Monday, March 29, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गांँधी जी का रामराज्य (४९)

(गतांक से आगे)

आखिर हिंदू राष्ट्र की अवधारणा क्या है ?

#मनोज_जोशी


रामराज्य और उसमें भी गांधीजी के विचार जानने से पहले मुझे लगता है कि हिंदू राष्ट्र की अवधारणा पर भी चर्चा होनी चाहिए, तभी हम यह समझ सकेंगे कि दोनों में अंतर क्या है और दोनों में समानता क्या है ?

इस कड़ी में चर्चा करते हैं कि आखिर हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा क्या है ? 

१९२५ में आरएसएस की स्थापना के साथ डॉ हेडगेवार ने जोर देकर कहा - " हां मैं कहता हूँ कि भारत हिंदू राष्ट्र है।" यानी डॉक्टर हेडगेवार ने यह नहीं कहा कि भारत को हिंदु राष्ट्र बनाना है उन्होंने कहा भारत हिंदू राष्ट्र है। 


संघ की प्रार्थना कहती है 


प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता

इमे सादरं त्वां नमामो वयम्

त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयम्

शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।


प्रार्थना के इस भाग का हिंदी में अर्थ है


"सर्व शक्तिमान परमेश्वर, इस हिन्दू राष्ट्र के घटक के रूप में मैं तुमको सादर प्रणाम करता हूँ। आपके ही कार्य के लिए हम कटिबद्ध हुवे है। हमें इस कार्य को पूरा करने किये आशीर्वाद दे। हमें ऐसी अजेय शक्ति दीजिये कि सारे विश्व मे हमे कोई न जीत सकें और ऐसी नम्रता दें कि पूरा विश्व हमारी विनयशीलता के सामने नतमस्तक हो। यह रास्ता कांँटों से भरा है, इस कार्य को हमने स्वयं स्वीकार किया है और इसे सुगम कर काँटों रहित करेंगे।"

वास्तव में संघ मानता है कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि वह पहले से ही हिंदू राष्ट्र है। 12 वर्षों में लगने वाले कुंभ के मेले, चार धाम की यात्रा, शक्तिपीठों की स्थापना आदि को देख लीजिए। हमारे कई शक्तिपीठ और प्रमुख धार्मिक स्थल पाकिस्तान और बांग्लादेश में चले गए हैं इसे समझ लीजिए। अलग-अलग रियासतों में बँटा इतना बड़ा देश लेकिन सांस्कृतिक रूप से सब एक। सबकी अपनी परंपराएं, सबकी अपनी पूजा पद्धति, सबके अपने विचार लेकिन फिर भी एक। इस 'हिंदू विचार' को 'राष्ट्र विचार' के रूप में देखा जाए। यही हिंदू राष्ट्र है।

 हमने इस श्रंखला की पिछली कड़ी में देखा कि धर्म और हिंदुत्व की गलत व्याख्या के कारण जिस तरह का भ्रम बना है लगभग वही स्थिति हिंदू राष्ट्र को लेकर है। हम पिछली कड़ी में यह जान चुके हैं कि हिंदू विचार यानी हिंदुत्व में पूजा पद्धति और अन्य मान्यताओं को लेकर कोई बंधन नहीं है। ईश्वर को मानने वाला भी हिंदू है और नास्तिक भी हिंदू है तो फिर इस हिंदू विचार को राष्ट्र विचार मानने में किसी भी पूजा पद्धति वाले व्यक्ति को क्या परेशानी होना चाहिए। 

कहा जाता है कि यदि भारत हिंदु राष्ट्र होगा तो यहाँ मुसलमानों और ईसाइयों की स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिक जैसी हो जाएगी। इस आशंका का समाधान करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि यह देखा जाए कि राजनीतिक रूप से हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को सबसे पहले प्रस्तुत करने वाले वीर सावरकर ने इस पर क्या कहा था ?

 हिंदू महासभा के अध्यक्ष रूप में सावरकर ने कहा


"हिंदु महासभा न सिर्फ प्रति व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत को स्वीकार करती है बल्कि मानती है कि इसके साथ मौलिक अधिकार और कर्तव्य भी सभी नागरिकों के लिए उनकी नस्ल और धर्म से परे समान होने चाहिए… अल्पसंख्यक अधिकारों की कोई भी बात सैद्धांतिक रूप से न केवल अनावश्यक बल्कि विरोधाभासी भी है।

क्योंकि यह सामुदायिक आधार पर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक होने का बोध कराता है। लेकिन व्यावहारिक राजनीति जैसी माँग करती है और हिंदू संगठनी गैर-हिंदू देशवासियों को भयमुक्त करना चाहते हैं, उसके लिए हम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अल्पसंख्यकों के धर्म, संस्कृति और भाषा के लिए वैधानिक अधिकार दिए जाएँगे– जिसकी एक शर्त होगी-

बहुसंख्यकों के समान अधिकारों पर इससे अतिक्रमण न हो, न वे इससे निरस्त हों। अल्पसंख्यकों के अलग विद्यालय हो सकते हैं जिसमें वे अपने बच्चों को अपनी भाषा में शिक्षा दें, अपने धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थान हो सकते हैं जिसे सरकार सहायता भी मिले लेकिन वे जितना कर देते हैं, उसके अनुपात में। ये सिद्धांत बहुसंख्यकों पर भी लागू हों।

इन सबसे आगे और ऊपर, यदि संविधान संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों और प्रति व्यक्ति एक वोट पर आधारित नहीं होता है तो जो अल्पसंख्यक अलग निर्वाचन क्षेत्र या आरक्षित सीटें चाहते हैं, उन्हें उसकी अनुमति होगी- लेकिन उनकी जनसंख्या के अनुपात में जिससे बहुसंख्यकों के समान अधिकारों का हनन न हो।

मुस्लिम अल्पसंख्यकों से समान नागरिकों की तरह व्यवहार होगा, वे समान सुरक्षा के अधिकारी होंगे और उनकी जनसंख्या के अनुपात में उन्हें जनपद अधिकार मिलेंगे। हिंदू बहुसंख्यक किसी भी गैर-हिंदू अल्पसंख्यक के वैधानिक अधिकारों पर अतिक्रमण नहीं करेंगे।

लेकिन किसी भी सूरत में हिंदू बहुसंख्यकों को अपने उन अधिकारों को नहीं त्यागना चाहिए जो किसी लोकतांत्रिक और वैधानिक संविधान के तहत बहुसंख्यकों को मिलते हैं। विशेषकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने अल्पसंख्यक रहकर हिंदुओं के प्रति आभार व्यक्त नहीं किया है और इसलिए उन्हें प्राप्त पद और नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों में अनुपात के अनुसार मिली वैधानिक साझेदारी से संतुष्ट होना चाहिए।

मुस्लिम अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के वैधानिक अधिकारों और विशेषाधिकारों पर निषेधाधिकार देना और उसे “स्वराज्य” कहना निरर्थक होगा। हिंदू शासकों को बदलना नहीं चाहते, वे इसलिए संघर्ष नहीं कर रहे, इसलिए मरने के लिए तैयार नहीं हैं कि किसी एडवर्ड का स्थान कोई औरंगजेब ले ले, मात्र इस आधार पर कि उसका जन्म भारतीय सीमाओं के अंदर हुआ है, वे अपने घर में, अपनी भूमि में अपना स्वामित्व चाहते हैं।"


ध्यान रहे सावरकर यह सब तब कह रहे हैं जब देश में अंग्रेजों का राज था और रियासतें भी कायम थीं। भारत की आजादी का संघर्ष चल रहा था, संविधान क्या होगा यह तय नहीं था, उस समय एक व्यक्ति एक वोट की बात कहना बहुत बड़ी बात थी। एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि सावरकर जहाँ यह कहते थे कि भारत में हिंदु और मुस्लिम दो अलग अलग राष्ट्र है वहीं वे विभाजन को स्वीकार नहीं करते थे। यानी दोनों साथ रहेंगे और दोनों के अधिकार बराबर होंगे कोई किसी के अधिकार पर दबाव बनाकर अतिक्रमण नहीं करेगा। 

(क्रमशः)


(यह श्रृंखला मेरे ब्लॉग, फेसबुक और एक न्यूज़ वेबसाइट www.newspuran.com पर भी उपलब्ध है)










Friday, March 26, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गांधी जी का रामराज्य (४८)

 (गतांक से आगे)

सिंधु का अपभ्रंश नहीं है हिंदु, और हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है, 

जानिए शोध क्या कहती है 

#मनोज_जोशी

मैंने पिछली पोस्ट में कहा था कि धर्म की तरह हिंदु शब्द की भी गलत व्याख्या की जाती है। हिंदु को रिलीजन बता कर कहा जाता है कि पारसी लोगों ने सिंधु किनारे रहने वालों को हिंदु कहा, क्योंकि वे स को ह उच्चारण करते थे। पहली बात तो यह कि हिंदु क्रिश्चियन और मुस्लिम की तरह कोई रिलीजन नहीं है, इसकी आगे व्याख्या करूंगा। पहले हिंदु शब्द की उत्पत्ति पर बात करते हैं।

विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हिंदु शब्द पारसियों ने नहीं दिया। जो लोग यह दावा करते हैं कि यह फारसियो का दिया शब्द है, उनसे मेरा पहला सवाल है कि भारत के लोग तो फारसी नहीं बोलते थे फिर उन्होंने एक फारसी शब्द कैसे अपना लिया। न केवल अपना लिया बल्कि उसे अपनी पहचान मान लिया। दूसरा सवाल उस समय भारत की सीमा अफगान तक थी और भारत की सीमा के सबसे करीब काबुल नदी थी तो हमें काबुली क्यों नहीं कहा गया ??

अब फारसी भाषा के व्याकरण की बात कर लीजिए फारसी लोग खुद को परस बोलते उसमे भी 'स' है । वे तो खुदको परह नहीं कहते थे । प्राचीन इराकी शहर सुमेर को भी वे सुमेर ही कहते थे हुमेर भाई। प्राचीन समय में सिंध राज्य था और उसे सिंध ही कहा गया साथ ही आज के पाकिस्तान में सिंध प्रान्त है पर उसे भी सिंध ही कहते है और यदि सिन्धु के दूसरी तरह रहने वालो को हिन्दु कहा गया तो सिंध को सिंध ही क्यों हिन्द क्यों नहीं। संस्कृत को भी हंह्कृत नहीं कहते।

एक और बात पारसी पंथ की स्थापना 700 ईसा पूर्व की है। बाद में इस पंथ को संगठित रूप दिया जरथुस्त्र ने। लेकिन हिंदु शब्द का जिक्र पारसियों की किताब से पूर्व की किताबों में भी मिलता है। 

उदाहरण देखिए -

मेरु तंत्र ( शैव ग्रन्थ ) में हिन्दु शब्द का उल्लेख इस प्रकार किया गया है...

'हीनं च दूष्यत्येव हिन्दुरित्युच्चते प्रिये’

( अर्थात... जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दु कहते हैं )

लगभग यही मंत्र कल्पद्रुम में भी दोहराया गया है...

‘हीनं दूषयति इति हिन्दू ‘(

 अर्थात... जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे वह हिन्दु है।)

पारिजात हरण में “हिन्दु” को कुछ इस प्रकार कहा गया है |

हिनस्ति तपसा पापां दैहिकां दुष्टम ¡

हेतिभिः शत्रुवर्गं च स हिंदुरभिधियते ।।

माधव दिग्विजय में हिन्दु शब्द का इस प्रकार उल्लेख है...

ओंकारमंत्रमूलाढ्य पुनर्जन्म दृढाशयः ।

गोभक्तो भारतगुरू र्हिन्दुर्हिंसनदूषकः ॥

( अर्थात... वो जो ओमकार को ईश्वरीय ध्वनि माने... कर्मो पर विश्वास करे, गौ पालक रहे तथा बुराइयों को दूर रखे वो हिन्दु है )

ऋग्वेद (८:२:४१) में ‘विवहिंदु’ नाम के राजा का वर्णन है जिसने 46000 गाएँ दान में दी थी विवहिंदु बहुत पराक्रमी और दानीराजा था और, ऋग्वेद मंडल 8 में भी उसका वर्णन है। ब्रहस्पति अग्यम में हिन्दु शब्द इस प्रकार आया है…

हिमालयं समारभ्य यावत इन्दुसरोवरं ।

तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते ।।

( अर्थात... हिमालय से इंदु सरोवर तक देव निर्मित देश को हिन्दुस्थान कहते हैं )

 -इस्लाम के चतुर्थ खलीफ़ा अली बिन अबी तालिब लिखते हैं कि वह भूमि जहां पुस्तकें सर्वप्रथम लिखी गईं, और जहां से विवेक तथा ज्ञान की‌ नदियां प्रवाहित हुईं, वह भूमि हिन्दुस्तान है। 

- नौवीं सदी के मुस्लिम इतिहासकार अल जहीज़ लिखते हैं...

“हिन्दु ज्योतिष शास्त्र में, गणित, औषधि विज्ञान, तथा विभिन्न विज्ञानों में श्रेष्ठ हैं। मूर्ति कला, चित्रकला और वास्तुकला का उऩ्होंने पूर्णता तक विकास किया है। उनके पास कविताओं, दर्शन, साहित्य और नीति विज्ञान के संग्रह हैं। भारत से हमने कलीलाह वा दिम्नाह नामक पुस्तक प्राप्त की है।

इन लोगों में निर्णायक शक्ति है, ये बहादुर हैं। उनमें शुचिता, एवं शुद्धता के सद्गुण हैं। मनन वहीं से शुरु हुआ है।

चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय में 'हिंदु' शब्द प्रचलित था। चीनी भाषा में भी 'इंदु को 'इंतु' कहा जाता है। भारतीय ज्योतिष में राशि का निर्धारण चन्द्रमा के आधार पर ही होता है। चन्द्रमास के आधार पर तिथियों और पर्वों की गणना होती है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इंतु' या 'हिंदु' कहते थे। मैंने कहीं पढा है कि हिंदु शब्द संस्कृत से आया है। ह:+इंदु --हिंदु। अर्थात जिसका ह्रदय इंदु यानी चंद्रमा के समान पवित्र है। वह हिंदु है। एक मान्यता यह भी है कि हिंदु शब्द हिमालय के प्रथम अक्षर 'हि' एवं 'इन्दु' का अंतिम अक्षर 'न्दु'। इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना 'हिन्दु और यह भू-भाग #हिन्दुस्थान कहलाया।

सही शब्द हिंदु है हिंदू नहीं

पोस्ट के बीच में एक बात और कहना चाहता हूँ भाषा की शुद्धता के हिसाब से सही शब्द हिंदु है हिंदू नहीं। दा में बड़े ऊ की मात्रा लगाकर हिंदू लिखना अशुद्ध है। संस्कृत के इंदु शब्द में भी छोटे उ की मात्रा है और चीनी भाषा का इंतु भी देवनागरी में त में छोटी उ की मात्रा लगाकर ही लिखा जाता है। यह बात स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदु अस्मिता को लेकर चले आंदोलनों में बार-बार गुंजायमान होने के कारण हिंदु शब्द हिंदू में बदल गया।

अब पंथ यानी religion की बात

अंग्रेजी के शब्द religion का अनुवाद धर्म कर देने से भारत के संदर्भ में गङबङ हो गया। हमारे लिए धर्म का पूजा पद्धति से कोई लेना देना नहीं है। पिछली पोस्ट में हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि जो धारण करने योग्य है वह धर्म है।

उच्चतम न्यायालय भी यही कहता है।

क्या हिन्दुत्व को सच्चे अर्थों में धर्म कहना सही है? इस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय ने – “शास्त्री यज्ञपुरष दास जी और अन्य विरुद्ध मूलदास भूरदास वैश्य और अन्य (1966(3) एस.सी.आर. 242) के प्रकरण का विचार किया। इस प्रकरण में प्रश्न उठा था कि स्वामी नारायण सम्प्रदाय हिन्दुत्व का भाग है अथवा नहीं ? इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर ने अपने निर्णय में लिखा –

"जब हम हिन्दु धर्म के संबंध में सोचते हैं तो हमें हिन्दु धर्म को परिभाषित करने में कठिनाई अनुभव होती है। विश्व के अन्य मजहबों के विपरीत हिन्दु धर्म किसी एक दूत को नहीं मानता, किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता, किसी एक मत का अनुयायी नहीं है, वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता, यह किसी एक प्रकार की मजहबी पूजा पद्धति या रीति नीति को नहीं मानता, वह किसी मजहब या सम्प्रदाय की संतुष्टि नहीं करता है। वृहद रूप में हम इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही परिभाषित कर सकते हैं – इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।"

रमेश यशवंत प्रभु विरुद्ध प्रभाकर कुन्टे (ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1113) के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय को विचार करना था कि विधानसभा के चुनावों के दौरान मतदाताओं से हिन्दुत्व के नाम पर वोट माँगना क्या मजहबी भ्रष्ट आचरण है। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देते हुए अपने निर्णय में कहा-

"हिन्दु, हिन्दुत्व, हिन्दुइज्म को संक्षिप्त अर्थों में परिभाषित कर किन्हीं मजहबी संकीर्ण सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। इसे भारतीय संस्कृति और परंपरा से अलग नहीं किया जा सकता।"

अब बात सनातन धर्म की - 

सनातन का अर्थ शाश्वत होता है यानी कभी न खत्म होने वाला । हिंदुत्व सबसे प्राचीन विचारधारा है जिसके धारणत्व आचरण को धर्म कहा गया । जो किसी एक किताब से शुरू नही होती और ना ही खत्म होती है! आस्तिक-नास्तिक या निराकार साकार सब विषयो विचारो को सनातन धर्म खुद में समाए हुए है। ध्यान से देखिए इसमें विश्व की सभी पूजा पद्धतियां समाहित हैं ।

हिंदुत्व क्या है ?

“एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका” (Encyclopedia Britannica) में “हिन्दुत्व” शब्द का अर्थ बताया गया है 

“Hindutva (‘Hinduness’), is an ideology that sought to define Indian culture in terms of Hindu values.” सवाल यह है कि हिंदू वैल्यूस या हिंदुओं के गुण क्या हैं? विवेक, अनुशासन, इन्द्रियों और मन पर संयम रखना, त्याग, सत्य, परोपकार और फल की अपेक्षा किए बिना कर्म करना यह हिंदुत्व के गुण हैं। 

#हिंदुत्व ही #राष्ट्रीयत्व है

हिंदु शब्द की उत्पत्ति की बात मेरे ख्याल से स्पष्ट हो गई। हिंदु शब्द भारत के प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। और यह ग्रंथ भारत में मुस्लिम और ईसाई पंथ के आगमन से पहले के हैं । भारत के मुस्लिम और ईसाई भी इस हिसाब से हिंदु ही हैं । क्योंकि हमारे पूर्वज एक हैं । इन ग्रंथों पर भारत के मुसलमानों और ईसाइयों का भी उतना ही अधिकार है जितना अन्य का। पूजा पद्धति बदल जाने से पूर्वज नहीं बदलते। इसी श्रंखला की पिछले कड़ियों में मोहम्मद अली जिन्ना, अल्लामा इकबाल और शेख अब्दुल्ला के परिवार द्वारा इस्लाम ग्रहण करने का उदाहरण दिया जा चुका है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हिन्दुत्व शब्द इस उपमहाद्वीप के लोगों की जीवन पद्धति से संबंधित है। इसे संकीर्णता नहीं कहा जा सकता। साधारण रूप में हिन्दुत्व को एक जीवन पद्धति ही समझा जा सकता है।

(क्रमशः)


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Thursday, March 25, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गांधी जी का राम राज्य (४७)

(गतांक से आगे)

धर्म यानी रिलीजन क्यों नहीं जानिए विस्तार से

#मनोज जोशी

अब इस श्रृंखला में हम धर्म और हिंदुत्व जैसे शब्दों की व्याख्या पर चर्चा करेंगे। धर्म और हिंदुत्व यह दो ऐसे शब्द हैं जिनकी गलत व्याख्या के कारण वैचारिक रूप से बहुत गड़बड़ हो गई है। कम्युनिस्ट हमें उनके चश्मे से भारत की संस्कृति और इतिहास दिखा रहे हैं। 

शुरुआत धर्म से करते हैं। धर्म शब्द का अर्थ क्या है? धर्म यह शब्द संस्कृत से आया है। धर्म को परिभाषित करते हुए लिखा गया है- धारयति इति धर्म: । यानी जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। अब धारण करने योग्य क्या है ? कहा गया है कि सत्य, क्षमा, विद्या, दया और दान धारण करने योग्य है। महाभारत वन पर्व ३३.५३ में लिखा है - "उदार मेव विद्वांसो धर्म प्राहुर्मनीषिण: ।" अर्थात मनीषीजन उदारता को ही धर्म कहते हैं। इसके आगे महाभारत वन पर्व २०८.१ में धर्म के बारे में कहां गया है - ,,,'स्वकर्मनिरतः यस्तु धर्म: स इति निश्चय: ।' अर्थात "अपने कर्म में लगे रहना निश्चय ही धर्म है।" 

महाभारत शांति पर्व १५.२ के अनुसार "दण्डं धर्म विदुर्भा: ।" अर्थात "ज्ञानी जन दण्ड को धर्म मानते हैं‌।" महाभारत शांति पर्व में आगे १६२.५ में कहा गया है - "सत्यं धर्मस्तपो योग:।" यानी सत्य ही धर्म है, सत्य ही तप है और सत्य ही योग है। अब यदि महात्मा गाँधी कहते थे कि सत्य ही धर्म है तो वे महाभारत में बताई धर्म की इसी परिभाषा की ही तो बात कर रहे हैं। महाभारत शांति पर्व में आगे २५९.१८ में कहा गया है - "दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतै:।" यानी सभी प्राणियों के हित में लगे रहने वाले मनुष्यों ने दान को धर्म बताया है।

दूरदर्शन पर दोबारा प्रसारित हुए महाभारत सीरियल में से और कुछ याद हो या नहीं लेकिन टाइटल सॉन्ग के रूप में यह श्लोक -

 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। 

सभी की जुबान पर चढ़ गया था। इस श्लोक का अर्थ क्या है - 

यह श्लोक गीता के अध्याय 4 का श्लोक 7 और 8 है। जब अर्जुन ने कुरूक्षेत्र में युद्ध करने से मना कर दिया था। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह कहा। इसका हिंदी अनुवाद करें तो श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं- मै प्रकट होता हूं, मैं आता हूं, जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूं, जब जब अधर्म बढता है तब तब मैं आता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं।

इसके माध्यम से यहां मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि महाभारत काल में तो किसी रिलीजन की हानि होने का सवाल ही नहीं था। चाहे कौरव हो या पांडव एक ही तरह की पूजा पद्धति और एक ही देवता को मानने वाले थे। उस समय तो धरती पर न इस्लाम था और ना क्रिश्चियन धर्म का उदय हुआ था। जैन,बौद्ध और सिख सहित अन्य पंथ का उदय भी महाभारत काल के बाद का है।

यानी श्रीकृष्ण जिस धर्म की स्थापना की बात कर रहे हैं वह कोई रिलीजन नहीं है।

अंत में मनुस्मृति में धर्म की परिभाषा पर भी चर्चा कर लें। मनुस्मृति में कहा गया है -


धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९

अर्थात धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।

मनु स्मृति में यह भी कहा गया है 

आचार:परमो धर्म १/१०८

अर्थात सदाचार परम धर्म है।

कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि भारत में जिस संदर्भ में धर्म शब्द का उपयोग होता है उसका पूजा पद्धति से कोई लेना देना नहीं है। पश्चिम और वामपंथी विचारकों के प्रभाव में गड़बड़ होने से शब्द और उनके अर्थ बदल गए जिससे कई परेशानी खड़ी की हैं। जिस तरह से धर्म शब्द का अर्थ बदल कर अनर्थ किया गया है वही हाल हिंदुत्व का है। अगली पोस्ट में हिंदुत्व की परिभाषा पर चर्चा करेंगे।

(क्रमशः)

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Wednesday, March 24, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (४६)

(गतांक से आगे)

महात्मा गाँधी ने कहा हिंदू होने के कारण ही मैं समाज सेवा की ओर अग्रसर हुआ

#मंनोज_जोशी

हिंदू संस्कृति के वाहक होने के कारण ही महात्मा गांँधी देश की आजादी के आंदोलन और समाज सुधार की ओर प्रेरित हुए। यह बात स्वयं गाँधी जी ने लिखी है।

पुस्तक कंटेम्पररी इंडियन फिलासफी’ के लिए डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने महात्मा गाँधीजी से तीन सवाल पूछे थे- (1) आपका धर्म क्या है, (2) आप धर्म में कैसे प्रवृत्त हुए, और (3) सामाजिक जीवन पर इसका क्या असर रहा है ?. गाँधी जी ने पहले सवाल के जवाब में लिखा “मैं धर्म से हिन्दू हूं जो मेरे लिए मानवता का धर्म है और जिसमें मुझे ज्ञात सारे धर्मों का श्रेष्ठतम् शामिल है. ” दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा —“मैं इस धर्म में सत्य और अहिंसा यानी व्यापक अर्थों में प्रेम के रास्ते प्रवृत्त हुआ. यह कहने की जगह कि ‘ईश्वर सत्य है’, हाल-फिलहाल मैंने अपने धर्म को परिभाषित करने के लिए ‘सत्य ईश्वर है’ कहना शुरु किया है… क्योंकि ईश्वर का नकार तो ज्ञात है लेकिन सत्य का नकार नहीं. यहां तक कि मनुष्यों में जो सर्वाधिक अज्ञानी हैं, उनमें भी कुछ सत्य है. हम सब सत्य की कौंध हैं. इस कौंध का सकल-समग्र अनिर्वचनीय -अब तक अज्ञात सत्य, जो कि ईश्वर है. मैं अनवरत प्रार्थना के सहारे रोज ही इसके निकट पहुंचता हूं.” और तीसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा—“ऐसे धर्म के प्रति सच्चा होने के लिए प्रत्येक जीवन की अनवरत-अविराम सेवा में स्वयं को निस्व करना पड़ता है. सत्य का साक्षात्कार जीवन के अनंत सागर में विलीन हुए और इससे तदाकार हुए बिना असंभव है, इसलिए समाज-सेवा से मेरी निवृति नहीं है.”

इन तीनों प्रश्नों के उत्तर को समग्र रूप से देखें तो गाँधीजी भी हिंदू धर्म को केवल एक रिलीजन के तौर पर नहीं मानते। वह एक जीवन पद्धति है और इसी जीवन पद्धति ने उन्हें समाज सेवा के लिए प्रेरित किया बल्कि साधारण शब्दों में कहें तो हिंदू होने के कारण समाज सेवा से वे जीवन भर निवृत्त नहीं हो सकते। 

गाँधीजी की बात को समझने के लिए हमें समझना होगा कि आखिर धर्म क्या है और वह अंग्रेजी के रिलीजन से कैसे अलग है और यह भी समझना होगा कि हिंदुओं का यह विशेष गुण क्या है? जिसकी चर्चा गाँधीजी कर रहे हैं और इसे क्या कहते हैैं?

(क्रमशः)

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Sunday, March 21, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (४५)

श्रीराम, श्रीकृष्ण, विवेकानंद जी, अम्बेडकर जी और गाँधीजी सबका हिंदुत्व एक

(गतांक से आगे)


अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि हम संघ का हिंदुत्व नहीं मानते बल्कि विवेकानंद के हिंदुत्व को मानते हैं कुछ लोग यह कहने से भी नहीं चूकते कि हम गांधीजी के हिंदुत्व को मानते हैं। अब इस बारे में खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या कहता है यह जानने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि यह पता लगाया जाए कि सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने इस पर कभी कुछ कहा है क्या? तीन साल पहले पांचजन्य में प्रकाशित एक इंटरव्यू में मोहन भागवत जी ने हिंदुत्व को लेकर संघ की धारणा पर विस्तार से अपनी बात कही है। उसे जस का तस या प्रस्तुत कर रहा हूँ। उन्होंने कहा

"हम एक ही हिन्दुत्व को मानते हैं। और जिसे मानते हैं उसे मैंने मेरठ में राष्ट्रोदय समागम के भाषण में स्पष्ट किया है। हिन्दुत्व यानी हम उसमें श्रद्धा रखकर चलते हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, तप, शौच, स्वाध्याय, संतोष और जो ईश्वर को मानते हैं उनके लिए ‘ईश्वर प्रणिधान’। जो ईश्वर को नहीं मानते हैं उनके लिए ‘सत्य प्रणिधान’। 

महात्मा गाँधी कहते थे, सत्य का नाम हिन्दुत्व है। वही जो हिन्दुत्व के बारे में गांधीजी ने कहा है, जो विवेकानंद जी ने कहा है, जो सुभाष बाबू ने कहा है, जो कविवर रविन्द्रनाथ ने कहा है, जो डॉ. आंबेडकर ने कहा है, हिन्दू समाज के बारे में नहीं, हिन्दुत्व के बारे में। वही हिन्दुत्व है। लेकिन उसकी अभिव्यक्ति कब और कैसे होगी, यह तो व्यक्ति और परिस्थिति पर निर्भर करता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के समय हिन्दू शब्द नहीं था लेकिन जो हिन्दुत्व है, वही है। वह चलता आ रहा है, उसी का नाम हिन्दुत्व पड़ा। वे हिन्दू थे। सब मर्यादाएं तोड़ने वाले कृष्ण उसी हिन्दुत्व के आधार पर जी रहे थे। परशुराम-कितना बड़ा संहार करने वाले और करुणावतार, दोनों में उनकी जो परिस्थति थी और उनको जो अभिव्यक्ति मिली थी, उनको जो समाज में देना था वह उन्होंने दिया। शिवाजी महाराज ने मिर्जा राजा का सम्मान रखा। वे भी हिन्दुत्व का आचरण कर रहे थे। 

इसलिए हिन्दुत्व एक ही है। किसी के देखने के नजरिए से हिन्दुत्व का प्रकार अलग नहीं कर सकते। मैं सत्य को मानता हूं और अहिंसा को भी मानता हूं और मुझे ही खत्म करने के लिए कोई आए और मेरे मरने से वह सत्य भी मरने वाला है और अहिंसा भी मरने वाली है, उसका नाम लेने वाला कोई बचेगा नहीं तो उसको बचाने के लिए मुझे लड़ना पड़ेगा। लड़ना या नहीं लड़ना, यह हिन्दुत्व नहीं है। सत्य, अहिंसा के लिए जीना या मरना। सत्य, अहिंसा के लिए लड़ना अथवा सहन करना, यह हिन्दुत्व है। कब सहन करना, कब नहीं करना किसी व्यक्ति का निर्णय हो सकता है। वह सही भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है। लेकिन गलत निर्णय करके वह लड़े तो उसके लड़ने को हिन्दुत्व नहीं कह सकते। गलत निर्णय करके वह चुप रहे तो उसके चुप रहने को आप हिन्दुत्व नहीं कह सकते। लेकिन जिन मूल्यों के आधार पर उसने निर्णय लिया वह मूल्य, वह तत्व, हिन्दुत्व है। ये जो बातें चलती हैं कि स्वामी विवेकानंद का हिन्दुत्व और संघ वालों का हिन्दुत्व, कट्टर हिन्दुत्व और सरल हिन्दुत्व। तत्व का नहीं, स्वभाव आदमी का होता है। कट्टर आदमी होता है। सरल आदमी होता है। ये भ्रम पैदा करने के लिए की जाने वाली तोड़-मरोड़ है, क्योंकि हिन्दुत्व की ओर आकर्षण बढ़ रहा है। दुनिया में बढ़ रहा और अपने देश में भी बढ़ रहा है। उसका लाभ हिन्दुत्व के गौरवान्वित होने से अपने आप हो रहा है। वह न हो इसलिए लोग उसमें मतभेद उत्पन्न करना चाहते हैं। हम हिन्दू के नाते किसी को अपना दुश्मन नहीं मानते। किसी को पराया नहीं मानते। लेकिन उस हिन्दुत्व की रक्षा के लिए हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज का संरक्षण हमको करना ही पड़ेगा। अब संरक्षण करने में समझाना भी पड़ता है। लड़ना पड़ेगा तो लड़ेंगे भी। हमारा लड़ना हिन्दुत्व नहीं है। हमारा समझाना हिन्दुत्व नहीं है। जिन बातों को लेकर हम चल रहे हैं उसके आधार पर अनुमान करके निर्णय करते हैं। वह मूल ही होता है। एक ही है, सर्वत्र एक ही है। और इसलिए मैंने मेरठ में कहा कि हिन्दू अब कट्टर बनेगा। इसका मतलब है हिन्दू अधिक उदार बनेगा। हिन्दू कट्टर बनेगा का मतलब ऐसे है कि महात्मा गांधी कट्टर हिन्दू थे और उन्होंने हरिजन में कहा भी है-मैं कट्टर सनातनी हिन्दू हूं। उन्होंने उसी अर्थ में कहा कि आप मुझे क्या कह रहे हो, मैं तो हिन्दुत्व का पूरा पालन कर रहा हूं। अब हिन्दुत्व में हिन्दुत्व का कैसा पालन करना, वह तो व्यक्तिगत निर्णय है। हिन्दुत्व में फर्क नहीं होता। आप यह कह सकते हैं कि फलां हिन्दुत्व को गलत समझ रहे हैं। आप कहेंगे कि मैं सही हूं, वह गलत है। इनका हिन्दुत्व, उनका हिन्दुत्व, यह सब कहने का कोई मतलब नहीं है। इसका निर्णय समाज करेगा और कर रहा है। समाज को मालूम है, हिन्दुत्व क्या है।"

(क्रमशः)

यह श्रृंखला मेरे ब्लॉग और फेसबुक के साथ एक अन्य न्यूज़ वेबसाइट www. newspuran.com पर भी उपलब्ध है।



Friday, March 19, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधी जी का रामराज्य (४४)

 (गतांक से आगे)

हिंदू महासभा और संघ की हिंदू की परिभाषा में अंतर


श्र
श्रृंखला के मूल विषय पर लौटने के क्रम में एक महत्वपूर्ण पोस्ट है इस विषय पर आमतौर पर चर्चा नहींं होती ।आरएसएस की स्थापना को अक्सर हिंदू महासभा से जोड़कर देखा जाता है। कहा जाता है कि हिंदू महासभा और आरएसएस एक ही थे। लेकिन विचार कीजिए अगर दोनों संगठन एक थे तो जनसंघ का गठन क्यों हुआ? इस श्रंखला में यह बात पहले आ चुकी है कि १९१५  में हिंदू महासभा का अखिल भारतीय स्वरूप सामने आया। संघ की स्थापना उसके १० साल बाद १९२५ में हुई। संघ की स्थापना से पहले डॉ हेडगेवार ने हिंदू महासभा में भी कार्य किया वे वहां उपाध्यक्ष रहे। आरएसएस की स्थापना के बाद वीर सावरकर ने आरएसएस को हिंदू महासभा की युवा इकाई के रूप में विलय करने का अनुरोध किया जिसे डॉक्टर हेडगेवार ने स्वीकार नहीं किया। दरअसल अनुशीलन समिति, कांग्रेस, और उसके बाद हिंदू महासभा में काम करने के बाद डॉ हेडगेवार इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि देश की आजादी के साथ जो दूसरी सबसे बड़ी जरूरत है वह समाज का जागरण है हम अपना गौरव भूल चुके हैं उस गौरव को याद दिलाना जरूरी है नहीं तो आजाद होने पर भी हम इस आजादी को संभाल नहीं पाएंगे। 

आजादी से पहले तक हिंदू महासभा और संघ अनेक मुद्दों पर साथ में काम करते रहे। वैचारिक रूप से हिंदू महासभा,  संघ के काफी करीब थी लेकिन दोनों के बीच में एक महत्वपूर्ण वैचारिक अंतर भी था। वीर सावरकर जिनका संघ काफी सम्मान करता है लेकिन उनकी हिंदुत्व की धारणा और संघ की धारणा में अंतर है। 

वीर सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा करते हुए लिखा है 


आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, 


भारत भूमिका यस्य,


पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव 


सा वै हिंदू रीती स्मृत:


अर्थात जो भारत भूमि को पितृ-भूमि व पुण्य भूमि मानता है वह हिंदु है। जो इस देश के महापुरुषों को अपना पूर्वज मानता है वह हिंदु  है। इस हिसाब से भारत के ईसाई और मुसलमान हिंदू नहीं हो सकते क्योंकि उनकी पुण्य भूमि भारत के बाहर है। मुसलमान हज यात्रा को मानते हैं और ईसाई वेटिकन सिटी को। लेकिन संघ का विचार है कि हर भारतवासी हिंदू है। हिंदू हमारे लिए राष्ट्रीयता का बोधक है किसी पंथ या संप्रदाय का नहीं।

आजादी के बाद हिंदू महासभा ने तय किया कि उनके सदस्य केवल हिंदू को पंथ के रूप में मानने वाले लोग ही हो सकेंगे। डॉक्टर हेडगेवार की तरह गुरुजी भी संघ को एक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन बनाए रखना चाहते थे। लेकिन  देश के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने गुरु जी को जनसंघ की स्थापना के लिए मना लिया। लेकिन इस बात का यह अर्थ ना लगाया जाए कि संघ राजनीतिक संगठन है। जनसंघ और अब भाजपा के करीबी होने के बावजूद संघ ने अपना मूल स्वरूप कायम रखा है। देखा जाए तो संघ उसी लोक सेवक संघ की तरह काम कर रहा है जैसा गांधीजी कांग्रेस के लिए चाहते थे। अपनी हत्या से 1 दिन पहले उन्होंने लोक सेवक संघ के संविधान का प्रारूप तैयार किया था और उसे गांधी जी की वसीयत माना जाता है।

(क्रमशः)



हिंदुत्व और महात्मा गांधी जी का रामराज्य (४३)

 (गतांक से आगे)

लौटते हैं श्रृंखला के मूल विषय पर ...

पिछले ७ महीनों से जारी श्रृंखला में पिछले कई कड़ियों में हम संघ और महात्मा गांधी के रिश्तो पर चर्चा कर रहे हैं। अब हम मूल विषय पर लौटना शुरू करते हैं। पिछली कड़ियों में जो कुछ मैं लिख रहा था उसका कुल मिलाकर के उद्देश्य था कि हम समझ सके कि संघ और महात्मा गांधी के बीच कुछ मुद्दों पर वैचारिक अंतर के बावजूद दोनों में कोई मनभेद नहीं था। यदि आप डॉ हेडगेवार से लेकर वर्तमान सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत की कार्यशैली को देखेंगे तो उसमें गांधीजी के विचारों की छाप स्पष्ट नजर आएगी। 

डॉक्टर हेडगेवार और गुरुजी के बारे में तो काफी चर्चा हो चुकी है। तृतीय सरसंघचालक बाला साहब देवरस का यह कथन कि "अगर अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है" को गांधीवादी लोग इस तरह से भी ले सकते हैं कि बाला साहब ने गांधी जी की बात को ही आगे बढ़ाया। चतुर्थ सरसंघचालक रज्जू भैया की जीवनी को पढ़ने पर पता लगता है कि वे भी गांधीजी की आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग से" प्रभावित थे। रज्जू भैया के कार्यकाल में ही स्वदेशी जागरण मंच का गठन हुआ और संघ ने स्वदेशी पर जोर देने वाला व्यापक अभियान चालू किया। स्वदेशी जागरण मंच अपने कार्यक्रमों में महात्मा गांधी की तस्वीर भी लगाता है। यह बात इसलिए और महत्वपूर्ण है क्योंकि संघ के कार्यक्रमों में डॉक्टर हेडगेवार और गुरु जी के अलावा किसी की भी तस्वीर नहीं लगाई जाती। पंचम सरसंघचालक कुप सी सुदर्शन तो गांधी जी की तरह ग्राम स्वराज और हिंदी राष्ट्रभाषा आदि के हिमायती थे। उनकी प्रेरणा से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का गठन एक बड़ी घटना है। 

(क्रमशः)

Friday, March 12, 2021

जब गाँधी ने नमक कानून तोड़ा उसी समय डॉ..हेडगेवार ने तोड़ा था जंगल कानून, दोनों का तरीका भी एक

 हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (४२)

(गतांक से आगे)

गाँधीजी की दाण्डी यात्रा की वर्षगांठ के साथ ही आजादी की ७५ वीं वर्षगांठ के आयोजनों की शुरुआत हो गई है। अक्सर गाँधीजी और संघ की राहें अलग-अलग होने की बात कही जाती है। लेकिन किसी विरोध का चश्मा लगाने की बजाय निष्पक्षता से इतिहास का अध्ययन करें तो पता लगता है दोनों एक-दूसरे के समानांतर चल रहे थे। गाँधीजी भी हिंदू समाज की दुर्बलता को दूर करना चाहते थे, लेकिन उनका मुख्य ध्येय राजनीतिक स्वतंत्रता था और डॉ. हेडगेवार ने हिंदू समाज की दुर्बलता को दूर करने को अपना लक्ष्य बनाया, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन में भी वे सक्रिय रहे।

इतिहास में से जानकारी निकालें तो पता चलता है कि १९३० में जब गाँधीजी दाण्डी यात्रा निकाल रहे थे उसी समय डॉ. हेडगेवार ने जंगल कानून तोड़ा था और उन्हें ९ माह का सश्रम कारावास हुआ। उन्हें अकोला जेल में रखा था। गाँधीजी के नमक सत्याग्रह की तरह इसे जंगल सत्याग्रह नाम दिया गया था। एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि वनवासियों से अंग्रेजों द्वारा छीने गए अधिकारों का सबसे पहले विरोध संघ ने ही किया था। लेकिन ऐसा लगता है जैसे आज इस जंगल सत्याग्रह को भूला दिया गया है। 

विदर्भ के श्री माधव श्रीहरि अणे (बापूजी अणे)  ने डॉ.. हेडगेवार जी से संपर्क कर स्थानीय स्तर पर सत्याग्रह की रणनीति पर विचार विमर्श किया। डा.  हेडगेवार ने कोलकाता की अनुशीलन समिति, कांग्रेस और हिंदू महासभा में सक्रियता के बाद १९२५ में संघ की स्थापना की थी। १९३० तक संघ का कार्य तत्कालीन मध्यप्रांत में ही प्रभावी नजर आने लगा था। रणनीति के अनुसार बापूजी अणे १५ जुलाई १९३० को यवतमाल जिले के पुसद में ‘‘जंगल सत्याग्रह’’ करते हुये गिरफ्तार हो गये। फिर डॉ.. हेडगेवार १६ जुलाई को साथियों सहित सत्याग्रह के लिये यवतमाल पहुंचे। स्थानीय सत्याग्रहियों से  विचार करके २१ जुलाई को पुसद में सत्याग्रह करने का निर्णय लिया गया। डा. हेडगेवार अपने तीन साथियों के साथ ‘सत्याग्रह स्थल’ रवाना हुए, ५  किलोमीटर की पद यात्रा में सैकड़ों स्वयंसेवक एवं आम जनता साथ हो गई थी। डॉ. हेडगेवार जब सत्याग्रह स्थल पहुंचे, तब तक पांच हजार से अधिक लोग समर्थन में जुट गए  थे। डॉ. हेडगेवार ने रिजर्व्ड फारेस्ट एरिया से घास काटकर, अपनी गिरफ्तारी दी। डॉक्टर जी के साथ गए सत्याग्रही जत्थे में अप्पा जी जोशी (बाद में सरकार्यवाह), दादाराव परमार्थ (बाद में मद्रास में प्रथम प्रांत प्रचारक) आदि १२  स्वयंसेवक शामिल थे।  उसी दिन उन पर मुकदमा चलाया गया और ९ माह का सश्रम कारावास दिया गया। उन्हें अकोला जेल भेजा गया। कुछ दिनो बाद ‘‘चिरनेर नामक स्थान में ‘‘जंगल सत्याग्रह’’ हुआ, जिसमें सत्याग्रहियों एवं पुलिस के बीच हिंसक झड़प हुई। पुलिस की गोली से ८ सत्याग्रही शहीद हो गये। मध्य प्रांत के कटनी में मोतीलाल ताम्रकार, राम गोपाल ताम्रकार, बैतूल में डा माखनलाल चतुर्वेदी, बालाघाट में अंबर लोधी, किशनलाल, हरदा में सीताचरण दीक्षित आदि के नेतृत्व में जंगल सत्यागृह हुए। वर्तमान झारखण्ड में बिरसा मुण्डा ने भी इसी कानून के खिलाफ क्रांतिकारी संघर्ष किया था।
एक खास बात यह भी है कि इस सत्याग्रह में भाग लेने के लिए डॉ... हेडगेवार ने संघ सरसंघचालक का दायित्व  डॉ. लक्ष्मण वासुदेव परांजपे को सौंपा था। यानी वे स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता के साथ संघ के काम को प्रभावित नहीं होने देना चाहते थे। संघ के भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के और भी उदाहरण हैं, लेकिन यह इस श्रृंखला का विषय नहीं है। पुसद में  आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार ने कहा था- स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के बूट की पॉलिश करने से लेकर उनके बूट को पैर से निकालकर उससे उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं। मैं तो इतना ही जानता हूं कि देश को स्वतंत्र कराना है। अभा शारीरिक शिक्षण प्रमुख (सर सेनापति) मार्तण्ड जोग जी, नागपुर के जिला संघचालक अप्पा जी ह्ळदे आदि स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए १०० स्वयंसेवकों की टोली बनाई, जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे। ८ अगस्त को गढ़वाल दिवस पर धारा १४४ तोड़कर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से अनेक स्वयंसेवक घायल हुए।१९३१के दशहरे पर  डॉक्टर जी जेल में थे, उनकी अनुपस्थिति में गांव-गांव में संघ की शाखाओं पर एक संदेश पढ़ा गया, जिसमें कहा गया था- देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता, तब तक रे मना ! तुझे निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं
जैसा मैंने शुरू में लिखा कि गाँधीजी भी हिंदू समाज की दुर्बलता को दूर करना चाहते थे उसके लिए हिंदू धर्म क्या है’ नामक पुस्तक में से गाँधीजी का केवल एक वक्तव्य यहां देना चाहूंगा। “यदि मुझसे हिंदू धर्म की व्याख्या करने के लिए कहा जाए तो मैं इतना ही कहूंगा- अहिंसात्मक साधनों द्वारा सत्य की खोज।कोई मनुष्य ईश्वर में विश्वास न करते हुए भी अपने आप को हिंदू कह सकता है। सत्य की अथक खोज का ही दूसरा नाम हिंदू धर्म है। यदि आज वह मृतप्राय निष्क्रिय विकासशील नहीं रह गया है तो इसलिए कि हम थक कर कर बैठ गए हैं और ज्यों ही थकावट दूर हो जाएगी त्यों ही हिंदू धर्म संसार पर ऐसेप्रखर तेज के साथ छा जाएगा ऐसा कदाचित पहले कभी नहीं हुआ। अतः निश्चित रूप से हिंदू धर्म सबसे अधिक सहिष्णु धर्म है।”
यदि यह नहीं बताया जाए कि यह वक्तव्य गाँधीजी का है तो कोई भी इसे डॉ. हेडगेवार का समझ लेगा।यंग इंडिया नवजीवन हरिजन जैसे पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर गांधी जी द्वारा लिखे गए लेखों का संग्रहण हिंदू धर्म क्या है  नाम की पुस्तक में हमें मिलता है। नेशनल बुक ट्रस्ट ने १९९५ में यह पुस्तक प्रकाशित की थी
(क्रमश:)

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Tuesday, March 9, 2021

गांँधी जी की हत्या से हिंदुत्व को पहुँचा नुकसान

 हिंदुत्व और महात्मा गांँधीजी का रामराज्य (४१)

( गतांक से आगे)



इस श्रृंखला की अब तक की कड़ियों को जोड़ें तो एक बात तो साफ है कि वैचारिक रूप से गांँधीजी एक हिंदुत्व निष्ठ व्यक्ति थे, लेकिन दूसरी तरफ गोडसे द्वारा कोर्ट में दिए गए बयान को देखें तो गोडसे उन पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाता है। किसी भी भावुक व्यक्ति का गोडसे के तर्क से असहमत होना मुश्किल है।

लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हत्या को उचित ठहराते हुए  हत्यारे को महिमामंडित किया जाना चाहिए ?

वर्ष २०१५  में हिंदू महासभा ने गोडसे को महिमामंडित करने के लिए व्यापक कार्यक्रम आयोजित किया और गोडसे के नाम से एक वेबसाइट भी लांँच की। इस कार्यक्रम से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक एमजी वैद्य का एक बयान सामने आया था। एमजी वैद्य ने उस समय कहा था ...'मैं नाथूराम गोडसे का सम्मान करने और उन्हें सम्मान देने के खिलाफ हूँ. वह एक हत्यारा है। इसके आगे वे और भी महत्वपूर्ण बात कहते हैं - 'कुछ लोग कहते हैं कि इससे (गोडसे के महिमामंडन) हिंदुत्व का गौरव बढ़ेगा। नहीं इससे हिंदुत्व का नाम खराब होगा...मैं तो यहां तक कहता हूं कि गांधी की हत्या से हिंदुत्व को नुकसान पहुंचा है।'

वैद्य ने गाँधीजी के विचारों को लेकर असहमति को भी स्वीकारा और कहा, 'महात्मा गांँधी ने अपने जीवनकाल में आजादी के बारे में जागरूकता फैलाई। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम उनकी सभी नीतियों से सहमत हों।  लेकिन विचारों की लड़ाई को विचार से लड़ा जाना चाहिए, इसके लिए खून की होली खेलने की इजाजत नहीं दी जा सकती।' वयोवृद्ध संघ विचारक वैद्य का हाल ही में निधन हुआ है उन्होंने गांँधी जी की हत्या के आरोप में संघ पर लगे प्रतिबंध का कार्यकाल भी देखा था।  ऐसे में वैद्य की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है।

आज के दौर में भले ही गांँधीजी की किसी नीति का विरोध देश के विरोध के रूप में प्रचारित किया जाने लगा हो लेकिन भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता के दौरान गांँधीजी को कांग्रेस के भीतर और बाहर कई बार विरोध का सामना करना पड़ा है। शहीद भगत सिंह की फांसी नहीं रुकवाने को लेकर गांँधी जी को कांग्रेस अधिवेशन के दौरान काले झंडे दिखाए गए है।  चंद्रशेखर आजाद और राम प्रसाद बिस्मिल ने गांँधीजी की अहिंसा से नाराज होकर अलग रास्ता चुना था। सुभाष चंद्र बोस को गांँधीजी के विरोध के बाद कांग्रेस छोड़ना पड़ी थी। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और गांँधीजी के वैचारिक मतभेद आज भी चर्चा में हैं। 

बीसवीं शताब्दी के इस कालखंड में देश में सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था। छोटी-छोटी बात पर दंगे और खून खराबा मामूली बात थी। १९४६ के जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के आव्हान को देखें तो वह गृह युद्ध के ऐलान जैसा ही लगता है। विभाजन से ठीक पहले हुए चुनाव में देश भर  में मुस्लिम लीग को मिला समर्थन इस बात का साफ संकेत था कि ज्यादातर मुसलमान पाकिस्तान के पक्ष में थे। 

ऐसे माहौल में अहिंसा की बात करना और जिन्ना वह सुहारवर्ती जैसे मुस्लिम लीगी नेताओं से समझौते के प्रयास करना कितना उचित या अनुचित था यह विश्लेषण का विषय है। गांँधी जी की हत्या के पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के भारत के इतिहास को निष्पक्ष भाव से देखना समझना होगा। बीसवीं शताब्दी के इस कालखंड का इतिहास जहां एक तरफ भारत की आजादी का इतिहास दिखता है वहीं दूसरी तरफ वह भारत की विभाजन का इतिहास भी है इस विभाजन के लिए अंग्रेजों के साथ तत्कालीन नेतृत्व की भूमिका भी जिम्मेदार है। अकेले मोहम्मद अली जिन्ना ही नहीं जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन कांग्रेस के अन्य नेताओं की भूमिका पर भी समग्रता से निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया जाए तभी विभाजन की असल वजह समझ में आती है। इन सब के विस्तार में जाने के लिए ऐसी ही एक और श्रृंखला की जरूरत है। विचार तो इस बात पर भी होना चाहिए कि अहिंसा के पुजारी की हत्या के बाद किन लोगों ने और क्यों पुणे और देश के दूसरे राज्यों में ब्राह्मणों की हत्या की थी। उन दंगों का क्या औचित्य था? क्या वे महात्मा गांँधी के सच्चे अनुयायी थे ? और उनके इस कृत्य के बाद ब्राह्मणों और कुल मिलाकर करके हिंदुओं में क्या संदेश गया ? क्या उन्होंने कभी इस पर माफी मांगने के बारे में भी सोचा ?

लेकिन गांँधीजी के व्यक्तित्व के बारे में जब समग्रता से चर्चा करें तो केवल स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा चलाए गए आंदोलनों की रणनीति और सफलता असफलता तक सीमित नहीं रखा जा सकता। गांँधीजी एक ऐसे महान आत्मा थे जिन्होंने सार्वजनिक जीवन के अमूमन सभी पहलुओं पर विचार व्यक्त किए हैं, काम किया है और अपने तई एक आदर्श व कार्यप्रणाली प्रस्तुत की है जो आज भी मार्गदर्शन कर सकती है।

(क्रमशः)

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