Wednesday, April 5, 2023

प्लास्टिक की पन्नी और मन्नत : हिंदु संस्कृति की परंपरा में विकृति



प्लास्टिक की पन्नी और मन्नत : हिंदु संस्कृति की परंपरा में विकृति

#मनोज_जोशी



 


पिछले सप्ताह संयोग से चैत्र शुक्ल अष्टमी पर यानी बुधवार को कर्फ्यू वाली माता के मंदिर में दर्शन के लिए परिवार के साथ पहुंच गया। बिना किसी योजना के ऐसे पहुंचा जैसे स्वयं माता ने बुलाया हो। और यहाँ शेर के पाँव में बड़ी संख्या में पन्नी बंधी हुईं दिखी। याद आया कि कुछ दिन पहले ही Dainik Bhaskar में खबर छपी थी कि मन्नत के लिए यहाँ लोग शेर के पाँव में प्लास्टिक की पन्नी बांध रहे हैं। कलावा और चुनरी बांधना तो सुना था, प्लास्टिक की पन्नी की बात पहली बार सुनी तो अजीब सा लगा। और फिर उस दिन देख लिया तो मन खिन्न हो गया।

आखिर पन्नी बांधने की परंपरा कहाँ से आ गई।

मुझे अपने बचपन की दो घटनाएं याद आ गईं। 

1.घर के पास कालीजी का मंदिर था और उसी में हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित हो गई थी। कई मित्र खास तौर से गणित की परीक्षा वाले दिन हनुमान जी के दर्शन करने जाते और उनसे परीक्षा में पास कराने की प्रार्थना करते। अपने राम को कभी इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई। बाद के वर्षों में उस मंदिर में और शहर के दूसरे हनुमान मंदिरों में चिट्ठियां चिपकने लगीं।

यह चिट्ठी परिणाम को कितना प्रभावित करती है पता नहीं ... लेकिन भक्त और भगवान के रिश्ते में भावनात्मक लगाव इतना होता है कि इस चिट्ठी को आस्था और विश्वास का प्रकटीकरण मानकर स्वीकार कर लिया।

और फिर इसमें कोई बुराई भी नहीं। भक्त अपने ढंग से अपने मन की बात भगवान से कहा रहा है। कई बार तो यह चिट्ठियां बहुत मार्मिक भी होती हैं।


2. यह किस्सा बिल्कुल प्लास्टिक की पन्नी जैसा ही है। घर पर माँ के स्पष्ट निर्देश थे कि भगवान को चीनी के बर्तन में भोग नहीं लगेगा। वो कहती थीं चीनी का बर्तन शुद्ध नहीं है, भगवान उसके भोग को स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन बचपना तो बचपना होता है, जैसा कहा वैसा मान लिया तो काहे के बच्चे। अपने राम ने एक दिन पूजा की और चीनी की प्लेट में भोग लगा दिया। पता नहीं क्या हुआ वह चीनी की प्लेट नीचे गिर कर टूट गई और भोग सामग्री जमीन पर फैल गई। उस घटना से यह बात मन में कहीं बैठ गई कि वाकई चीनी के बर्तन में भगवान भोग स्वीकार नहीं करते।

अब वापस पन्नी वाली बात पर आता हूँ।‌ यह तो हम सब जानते हैं कि प्लास्टिक पर्यावरण के लिए घातक है। और जो पर्यावरण के लिए घातक है उसे ईश्वर कैसे स्वीकार करेंगे ? हम तो हिंदु संस्कृति के वाहक हैं। प्रकृति के हर अंग पेड़ पौधे पशु पक्षी सब में देवताओं का वास मानने वाला हिंदु समाज उस पॉलिथीन को बांध कर मन्नत मांग रहा है जिसके खाने से गौ माता बीमार पड़ रहीं हैं। गौ माता में तो सभी देवताओं का वास हैं। और केवल गौ माता क्यों भगवान विष्णु के दशावतार का ध्यान कीजिए मछली से लेकर मानव तक सब में विष्णु अवतार का अंश मौजूद हैं। 

आखिर इसका आधार क्या है? और दुख का विषय यह है कि यह उस मंदिर में हो रहा है जिसकी स्थापना के लिए हमारी पुरानी पीढ़ी ने संघर्ष किया, कर्फ्यू लगा इसीलिए तो कर्फ्यू वाली माता का मंदिर नाम प्रचलित हुआ।

और मंदिर की स्थापना क्यों होती है ? संस्कृति की रक्षा के लिए ही ना ? फिर यह पन्नी बांध कर क्या हम रक्षा कर रहे हैं? इस पर विचार नितांत आवश्यक है।

हिंदु religion नहीं संस्कृति है, जीवनशैली है। यह परिवर्तनशील है इसीलिए युगों तक अक्षुण्ण है। इसकी अक्षुण्णता को बनाए रखने के लिए विकृतियों को भी रोकना होगा।


एक गीत जिसने १९८० के दशक के अंतिम वर्षों में मुझे प्रेरणा दी उसके बोल थे

"रुढ़ियों को तोड़ दो, परंपराएं मोड़ दो

जिसमें देश का भला न हो

वो हर काम छोड़ दो"

मुझे लगता है इसमें एक बात और जोड़ना पड़ेगी

"विकृतियों को रोक दो"

Monday, February 6, 2023

‘परंम् वैभवम नेतुमेतत्वस्वराष्ट्रं’

‘परंम् वैभवम नेतुमेतत्वस्वराष्ट्रं’


यानी राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाना है. अगर आप मुझसे पूछें कि यह कैसे होगा? तो मेरा स्पष्ट मत यह है कि जाति व्यवस्था को समाप्त करना होगा और इसकी शुरुआत जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को समाप्त करके होगी।

एक ही मंदिर, एक जलाशय, सबका एक श्मशान हो। जब तक यह एकता नहीं आएगी। जाति के आधार पर श्रेष्ठता और निम्नता के भाव जब तक समाप्त नहीं होंगे, हम परम वैभव के लक्ष्य को नहीं पा सकते। हमारे सांस्कृतिक इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं जो साबित करते हैं कि प्राचीन वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी, जन्म आधारित नहीं। बाद में यह जन्म आधारित जाति व्यवस्था में बदल गई।

अक्तूबर, 2003 में नागपुर में अपने विजयादशमी उद्बोधन में संघ के पांचवें सरसंघचालक सुदर्शन जी ने कथित दलित समस्या पर कहा, 'अपने ही समाज के एक वर्ग को दलित जैसे घृणित शब्द से संबोधित करना कहां तक उचित है? वास्तव में जो लोग विकास के निम्न स्तर पर हैं उनमें ऊपर उठने का आत्मविश्वास जगाना पहली आवश्यकता है। हमारी सोच यह है कि यह कार्य समाज को स्वयं करना होता है और यह कार्य तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित नेता लोग नहीं कर सकते। इस कार्य को सामाजिक एवं धार्मिक नेतृत्व को अपने हाथ में लेना चाहिए।'

संघ के चौथे सरसंघचालक रज्जू भैया एक जगह लिखते हैं -'इस देश का हिन्दू समाज हजारों वर्षों तक समृद्धि एवं वैभव का जीवन जीने के बाद ईसा की नवमी और दशमी शताब्दियों में ऐसी रुढ़िग्रस्त अवस्था में पहुंच गया जहां गुण-कर्म पर आधारित वर्ण एवं जाति व्यवस्था को ऊंच-नीच का पर्याय मानकर हमारे ही लोगों ने राष्ट्र के उत्थान में बाधाएं खड़ी कर दीं। परिणामत: हिन्दू समाज अनेक प्रकार से विभक्त हो गया और राष्ट्र को निरंतर आठ सौ वर्षों तक परकीयों की दासता सहनी पड़ी।'

संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहेब देवरस का तो यह वाक्य प्रसिद्ध है - "यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो संसार में कुछ भी पाप नहीं है।"

बालासाहब देवरस ने 1986 राष्ट्रीय सेविका समिति के स्वर्ण जयंती समारोह में दिए भाषण में कहा था 'जाति-व्यवस्था को समाप्त कर देना चाहिए. हिंदू समाज की जातिप्रथा समाप्त होने पर सारा संसार हिंदू समाज को वरण करेगा. इसके लिए भारतीय महिला समाज को पहल अपने हाथ में लेकर अपने घर से ही अंतरजातीय और अंतरप्रांतीय विवाह की शुरुआत करनी चाहिए.'

द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवलकर जी कहते थे - ‘चातुर्वर्ण्य में न तो किसी वर्ण का अस्तित्व है और न ही किसी जाति का. आज तो हम सभी का एक ही वर्ण और एक ही जाति है और वह है हिंदू.’

संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने कहा ‘हम अस्पृश्यता दूर करने की बात नहीं करते बल्कि हम स्वयंसेवकों को इस प्रकार विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं कि हम सभी हिंदू हैं और एक ही परिवार के सदस्य हैं. इससे किसी भी स्वयंसेवक में इस तरह का विचार नहीं आता है कि कौन किस जाति का है?’

#मनोज_जोशी

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Friday, January 13, 2023

गाँधी - गोडसे : आखिर वैचारिक असहमति हत्या का अधिकार तो नहीं देती


 #मनोज_जोशी 

फिल्म डायरेक्टर राजकुमार संतोषी की आने वाली फिल्म गांधी-गोडसे एक युद्ध का ट्रेलर रिलीज होने के दो दिन बाद ही इसका विरोध शुरु हो गया है। और इस विरोध के साथ ही गांधीजी और गोडसे को लेकर चलने वाली बहस एक बार फिर आम हो गई है। 

पिछले महीने मेरी पुस्तक "हिंदुत्व और गाँधी" का लोकार्पण हुआ है। इस पुस्तक के लेखन के लिए जब मैं अध्ययन कर रहा था तो स्वाभाविक रूप से गोडसे के बारे में काफी कुछ समझा और पढ़ा। 

लेकिन अंत में मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि गोडसे का पक्ष सामने लाना और उस पर चर्चा करना वास्तव में हिंदुत्व का नुक़सान ही है। और यही वज़ह है कि मैंने अपनी पुस्तक में गोडसे का जिक्र नहीं किया, बल्कि मैं उसका नाम भी लेना उचित नहीं समझता।

लेकिन इस विवाद को देखते हुए आज कुछ ऐसी बातें जो किताब में नहीं लिखी और कुछ ऐसी जो उसमें लिखी है सब मिलाकर अपनी बात कहना चाहता हूं। 

यह बात सही है कि नाथूराम गोडसे के बयान वाले दिन यानी ८ नवम्बर १९४८ को अदालत में काफी भीड़ थी और गोडसे का बयान सुनते हुए अदालत में मौजूद लोगों की आँखें नम हो गई थी। १० फरवरी १९४९ को गोडसे को फाँसी की सजा सुनाते हुए जस्टिस जीडी खोसला ने लिखा कि .."मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि यदि उस दिन अदालत में उपस्थित दर्शकों को संगठित कर ज्यूरी बना दिया जाता। इसके साथ ही उन्हें नाथूराम गोडसे पर फैसला सुनाने को कहा जाता, तो भारी बहुमत के आधार पर गोडसे 'निर्दोष' (Not Guilty) करार दिया जाता। 

लेकिन मेरी मान्यता है कि इतने भर से गोडसे का अपराध तो कम नहीं हो जाता। यह भी सच है कि गाँधीजी विभाजन को नहीं रोक पाए और विभाजन के बाद और पहले गाँधीजी के कई फैसलों से हम असहमत हो सकते हैं। लेकिन इस असहमति का अर्थ क्या है कि हम जिससे असहमत हैं उसकी हत्या कर दें। यह तो जंगलराज ही होगा। एक तथ्य यह भी है कि गाँधीजी स्वयं इस आजादी से खुश नहीं थे और वह दिल्ली में हुए आजादी के जश्न में शामिल नहीं हुए थे।‌ शायद वे विभाजन को मन से स्वीकार नहीं कर सके थे । इसलिए ऐसी व्यवस्था चाहते थे कि दोनों देशों में बिना पासपोर्ट वीजा के आना-जाना हो सके

यदि आप हिंदुत्व की बात करें तो एक परिभाषा यह भी है - जिसका ह्रदय इंदु यानी चंद्रमा के समान पवित्र है वह हिंदु है। चंद्रमा के समान पवित्र हृदय वाला व्यक्ति तो असहमति पर हत्या नहीं करेगा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ विचारक स्व एमजी वैद्य के एक बयान का मैंने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है। एमजी वैद्य ने कहा है ...'मैं नाथूराम गोडसे का सम्मान करने और उन्हें सम्मान देने के खिलाफ हूँ. वह एक हत्यारा है। इसके आगे वे और भी महत्वपूर्ण बात कहते हैं - 'कुछ लोग कहते हैं कि इससे (गोडसे के महिमामंडन) हिंदुत्व का गौरव बढ़ेगा। नहीं इससे हिंदुत्व का नाम खराब होगा...मैं तो यहां तक कहता हूं कि गांधी की हत्या से हिंदुत्व को नुकसान पहुंचा है।'

वैद्य ने गाँधीजी के विचारों को लेकर असहमति को भी स्वीकारा और कहा, 'महात्मा गांँधी ने अपने जीवनकाल में आजादी के बारे में जागरूकता फैलाई। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम उनकी सभी नीतियों से सहमत हों। लेकिन विचारों की लड़ाई को विचार से लड़ा जाना चाहिए, इसके लिए खून की होली खेलने की इजाजत नहीं दी जा सकती।'

कुछ और तथ्य जिनका पुस्तक में जिक्र है वह भी दोहराना चाहूंगा। महात्मा गाँधी की हत्या की जानकारी मिलने पर गुरु गोलवलकर जी की पहली प्रतिक्रिया थी "यह देश का दुर्भाग्य है।" उन्होंने 13 दिन तक शोक मनाने की घोषणा की।‌ 

इसके बावजूद संघ पर प्रतिबंध लगा। गाँधीजी की हत्या के पाँचवें दिन संघ पर हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगाकर ४ फरवरी १९४८ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

११ जुलाई १९४९ को यह प्रतिबंध उठा लिया गया, जबकि गाँधीजी की हत्या पर अदालत का फैसला संघ से प्रतिबंध हटाने के लगभग ४ महीने बाद ८ नवंबर १९४९ को आया। क्या इसका यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को अपनी गलती का एहसास हो गया था।

 यदि आप गांधी जी की हत्या को लेकर आज भी संघ पर आरोप लगाते हैं या गोडसे को संघ से जोड़ते हैं तो यह सुप्रीम कोर्ट का अपमान है और उस समय की सरकार का अपमान है। संघ तो आज भी रोजाना अपने प्रातः स्मरण में गाँधीजी को याद करता है।

बात यहीं खत्म नहीं होती मैं तो यह पूछना चाहता हूँ कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नाती जीवी केतकर पर गांधी जी की हत्या के षड्यंत्र की जानकारी होने का आरोप लगाते समय लोगों को शर्म नहीं आई क्या? उन पर हत्या के षड्यंत्र की जानकार छिपाने के आधार पर रासुका लगाई गई। इसके बाद एक आयोग बना। आयोग की रिपोर्ट केतकर के साथ सावरकर और संघ को भी निर्दोष साबित करती है।

(फोटो साभार गूगल)