाते हैं। वे उन तमाम नीतियों, योजनाओं और विकास को मंजूरी देते हैं जिनसे शहरी मध्यमवर्ग और बेतरह गरीब थोक में, लगातार पैदा हों। इन नीतियों पर सभी राजनीतिक जमातों, नेताओं, पार्टियों में गजब की एकता है। विस्थापन बढाते विकास से लगाकर अमीरी-गरीबी की खाई गहराते विकास तक, सभी पर सबकी सहमति है। अभी हाल में ही ‘घर वापसी’ करते मजदूरों से कोई यह नहीं पूछता कि आखिर वे ऐसे बेरहम शहरों की तरफ गए ही क्यों थे? क्या  उन्हें अपने-अपने ठियों पर कोई काम नहीं मिल पा रहा था? और यह कैसा विकास है जिसमें चालीस-पैंतालीस करोड लोग रोजी-रोटी की खातिर अपना-अपना घर-बार छोडकर दर-दर की धूल फांकते हैं? जाहिर है, इन सवालों के लिए मौजूदा राजनीति में कोई गुंजाइश नहीं बची है। जरूरत है, ऐसी राजनीति को बदलने की, लेकिन क्या मौजूदा समाज इसमें कोई रुचि लेगा? 
                                            --------------------------राकेश दीवान।