Monday, October 25, 2021

बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं.....

 बचपन जैसी दिवाली  मनाते हैं.....


हुई करवा चौथ अब साफ़-सफाई में जुट जाते हैं

चूने और नील वाली बात हुई पुरानी तो क्या,

बाजार से ऑइल पेंट लाकर खुद पुताई करते हैं

अलमारी खिसकाएं शायद कोई खोई चीज़ 

वापस  मिल जाए, और हम मुस्कराएं

जैसे बचपन में खिलौना मिल जाता था

और हम इठलाते थे

आओ, बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

घर का कबाड़ बेच कुछ पैसे कमाते हैं 

दौड़- दौड़  के घर का हर सामान लाते हैं 

कुछ पैसे पटाखों के लिए बचाते हैं

आओ, बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

बैरागढ़ जाकर थोक की दुकान से पटाखे लाते है

मुर्गा ब्रांड , लक्ष्मी बम और रस्सी बम और सांप की गोली लेकर आते हैं

दो -तीन दिन तक पटाखे  छत धूप में सुखाते हैं

बार-बार सब दोस्तों के पटाखे गिनते जाते है

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं 

मोहल्ले से निकल कर न्यू मार्केट की रौनक देखने जाते हैं

दुकान पर रखी  चीजों को उठाते हैं

और रेट पूछकर वापस रख देते हैैं

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं 

बिजली की सिरीज़ और कैंडल लटकाते है

याद करो

केसे सिरीज बनाते थे, छत से लटकाते थे

मास्टर  बल्ब लगाते थे

टेस्टर रखकर पूरे इलेक्ट्रीशियन बन जाते थे

एक बार फिर दो-चार बिजली के झटके भी  खाते हैं

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

धनतेरस के दिन कटोरदान लेकर आते हैं

घर पर बने चकली गुजिया  खाते हैं

प्रसाद की  थाली   पड़ोस में  देने जाते हैं

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

खील में से  धान बिनवाते हैं 

खांड  के खिलोने के साथ धान खाते है 

अन्नकूट की तैयारी में हाथ बंटाते हैं

नए नए पकवान खाते हैं

भैया-दूज के दिन बहन से तिलक करवाते हैं 

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

दिवाली बीत जाने पर बिन फूटे पटाखों का बारूद जलाते हैं घर की छत पे जले हुए राकेट पाते हैं 

बचपन के सारे दोस्त इकट्ठा हो जाते हैं

 चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं


Wednesday, July 7, 2021

भागवत के बयान पर विवाद क्योंकि व्हाट्सएप और ब्रेकिंग न्यूज़ से हमारी याददाश्त हुई कमजोर

  भागवत के बयान पर विवाद क्योंकि
 व्हाट्सएप और ब्रेकिंग न्यूज़ से हमारी याददाश्त हुई कमजोर

3 दिन पहले संघ सरसंघचालक मोहन भागवत का बयान आया कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। मीडिया में आए इस बयान से हलचल मच गई। ब्रेकिंग न्यूज़ और व्हाट्सएप मैसेज के इस युग में ज्यादातर लोग ना तो संदर्भ देखते हैं और ना उन्हें पुरानी बातें याद रहती हैं। 

आरएसएस और मुसलमान यह हमेशा से ही विघ्न संतोषी लोगों का प्रिय विषय रहा है। ऐसे में भागवत के मीडिया में आए बयान की जब तक पूरी पड़ताल नहीं की जाए तब तक किसी भी तरह की धारणा बनाना उचित नहीं है।

जरा विचार कीजिए

 (१) क्या भागवत ने किसी भी पुस्तक के विमोचन समारोह में केवल एक या दो लाइन का ही भाषण दिया होगा? 

भागवत तो आमतौर पर सरल शब्दों में संदर्भों के साथ 45 मिनट से लेकर 1 घंटे तक भाषण देते हैं। इसलिए इस पुस्तक विमोचन समारोह में भी उनका भाषण कुछ लंबा ही रहा होगा ना।

(२) क्या भागवत ने ऐसा पहली बार कहा है ?

सितंबर 2018 में विज्ञान भवन नई दिल्ली में 3 दिन तक चली व्याख्यानमाला में सरसंघचालक ने क्या कहा था। जरा इसे पढ़ लीजिए


भागवत ने द्वितीय सरसंघचालक गुरु जी की पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स और मुसलमानों से जुड़े एक प्रश्न के जवाब में कहा था - "अरे भाई हम एक देश की संतान हैं, भाई-भाई जैसे रहें. इसलिए संघ का अल्पसंख्यक शब्द को लेकर रिज़र्वेशन है. संघ इसको नहीं मानता. सब अपने हैं, दूर गए तो जोड़ना है. अब रही बात 'बंच ऑफ थॉट्स' की, तो बातें जो बोली जाती हैं वे परिस्थिति विशेष, प्रसंग विशेष के संदर्भ में बोली जाती हैं. वे शाश्वत नहीं रहतीं. एक बात यह है कि गुरुजी (गोलवलकर) के जो शाश्वत विचार हैं, उनका एक संकलन प्रसिद्ध हुआ है- 'श्री गुरुजी विजन और मिशन,' उसमें तात्कालिक सन्दर्भ वाली सारी बातें हमने हटाकर उनके जो सदा काल के लिए उपयुक्त विचार हैं उन्हें हमने लिया है. संघ बंद संगठन नहीं है कि हेडगेवर जी ने कुछ वाक्य बोल दिए, हम उन्हीं को लेकर चलने वाले हैं. समय के साथ चीज़ें बदलती हैं।"

इसके पहले भी सरसंघचालक मोहन भागवत के इस तरह के बयान आते रहे हैं। 

(३)क्या मुसलमानों के संदर्भ में इस तरह के बयान देने वाले भागवत पहले सरसंघचालक हैं?

इस सवाल का जवाब है नहीं ऐसा नहीं है। विस्तार में जाएंगे तो डॉ हेडगेवार और गुरु जी सहित सभी सरसंघचालकों के ऐसे ही विचार आपको मिल जाएंगे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में डॉ. हेडगेवार ने कुछ मुस्लिम धार्मिक नेताओं के साथ एक सहज संबंध बनाने की शुरुआत की थी और साठ के दशक में गोलवलकर ने विश्वयुद्ध से पहले के दिनों के उस रिश्ते को पुनर्जीवित करने की कोशिश की थी।"

(४) क्या कभी यह सोचा है कि हिंदू महासभा के होते हुए भी भारतीय जनसंघ की स्थापना क्यों हुई? संघ और हिंदू महासभा तो कई मुद्दों पर एक साथ काम करते थे ना।

पिछले दिनों महात्मा गांधी के संदर्भ में किए अध्ययन और लेखन के दौरान मैं इस नतीजे पर पहुंचा था कि आजादी के बाद भी हिंदू महासभा ने अपनी सदस्यता केवल उन्हीं लोगों के लिए खोली थी जो रिलीजियस रूप से हिंदू हों, जबकि संघ का मानना था कि भारत में जन्मा हर व्यक्ति हिंदू है। बशर्ते वह भारत माता को अपनी मां का दर्जा दे और यह स्वीकार करे कि हम सब के पूर्वज एक ही हैं और इस नाते भारत की संस्कृति का सम्मान करे। भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक बलराज मधोक भारत के मुसलमानों को हिंदवी मुसलमान कहते थे। जनसंघ की माइनॉरिटी सेल बहुत मजबूत थी। ध्यान रहे उस समय गुरुजी संघ के सरसंघचालक थे। जनसंघ पर संघ का शत प्रतिशत नियंत्रण था आज की भाजपा तो उससे काफी हद तक मुफ्त है

(५) क्या संघ की शाखाओं में मुसलमान जा सकते हैं?

संघ ने 1979 से अपनी शाखाएं मुसलमानों के लिए खोल रखी हैं। कुछ मुस्लिम स्वयंसेवक शाखा में जाते हैं यह बात सही है कि उनकी संख्या बहुत कम है। लेकिन भारतीय मजदूर संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सहित अन्य अनुषांगिक संगठनों में बड़ी संख्या में मुस्लिम पदाधिकारी है। वे इन संगठनों के कार्यक्रमों के दौरान भगवा ध्वज को प्रणाम भी करते हैं। 

(६) क्या आपको पता है मोहन भागवत किस संगठन के कार्यक्रम में गए थे ?

उस संगठन का नाम है मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ‌। स्वर्गीय कुप सी सुदर्शन ने सरसंघचालक रहते हुए इस संगठन की स्थापना कराई। संघ प्रचारक इंद्रेश कुमार इसके कर्ताधर्ता हैं। जब आप इस संगठन की गतिविधियों की जानकारी इकट्ठा करेंगे तो पता चलेगा कि यह संगठन मुसलमानों को राष्ट्रीय विचारधारा से जोड़ने का काम कर रहा है। 

(७) अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात आखिर भागवत ने कहा क्या था ?

उनके भाषण की ट्रांसस्क्रिप्ट पढ़ लीजिए। यह है पूरा उद्बोधन

भागवत ने कहा -

ये कोई इमेज मेकओवर का एक्सरसाइज नहीं है, संघ क्या है 90 वर्षों से पता है लोगों को. संघ को इमेज की कभी परवाह रही नहीं है. हमको बाकी कुछ करना नहीं है, सबको जोड़ना है, अच्छा काम करना है. हमारा संकल्प सत्य है, इरादा पक्का है, पवित्र है. किसी के विरोध में नहीं किसी की प्रतिक्रिया में नहीं.


इसलिए ये इमेज बदलने का कोई एक्सरसाइज नहीं है, ये अगले चुनावों के लिए मुसलमानों का वोट पाने का प्रयास भी नहीं है क्योंकि हम उस राजनीति में नहीं पड़ते.


हां हमारे कुछ विचार है, राष्ट्र में क्या होना चाहिए क्या नहीं होना चाहिए उसके बारे में. और अब एक ताकत बनी है तो वो ठीक हो जाए इतनी ताकत हमें जहां लगानी है, चुनावों में भी लगाते है. ये बात जरूर है लेकिन हम किसी के पक्षधर है इसलिए नहीं, हम राष्ट्र हित के पक्षधर है. उसके खिलाफ जाने वाली बात कोई भी करे हम उसका विरोध करेंगे. और उसके पक्ष में जाने वाली बात कोई भी करे हम उसका समर्थन करेंगे.


कुछ काम ऐसे है जो राजनीति बिगाड़ देती है, मनुष्यों को जोड़ने का काम राजनीति से होने वाला नहीं है. राजनीति चाहे तो उसपर असर डाल सकती है, बिगाड़ सकती है उतनी मात्रा में राजनीति की चिंता लोगों को जोड़ने वालों को करनी पड़ती है. वो कोई भी हो हम हों या अगर आप जोड़ने चले है उनको भी चिंता है वो करनी पड़ेगी. परंतु राजनीति इस काम का औजार नहीं बन सकती. इस काम को बिगाड़ने का हथियार बन सकती है.


हिंदू मुसलमान एकता ये शब्द ही बड़ा भ्रामक है, ये दो है ही नहीं तो एकता की बात क्या. इनको जोड़ना क्या ये जुड़े हुए है. और जब ये मानने लगते है की हम जुड़े हुए नहीं है तब दोनो संकट में पड़ जाते है. बात यही हुई है. हम लोग अलग नहीं है क्योंकि हमारे देश में ये परंपरा नहीं है की आप की पूजा अलग है इसलिए आप अलग है.


हम लोग एक है और हमारी एकता का आधार हमारी मातृभूमि है. आज हमारी पूरी जनसंख्या को ये भूमि आराम से पाल सकती है, भविष्य में खतरा है उसको समझ के ठीक करना पड़ेगा.


हम समान पूर्वजों के वंशज है. ये विज्ञान से भी सिद्ध हो चुका है. 40 हजार साल पूर्व से हम भारत के सब लोगों का डीएनए समान है.


हिंदुओ के देश में हिंदुओ की दशा ये हो गई जरूर दोष अपने ही समाज में है, उस दोष को ठीक करना है. ये संघ की विचारधारा है.


तथाकथित अल्पसंख्यकों के मन में यह डर भरा गया है की संघ वाले तुमको खा जायेंगे. दूसरा ये डर लगता है की हिंदू मेजोरिटी देश में आप रहोगे तो आपका इस्लाम चला जायेगा. अन्य किसी देश में ऐसा होता होगा. हमारे यहां ऐसा नहीं है. हमारे यहां जो जो आया है वो आज भी मौजूद है.


मैं बहुत आग बबूला होके भाषण करके हिंदुओ में पापुलर तो हो सकता हूं, लेकिन हिन्दू कभी मेरा साथ नहीं देगा. क्योंकि वो आतातायित्व पर चलने वाला नहीं है. वो जानता है की अपना शत्रु है तो भी उसको जीने का हक है. लड़ाई भी होती है और लड़ाई हारने के बाद शत्रु कहता है माफ करो तो उसको शरण देना है. ये परंपरा है.


अगर हिंदू कहते है की यहां एक भी मुसलमान नहीं रहना चाहिए तो हिंदू हिंदू नही रहेगा. ये हमने संघ में पहले नहीं कहा है, ये डॉक्टर साब के समय से चलती आ रही विचारधारा है. ये विचार मेरा नहीं है, ये संघ की विचारधारा का एक अंग है क्योंकि हिंदुस्तान एक राष्ट्र है. यहां हम सब एक है. इतिहास भी होंगे लेकिन पूर्वज सबके समान है.


लोगों को पता चले इस ढंग से इस्लाम भारत में आया वो आक्रामकों के साथ आया. जो इतिहास दुर्भाग्य से घटा है वो लंबा है, जख्म हुए है उसकी प्रतिक्रिया तीव्र है. सब लोगों को समझदार बनाने में समय लगता है लेकिन जिनको समझ में आता है उनको डटे रहना चाहिए.


देश की एकता पर बाधा लाने वाली बाते होती है तो हिंदू के खिलाफ हिंदू खड़ा होता है. लेकिन हमने ये देखा नहीं है की ऐसी किसी बात पर मुस्लिम समाज का समझदार नेतृत्व ऐसे आताताई कृत्यों का निषेध कर रहा है.


लोगों को कन्वर्ट करने के लिए तैयारी करने का समय मिले इसलिए लोगों को बातों में उलझा कर रखना ये भी एक अर्थ होता है बातचीत का. ऐसा किसी ने किया हो तो पता नहीं.


कट्टरपंथी आते गए और उल्टा चक्का घुमाते गए. ऐसे ही खिलाफत आंदोलन के समय हुआ. उसके कारण पाकिस्तान हुआ. स्वतंत्रता के बाद भी राजनीति के स्तर पर आपको ये बताया जाता है की हम अलग है तुम अलग हो.


समाज से कटुता हटाना है, लेकिन हटाने का मतलब ये नहीं की सच्चाई को छिपाना है. भारत हिंदू राष्ट्र है, गौमाता पूज्य है । लेकिन लिंचिंग करने वाले हिंदुत्व के खिलाफ जा रहे है, वो आतातायी है. कानून के जरिए उनका निपटारा होना चाहिए. क्योंकि ऐसे केसेज बनाए भी जाते है तो बोल नहीं सकते आज कल की कहां सही है कहां गलत है.


आज अगर संघ के नाते हम कोई बात कहते है, अभी ये बात मैं कह रहा हूं, इसकी हिन्दू समाज में तो बहुत बड़ी चर्चा होगी. बहुत बड़ा वर्ग है जो इसका समर्थन करेगा, हमको कहेगा की आपने बहुत अच्छा किया ये पहल की.


ऐसा भी वर्ग है जो खराब नहीं है, अच्छा ही है, अच्छे इंसान है लेकिन वो कहेंगे की बस आप भी भोले बन गए अब. ये जरूर कहेगा. क्योंकि ठोकरें लगी है. वो कहेंगे की अरे ऐसा कभी हुआ था क्या? ऐसा मामला नहीं है ये. आप लोग नहीं समझते. ऐसे भी होंगे. चलेगा.. ये शास्त्रार्थ चलेगा.


लेकिन एक बात है की हिंदू समाज की भावना संघ बोलता है. क्योंकि नीचे तक हमारे स्वयंसेवक है, समाज क्या सोचता है क्या नहीं, हमारे पास आता है, उसके अनुसार मै बता रहा हूं.


हिंदू समाज की हिम्मत बढ़ाने के लिए उसका आत्मविश्वास उसका आत्म सामर्थ्य बढ़ाने का काम संघ कर रहा है. संघ हिंदू संगठनकर्ता है. इसका मतलब बाकी लोगों को पीटने के लिए नहीं है वो.


एक ने पूछा की आप क्या करने जा रहे है? क्या होगा इससे? इससे तो हिंदू समाज दुर्बल होगा. मैने कहा कमाल है.. एक तथाकथित माइनोरिटी समाज है मुसलमान, उसकी पुस्तक का मैं उद्घाटन करने जा रहा हूं उसमे कोई डरता नहीं है और तुम मेजोरिटी समाज के होकर के डरते हो की क्या होगा? ऐसा व्यक्ति एकता नही कर सकता जो डरता है. एकता डर से नहीं होती, प्रेम से होती है, निस्वार्थ भाव से होती है.


हम डेमोक्रेसी है, कोई हिंदू वर्चस्व की बात नहीं कर सकता कोई मुस्लिम वर्चस्व की बात नहीं कर सकता. भारत वर्चस्व की बात सबको करनी चाहिए.


हम कहते है भारत हिंदू राष्ट्र है । इसका मतलब केवल तिलक लगाने वाला, पूजा करने वाला नही है. जो भारत को अपनी मातृभूमि मानता है जो अपने पूर्वजों का विरासतदार है, संस्कृति का विरासतदार है वो हिंदू है । 


हम हिंदू कहते है आपको नहीं कहना है मत कहो, भारतीय कहो, ये नाम का शब्द का झगड़ा छोड़ो. हमको इस देश को विश्व गुरु बनाना है. और ये विश्व की आवश्यकता है, नहीं तो ये दुनिया नहीं बचेगी.

इति।


©️ इस आलेख में व्यक्त विचार मेरे निजी हैं। किसी भी मीडिया माध्यम में पूर्वानुमति के बिना इसके उपयोग की अनुमति नहीं है। 

- मनोज जोशी


Wednesday, June 9, 2021

बिरसा तुम्हें आना होगा

"यह धरती हमारी है, हम इसके रक्षक हैं। हर अन्याय के खिलाफ उलगुलान। यही पुरखों का रास्ता है।अप्राकृतिक ताकतों के खिलाफ एकजुट हो जाओ। उठो प्रकृति नेतुम्हे जीने के लिए सभी हथियार दिये हैं। मैं सभी दिशाओ से पुकार रहा हूँ।" - बिरसा मुंडा


वनवासी समाज के भगवान बिरसा मुंडा की आज पुण्यतिथि है। बिरसा यानी एक ऐसा योद्धा, स्वतन्त्रता सेनानी , समाज सुधारक जिसके बारे में वनवासी आज भी मानते हैं कि वह लौट कर आएगा।

1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला. आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे।

 बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन के हक  की लड़ाई छेड़ी । बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन का ऐलान किया. ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे. यह सामान्य विद्रोह नहीं बल्कि वनवासी अस्मिता और संस्कृति  के संरक्षण के साथ साथ स्वायत्तता का संग्राम था।

बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया. रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस में  बिरसा का आतंक हो गया। जब बिरसा पकड़ में नहीं आए तो  अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी.  बिरसा की ही जाति के लोगों ने उन्हें पकड़वा दिया।

‘उलगुलान’ के रुमानीवाद को साहित्य और जंगल से निकलकर साम्यवाद के हाथों में लाने वाले चारू मजुमदार, कनु सान्याल और जगत संथाल ने इसे नक्सलवाद का रंग दे दिया। ‘नक्सलवाद’ शब्द पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से निकला। पं. बंगाल के हाल के विधानसभा चुनाव के परिणाम चाहे जो रहा हो, लेकिन एक बात जिस पर शायद कम ही लोगों का ध्यान गया कि नक्सलबाड़ी के लोगों ने भी अब कम्युनिज्म को नकार दिया है।

बिरसा मुंडा के जीवन और उनके संघर्ष को समझेंगे तो पता चलेगा कि बिरसा मुंडा वनवासियों को उनके अधिकार दिलाने के साथ उन्हें संस्कृति से भी जोड़ कर रखना चाहते थे।

 बिरसा का जन्म वर्तमान झारखण्ड प्रदेश के  अड़की प्रखंड अंतर्गत ग्राम – उलीहातु में 15 नवंबर 1875 को हुआ था।  बिरसा के जन्म के बहुत दिन पहले ही उसके बड़े पिता कानू उलिह्तू में ईसाई बन चुके थे। इनका मसीही नाम पौलूस था। बिरसा के पिता सुगना और उसके छोटे भाई फसना ने बम्बा में जाकर ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। यहाँ तक की सुगना तो जर्मन ईसाई मिशन के प्रचारक भी बन गए थे। इसलिए बिरसा भी अपने पिता के साथ ईसाई हो गये। सुगना का मसीही नाम मसीहदस  और बिरसा का दाऊद मुंडा पड़ा।

बिरसा अपनी मौसी का बड़ा प्यारा था। वे उसे अपने साथ अपने गांधी खटंगा ले गईं । यहाँ एक ईसाई प्रचारक से उनका संपर्क हुआ। वह प्रचारक मुंडाओं की पुरानी धर्म (पंथ/ संप्रदाय/ उपासना पद्धति  ) व्यवस्था की आलोचना किया करता था। यह बिरसा को अच्छा नहीं लगा। नाराज बिरसा वहां से  बुडजो स्थित जर्मन मिशन स्कूल में भर्ती हो गया और  निम्न प्राथमिक (lower primary) की शिक्षा के लिए जर्मन ईसाई मिशन स्कूल चाईबासा में एडमिशन ले लिया । यह 1886 से 1890 के बीच का घटनाक्रम है। उस समय जर्मन – लूथेरन और रोमन कैथोलिक ईसाईयों के भूमि आन्दोलन चल रहे थे। एक दिन चाईबासा मिशन में उपदेश देते हुए डॉ. नोट्रेट ने ईश्वर के राज्य के सिद्धांत पर उपदेश दिया।  डॉ. नोट्रोट ने वनवासियों से कहा  कि यदि वे ईसाई बने रहेंगे और और उनके निर्देशों का पालन करते रहेंगे तो उनकी छिनी हुई जमीन वापस कर दी जाएगी। यह बात बिरसा और अन्य लोगों को नागवार गुजरी। बिरसा ने उसी समय डॉ. नोट्रोट और मिशनरियों की  बहुत ही तीखे शब्दों में आलोचना की। इसका नतीजा यह हुआ कि बिरसा को स्कूल से निकाल दिया गया। इस घटना के बाद बिरसा ने नारा दिया -  "साहब - साहब एक टोपी हे।"  यानी  गोरे अंग्रेज और मिशनरी एक जैसे हैं । । बिरसा ने1890 में चाईबासा छोड़ दिया और जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी। उसने रोमन कैथोलिक मिशन धर्म (religion ) स्वीकार किया। पर बाद में उस religion के प्रति भी उनके मन में विरक्ति आने लगी। आखिरकार वे अपने  पुराने धर्म (पंथ)  की ओर लौट आये। और इसके बाद अपनी संस्कृति और पंथ पर जोर देने लगे।

बिरसा की मुलाकात आनंद पाण्ड नाम के एक व्यक्ति से हुई , जिसने उनका जीवन बदल दिया । आनंद पांड स्वांसी जाति का एक धार्मिक व्यक्ति था।  बिरसा ने उनसे  वैष्णव पंथ के प्रारम्भिक सिद्धांतों और रामायण महाभारत की कथाओं का श्रवण कर ज्ञान हासिल किया। इसी दौरान एक वैष्णव साधु से उनकी मुलाकात हुई। साधु ने उन्हें  तीन महीने तक उपदेश दिए। साधु से प्रभावित होकर बिरसा ने मांस खाना छोड़ दिया और जनेऊ धारण कर शुद्धता और धर्म परायणता का जीवन व्यतीत करने लगा। वह तुलसी की पूजा करने लगा और माथे पर चन्दन का टीका लगाना शुरू किया। यही नहीं उन्होंने गो – वध भी रूकवाया।

वनवासी समाज के भगवान माने जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा ने नारा दिया था " साहब- साहब एक टोपी हे।" यानी गोरे अंग्रेज और मिशनरी एक जैसे हैं । यही नहीं बिरसा अनुयायी जोर - शोर से नारे लगाते थे ;हेन्दे राम्बड़ा रे केच्चे, केच्चे, पूंडी राम्बड़ा रे केच्चे – केच्चे।" यानी काले ईसाइयों और गोरे  ईसाइयों का सिर काट दो। परंतु कोई ईसाई नहीं मारा गया। 


कवि भुजंग मेश्राम की इन पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करुंगा 


‘बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा


घास काटती दराती हो या लकड़ी काटती कुल्हाड़ी


यहां-वहां से, पूरब-पश्चिम, उत्तर दक्षिण से


कहीं से भी आ मेरे बिरसा


खेतों की बयार बनकर


लोग तेरी बाट जोहते.’


#मनोज_जोशी

Monday, April 26, 2021

समाज परिवर्तन से ही व्यवस्था परिवर्तन संभव

 समाज परिवर्तन से ही व्यवस्था परिवर्तन संभव 

मनोज जोशी 

कोरोना की इस महामारी और खासतौर से दूसरी लहर ने हमारे तंत्र यानी सिस्टम की खामियों को एक बार फिर सामने लाकर रख दिया है। सिस्टम की इन खामियों को लेकर सोशल मीडिया पर एक अजीबोगरीब युद्ध छिड़ा हुआ है। ‌ मैं भी सिस्टम की खामियों से दुखी हूं और पिछली कम से कम 4 पोस्ट में मेरा यह गुस्सा और दुख जाहिर कर चुका हूं। 

लेकिन इसके आगे एक और पहलू है जिसकी चर्चा होनी चाहिए। लोग पूछ रहे हैं कि सरकार ने यानी सिस्टम ने कोरोना की इस दूसरी लहर की तैयारी क्यों नहीं करी ? यदि बहुत गहराई से सोचें तो आग लगने पर कुआं खोदना यह हमारे सिस्टम का चरित्र बना हुआ है और हमने इसे ऐसा ही स्वीकार भी कर रखा है। जब कोई समस्या या मुद्दा सामने खड़े होता है तभी हम उसका निदान खोजते हैं। पहले से तैयारी यह हमारे सिस्टम का चरित्र ही नहीं है। आज महामारी का समय है इसलिए स्वास्थ्य को लेकर बात हो रही है, लेकिन क्या स्वास्थ्य के अलावा अन्य क्षेत्रों में सिस्टम ठीक काम कर रहा है ? कल्पना कीजिए कि हमारा सिस्टम आज से 5 साल बाद आने वाली किसी समस्या के निराकरण के लिए आज से प्रयास शुरु करता है तो क्या उसकी आलोचना नहीं होगी ? हम ही लोग कहेंगे जब होगा तब देखेंगे अभी तो आज की स्थिति से निपटा जाए।

यह बिल्कुल सही है कि नेताओं ने अपनी रैलियों और सभाओं या पार्टियों की बैठकों में कोरोना प्रोटोकॉल का ध्यान नहीं रखा। लेकिन यह भी सही है कि समाज का बड़ा वर्ग भी उसे भूल सा गया था। दुकानों के आगे बनने वाले गोले और काउंटर के सामने बंधने वाली रस्सी तो गायब हो ही गई थी। हम लोग भी मास्क के बिना सर्वजनिक स्थानों पर घूम रहे थे। जैसे हम वैसे हमारे नेता और वैसा ही हमारा सिस्टम। हमारी और सिस्टम की दोनों की खामियों को मिलाकर समस्या ने विकराल रूप ले लिया और कई ऐसे लोग शिकार हो गए जो बेचारे 100% से भी अधिक सतर्कता बरतते थे। 

जब हम देश के और प्रदेश के चुनाव परिणामों पर नजर डालेंगे तो पता लगेगा कि हमने कई बार व्यवस्था में यानी सिस्टम में परिवर्तन के लिए सत्ता परिवर्तन किया। 1977 में जनता पार्टी की सरकार आई लोगों को उम्मीद थी की व्यवस्था बदलेगी सिस्टम बदलेगा। जब सिस्टम नहीं बदला तो 1980 में जनता ने जनता पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। मप्र में 1977 के बाद 1990 के सत्ता परिवर्तन में भी अपेक्षित व्यवस्था परिवर्तन नहीं दिखा। 2003 आते-आते जब लोग पूरी तरह निराश हो गए और उन्हें उमा भारती के रूप में नया नेतृत्व नजर आया तो फिर सत्ता परिवर्तन हुआ। भाजपा को व्यवस्था परिवर्तन के लिए प्रदेश के लोगों ने तीन अवसर दिए। इस बीच केंद्र की यूपीए सरकार के दो कार्यकालों से आई निराशा के कारण केंद्र में भी मोदी सरकार बन गई। लेकिन इतने सबके बावजूद क्या व्यवस्था यानी सिस्टम में बदलाव हुआ है? इस प्रश्न पर जब गंभीरता से विचार करेंगे तो जवाब मिलेगा कि इन वर्षों में कुछ चीजें बदली है, लेकिन वह उतनी ही है जितना समाज में बदलाव आया है। मेरी बहुत स्पष्ट मान्यता है कि चाहे अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की बात हो या धारा 370 को निष्प्रभावी करने का मुद्दा हो या ऐसा और कोई विषय हो सब पर सरकार या सिस्टम तभी निर्णायक स्थिति में आया है जब समाज में उसको लेकर स्पष्ट मत बन चुका था।

 समस्या के दौरान ही हमारे समाज की ताकत सामने आती है। लाल बहादुर शास्त्री जी के आह्वान पर सोमवार का उपवास इसका एक बड़ा उदाहरण है। वर्तमान समय में पिछले साल लॉक डाउन के दौरान जहां लोग बड़े पैमाने पर भोजन, राशन आदि की व्यवस्था कर रहे थे, वही अब समाज का बड़ा वर्ग इंजेक्शन, ऑक्सीजन, दवाई और अस्पताल के इंतजाम में लगा हुआ है। लोगों ने छोटे-छोटे व्हाट्सएप ग्रुप और फेसबुक ग्रुप बना लिए हैं। किसी को भी कहीं से भी किसी भी तरह की मदद की जरूरत होती है तो वह सूचना एक साथ कई जगह घूमती है और कई लोग मदद के लिए आगे आ जाते हैं। गौर से देखेंगे तो हमारे आसपास ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो अपना नियमित कामकाज छोड़कर इस समय सेवा में लगे हुए हैं, इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो बार-बार अस्पताल का चक्कर लगाने के कारण संक्रमित हो गए। 

बस समाज की इसी ताकत को बचाए रखने और बढ़ाने की जरूरत है। अक्सर कहा जाता है कि सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती। उसे समाज का सहयोग चाहिए होता है। मैं इसके आगे कहता हूं, और यह पहली बार नहीं कह रहा हूं पहले भी कह चुका हूं कि सरकार को सब कुछ करने की जरूरत भी नहीं है। 

केवल सत्ता परिवर्तन से व्यवस्था परिवर्तन हो रहा होता तो अब तक हमारी व्यवस्था हमारा सिस्टम ठीक हो चुका होता। लेकिन 137 करोड़ आबादी वाले इस प्राचीन देश में यह संभव नहीं है। यहां तो समाज परिवर्तन से ही व्यवस्था परिवर्तन संभव है। इस समाज परिवर्तन के यज्ञ में आहुति देने के लिए तैयार रहें।

#मनोज_जोशी 

(हनुमान जयंती, 5123,युगाब्द तदानुसार 27 अप्रैल 2021)


©️ इस पोस्ट में व्यक्त विचार व्यक्तिगत है। किसी भी पत्र-पत्रिका न्यूज़ वेबसाइट न्यूज़ चैनल यूट्यूब चैनल आदि पर इनके उपयोग की अनुमति नहीं है। आप अपने सोशल मीडिया नेटवर्क पर मेरे नाम के साथ इसे शेयर कर सकते हैं। यह पोस्ट मेरे ब्लॉग www.mankaoj.blogspot.com पर भी उपलब्ध है।



Tuesday, April 20, 2021

आरोग्य के लिए रामचरितमानस का अध्ययन करें

 

आरोग्य के लिए रामचरितमानस का अध्ययन करें

- #मनोज_जोशी 


आज रामनवमी है। रामनवमी यानी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म दिन ! लगातार दूसरे साल यह पर्व ऐसे समय आया है जब न केवल भारत बल्कि पूरा विश्व एक महामारी से लड़ रहा है। रामनवमी की शुभकामनाएं देते हुए मैं आपसे कहना चाहता हूं कि आरोग्य के लिए रामचरितमानस का अध्ययन कीजिए ‌‌। आप सोच रहे होंगे भला रामचरितमानस का आरोग्य से क्या रिश्ता ?

मैं एक दिन एक कथावाचक के प्रवचन सुन रहा था, उन्होंने कहा जिस घर में रामचरितमानस होती है वहां आरोग्य होता है। कथावाचक ने घर के सभी सदस्यों को मानस का अध्ययन करने की सलाह दी। मैं भी यही सोच रहा था कि मानस का आरोग्य से क्या रिश्ता?

कथावाचक ने भी बहुत विस्तार में बताने की बजाए केवल राम की भक्ति की बात करी। लेकिन उनके इस कथन के बाद मैंने मानस को जब आरोग्य की दृष्टि से देखा तो समझ आया कि रामचरितमानस में कम से कम 40 ऐसी वन औषधियों का जिक्र है जो अलग-अलग रोगों में उपयोग में आ सकती हैं। श्री राम के युग में भारत में एक विशिष्ट चिकित्सा पद्धति विकसित थी। 

जरा यह उदाहरण देखिए - 

सती अहिल्या को श्रीराम पाषाण (वास्तव में कई वर्षों से कोमा) अवस्था से चरण धूलि से स्वस्थ अवस्था में लाते हैं।

“ जे पद परसि तरी रिषिनारी।

दंडक कानन पावनकारी।। ”

भक्ति भाव में हम इसे श्रीराम का चमत्कार मान लेते हैं, लेकिन वास्तव में यह किसी चमत्कार का परिणाम नहीं था। इस भक्ति में हम यह भूल जाते हैं कि श्री राम जब विश्वामित्र जी श्रीराम विद्या ग्रहण कर रहे थे तो उन्होंने श्रीराम को ऐसी औषधियों की शिक्षा दी थी जो बिना भोजन तथा जल के शरीर को स्वस्थ रख सकती है।

“ तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही।

विद्यानिधि कहुँ विद्या दीन्ही।।

जाते लाग ना छुधा पिपासा।

अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।। ”


लंका में युद्ध के दौरान लक्ष्मण जी का मूर्छित हो जाना और संजीवनी बूटी से उनके इलाज का पूरा प्रसंग तो सभी जानते हैं। इस प्रसंग में एक खास बात जिसका आम तौर पर जिक्र नहीं होता वह या कि लक्ष्मण जी का उपचार लंका के राज वेद्य सुषेण वैद्य ने किया था। यानी उस समय चिकित्सक युद्ध के दौरान घायल दुश्मन का भी इलाज करते थे।

 इसके अलावा श्री राम के जन्म से पहले की कथा को याद कीजिए। महाराज दशरथ एक यज्ञ करते हैं और उस यज्ञ के प्रसाद स्वरूप खीर तीनों महारानियों को ग्रहण कराते हैं। यह यज्ञ भी विश्वामित्र ही संपन्न कराते हैं। तार्किक बुद्धि से विचार कीजिए यह प्रसाद एक औषधि ही थी जिसे केवल महारानियों को ही ग्रहण कराया गया। आप जब अगली बार मानस का अध्ययन करें तो पाएंगे कि अनेक अवसरों पर तुलसीदास जी ने विभिन्न फल फूल आदि के गुणों का वर्णन किया है। कई जगहों पर उन्होंने मनुष्य के स्वभाव,कर्तव्य आदि की व्याख्या करने के लिए इनका सहारा लिया है। 


!! सर्वे संतु निरामया !!

रामनवमी पर यही शुभकामना


*चित्र मेरे निवास पर बेटे रुद्रांश द्वारा तैयार श्रीराम की झांकी का


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- मनोज जोशी (भोपाल) रामनवमी युगाब्द 5123 तदनुसार दिनांक 21 अप्रैल 2021

Friday, April 2, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गांँधीजी का रामराज्य (५०)

(गतांक से आगे)

महात्मा गाँधीजी की रामराज्य की अवधारणा हिंदू राष्ट्र के बहुत करीब

-#मनोज_जोशी

हमने पिछली दो- तीन कड़ी में देखा कि हिंदू और हिंदुत्व के साथ हिंदू राष्ट्र की अवधारणा की गलत व्याख्या करके उसे रिलीजन से जोड़ा गया। इसी तरह गाँधीजी की रामराज्य की अवधारणा को जब हम देखते हैं तो पता चलता है कि वह भी रिलीजन पर आधारित नहीं है। आरएसएस की स्थापना से ४ साल पहले असहयोग आंदोलन के दौरान २२ मई, १९२१ को ‘नवजीवन’ में महात्मा गाँधी ने रामराज्य को लेकर जो कुछ लिखा वह पढ़ लीजिए। डॉ हेडगेवार और महात्मा गाँधीजी दोनों के विचारों में समानता ही नजर आएगी।

गाँधी जी लिखते हैं -‘कुछ मित्र रामराज्य का अक्षरार्थ करते हुए पूछते हैं कि जब तक राम और दशरथ फिर से जन्म नहीं लेते तब तक क्या रामराज्य मिल सकता है? हम तो रामराज्य का अर्थ स्वराज्य, धर्मराज्य, लोकराज्य करते हैं। वैसा राज्य तो तभी संभव है जब जनता धर्मनिष्ठ और वीर्यवान् बने. ...अभी तो कोई सद्गुणी राजा भी यदि स्वयं प्रजा के बंधन काट दे, तो भी प्रजा उसकी गुलाम बनी रहेगी। हम तो राज्यतंत्र और राज्य नीति को बदलने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं; बाद में हमारे सेवक के रूप में अंग्रेज रहेंगे या भारतीय हमें इसकी चिंता नहीं करनी पड़ेगी। हम अंग्रेज जनता को बदलने का प्रयास भी नहीं करते।हम तो स्वयं अपने-आप को बदलने का प्रयास कर रहे हैं।'

अब जरा संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार के विचारों को ध्यान कर लीजिए। वे भी हिंदू समाज की कमजोरियों को दूर करने की बात करते हुए कहते थे कि इन हालात में यदि हम आजाद हो भी गए तो भी वह बेमानी होगी।


भावनगर में गाँधीजी ने कहा - राम के वंशज समाप्त नहीं हुए हैं

भावनगर में ८ जनवरी १९२५ को काठियावाड़ राजनीतिक सम्मेलन में रामराज्य को लेकर महात्मा गाँधी ने कहा `राम ने एक कुत्ते के साथ भी न्याय किया। राम ने सत्य के लिए अपना राजपाट छोड़कर वन गमन किया जो कि सारी दुनिया के राजाओं के लिए मर्यादा का पाठ है। उन्होंने एक पत्नीव्रत का पालन करते हुए यह दर्शाया कि राजवंश से संबद्ध होने के बावजूद कोई गृहस्थ व्यक्ति पूर्ण आत्मसंयम का पालन कर सकता है। राम को जनमत जानने के लिए आज की तरह मतदान की आवश्यकता नहीं थी बल्कि वे अंतरज्ञान के माध्यम से ही लोगों के हृदय की बात जान लेते थे। राम की प्रजा बहुत प्रसन्न थी। इस तरह का रामराज्य आज भी कायम किया जा सकता है। राम के वंशज समाप्त नहीं हुए हैं।’


रामराज्य का मतलब ईश्वर का राज

उन्होंने १९ सितंबर १९२९ को `यंग इंडिया’ में लिखाः----,`रामराज्य से मेरा मतलब हिंदू राज नहीं है।" (यहाँ गाँधीजी हिंदू शब्द का उपयोग रिलीजन के ‌रूप में कर रहे हैं) वे आगे लिखते हैं- " मेरे रामराज्य का अर्थ है- ईश्वर का राज्य। मेरे लिये, राम और रहीम एक ही हैं; मैं सत्य और धार्मिकता के ईश्वर के अलावा किसी और ईश्वर को स्वीकार नहीं करता। चाहे मेरी कल्पना के राम कभी इस धरती पर रहे हो या न रहे हो, रामायण का प्राचीन आदर्श निस्संदेह सच्चे लोकतंत्र में से एक है, जिसमें एक बहुत बुरा नागरिक भी एक जटिल और महंगी प्रक्रिया के बिना त्वरित न्याय को लेकर आश्वस्त हो।"

रामराज्य यानी धर्म राज्य और रामराज्य ही सबसे बेहतर लोकतंत्र का उदाहरण

२० मार्च, १९३० को ‘नवजीवन’ में ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक से एक लेख में गाँधीजी ने कहा था- ‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएं, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य। यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूंगा। रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जाएंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा. ...सच्चा चिंतन तो वही है जिसमें रामराज्य के लिए योग्य साधन का ही उपयोग किया गया हो. यह याद रहे कि रामराज्य स्थापित करने के लिए हमें पाण्डित्य की कोई आवश्यकता नहीं है. जिस गुण की आवश्यकता है, वह तो सभी वर्गों के लोगों- स्त्री, पुरुष, बालक और बूढ़ों- तथा सभी धर्मों के लोगों में आज भी मौजूद है. दुःख मात्र इतना ही है कि सब कोई अभी उस हस्ती को पहचानते ही नहीं हैं. सत्य, अहिंसा, मर्यादा-पालन, वीरता, क्षमा, धैर्य आदि गुणों का हममें से हरेक व्यक्ति यदि वह चाहे तो क्या आज ही परिचय नहीं दे सकता?’


भोपाल में कहा - मेरे लिए राम और रहीम एक

सितंबर १९२९ में भोपाल में एक सभा में भी गाँधीजी ने रामराज्य की बात कही थी। गाँधी भवन न्यास द्वारा प्रकाशित पुस्तक मध्यप्रदेश के गाँधीधाम में लिखा है कि गांधीजी ने रामराज्य की पूरी व्याख्या करते हुए कहा था कि मुसलमान भाई इसे अन्यथा न लें, रामराज्य का मतलब है-ईश्वर का राज्य। मेरे लिए राम और रहीम में कोई अंतर नहीं है। उन्होंने कहा था कि जिस रामराज्य की कहानी हमें सुनने को मिलती है वह प्रजातंत्र का आदर्श है।

गाँधीजी ने कुछ अन्य अवसरोंं पर कहा था - "मैं अपने मुस्लिम मित्रों को सचेत करता हूं कि मेरे रामराज्य शब्द के प्रयोग पर वे किसी प्रकार की गलतफहमी में न आएं। मेरे लिए रामराज्य का अर्थ हिंदू राज नहीं है। मेरे लिए रामराज्य का अर्थ दैवीय शासन है। एक प्रकार से ईश्वर का राज्य है। मेरे लिए राम और रहीम एक ही हैं। मैं सत्य के अलावा और किसी को ईश्वर नहीं मानता। मेरी कल्पना के राम कभी इस धरती पर आए थे या नहीं लेकिन रामराज्य का प्राचीन आदर्श निस्संदेह एक प्रकार से सच्चे लोकतंत्र का नमूना है। वह ऐसी शासन व्यवस्था है जहां पर सबसे सामान्य नागरिक को भी लंबी और महंगी प्रक्रिया से गुजरे बिना त्वरित न्याय की उम्मीद बनी रहती है।"

अगस्त १९३४ में अमृत बाज़ार पत्रिका में उन्होंने कहा, 'मेरे सपनों की रामायण, राजा और निर्धन दोनों के लिये समान अधिकार सुनिश्चित करती है।'फिर २ जनवरी १९३७ को हरिजन में उन्होंने लिखा, 'मैंने रामराज्य का वर्णन किया है, जो नैतिक अधिकार के आधार पर लोगों की संप्रभुता है।’


मुस्लिम और ईसाई रिलीजन के लोगों की समझ के लिए वे रामराज्य को खुदाई राज या परमात्मा का राज भी कहने लगे थे।


गाँधीजी ने १९४६ में हरिजन में लिखाः----


`( मैं रामराज्य शब्द का प्रयोग इसलिए करता हूं) क्योंकि यह एक सुविधाजनक और सार्थक अभिव्यक्ति वाला मुहावरा है। इसके विकल्प में कोई दूसरा शब्द नहीं है जो लाखों लोगों तक मेरी बात को इतने प्रभावशाली ढंग से पहुंचा दे। जब मैं सीमांत प्रांत का दौरा करता हूं या मुस्लिम बहुल सभा को संबोधित करता हूं तो मैं अपने भाव को व्यक्त करने के लिए खुदाई राज शब्द का प्रयोग करता हूं। जब मैं ईसाई जनता को संबोधित करता हूं कि तब मैं धरती पर परमात्मा के राज की बात करता हूं।’

२६ फरवरी, १९४७ को एक प्रार्थना-सभा में महात्मा गाँधी ने कहा" मैंने अपने आदर्श समाज को रामराज्य का नाम दिया है. कोई यह समझने की भूल न करे कि राम-राज्य का अर्थ है हिन्दुओं का शासन. मेरा राम खुदा या गॉड का ही दूसरा नाम है। मैं खुदाई राज चाहता हूं जिसका अर्थ है धरती पर परमात्मा का राज्य. ...ऐसे राज्य की स्थापना से न केवल भारत की संपूर्ण जनता का, बल्कि समग्र संसार का कल्याण होगा।'

पिछले 7 महीने से जारी इस श्रंखला की 50 वीं कड़ी तक आते-आते इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि जिन महात्मा गांधी को "रघुपति राघव राजा राम" और "वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे" प्रिय थे स्वाभाविक रूप से वे मन और वचन से हिंदुत्व की मूल अवधारणा के काफी करीब थे।

दोनों की कार्यपद्धति में जरूर कुछ अंतर नजर आता है, लेकिन इस अंतर को बढ़ा चढ़ा कर पेश करके हम केवल उन विघ्न संतोषी लोगों के एजेंडे को ही पूरा करेंगे जिनके विचार की जड़ें भारत में नहीं है।

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अध्ययन के लिए अल्प विराम……

"हिंदुत्व और महात्मा गांँधीजी का रामराज्य" विषय पर यह अध्ययन तब तक बेमानी है जब तक रामराज्य की अवधारणा की प्रासंगिकता पर चर्चा ना हो। अब मैं वाल्मीकि रामायण में राम राज्य के वर्णन और वर्तमान संदर्भ में उसकी प्रासंगिकता पर अध्ययन शुरू कर रहा हूँ। इस बारे में अध्ययन के लिए इस श्रृंखला को अल्प विराम देता हूं। कुछ ही दिनों में "वर्तमान युग में रामराज्य की प्रासंगिकता" इस विषय पर भी मेरा लेखन किसी न किसी रूप में सामने आएगा।

इस श्रृंखला के लिए अनेक मित्रों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मुझे जो सहयोग प्रदान किया है और जो मेरा उत्साहवर्धन किया है के लिए सबका आभार व्यक्त करता हूं।

(समाप्त)


(यह श्रृंखला मेरे ब्लॉग www.mankaoj.blogspot.com 

और एक अन्य न्यूज़ वेबसाइट www.newspuran.com पर भी उपलब्ध है)




Monday, March 29, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गांँधी जी का रामराज्य (४९)

(गतांक से आगे)

आखिर हिंदू राष्ट्र की अवधारणा क्या है ?

#मनोज_जोशी


रामराज्य और उसमें भी गांधीजी के विचार जानने से पहले मुझे लगता है कि हिंदू राष्ट्र की अवधारणा पर भी चर्चा होनी चाहिए, तभी हम यह समझ सकेंगे कि दोनों में अंतर क्या है और दोनों में समानता क्या है ?

इस कड़ी में चर्चा करते हैं कि आखिर हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा क्या है ? 

१९२५ में आरएसएस की स्थापना के साथ डॉ हेडगेवार ने जोर देकर कहा - " हां मैं कहता हूँ कि भारत हिंदू राष्ट्र है।" यानी डॉक्टर हेडगेवार ने यह नहीं कहा कि भारत को हिंदु राष्ट्र बनाना है उन्होंने कहा भारत हिंदू राष्ट्र है। 


संघ की प्रार्थना कहती है 


प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता

इमे सादरं त्वां नमामो वयम्

त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयम्

शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।


प्रार्थना के इस भाग का हिंदी में अर्थ है


"सर्व शक्तिमान परमेश्वर, इस हिन्दू राष्ट्र के घटक के रूप में मैं तुमको सादर प्रणाम करता हूँ। आपके ही कार्य के लिए हम कटिबद्ध हुवे है। हमें इस कार्य को पूरा करने किये आशीर्वाद दे। हमें ऐसी अजेय शक्ति दीजिये कि सारे विश्व मे हमे कोई न जीत सकें और ऐसी नम्रता दें कि पूरा विश्व हमारी विनयशीलता के सामने नतमस्तक हो। यह रास्ता कांँटों से भरा है, इस कार्य को हमने स्वयं स्वीकार किया है और इसे सुगम कर काँटों रहित करेंगे।"

वास्तव में संघ मानता है कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि वह पहले से ही हिंदू राष्ट्र है। 12 वर्षों में लगने वाले कुंभ के मेले, चार धाम की यात्रा, शक्तिपीठों की स्थापना आदि को देख लीजिए। हमारे कई शक्तिपीठ और प्रमुख धार्मिक स्थल पाकिस्तान और बांग्लादेश में चले गए हैं इसे समझ लीजिए। अलग-अलग रियासतों में बँटा इतना बड़ा देश लेकिन सांस्कृतिक रूप से सब एक। सबकी अपनी परंपराएं, सबकी अपनी पूजा पद्धति, सबके अपने विचार लेकिन फिर भी एक। इस 'हिंदू विचार' को 'राष्ट्र विचार' के रूप में देखा जाए। यही हिंदू राष्ट्र है।

 हमने इस श्रंखला की पिछली कड़ी में देखा कि धर्म और हिंदुत्व की गलत व्याख्या के कारण जिस तरह का भ्रम बना है लगभग वही स्थिति हिंदू राष्ट्र को लेकर है। हम पिछली कड़ी में यह जान चुके हैं कि हिंदू विचार यानी हिंदुत्व में पूजा पद्धति और अन्य मान्यताओं को लेकर कोई बंधन नहीं है। ईश्वर को मानने वाला भी हिंदू है और नास्तिक भी हिंदू है तो फिर इस हिंदू विचार को राष्ट्र विचार मानने में किसी भी पूजा पद्धति वाले व्यक्ति को क्या परेशानी होना चाहिए। 

कहा जाता है कि यदि भारत हिंदु राष्ट्र होगा तो यहाँ मुसलमानों और ईसाइयों की स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिक जैसी हो जाएगी। इस आशंका का समाधान करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि यह देखा जाए कि राजनीतिक रूप से हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को सबसे पहले प्रस्तुत करने वाले वीर सावरकर ने इस पर क्या कहा था ?

 हिंदू महासभा के अध्यक्ष रूप में सावरकर ने कहा


"हिंदु महासभा न सिर्फ प्रति व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत को स्वीकार करती है बल्कि मानती है कि इसके साथ मौलिक अधिकार और कर्तव्य भी सभी नागरिकों के लिए उनकी नस्ल और धर्म से परे समान होने चाहिए… अल्पसंख्यक अधिकारों की कोई भी बात सैद्धांतिक रूप से न केवल अनावश्यक बल्कि विरोधाभासी भी है।

क्योंकि यह सामुदायिक आधार पर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक होने का बोध कराता है। लेकिन व्यावहारिक राजनीति जैसी माँग करती है और हिंदू संगठनी गैर-हिंदू देशवासियों को भयमुक्त करना चाहते हैं, उसके लिए हम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अल्पसंख्यकों के धर्म, संस्कृति और भाषा के लिए वैधानिक अधिकार दिए जाएँगे– जिसकी एक शर्त होगी-

बहुसंख्यकों के समान अधिकारों पर इससे अतिक्रमण न हो, न वे इससे निरस्त हों। अल्पसंख्यकों के अलग विद्यालय हो सकते हैं जिसमें वे अपने बच्चों को अपनी भाषा में शिक्षा दें, अपने धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थान हो सकते हैं जिसे सरकार सहायता भी मिले लेकिन वे जितना कर देते हैं, उसके अनुपात में। ये सिद्धांत बहुसंख्यकों पर भी लागू हों।

इन सबसे आगे और ऊपर, यदि संविधान संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों और प्रति व्यक्ति एक वोट पर आधारित नहीं होता है तो जो अल्पसंख्यक अलग निर्वाचन क्षेत्र या आरक्षित सीटें चाहते हैं, उन्हें उसकी अनुमति होगी- लेकिन उनकी जनसंख्या के अनुपात में जिससे बहुसंख्यकों के समान अधिकारों का हनन न हो।

मुस्लिम अल्पसंख्यकों से समान नागरिकों की तरह व्यवहार होगा, वे समान सुरक्षा के अधिकारी होंगे और उनकी जनसंख्या के अनुपात में उन्हें जनपद अधिकार मिलेंगे। हिंदू बहुसंख्यक किसी भी गैर-हिंदू अल्पसंख्यक के वैधानिक अधिकारों पर अतिक्रमण नहीं करेंगे।

लेकिन किसी भी सूरत में हिंदू बहुसंख्यकों को अपने उन अधिकारों को नहीं त्यागना चाहिए जो किसी लोकतांत्रिक और वैधानिक संविधान के तहत बहुसंख्यकों को मिलते हैं। विशेषकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने अल्पसंख्यक रहकर हिंदुओं के प्रति आभार व्यक्त नहीं किया है और इसलिए उन्हें प्राप्त पद और नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों में अनुपात के अनुसार मिली वैधानिक साझेदारी से संतुष्ट होना चाहिए।

मुस्लिम अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के वैधानिक अधिकारों और विशेषाधिकारों पर निषेधाधिकार देना और उसे “स्वराज्य” कहना निरर्थक होगा। हिंदू शासकों को बदलना नहीं चाहते, वे इसलिए संघर्ष नहीं कर रहे, इसलिए मरने के लिए तैयार नहीं हैं कि किसी एडवर्ड का स्थान कोई औरंगजेब ले ले, मात्र इस आधार पर कि उसका जन्म भारतीय सीमाओं के अंदर हुआ है, वे अपने घर में, अपनी भूमि में अपना स्वामित्व चाहते हैं।"


ध्यान रहे सावरकर यह सब तब कह रहे हैं जब देश में अंग्रेजों का राज था और रियासतें भी कायम थीं। भारत की आजादी का संघर्ष चल रहा था, संविधान क्या होगा यह तय नहीं था, उस समय एक व्यक्ति एक वोट की बात कहना बहुत बड़ी बात थी। एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि सावरकर जहाँ यह कहते थे कि भारत में हिंदु और मुस्लिम दो अलग अलग राष्ट्र है वहीं वे विभाजन को स्वीकार नहीं करते थे। यानी दोनों साथ रहेंगे और दोनों के अधिकार बराबर होंगे कोई किसी के अधिकार पर दबाव बनाकर अतिक्रमण नहीं करेगा। 

(क्रमशः)


(यह श्रृंखला मेरे ब्लॉग, फेसबुक और एक न्यूज़ वेबसाइट www.newspuran.com पर भी उपलब्ध है)










Friday, March 26, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गांधी जी का रामराज्य (४८)

 (गतांक से आगे)

सिंधु का अपभ्रंश नहीं है हिंदु, और हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है, 

जानिए शोध क्या कहती है 

#मनोज_जोशी

मैंने पिछली पोस्ट में कहा था कि धर्म की तरह हिंदु शब्द की भी गलत व्याख्या की जाती है। हिंदु को रिलीजन बता कर कहा जाता है कि पारसी लोगों ने सिंधु किनारे रहने वालों को हिंदु कहा, क्योंकि वे स को ह उच्चारण करते थे। पहली बात तो यह कि हिंदु क्रिश्चियन और मुस्लिम की तरह कोई रिलीजन नहीं है, इसकी आगे व्याख्या करूंगा। पहले हिंदु शब्द की उत्पत्ति पर बात करते हैं।

विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हिंदु शब्द पारसियों ने नहीं दिया। जो लोग यह दावा करते हैं कि यह फारसियो का दिया शब्द है, उनसे मेरा पहला सवाल है कि भारत के लोग तो फारसी नहीं बोलते थे फिर उन्होंने एक फारसी शब्द कैसे अपना लिया। न केवल अपना लिया बल्कि उसे अपनी पहचान मान लिया। दूसरा सवाल उस समय भारत की सीमा अफगान तक थी और भारत की सीमा के सबसे करीब काबुल नदी थी तो हमें काबुली क्यों नहीं कहा गया ??

अब फारसी भाषा के व्याकरण की बात कर लीजिए फारसी लोग खुद को परस बोलते उसमे भी 'स' है । वे तो खुदको परह नहीं कहते थे । प्राचीन इराकी शहर सुमेर को भी वे सुमेर ही कहते थे हुमेर भाई। प्राचीन समय में सिंध राज्य था और उसे सिंध ही कहा गया साथ ही आज के पाकिस्तान में सिंध प्रान्त है पर उसे भी सिंध ही कहते है और यदि सिन्धु के दूसरी तरह रहने वालो को हिन्दु कहा गया तो सिंध को सिंध ही क्यों हिन्द क्यों नहीं। संस्कृत को भी हंह्कृत नहीं कहते।

एक और बात पारसी पंथ की स्थापना 700 ईसा पूर्व की है। बाद में इस पंथ को संगठित रूप दिया जरथुस्त्र ने। लेकिन हिंदु शब्द का जिक्र पारसियों की किताब से पूर्व की किताबों में भी मिलता है। 

उदाहरण देखिए -

मेरु तंत्र ( शैव ग्रन्थ ) में हिन्दु शब्द का उल्लेख इस प्रकार किया गया है...

'हीनं च दूष्यत्येव हिन्दुरित्युच्चते प्रिये’

( अर्थात... जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दु कहते हैं )

लगभग यही मंत्र कल्पद्रुम में भी दोहराया गया है...

‘हीनं दूषयति इति हिन्दू ‘(

 अर्थात... जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे वह हिन्दु है।)

पारिजात हरण में “हिन्दु” को कुछ इस प्रकार कहा गया है |

हिनस्ति तपसा पापां दैहिकां दुष्टम ¡

हेतिभिः शत्रुवर्गं च स हिंदुरभिधियते ।।

माधव दिग्विजय में हिन्दु शब्द का इस प्रकार उल्लेख है...

ओंकारमंत्रमूलाढ्य पुनर्जन्म दृढाशयः ।

गोभक्तो भारतगुरू र्हिन्दुर्हिंसनदूषकः ॥

( अर्थात... वो जो ओमकार को ईश्वरीय ध्वनि माने... कर्मो पर विश्वास करे, गौ पालक रहे तथा बुराइयों को दूर रखे वो हिन्दु है )

ऋग्वेद (८:२:४१) में ‘विवहिंदु’ नाम के राजा का वर्णन है जिसने 46000 गाएँ दान में दी थी विवहिंदु बहुत पराक्रमी और दानीराजा था और, ऋग्वेद मंडल 8 में भी उसका वर्णन है। ब्रहस्पति अग्यम में हिन्दु शब्द इस प्रकार आया है…

हिमालयं समारभ्य यावत इन्दुसरोवरं ।

तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते ।।

( अर्थात... हिमालय से इंदु सरोवर तक देव निर्मित देश को हिन्दुस्थान कहते हैं )

 -इस्लाम के चतुर्थ खलीफ़ा अली बिन अबी तालिब लिखते हैं कि वह भूमि जहां पुस्तकें सर्वप्रथम लिखी गईं, और जहां से विवेक तथा ज्ञान की‌ नदियां प्रवाहित हुईं, वह भूमि हिन्दुस्तान है। 

- नौवीं सदी के मुस्लिम इतिहासकार अल जहीज़ लिखते हैं...

“हिन्दु ज्योतिष शास्त्र में, गणित, औषधि विज्ञान, तथा विभिन्न विज्ञानों में श्रेष्ठ हैं। मूर्ति कला, चित्रकला और वास्तुकला का उऩ्होंने पूर्णता तक विकास किया है। उनके पास कविताओं, दर्शन, साहित्य और नीति विज्ञान के संग्रह हैं। भारत से हमने कलीलाह वा दिम्नाह नामक पुस्तक प्राप्त की है।

इन लोगों में निर्णायक शक्ति है, ये बहादुर हैं। उनमें शुचिता, एवं शुद्धता के सद्गुण हैं। मनन वहीं से शुरु हुआ है।

चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय में 'हिंदु' शब्द प्रचलित था। चीनी भाषा में भी 'इंदु को 'इंतु' कहा जाता है। भारतीय ज्योतिष में राशि का निर्धारण चन्द्रमा के आधार पर ही होता है। चन्द्रमास के आधार पर तिथियों और पर्वों की गणना होती है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इंतु' या 'हिंदु' कहते थे। मैंने कहीं पढा है कि हिंदु शब्द संस्कृत से आया है। ह:+इंदु --हिंदु। अर्थात जिसका ह्रदय इंदु यानी चंद्रमा के समान पवित्र है। वह हिंदु है। एक मान्यता यह भी है कि हिंदु शब्द हिमालय के प्रथम अक्षर 'हि' एवं 'इन्दु' का अंतिम अक्षर 'न्दु'। इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना 'हिन्दु और यह भू-भाग #हिन्दुस्थान कहलाया।

सही शब्द हिंदु है हिंदू नहीं

पोस्ट के बीच में एक बात और कहना चाहता हूँ भाषा की शुद्धता के हिसाब से सही शब्द हिंदु है हिंदू नहीं। दा में बड़े ऊ की मात्रा लगाकर हिंदू लिखना अशुद्ध है। संस्कृत के इंदु शब्द में भी छोटे उ की मात्रा है और चीनी भाषा का इंतु भी देवनागरी में त में छोटी उ की मात्रा लगाकर ही लिखा जाता है। यह बात स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदु अस्मिता को लेकर चले आंदोलनों में बार-बार गुंजायमान होने के कारण हिंदु शब्द हिंदू में बदल गया।

अब पंथ यानी religion की बात

अंग्रेजी के शब्द religion का अनुवाद धर्म कर देने से भारत के संदर्भ में गङबङ हो गया। हमारे लिए धर्म का पूजा पद्धति से कोई लेना देना नहीं है। पिछली पोस्ट में हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि जो धारण करने योग्य है वह धर्म है।

उच्चतम न्यायालय भी यही कहता है।

क्या हिन्दुत्व को सच्चे अर्थों में धर्म कहना सही है? इस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय ने – “शास्त्री यज्ञपुरष दास जी और अन्य विरुद्ध मूलदास भूरदास वैश्य और अन्य (1966(3) एस.सी.आर. 242) के प्रकरण का विचार किया। इस प्रकरण में प्रश्न उठा था कि स्वामी नारायण सम्प्रदाय हिन्दुत्व का भाग है अथवा नहीं ? इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर ने अपने निर्णय में लिखा –

"जब हम हिन्दु धर्म के संबंध में सोचते हैं तो हमें हिन्दु धर्म को परिभाषित करने में कठिनाई अनुभव होती है। विश्व के अन्य मजहबों के विपरीत हिन्दु धर्म किसी एक दूत को नहीं मानता, किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता, किसी एक मत का अनुयायी नहीं है, वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता, यह किसी एक प्रकार की मजहबी पूजा पद्धति या रीति नीति को नहीं मानता, वह किसी मजहब या सम्प्रदाय की संतुष्टि नहीं करता है। वृहद रूप में हम इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही परिभाषित कर सकते हैं – इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।"

रमेश यशवंत प्रभु विरुद्ध प्रभाकर कुन्टे (ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1113) के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय को विचार करना था कि विधानसभा के चुनावों के दौरान मतदाताओं से हिन्दुत्व के नाम पर वोट माँगना क्या मजहबी भ्रष्ट आचरण है। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देते हुए अपने निर्णय में कहा-

"हिन्दु, हिन्दुत्व, हिन्दुइज्म को संक्षिप्त अर्थों में परिभाषित कर किन्हीं मजहबी संकीर्ण सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। इसे भारतीय संस्कृति और परंपरा से अलग नहीं किया जा सकता।"

अब बात सनातन धर्म की - 

सनातन का अर्थ शाश्वत होता है यानी कभी न खत्म होने वाला । हिंदुत्व सबसे प्राचीन विचारधारा है जिसके धारणत्व आचरण को धर्म कहा गया । जो किसी एक किताब से शुरू नही होती और ना ही खत्म होती है! आस्तिक-नास्तिक या निराकार साकार सब विषयो विचारो को सनातन धर्म खुद में समाए हुए है। ध्यान से देखिए इसमें विश्व की सभी पूजा पद्धतियां समाहित हैं ।

हिंदुत्व क्या है ?

“एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका” (Encyclopedia Britannica) में “हिन्दुत्व” शब्द का अर्थ बताया गया है 

“Hindutva (‘Hinduness’), is an ideology that sought to define Indian culture in terms of Hindu values.” सवाल यह है कि हिंदू वैल्यूस या हिंदुओं के गुण क्या हैं? विवेक, अनुशासन, इन्द्रियों और मन पर संयम रखना, त्याग, सत्य, परोपकार और फल की अपेक्षा किए बिना कर्म करना यह हिंदुत्व के गुण हैं। 

#हिंदुत्व ही #राष्ट्रीयत्व है

हिंदु शब्द की उत्पत्ति की बात मेरे ख्याल से स्पष्ट हो गई। हिंदु शब्द भारत के प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। और यह ग्रंथ भारत में मुस्लिम और ईसाई पंथ के आगमन से पहले के हैं । भारत के मुस्लिम और ईसाई भी इस हिसाब से हिंदु ही हैं । क्योंकि हमारे पूर्वज एक हैं । इन ग्रंथों पर भारत के मुसलमानों और ईसाइयों का भी उतना ही अधिकार है जितना अन्य का। पूजा पद्धति बदल जाने से पूर्वज नहीं बदलते। इसी श्रंखला की पिछले कड़ियों में मोहम्मद अली जिन्ना, अल्लामा इकबाल और शेख अब्दुल्ला के परिवार द्वारा इस्लाम ग्रहण करने का उदाहरण दिया जा चुका है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हिन्दुत्व शब्द इस उपमहाद्वीप के लोगों की जीवन पद्धति से संबंधित है। इसे संकीर्णता नहीं कहा जा सकता। साधारण रूप में हिन्दुत्व को एक जीवन पद्धति ही समझा जा सकता है।

(क्रमशः)


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Thursday, March 25, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गांधी जी का राम राज्य (४७)

(गतांक से आगे)

धर्म यानी रिलीजन क्यों नहीं जानिए विस्तार से

#मनोज जोशी

अब इस श्रृंखला में हम धर्म और हिंदुत्व जैसे शब्दों की व्याख्या पर चर्चा करेंगे। धर्म और हिंदुत्व यह दो ऐसे शब्द हैं जिनकी गलत व्याख्या के कारण वैचारिक रूप से बहुत गड़बड़ हो गई है। कम्युनिस्ट हमें उनके चश्मे से भारत की संस्कृति और इतिहास दिखा रहे हैं। 

शुरुआत धर्म से करते हैं। धर्म शब्द का अर्थ क्या है? धर्म यह शब्द संस्कृत से आया है। धर्म को परिभाषित करते हुए लिखा गया है- धारयति इति धर्म: । यानी जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। अब धारण करने योग्य क्या है ? कहा गया है कि सत्य, क्षमा, विद्या, दया और दान धारण करने योग्य है। महाभारत वन पर्व ३३.५३ में लिखा है - "उदार मेव विद्वांसो धर्म प्राहुर्मनीषिण: ।" अर्थात मनीषीजन उदारता को ही धर्म कहते हैं। इसके आगे महाभारत वन पर्व २०८.१ में धर्म के बारे में कहां गया है - ,,,'स्वकर्मनिरतः यस्तु धर्म: स इति निश्चय: ।' अर्थात "अपने कर्म में लगे रहना निश्चय ही धर्म है।" 

महाभारत शांति पर्व १५.२ के अनुसार "दण्डं धर्म विदुर्भा: ।" अर्थात "ज्ञानी जन दण्ड को धर्म मानते हैं‌।" महाभारत शांति पर्व में आगे १६२.५ में कहा गया है - "सत्यं धर्मस्तपो योग:।" यानी सत्य ही धर्म है, सत्य ही तप है और सत्य ही योग है। अब यदि महात्मा गाँधी कहते थे कि सत्य ही धर्म है तो वे महाभारत में बताई धर्म की इसी परिभाषा की ही तो बात कर रहे हैं। महाभारत शांति पर्व में आगे २५९.१८ में कहा गया है - "दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतै:।" यानी सभी प्राणियों के हित में लगे रहने वाले मनुष्यों ने दान को धर्म बताया है।

दूरदर्शन पर दोबारा प्रसारित हुए महाभारत सीरियल में से और कुछ याद हो या नहीं लेकिन टाइटल सॉन्ग के रूप में यह श्लोक -

 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। 

सभी की जुबान पर चढ़ गया था। इस श्लोक का अर्थ क्या है - 

यह श्लोक गीता के अध्याय 4 का श्लोक 7 और 8 है। जब अर्जुन ने कुरूक्षेत्र में युद्ध करने से मना कर दिया था। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह कहा। इसका हिंदी अनुवाद करें तो श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं- मै प्रकट होता हूं, मैं आता हूं, जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूं, जब जब अधर्म बढता है तब तब मैं आता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं।

इसके माध्यम से यहां मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि महाभारत काल में तो किसी रिलीजन की हानि होने का सवाल ही नहीं था। चाहे कौरव हो या पांडव एक ही तरह की पूजा पद्धति और एक ही देवता को मानने वाले थे। उस समय तो धरती पर न इस्लाम था और ना क्रिश्चियन धर्म का उदय हुआ था। जैन,बौद्ध और सिख सहित अन्य पंथ का उदय भी महाभारत काल के बाद का है।

यानी श्रीकृष्ण जिस धर्म की स्थापना की बात कर रहे हैं वह कोई रिलीजन नहीं है।

अंत में मनुस्मृति में धर्म की परिभाषा पर भी चर्चा कर लें। मनुस्मृति में कहा गया है -


धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९

अर्थात धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।

मनु स्मृति में यह भी कहा गया है 

आचार:परमो धर्म १/१०८

अर्थात सदाचार परम धर्म है।

कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि भारत में जिस संदर्भ में धर्म शब्द का उपयोग होता है उसका पूजा पद्धति से कोई लेना देना नहीं है। पश्चिम और वामपंथी विचारकों के प्रभाव में गड़बड़ होने से शब्द और उनके अर्थ बदल गए जिससे कई परेशानी खड़ी की हैं। जिस तरह से धर्म शब्द का अर्थ बदल कर अनर्थ किया गया है वही हाल हिंदुत्व का है। अगली पोस्ट में हिंदुत्व की परिभाषा पर चर्चा करेंगे।

(क्रमशः)

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Wednesday, March 24, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (४६)

(गतांक से आगे)

महात्मा गाँधी ने कहा हिंदू होने के कारण ही मैं समाज सेवा की ओर अग्रसर हुआ

#मंनोज_जोशी

हिंदू संस्कृति के वाहक होने के कारण ही महात्मा गांँधी देश की आजादी के आंदोलन और समाज सुधार की ओर प्रेरित हुए। यह बात स्वयं गाँधी जी ने लिखी है।

पुस्तक कंटेम्पररी इंडियन फिलासफी’ के लिए डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने महात्मा गाँधीजी से तीन सवाल पूछे थे- (1) आपका धर्म क्या है, (2) आप धर्म में कैसे प्रवृत्त हुए, और (3) सामाजिक जीवन पर इसका क्या असर रहा है ?. गाँधी जी ने पहले सवाल के जवाब में लिखा “मैं धर्म से हिन्दू हूं जो मेरे लिए मानवता का धर्म है और जिसमें मुझे ज्ञात सारे धर्मों का श्रेष्ठतम् शामिल है. ” दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा —“मैं इस धर्म में सत्य और अहिंसा यानी व्यापक अर्थों में प्रेम के रास्ते प्रवृत्त हुआ. यह कहने की जगह कि ‘ईश्वर सत्य है’, हाल-फिलहाल मैंने अपने धर्म को परिभाषित करने के लिए ‘सत्य ईश्वर है’ कहना शुरु किया है… क्योंकि ईश्वर का नकार तो ज्ञात है लेकिन सत्य का नकार नहीं. यहां तक कि मनुष्यों में जो सर्वाधिक अज्ञानी हैं, उनमें भी कुछ सत्य है. हम सब सत्य की कौंध हैं. इस कौंध का सकल-समग्र अनिर्वचनीय -अब तक अज्ञात सत्य, जो कि ईश्वर है. मैं अनवरत प्रार्थना के सहारे रोज ही इसके निकट पहुंचता हूं.” और तीसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा—“ऐसे धर्म के प्रति सच्चा होने के लिए प्रत्येक जीवन की अनवरत-अविराम सेवा में स्वयं को निस्व करना पड़ता है. सत्य का साक्षात्कार जीवन के अनंत सागर में विलीन हुए और इससे तदाकार हुए बिना असंभव है, इसलिए समाज-सेवा से मेरी निवृति नहीं है.”

इन तीनों प्रश्नों के उत्तर को समग्र रूप से देखें तो गाँधीजी भी हिंदू धर्म को केवल एक रिलीजन के तौर पर नहीं मानते। वह एक जीवन पद्धति है और इसी जीवन पद्धति ने उन्हें समाज सेवा के लिए प्रेरित किया बल्कि साधारण शब्दों में कहें तो हिंदू होने के कारण समाज सेवा से वे जीवन भर निवृत्त नहीं हो सकते। 

गाँधीजी की बात को समझने के लिए हमें समझना होगा कि आखिर धर्म क्या है और वह अंग्रेजी के रिलीजन से कैसे अलग है और यह भी समझना होगा कि हिंदुओं का यह विशेष गुण क्या है? जिसकी चर्चा गाँधीजी कर रहे हैं और इसे क्या कहते हैैं?

(क्रमशः)

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Sunday, March 21, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (४५)

श्रीराम, श्रीकृष्ण, विवेकानंद जी, अम्बेडकर जी और गाँधीजी सबका हिंदुत्व एक

(गतांक से आगे)


अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि हम संघ का हिंदुत्व नहीं मानते बल्कि विवेकानंद के हिंदुत्व को मानते हैं कुछ लोग यह कहने से भी नहीं चूकते कि हम गांधीजी के हिंदुत्व को मानते हैं। अब इस बारे में खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या कहता है यह जानने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि यह पता लगाया जाए कि सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने इस पर कभी कुछ कहा है क्या? तीन साल पहले पांचजन्य में प्रकाशित एक इंटरव्यू में मोहन भागवत जी ने हिंदुत्व को लेकर संघ की धारणा पर विस्तार से अपनी बात कही है। उसे जस का तस या प्रस्तुत कर रहा हूँ। उन्होंने कहा

"हम एक ही हिन्दुत्व को मानते हैं। और जिसे मानते हैं उसे मैंने मेरठ में राष्ट्रोदय समागम के भाषण में स्पष्ट किया है। हिन्दुत्व यानी हम उसमें श्रद्धा रखकर चलते हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, तप, शौच, स्वाध्याय, संतोष और जो ईश्वर को मानते हैं उनके लिए ‘ईश्वर प्रणिधान’। जो ईश्वर को नहीं मानते हैं उनके लिए ‘सत्य प्रणिधान’। 

महात्मा गाँधी कहते थे, सत्य का नाम हिन्दुत्व है। वही जो हिन्दुत्व के बारे में गांधीजी ने कहा है, जो विवेकानंद जी ने कहा है, जो सुभाष बाबू ने कहा है, जो कविवर रविन्द्रनाथ ने कहा है, जो डॉ. आंबेडकर ने कहा है, हिन्दू समाज के बारे में नहीं, हिन्दुत्व के बारे में। वही हिन्दुत्व है। लेकिन उसकी अभिव्यक्ति कब और कैसे होगी, यह तो व्यक्ति और परिस्थिति पर निर्भर करता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के समय हिन्दू शब्द नहीं था लेकिन जो हिन्दुत्व है, वही है। वह चलता आ रहा है, उसी का नाम हिन्दुत्व पड़ा। वे हिन्दू थे। सब मर्यादाएं तोड़ने वाले कृष्ण उसी हिन्दुत्व के आधार पर जी रहे थे। परशुराम-कितना बड़ा संहार करने वाले और करुणावतार, दोनों में उनकी जो परिस्थति थी और उनको जो अभिव्यक्ति मिली थी, उनको जो समाज में देना था वह उन्होंने दिया। शिवाजी महाराज ने मिर्जा राजा का सम्मान रखा। वे भी हिन्दुत्व का आचरण कर रहे थे। 

इसलिए हिन्दुत्व एक ही है। किसी के देखने के नजरिए से हिन्दुत्व का प्रकार अलग नहीं कर सकते। मैं सत्य को मानता हूं और अहिंसा को भी मानता हूं और मुझे ही खत्म करने के लिए कोई आए और मेरे मरने से वह सत्य भी मरने वाला है और अहिंसा भी मरने वाली है, उसका नाम लेने वाला कोई बचेगा नहीं तो उसको बचाने के लिए मुझे लड़ना पड़ेगा। लड़ना या नहीं लड़ना, यह हिन्दुत्व नहीं है। सत्य, अहिंसा के लिए जीना या मरना। सत्य, अहिंसा के लिए लड़ना अथवा सहन करना, यह हिन्दुत्व है। कब सहन करना, कब नहीं करना किसी व्यक्ति का निर्णय हो सकता है। वह सही भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है। लेकिन गलत निर्णय करके वह लड़े तो उसके लड़ने को हिन्दुत्व नहीं कह सकते। गलत निर्णय करके वह चुप रहे तो उसके चुप रहने को आप हिन्दुत्व नहीं कह सकते। लेकिन जिन मूल्यों के आधार पर उसने निर्णय लिया वह मूल्य, वह तत्व, हिन्दुत्व है। ये जो बातें चलती हैं कि स्वामी विवेकानंद का हिन्दुत्व और संघ वालों का हिन्दुत्व, कट्टर हिन्दुत्व और सरल हिन्दुत्व। तत्व का नहीं, स्वभाव आदमी का होता है। कट्टर आदमी होता है। सरल आदमी होता है। ये भ्रम पैदा करने के लिए की जाने वाली तोड़-मरोड़ है, क्योंकि हिन्दुत्व की ओर आकर्षण बढ़ रहा है। दुनिया में बढ़ रहा और अपने देश में भी बढ़ रहा है। उसका लाभ हिन्दुत्व के गौरवान्वित होने से अपने आप हो रहा है। वह न हो इसलिए लोग उसमें मतभेद उत्पन्न करना चाहते हैं। हम हिन्दू के नाते किसी को अपना दुश्मन नहीं मानते। किसी को पराया नहीं मानते। लेकिन उस हिन्दुत्व की रक्षा के लिए हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज का संरक्षण हमको करना ही पड़ेगा। अब संरक्षण करने में समझाना भी पड़ता है। लड़ना पड़ेगा तो लड़ेंगे भी। हमारा लड़ना हिन्दुत्व नहीं है। हमारा समझाना हिन्दुत्व नहीं है। जिन बातों को लेकर हम चल रहे हैं उसके आधार पर अनुमान करके निर्णय करते हैं। वह मूल ही होता है। एक ही है, सर्वत्र एक ही है। और इसलिए मैंने मेरठ में कहा कि हिन्दू अब कट्टर बनेगा। इसका मतलब है हिन्दू अधिक उदार बनेगा। हिन्दू कट्टर बनेगा का मतलब ऐसे है कि महात्मा गांधी कट्टर हिन्दू थे और उन्होंने हरिजन में कहा भी है-मैं कट्टर सनातनी हिन्दू हूं। उन्होंने उसी अर्थ में कहा कि आप मुझे क्या कह रहे हो, मैं तो हिन्दुत्व का पूरा पालन कर रहा हूं। अब हिन्दुत्व में हिन्दुत्व का कैसा पालन करना, वह तो व्यक्तिगत निर्णय है। हिन्दुत्व में फर्क नहीं होता। आप यह कह सकते हैं कि फलां हिन्दुत्व को गलत समझ रहे हैं। आप कहेंगे कि मैं सही हूं, वह गलत है। इनका हिन्दुत्व, उनका हिन्दुत्व, यह सब कहने का कोई मतलब नहीं है। इसका निर्णय समाज करेगा और कर रहा है। समाज को मालूम है, हिन्दुत्व क्या है।"

(क्रमशः)

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Friday, March 19, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधी जी का रामराज्य (४४)

 (गतांक से आगे)

हिंदू महासभा और संघ की हिंदू की परिभाषा में अंतर


श्र
श्रृंखला के मूल विषय पर लौटने के क्रम में एक महत्वपूर्ण पोस्ट है इस विषय पर आमतौर पर चर्चा नहींं होती ।आरएसएस की स्थापना को अक्सर हिंदू महासभा से जोड़कर देखा जाता है। कहा जाता है कि हिंदू महासभा और आरएसएस एक ही थे। लेकिन विचार कीजिए अगर दोनों संगठन एक थे तो जनसंघ का गठन क्यों हुआ? इस श्रंखला में यह बात पहले आ चुकी है कि १९१५  में हिंदू महासभा का अखिल भारतीय स्वरूप सामने आया। संघ की स्थापना उसके १० साल बाद १९२५ में हुई। संघ की स्थापना से पहले डॉ हेडगेवार ने हिंदू महासभा में भी कार्य किया वे वहां उपाध्यक्ष रहे। आरएसएस की स्थापना के बाद वीर सावरकर ने आरएसएस को हिंदू महासभा की युवा इकाई के रूप में विलय करने का अनुरोध किया जिसे डॉक्टर हेडगेवार ने स्वीकार नहीं किया। दरअसल अनुशीलन समिति, कांग्रेस, और उसके बाद हिंदू महासभा में काम करने के बाद डॉ हेडगेवार इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि देश की आजादी के साथ जो दूसरी सबसे बड़ी जरूरत है वह समाज का जागरण है हम अपना गौरव भूल चुके हैं उस गौरव को याद दिलाना जरूरी है नहीं तो आजाद होने पर भी हम इस आजादी को संभाल नहीं पाएंगे। 

आजादी से पहले तक हिंदू महासभा और संघ अनेक मुद्दों पर साथ में काम करते रहे। वैचारिक रूप से हिंदू महासभा,  संघ के काफी करीब थी लेकिन दोनों के बीच में एक महत्वपूर्ण वैचारिक अंतर भी था। वीर सावरकर जिनका संघ काफी सम्मान करता है लेकिन उनकी हिंदुत्व की धारणा और संघ की धारणा में अंतर है। 

वीर सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा करते हुए लिखा है 


आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, 


भारत भूमिका यस्य,


पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव 


सा वै हिंदू रीती स्मृत:


अर्थात जो भारत भूमि को पितृ-भूमि व पुण्य भूमि मानता है वह हिंदु है। जो इस देश के महापुरुषों को अपना पूर्वज मानता है वह हिंदु  है। इस हिसाब से भारत के ईसाई और मुसलमान हिंदू नहीं हो सकते क्योंकि उनकी पुण्य भूमि भारत के बाहर है। मुसलमान हज यात्रा को मानते हैं और ईसाई वेटिकन सिटी को। लेकिन संघ का विचार है कि हर भारतवासी हिंदू है। हिंदू हमारे लिए राष्ट्रीयता का बोधक है किसी पंथ या संप्रदाय का नहीं।

आजादी के बाद हिंदू महासभा ने तय किया कि उनके सदस्य केवल हिंदू को पंथ के रूप में मानने वाले लोग ही हो सकेंगे। डॉक्टर हेडगेवार की तरह गुरुजी भी संघ को एक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन बनाए रखना चाहते थे। लेकिन  देश के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने गुरु जी को जनसंघ की स्थापना के लिए मना लिया। लेकिन इस बात का यह अर्थ ना लगाया जाए कि संघ राजनीतिक संगठन है। जनसंघ और अब भाजपा के करीबी होने के बावजूद संघ ने अपना मूल स्वरूप कायम रखा है। देखा जाए तो संघ उसी लोक सेवक संघ की तरह काम कर रहा है जैसा गांधीजी कांग्रेस के लिए चाहते थे। अपनी हत्या से 1 दिन पहले उन्होंने लोक सेवक संघ के संविधान का प्रारूप तैयार किया था और उसे गांधी जी की वसीयत माना जाता है।

(क्रमशः)



हिंदुत्व और महात्मा गांधी जी का रामराज्य (४३)

 (गतांक से आगे)

लौटते हैं श्रृंखला के मूल विषय पर ...

पिछले ७ महीनों से जारी श्रृंखला में पिछले कई कड़ियों में हम संघ और महात्मा गांधी के रिश्तो पर चर्चा कर रहे हैं। अब हम मूल विषय पर लौटना शुरू करते हैं। पिछली कड़ियों में जो कुछ मैं लिख रहा था उसका कुल मिलाकर के उद्देश्य था कि हम समझ सके कि संघ और महात्मा गांधी के बीच कुछ मुद्दों पर वैचारिक अंतर के बावजूद दोनों में कोई मनभेद नहीं था। यदि आप डॉ हेडगेवार से लेकर वर्तमान सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत की कार्यशैली को देखेंगे तो उसमें गांधीजी के विचारों की छाप स्पष्ट नजर आएगी। 

डॉक्टर हेडगेवार और गुरुजी के बारे में तो काफी चर्चा हो चुकी है। तृतीय सरसंघचालक बाला साहब देवरस का यह कथन कि "अगर अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है" को गांधीवादी लोग इस तरह से भी ले सकते हैं कि बाला साहब ने गांधी जी की बात को ही आगे बढ़ाया। चतुर्थ सरसंघचालक रज्जू भैया की जीवनी को पढ़ने पर पता लगता है कि वे भी गांधीजी की आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग से" प्रभावित थे। रज्जू भैया के कार्यकाल में ही स्वदेशी जागरण मंच का गठन हुआ और संघ ने स्वदेशी पर जोर देने वाला व्यापक अभियान चालू किया। स्वदेशी जागरण मंच अपने कार्यक्रमों में महात्मा गांधी की तस्वीर भी लगाता है। यह बात इसलिए और महत्वपूर्ण है क्योंकि संघ के कार्यक्रमों में डॉक्टर हेडगेवार और गुरु जी के अलावा किसी की भी तस्वीर नहीं लगाई जाती। पंचम सरसंघचालक कुप सी सुदर्शन तो गांधी जी की तरह ग्राम स्वराज और हिंदी राष्ट्रभाषा आदि के हिमायती थे। उनकी प्रेरणा से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का गठन एक बड़ी घटना है। 

(क्रमशः)

Friday, March 12, 2021

जब गाँधी ने नमक कानून तोड़ा उसी समय डॉ..हेडगेवार ने तोड़ा था जंगल कानून, दोनों का तरीका भी एक

 हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (४२)

(गतांक से आगे)

गाँधीजी की दाण्डी यात्रा की वर्षगांठ के साथ ही आजादी की ७५ वीं वर्षगांठ के आयोजनों की शुरुआत हो गई है। अक्सर गाँधीजी और संघ की राहें अलग-अलग होने की बात कही जाती है। लेकिन किसी विरोध का चश्मा लगाने की बजाय निष्पक्षता से इतिहास का अध्ययन करें तो पता लगता है दोनों एक-दूसरे के समानांतर चल रहे थे। गाँधीजी भी हिंदू समाज की दुर्बलता को दूर करना चाहते थे, लेकिन उनका मुख्य ध्येय राजनीतिक स्वतंत्रता था और डॉ. हेडगेवार ने हिंदू समाज की दुर्बलता को दूर करने को अपना लक्ष्य बनाया, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन में भी वे सक्रिय रहे।

इतिहास में से जानकारी निकालें तो पता चलता है कि १९३० में जब गाँधीजी दाण्डी यात्रा निकाल रहे थे उसी समय डॉ. हेडगेवार ने जंगल कानून तोड़ा था और उन्हें ९ माह का सश्रम कारावास हुआ। उन्हें अकोला जेल में रखा था। गाँधीजी के नमक सत्याग्रह की तरह इसे जंगल सत्याग्रह नाम दिया गया था। एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि वनवासियों से अंग्रेजों द्वारा छीने गए अधिकारों का सबसे पहले विरोध संघ ने ही किया था। लेकिन ऐसा लगता है जैसे आज इस जंगल सत्याग्रह को भूला दिया गया है। 

विदर्भ के श्री माधव श्रीहरि अणे (बापूजी अणे)  ने डॉ.. हेडगेवार जी से संपर्क कर स्थानीय स्तर पर सत्याग्रह की रणनीति पर विचार विमर्श किया। डा.  हेडगेवार ने कोलकाता की अनुशीलन समिति, कांग्रेस और हिंदू महासभा में सक्रियता के बाद १९२५ में संघ की स्थापना की थी। १९३० तक संघ का कार्य तत्कालीन मध्यप्रांत में ही प्रभावी नजर आने लगा था। रणनीति के अनुसार बापूजी अणे १५ जुलाई १९३० को यवतमाल जिले के पुसद में ‘‘जंगल सत्याग्रह’’ करते हुये गिरफ्तार हो गये। फिर डॉ.. हेडगेवार १६ जुलाई को साथियों सहित सत्याग्रह के लिये यवतमाल पहुंचे। स्थानीय सत्याग्रहियों से  विचार करके २१ जुलाई को पुसद में सत्याग्रह करने का निर्णय लिया गया। डा. हेडगेवार अपने तीन साथियों के साथ ‘सत्याग्रह स्थल’ रवाना हुए, ५  किलोमीटर की पद यात्रा में सैकड़ों स्वयंसेवक एवं आम जनता साथ हो गई थी। डॉ. हेडगेवार जब सत्याग्रह स्थल पहुंचे, तब तक पांच हजार से अधिक लोग समर्थन में जुट गए  थे। डॉ. हेडगेवार ने रिजर्व्ड फारेस्ट एरिया से घास काटकर, अपनी गिरफ्तारी दी। डॉक्टर जी के साथ गए सत्याग्रही जत्थे में अप्पा जी जोशी (बाद में सरकार्यवाह), दादाराव परमार्थ (बाद में मद्रास में प्रथम प्रांत प्रचारक) आदि १२  स्वयंसेवक शामिल थे।  उसी दिन उन पर मुकदमा चलाया गया और ९ माह का सश्रम कारावास दिया गया। उन्हें अकोला जेल भेजा गया। कुछ दिनो बाद ‘‘चिरनेर नामक स्थान में ‘‘जंगल सत्याग्रह’’ हुआ, जिसमें सत्याग्रहियों एवं पुलिस के बीच हिंसक झड़प हुई। पुलिस की गोली से ८ सत्याग्रही शहीद हो गये। मध्य प्रांत के कटनी में मोतीलाल ताम्रकार, राम गोपाल ताम्रकार, बैतूल में डा माखनलाल चतुर्वेदी, बालाघाट में अंबर लोधी, किशनलाल, हरदा में सीताचरण दीक्षित आदि के नेतृत्व में जंगल सत्यागृह हुए। वर्तमान झारखण्ड में बिरसा मुण्डा ने भी इसी कानून के खिलाफ क्रांतिकारी संघर्ष किया था।
एक खास बात यह भी है कि इस सत्याग्रह में भाग लेने के लिए डॉ... हेडगेवार ने संघ सरसंघचालक का दायित्व  डॉ. लक्ष्मण वासुदेव परांजपे को सौंपा था। यानी वे स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता के साथ संघ के काम को प्रभावित नहीं होने देना चाहते थे। संघ के भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के और भी उदाहरण हैं, लेकिन यह इस श्रृंखला का विषय नहीं है। पुसद में  आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार ने कहा था- स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के बूट की पॉलिश करने से लेकर उनके बूट को पैर से निकालकर उससे उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं। मैं तो इतना ही जानता हूं कि देश को स्वतंत्र कराना है। अभा शारीरिक शिक्षण प्रमुख (सर सेनापति) मार्तण्ड जोग जी, नागपुर के जिला संघचालक अप्पा जी ह्ळदे आदि स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए १०० स्वयंसेवकों की टोली बनाई, जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे। ८ अगस्त को गढ़वाल दिवस पर धारा १४४ तोड़कर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से अनेक स्वयंसेवक घायल हुए।१९३१के दशहरे पर  डॉक्टर जी जेल में थे, उनकी अनुपस्थिति में गांव-गांव में संघ की शाखाओं पर एक संदेश पढ़ा गया, जिसमें कहा गया था- देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता, तब तक रे मना ! तुझे निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं
जैसा मैंने शुरू में लिखा कि गाँधीजी भी हिंदू समाज की दुर्बलता को दूर करना चाहते थे उसके लिए हिंदू धर्म क्या है’ नामक पुस्तक में से गाँधीजी का केवल एक वक्तव्य यहां देना चाहूंगा। “यदि मुझसे हिंदू धर्म की व्याख्या करने के लिए कहा जाए तो मैं इतना ही कहूंगा- अहिंसात्मक साधनों द्वारा सत्य की खोज।कोई मनुष्य ईश्वर में विश्वास न करते हुए भी अपने आप को हिंदू कह सकता है। सत्य की अथक खोज का ही दूसरा नाम हिंदू धर्म है। यदि आज वह मृतप्राय निष्क्रिय विकासशील नहीं रह गया है तो इसलिए कि हम थक कर कर बैठ गए हैं और ज्यों ही थकावट दूर हो जाएगी त्यों ही हिंदू धर्म संसार पर ऐसेप्रखर तेज के साथ छा जाएगा ऐसा कदाचित पहले कभी नहीं हुआ। अतः निश्चित रूप से हिंदू धर्म सबसे अधिक सहिष्णु धर्म है।”
यदि यह नहीं बताया जाए कि यह वक्तव्य गाँधीजी का है तो कोई भी इसे डॉ. हेडगेवार का समझ लेगा।यंग इंडिया नवजीवन हरिजन जैसे पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर गांधी जी द्वारा लिखे गए लेखों का संग्रहण हिंदू धर्म क्या है  नाम की पुस्तक में हमें मिलता है। नेशनल बुक ट्रस्ट ने १९९५ में यह पुस्तक प्रकाशित की थी
(क्रमश:)

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Tuesday, March 9, 2021

गांँधी जी की हत्या से हिंदुत्व को पहुँचा नुकसान

 हिंदुत्व और महात्मा गांँधीजी का रामराज्य (४१)

( गतांक से आगे)



इस श्रृंखला की अब तक की कड़ियों को जोड़ें तो एक बात तो साफ है कि वैचारिक रूप से गांँधीजी एक हिंदुत्व निष्ठ व्यक्ति थे, लेकिन दूसरी तरफ गोडसे द्वारा कोर्ट में दिए गए बयान को देखें तो गोडसे उन पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाता है। किसी भी भावुक व्यक्ति का गोडसे के तर्क से असहमत होना मुश्किल है।

लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हत्या को उचित ठहराते हुए  हत्यारे को महिमामंडित किया जाना चाहिए ?

वर्ष २०१५  में हिंदू महासभा ने गोडसे को महिमामंडित करने के लिए व्यापक कार्यक्रम आयोजित किया और गोडसे के नाम से एक वेबसाइट भी लांँच की। इस कार्यक्रम से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक एमजी वैद्य का एक बयान सामने आया था। एमजी वैद्य ने उस समय कहा था ...'मैं नाथूराम गोडसे का सम्मान करने और उन्हें सम्मान देने के खिलाफ हूँ. वह एक हत्यारा है। इसके आगे वे और भी महत्वपूर्ण बात कहते हैं - 'कुछ लोग कहते हैं कि इससे (गोडसे के महिमामंडन) हिंदुत्व का गौरव बढ़ेगा। नहीं इससे हिंदुत्व का नाम खराब होगा...मैं तो यहां तक कहता हूं कि गांधी की हत्या से हिंदुत्व को नुकसान पहुंचा है।'

वैद्य ने गाँधीजी के विचारों को लेकर असहमति को भी स्वीकारा और कहा, 'महात्मा गांँधी ने अपने जीवनकाल में आजादी के बारे में जागरूकता फैलाई। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम उनकी सभी नीतियों से सहमत हों।  लेकिन विचारों की लड़ाई को विचार से लड़ा जाना चाहिए, इसके लिए खून की होली खेलने की इजाजत नहीं दी जा सकती।' वयोवृद्ध संघ विचारक वैद्य का हाल ही में निधन हुआ है उन्होंने गांँधी जी की हत्या के आरोप में संघ पर लगे प्रतिबंध का कार्यकाल भी देखा था।  ऐसे में वैद्य की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है।

आज के दौर में भले ही गांँधीजी की किसी नीति का विरोध देश के विरोध के रूप में प्रचारित किया जाने लगा हो लेकिन भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता के दौरान गांँधीजी को कांग्रेस के भीतर और बाहर कई बार विरोध का सामना करना पड़ा है। शहीद भगत सिंह की फांसी नहीं रुकवाने को लेकर गांँधी जी को कांग्रेस अधिवेशन के दौरान काले झंडे दिखाए गए है।  चंद्रशेखर आजाद और राम प्रसाद बिस्मिल ने गांँधीजी की अहिंसा से नाराज होकर अलग रास्ता चुना था। सुभाष चंद्र बोस को गांँधीजी के विरोध के बाद कांग्रेस छोड़ना पड़ी थी। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और गांँधीजी के वैचारिक मतभेद आज भी चर्चा में हैं। 

बीसवीं शताब्दी के इस कालखंड में देश में सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था। छोटी-छोटी बात पर दंगे और खून खराबा मामूली बात थी। १९४६ के जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के आव्हान को देखें तो वह गृह युद्ध के ऐलान जैसा ही लगता है। विभाजन से ठीक पहले हुए चुनाव में देश भर  में मुस्लिम लीग को मिला समर्थन इस बात का साफ संकेत था कि ज्यादातर मुसलमान पाकिस्तान के पक्ष में थे। 

ऐसे माहौल में अहिंसा की बात करना और जिन्ना वह सुहारवर्ती जैसे मुस्लिम लीगी नेताओं से समझौते के प्रयास करना कितना उचित या अनुचित था यह विश्लेषण का विषय है। गांँधी जी की हत्या के पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के भारत के इतिहास को निष्पक्ष भाव से देखना समझना होगा। बीसवीं शताब्दी के इस कालखंड का इतिहास जहां एक तरफ भारत की आजादी का इतिहास दिखता है वहीं दूसरी तरफ वह भारत की विभाजन का इतिहास भी है इस विभाजन के लिए अंग्रेजों के साथ तत्कालीन नेतृत्व की भूमिका भी जिम्मेदार है। अकेले मोहम्मद अली जिन्ना ही नहीं जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन कांग्रेस के अन्य नेताओं की भूमिका पर भी समग्रता से निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया जाए तभी विभाजन की असल वजह समझ में आती है। इन सब के विस्तार में जाने के लिए ऐसी ही एक और श्रृंखला की जरूरत है। विचार तो इस बात पर भी होना चाहिए कि अहिंसा के पुजारी की हत्या के बाद किन लोगों ने और क्यों पुणे और देश के दूसरे राज्यों में ब्राह्मणों की हत्या की थी। उन दंगों का क्या औचित्य था? क्या वे महात्मा गांँधी के सच्चे अनुयायी थे ? और उनके इस कृत्य के बाद ब्राह्मणों और कुल मिलाकर करके हिंदुओं में क्या संदेश गया ? क्या उन्होंने कभी इस पर माफी मांगने के बारे में भी सोचा ?

लेकिन गांँधीजी के व्यक्तित्व के बारे में जब समग्रता से चर्चा करें तो केवल स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा चलाए गए आंदोलनों की रणनीति और सफलता असफलता तक सीमित नहीं रखा जा सकता। गांँधीजी एक ऐसे महान आत्मा थे जिन्होंने सार्वजनिक जीवन के अमूमन सभी पहलुओं पर विचार व्यक्त किए हैं, काम किया है और अपने तई एक आदर्श व कार्यप्रणाली प्रस्तुत की है जो आज भी मार्गदर्शन कर सकती है।

(क्रमशः)

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Saturday, February 27, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (४०)

 (गतांक से आगे)

गाँधीजी के ग्राम स्वराज को समझना है तो संघ प्रचारक नानाजी शमुख के चित्रकुट प्रकल्प को देखिए

#मनोज_जोशी 

आज महामानव #नानाजी_देशमुख की पुण्यतिथि है। २००५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अभा कार्यकारिणी मंडल की बैठक के कवरेज के "बहाने " से मैं चित्रकुट पहुँच गया था। वहाँ तीन दिन तक बैठक की खबरें करने के साथ नानाजी के काम को भी करीब से देखने का अवसर मिला। बैठक समाप्त होने के बाद नानाजी की पत्रकार वार्ता हुई । मेरे मन में तो कुछ और ही उमङ घुमङ रहा था। धूप लगने और और बैठने के लिए जगह न मिलने  का बहाना बनाया और नानाजी के चरणों में जाकर बैठ गया । जब नानाजी का निधन हुआ तो आज तक / स्टार ने वही क्लिपिंग दिखाई । मुझे लगा जैसे मैं धन्य हो गया ।

११ अक्टूबर १९१६ को महाराष्ट्र के परभणी के कडोली गाँव मे जन्मे नाना जी ने बचपन में ही माता पिता को खो दिया।  उनका लालन-पालन अपने मामा जी के यहाँ हुआ | संघ संस्थापक डा. हेडगेवार जी के संपर्क में आने के बाद उन्हे जैसे जीवन का लक्ष्य मिल गया | नानाजी एक ऐसे मनीषी थे जिन्होंने शिक्षा, राजनीति, संगठन और ग्राम विकास जैसे तमाम क्षेत्रों में एक साथ काम किया। 

१९४८ में गाँधीजी की हत्या के आरोप में संघ पर प्रतिबंध लगने पर नानाजी ने भूमिगत रहकर भी पाञ्चजन्य, युगधर्म और स्वदेश जैसे पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन जारी रखा। गाँधीजी की हत्या के मिथ्या आरोप का दंश झेलने के बावजूद संघ में  गाँधीजी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी। इसका प्रमाण यह है कि नानाजी ने विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। दूसरे गाँधीवादी जयप्रकाश नारायण से उनकी निकटता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक आंदोलन के दौरान पुलिस ने जैसे ही जयप्रकाश नारायण पर लाठी चलाई नानाजी बीच में आ गए और उस लाठी को अपने ऊपर झेल लिया। इस लाठीचार्ज से नानाजी के कंधे में फ्रेक्चर हो गया । नानाजी ने उप्र के गौंडा जिले में जिस जयाप्रभा गाँव का विकास किया। उसका नामकरण भी उन्होंने जयप्रकाश नारायण और उनकी पत्नी प्रभा देवी के नाम पर ही किया। नानाजी देशमुख ने पं दीनदयाल उपाध्याय के विचारों और कार्यों को मूर्तरूप देने के लिए दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। यह संस्थान आज भी उनके काम को आगे बढ़ा रहा है। पं दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गाँधीजी के हिंद स्वराज , हरिजन व अन्य पत्र पत्रिकाओं में व्यक्त विचारों को पढ़ेंगे तो दोनों में अंतर करना मुश्किल हो जाएगा । दोनों ही भारत की वास्तविक आंतरिक अध्यात्मिक शक्ति और धर्म परायणता का उपयोग कर समाज को शक्तिशाली बनाने की बात करते हैं । दोनों ही पश्चिम के भौतिकवादी विकास को गैर जरुरी मानते हैं ।  चित्रकूट में उन्होने देश के प्रथम ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसका नामकरण महात्मा गाँधीजी के नाम पर रखा गया।

ग्रामीण भारत को आत्मनिर्भर बनाने को स्वप्न आँखों में संजोए नाना जी का देहावसान २७ फरवरी २०१०  को चित्रकूट में हुआ। 

दिल्ली की 'दधीचि देहदान समिति' को अपने देहदान सम्बन्धी शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए नानाजी ने कहा था- "मैंने जीवन भर संघ शाखा में प्रार्थना में बोला है 'पत्तवेष कायो नमस्ते नमस्ते।' अतः मृत्यु के बाद भी यह शरीर समाज के लिए उपयोग में आना उचित है। इस प्रकार उन्होंने मृत्यु के बाद अपनी पार्थिव देह मेडिकल छात्रों के अध्ययन के लिए समर्पित कर दी।


(क्रमशः)


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Friday, February 26, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३९)

(गतांक से आगे)

सावरकर और संघ पर गाँधीजी की हत्या के षड्यंत्र का आरोप यानी न्यायपालिका और नेतृत्व पर सवाल


२६ फरवरी शुक्रवार यानी आज वीर सावरकर की पुण्यतिथि है। ऐसे मौके पर गाँधीजी की हत्या को लेकर  सावरकर (और संघ)  पर लगने वाले आरोपों की पङताल सामयिक है। गाँधीजी की हत्या की एफआईआर, चार्जशीट, लाल किला में लगी जस्टिस आत्माचरण की विशेष अदालत का आदेश और उसके बाद पंजाब हाईकोर्ट का जजमेंट, हाईकोर्ट की इस खंडपीठ के जज जीडी खोसला की पुस्तक और उसके बाद हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले इन सब में एक बात समान रूप से साबित होती है कि संघ और सावरकर गाँधीजी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल नहीं थे। 

गाँधीजी की ३० जनवरी १९४८ को हत्या के बाद पाँचवें दिन ४ फरवरी को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। संघ के छोटे - बङे नेता गिरफ्तार कर लिए गए। एक बात तो तय है कि संघ किसी भी स्थिति में जाँच प्रक्रिया , चार्जशीट और अदालती कार्रवाई को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं था। सावरकर भी जेल में थे और वे भी इस स्थिति में नहीं थे कि कहीं से सहानुभूति या बाहरी मदद हासिल कर सके। 

यदि तथ्यों पर बात की जाए तो सावरकर और संघ पर गाँधीजी की हत्या का आरोप लगाने वाले लोग वास्तव में न्यायपालिका की कार्यशैली और देश के तत्कालीन नेतृत्व यानी नेहरू जी और सरदार पटेल की क्षमता पर सवाल खङा करते हैं ।

१० फरवरी १९४९ को अपने निर्णय में न्यायमूर्ति आत्माचरण ने कहा कि "सावरकर को आरोपों में निर्दिष्ट अपराध का दोषी नहीं पाया गया है" और उन्हें दोषमुक्त कर रिहा करने के आदेश दिए। गाँधीजी की हत्या के मामले में पंजाब हाईकोर्ट में अपील हुई । लेकिन सरकार ने सावरकर के खिलाफ अपील नहीं की। यदि जस्टिस आत्माचरण के फैसले से नेहरू जी या सरदार पटेल असहमत होते या सरकार के पास सावरकर के खिलाफ कोई सबूत होता तो उनके खिलाफ अपील करने से कौन रोक सकता था ? हाईकोर्ट ने अपने आदेश में दो और अभियुक्तों को निर्दोष करार दिया।

गाँधीजी की हत्या के एक महीने बाद, सरदार पटेल ने नेहरू जी को लिखा था "मैंने बापू की हत्या के मामले के बारे में जांच की प्रगति के साथ खुद को लगभग दैनिक संपर्क में रखा है। सभी मुख्य आरोपियों ने अपनी गतिविधियों के लंबे और विस्तृत बयान दिए हैं।" उन बयानों से भी स्पष्ट रूप से पता चलता है कि आरएसएस इसमें शामिल नहीं था। '

सरसंघचालक गुरु गोलवलकर जी को लिखे एक अन्य पत्र में, सरदार पटेल ने कहा, "मेरे आस-पास के लोगों को ही पता है कि संघ पर प्रतिबंध हटने के बाद मैं कितना खुश था। मैं आपको शुभकामनाएं देता हूं।" कानून मंत्री डा भीमराव अम्बेडकर ने भी इस पूरे केस का अध्ययन कर नेहरू जी को बताया था कि गाँधीजी की हत्या के मामले में संघ का हाथ नहीं है। डा अम्बेडकर तो सावरकर के वकील भोपटकर से भी मिले थे और पूरे प्रकरण पर चर्चा के बाद कहा था कि सावरकर के खिलाफ आरोपों में कोई दम नहीं है और आप जरुर जितोगे।

बाल गंगाधर तिलक के नाती गजानंद विश्वनाथ केतकर के बयान पर उठे विवाद (जिस पर इस श्रृंखला में पहले चर्चा हो चुकी है) के बाद गठित कपूर आयोग की रिपोर्ट में भी संघ को पूरी तरह क्लीनचिट दी गई है। 

कपूर आयोग की रिपोर्ट १९६९ में जारी हुई थी। दो भाग में लगभग ७०० पेज की इस रिपोर्ट केप्रमुख निष्कर्ष थे:


१) वे (अभियुक्त) आरएसएस के सदस्य साबित नहीं हुए हैं, न ही उस संगठन को हत्या में हाथ दिखाया गया है। (खंड I, पृष्ठ 186)


२) ... इस बात का कोई सबूत नहीं है कि आरएसएस महात्मा गांधी या कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के खिलाफ हिंसक गतिविधियों में लिप्त था। (खंड I, पृष्ठ 66)


कपूर आयोग के सामने पेश हु सबसे महत्वपूर्ण गवाहों में से एक आईसीएस अधिकारी आरएन बनर्जी थे। उनकी गवाही महत्वपूर्ण थी क्योंकि वे हत्या के समय भारत सरकार के गृह सचिव थे।

बनर्जी ने कपूर आयोग को बताया कि यदि आरएसएस पर पहले भी प्रतिबंध लगा दिया गया था, तो भी इसने षड्यंत्रकारियों या घटनाओं को प्रभावित नहीं किया होगा, "क्योंकि वे आरएसएस के सदस्य साबित नहीं हुए हैं, और न ही उस संगठन को दिखाया गया है हत्या में हाथ है ”।

इस रिपोर्ट में ऐसे लोगों की सूची जिन्हें गाँधीजी की हत्या की जानकारी थी उसमें सावरकर का नाम नहीं हैं । दूसरी तरफ सावरकर के करीबी लोगों के बयानों के आधार पर लगभग वही बातें कही गई है जो गाँधीजी की हत्या के मामले में सरकारी गवाह बने बाडगे ने विशेष अदालत में अपने बयान में कहीं थीं । लेकिन अदालत ने उसे स्वीकार नहीं किया। इसके साथ ही आयोग ने अपनी कार्रवाई के दौरान सावरकर के बयान नहीं लिए और जब तक रिपोर्ट आई सावरकर की मृत्यु हो चुकी थी। कानून के जानकार यह भी जानते हैं कि न्यायिक जाँच आयोग और न्यायालय का काम अलग- अलग होता है। आयोग केवल बयान पर रिपोर्ट तैयार करता है, जबकि न्यायालय सबूत के आधार पर फैसला सुनाते हैं ।

हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट में लगी याचिकाओं में भी कोर्ट ने हर बार यही कहा कि संघ और सावरकर का गाँधीजी की हत्या से कोई वास्ता नहीं है। सावरकर और संघ को लेकर भ्रम पैदा करने वाले लोगों का मकसद केवल राजनीति है। वे न तो स्वतंत्रता आंदोलन की समझ रखते हैं औ  न हिंदुत्व की। 

( क्रमशः)

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Monday, February 22, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३८)

(गतांक से  आगे)

गाँधीजी की हत्या के मामले में तिलक के नाती गजानंद विश्वनाथ केतकर पर लगी थी रासुका

#मनोज_जोशी 


जैसा  मैंने पूर्व में लिखा था कि १२ अक्टूबर १९६४ को नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे के साथ विष्णु करकरे और मदनलाल पाहवा आजीवन क़ैद की सज़ा काटकर रिहा हुए। गोपाल गोडसे और विष्णु करकरे पुणे पहुँचे तो उनके दोस्तों ने एक नेता  की तरह उनका स्वागत करने का फ़ैसला किया। ठीक एक महीने बाद १२ नवंबर को सत्यविनायक पूजा आयोजित हुई. इस सत्य विनायक पूजा में शामिल होने के लिए मराठी भाषा में लोगों को आमंत्रण पत्र भेजा गया, जिस पर लिखा गया था कि देशभक्तों की रिहाई की ख़ुशी में इस पूजा का आयोजन किया गया है और आप सभी आकर इन्हें बधाई दें। इस आयोजन में क़रीब १२५ -१५० लोग शामिल  हुए । कार्यक्रम में नाथूराम गोडसे को भी देशभक्त बताया गया और गाँधीजी की हत्या करने पर सबका सम्मान किया गया।

आप यह जानकर हैरत में पङ जाएंगे कि इस आयोजन की अध्यक्षता कर रहे थे लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के नाती गजानंद विश्वनाथ केतकर। गाँधीजी के नमक सत्याग्रह सहित अनेक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी कर चुके केतकर ने लोकमान्य तिलक द्वारा शुरू की गईं  दो पत्रिकाओं केसरी' और 'तरुण भारत' का संपादन भी किया था। वे महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। १९५७ में सार्वजनिक राजनीतिक गतिविधियों से निवृत्ति के बाद से वे विभिन्न अखबारों में लेख लिख कर गाँधीजी की हत्या के आरोप में जेल में बंद सभी अपराधियों की मुक्ति का समर्थन कर रहे थे। 

इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक बात यह है कि कार्यक्रम में जीवी केतकर ने कहा, "कुछ हफ़्ते पहले ही गोडसे ने अपना इरादा शिवाजी मंदिर में आयोजित एक सभा में व्यक्त कर दिया था। गोडसे ने कहा था कि गाँधी कहते हैं कि वो 125 तक ज़िंदा रहेंगे लेकिन उन्हें 125 साल तक जीने कौन देगा? तब हमारे साथ बालुकाका कनेटकर भी थे और गोडसे के भाषण के इस हिस्से को सुनकर परेशान हो गए थे। हमने कनेटकर को आश्वस्त किया था कि वो नाथ्या (नाथूराम) को समझाएँगे और ऐसा करने से रोकेंगे। मैंने नाथूराम से पूछा था कि क्या वो गाँधी को मारना चाहता है? उसने कहा था कि हाँ, क्योंकि वो नहीं चाहता कि गांधी देश में और समस्याओं का कारण बनें।"  केतकर का कहना था कि  उन्होंने तत्कालीन बंबई प्रांत के मुख्यमंत्री बीजी खेर को इस बारे में सतर्कता बरतने की सलाह देते हुए सूचना भिजवा दी थी।


पूजा के बाद गोपाल गोडसे और करकरे ने जेल के अनुभवों को भी साझा किया। दो दिन बाद इसी स्थान पर गोडसे की श्राद्ध पूजा का भी आयोजन हुआ। 


केतकर ने इंडियन एक्सप्रेस से १४ नवंबर १९६४ को कहा था, "तीन महीने पहले ही नाथूराम गोडसे ने गाँधीजी  की हत्या योजना मुझसे बताई थी। जब मदनलाल पाहवा ने २० जनवरी १९४८ को गाँधीजी  जी की प्रार्थना सभा में बम फेंका तो बड़गे उसके बाद मेरे पास पुणे आया था और उसने भविष्य की योजना के बारे में बताया था।मुझे पता था कि गाँधीजी की हत्या होने वाली है। मुझे गोपाल गोडसे ने इस बारे में किसी को बताने से मना किया था". 

केतकर के इस बयान के बाद संसद और महाराष्ट्र विधानसभा में हंगामा हुआ ।अखबारों में भी सवाल उठाए गए कि गाँधीजी की हत्या की सूचना सरकार को पहले से थी तो सुरक्षा पुख्ता क्यों नहीं की गई? 

इसके बाद केतकर पर रासुका लगाई गई।  उन पर जानकारी छुपाने यानी षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगा। गोपाल गोडसे को भी फिर गिरफ़्तार कर लिया गया। यह एक लंबी कहानी है इस पर कभी आगे चर्चा करेंगे ।

केंद्र सरकार ने सांसद और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील गोपाल स्वरूप पाठक की अगुवाई में गाँधीजी की हत्या के पीछे षड्यंत्र की नए सिरे से जांच के लिए एक आयोग गठित किया। . कुछ ही दिनों बाद पाठक केंद्रीय मंत्री बन गए (वे आगे जाकर भारत के उप राष्ट्रपति भी रहे)  तब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग बनाया गया।  इस आयोग की जाँच ३ साल तक चली. कमीशन ने १०१ गवाहों के बयान लिए गए। कपूर आयोग की दो पार्ट में  ७०० से अधिक पन्नों की रिपोर्ट में कोई नई बात सामने नहीं आई।   आयोग ने किसी भी व्यक्ति संगठन के हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने की कोई बात नहीं की। वीर सावरकर के बारे में भी पहले से कही जा रही बातें ही आयोग की रिपोर्ट में सामने आईं और सावरकर उन आरोपों का अदालत में जवाब दे चुके थे, जिसके आधार पर उन्हें बरी  कर दिया गया था। हालाँकि आयोग की रिपोर्ट आने से पहले ही सावरकर का निधन हो चुका था।

(क्रमशः)

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Friday, February 19, 2021

गाँधीजी की हत्या पर गुरुजी की पहली प्रतिक्रिया - "यह देश का दुर्भाग्य है"

 हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३७)

(गतांक से आगे)

-#मनोज_जोशी



इस श्रृंखला के क्रम के हिसाब से देखें तो मुझे आज लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नाती जीवी केटकर के बयान के बाद के घटनाक्रम पर चर्चा करना थी, लेकिन आज संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर "गुरुजी" की जयंती है। गाँधीजी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध के बाद गुरुजी को गिरफ्तार किया गया था। 

गुरुजी की जयंती पर हम चर्चा करेंगे कि ३० जनवरी १९४८ को जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधीजी की हत्या की उस समय गुरु गोलवलकर जी कहाँ थे ? वो क्या कर रहे थे ? और जब उन्हें गाँधीजी की हत्या का यह समाचार मिला तब उनकी प्रतिक्रिया क्या थी ? 

उस दिन गुरुजी मद्रास (अब चेन्नई) में संघ की एक बैठक में भाग ले रहे थे। उस बैठक  में मौजूद रहे लोग बताते हैं किमहात्मा गाँधीजी की हत्या की जानकारी जब मिली गुरुजी चाय पी रहे थे। उन्होंने चाय का कप नीचे रखा और दुःखी मन से बोले - "यह देश का दुर्भाग्य है।" इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू , गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और गाँधीजी के पुत्र देवदास गाँधी को तार भेजकर अपनी शोक संवेदना व्यक्त की। उन्होंने अपने सारे प्रवास रद्ध कर दिए और ३६५ दिन चलने वाली संघ की शाखाओं में १३ दिन के शोक की घोषणा के साथ अवकाश की घोषणा कर दी। 

नागपुर लौटने के बाद उन्होंने पंं. नेहरू और सरदार पटेल को दो अलग - अलग पत्र लिखे। इन दोनों पत्रों में उन्होंने  महात्मा गाँधीजी के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करने के साथ ही उनकी हत्या को विश्वासघात बताया और इस विकट परिस्थिति में शांति और सद्भावना के साथ देश को आगे बढ़ाने की सामूहिक जिम्मेदारी पर बल दिया।

इसके बाद संघ पर प्रतिबंध लग गया। गुरुजी को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके ऊपर उस बंगाल राज्य कैदी अधिनियम के तहत मुकदमा दायर किया गया, जिसे खुद प. नेहरू काला कानून बताते थे। 

थोड़ा पीछे चलते हैं (हालाँकि इस श्रृंखला में यह वाकया पहले आ चुका है) १२ सितंबर, १९४७ की प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा था - ‘मैंने सुना था कि इस संस्था (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के हाथ भी खून से सने हुए हैं. गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिलाया कि यह बात झूठ है. उनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है. उसका उद्देश्य मुसलमानों की हत्या करना नहीं है. वह तो सिर्फ अपनी सामर्थ्य-भर हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहती है. उसका उद्देश्य शांति बनाए रखना है. गुरुजी ने मुझसे कहा कि मैं उनके विचारों को प्रकाशित कर दूं.’ बाद में इस बातचीत को महात्मा गांधी ने हरिजन में प्रकाशित भी किया। इस प्रार्थना सभा से कुछ दिन पहले ही दिन पहले ही महात्मा गांधी और गुरुजी की भेंट हुई थी। 

चार दिन बाद १६ सितंबर, १९४७ को आरएसएस के स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए गाँधीजी गुरुजी से हुई भेंट का जिक्र करते हुए कह रहे हैं - ‘कुछ दिन पहले ही आपके गुरुजी (एमएस गोलवलकर) से मेरी मुलाकात हुई थी. मैंने उन्हें बताया था कि कलकत्ता और दिल्ली में संघ के बारे में क्या-क्या शिकायतें मेरे पास आईं थीं. गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिया कि यद्यपि वे संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की जिम्मेदारी नहीं ले सकते, फिर भी संघ की नीति हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना मात्र है और वह भी किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाकर नहीं. संघ आक्रमण में विश्वास नहीं रखता. अहिंसा में उसका विश्वास नहीं है. वह आत्म-रक्षा का कौशल सिखाता है. प्रतिशोध लेना उसने कभी नहीं सिखाया.’

एक खास बात यह भी है कि संघ की शाखाओं में नियमित वाचन किए जाने वाले प्रातः स्मरण (एकात्मता स्तोत्रम) में गाँधीजी का नाम गुरुजी ने ही जुङवाया था। इस श्रृंखला की अगली किसी कङी में इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे ।

गुरुजी जैसी महान आत्मा को सादर नमन ! 

(क्रमशः)


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Wednesday, February 17, 2021

गाँधीजी की हत्या और कुछ अचर्चित बातें

 हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का राम राज्य (३६)

#मनोज_जोशी

(गतांक से आगे )

इस श्रृंखला की पिछली किसी कङी में मैंने जिक्र किया था कि नाथूराम गोडसे के बयान वाले दिन यानी ८ नवम्बर १९४८ को अदालत में काफी भीड़ थी और गोडसे का बयान सुनते हुए अदालत में मौजूद लोगों की आँखें नम हो गई थी। जज साहब ने यहाँ तक भी लिखा कि यदि अदालत में मौजूद लोगों को फैसला करने को कहा जाता तो वे गोडसे को माफ कर देते । यानी गाँधीजी की हत्या को साल भर भी नहीं बीता और आम लोगों ने गोडसे को माफ कर दिया ! ! ! ! !  सोचिए , एक तरफ हम गाँधीजी को राष्ट्रपिता कह रहे हैं और दूसरी तरफ उनके हत्यारे से सहानुभूति ? ? ? ? ? 


गंगाधर दंडवते, गंगाधर जादव और सूर्यदेव शर्मा यह तीन वो नाम हैं जिन्हें गाँधीजी की हत्या का आरोपी बनाया गया था। लेकिन यह फरार हो गए। और आज तक इनका कुछ पता नहीं चला है ? यानी आजादी के तुरंत बाद राष्ट्रपिता की हत्या की जाँच और आरोपियों तक पहुँचने को लेकर हमारा तंत्र कितना गंभीर था यह इस एक उदाहरण से पता लगता है। क्या पता इन तीन में से कोई एक या तीनों अब तक जीवित हों। और चर्चा तो यह भी होना चाहिए कि इन तीनों की बाद के वर्षों की गतिविधियां क्या रहीं होंगी।


फोरेंसिक रिपोर्ट बताती है कि गाँधीजी की पार्थिव देह पर  चार घाव थे, लेकिन गोडसे ने तीन गोलियां चलाईं थीं ! फिर चौथी गोली किसने चलाई ? और गाँधीजी की मौत किस गोली से हुई ? 


गोली लगने के बाद गाँधीजी को अस्पताल नहीं ले जाया गया और न पोस्टमार्टम हुआ 


इसी श्रृंखला में यह बात भी सामने आ चुकी है कि गाँधीजी की हत्या की एफआईआर में आरोपी का नाम नहीं था। शिकायतकर्ता नंदलाल मेहता के बयान में भी नाथूराम का नाम नहीं था। उन्होंने अपने बयान में आरोपी का नाम नारायण विनायक गोडसे बताया था।


गाँधीजी की हत्या के दस दिन पहले २० जनवरी को मदनलाल पाहवा ने देसी बम फेंक कर गाँधीजी को मारने की कोशिश की और वह पकङा भी गया। उसने पूछताछ में हत्या की साजिश की बात भी बताई। लेकिन गाँधीजी की सुरक्षा के इंतजाम नहीं किए गए। तर्क दिया जाता है कि गाँधीजी इसके लिए राजी नहीं थे। लेकिन सादी वर्दी में पुलिस बल तो लगाया जा सकता था।


गाँधीजी की हत्या पर संघ की शाखाओं में १३ दिन के शोक की घोषणा हुई । 


गाँधीजी की हत्या के पाँचवें दिन संघ पर हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगाकर ४ फरवरी १९४८ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया।


११ जुलाई १९४९ को यह प्रतिबंध उठा लिया गया, जबकि गाँधीजी की हत्या पर अदालत का फैसला संघ से प्रतिबंध हटाने के लगभग ४ महीने बाद ८ नवंबर १९४९ को आया। क्या इसका यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को अपनी गलती का एहसास हो गया था।


गाँधीजी की हत्या के बाद केवल राजनीतिक बयानबाजी को छोड़कर  आरएसएस पर कोई आरोप नहीं लगा। और कोई भी बात साबित नहीं हुई ।


गाँधीजी की हत्या के आरोप में सजा काट कर १२ अक्टूबर १९६४ को गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे और मदनलाल पाहवा जेल से छूटे उनका भव्य स्वागत हुआ । पुणे में आयोजित स्वागत समारोह की अध्यक्षता की लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नाती जीवी केटकर ने। और वहाँ उन्होंने क्या कहा ? ? केटकर ने कहा " मुझे गाँधीजी की हत्या के बारे में पहले से पता था ।" अब आप क्या तिलक और उनके पोते की देशभक्ति पर प्रश्न चिह्न लगा सकते हैं ?  स्वाभाविक रूप से इसका जवाब है - नहीं ! ! यह संभव नहीं । 

केटकर के बयान के बाद नया बवाल मच गया। इस पर चर्चा आगे करेंगे ।

(क्रमशः )


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Thursday, February 11, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३५)

(गतांक से आगे)

आखिर संघ की स्थापना क्यों हुई? पढ़िए दीनदयाल उपाध्याय द्वारा अपने मामाजी को लिखा पत्र

#मनोज_जोशी 


जब हम १९१५ से १९४९ तक की बात करते हैं तो एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना। पहले अनुशीलन समिति, फिर कांग्रेस और उसके बाद हिंदू महासभा में सक्रियता के बाद डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने आखिर संघ की स्थापना क्यों की? 

इसको समझने के लिए आज पं. दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि पर हमें उनके द्वारा अपने मामाजी को लिखे पत्र को पढ़ना चाहिए। पं. उपाध्याय का लालन- पालन उनके मामाजी ने ही किया था। अध्ययन पूरा होने के बाद वे संघ के प्रचारक हो गए। इस पर उनके मामाजी नाराज थे। इस पर दीनदयालजी ने उन्हें एक विस्तृत पत्र लिखा था। इस पत्र को पढ़ कर आपको संघ की स्थापना की वजह और आजादी से पहले संघ की भूमिका भी काफी हद तक समझ आएगी। 

२९ अप्रैल १९६८  को पांचजन्य ने यह पत्र प्रकाशित किया था। वहीं से साभार प्रस्तुत है।


क्या अपना एक बेटा समाज को नहीं दे सकते?


लखीमपुर खीरी, दिनांक २१ जुलाई, १९४२


श्रीमान् मामाजी,


सादर प्रणाम! आपका पत्र मिला। देवी की बीमारी का हाल जानकर दु:ख हुआ। आपने अपने पत्र में जो कुछ भी लिखा है सो ठीक ही लिखा है। उसका क्या उत्तर दूँ यह मेरी समझ में नहीं आता। परसों आपका पत्र मिला तभी से विचारों का एवं कर्तव्यों का तुमुल युध्द चल रहा है। एक ओर तो भावना और मोह खींचते हैं तो दूसरी ओर प्राचीन ऋषियों हुतात्माओं और पुम्रषाओं की अतृप्त आत्माएँ पुकारती हैं। आपके लिखे अनुसार पहले तो मेरा भी यही विचार था कि मैं किसी स्कूल में नौकरी कर लूँ तथा साथ ही वहाँ का संघ कार्य भी करता रहूँगा। यही विचार लेकर मैं लखनऊ आया था। परंतु लखनऊ में आजकल की परिस्थिति तथा आगे कार्य का असीम क्षेत्र देखकर मुझे यही आज्ञा मिली कि बजाय एक नगर में कार्य करने के एक जिले में कार्य करना होगा। इस प्रकार सोते हुए हिंदू समाज से मिलनेवाले कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा करना होता है। सारे जिले में काम करने के कारण न तो एक स्थान पर दो-चार दिन से अधिक ठहरान संभव है और न किसी भी प्रकार की नौकरी। संघ के स्वयंसेवक के लिए पहला स्थान समाज और देशकार्य का ही रहता है और फिर अपने व्यक्तिगत कार्य का। अत: मुझे अपने समाज कार्य के लिए जो आज्ञा मिली थी उसका पालन करना पड़ा।


मैं यह मानता हूँ कि मेरे इस कार्य से आपको कष्ट हुआ होगा। परंतु आप जैसे विचारवान एवं गंभीर पुरुषों को भी समाज कार्य में संलग्न रहते देखकर कष्ट हो तो फिर समाज कार्य करने के लिए कौन आगे आएगा। शायद संघ के विषय में आपको अधिक मालूम न होने के कारण आप डर गए हैं। इसका कांग्रेस से किसी प्रकार का संबंध नहीं है और न किसी राजनीतिक संस्थाओं से। यह आजकल की किसी राजनीति में भाग भी नहीं लेता है, न यह सत्याग्रह करता है और न जेल जाने में ही विश्वास रखता है। न यह अहिंसावादी है और न हिंसावादी ही। इसका तो एकमात्र कार्य हिंदुओं में संगठन करना है। इसी कार्य को यह लगातार सत्रह साल से करता आ रहा है। इसकी सारे भारतवर्ष में एक हजार से ऊपर शाखाएँ तथा दो लाख से अधिक स्वयंसेवक हैं। मैं अकेला ही नहीं परंतु इसी प्रकार तीन सौ से ऊपर कार्यकर्ता हैं जो एकमात्र संघकार्य ही करते हैं। सब शिक्षित और अच्छे घर के हैं। बहुत से बी.ए., एम.ए. और एल.एल.बी. पास हैं। ऐसा तो कोई शायद ही होगा जो कम-से-कम हाई स्कूल न हो और वह भी इने-गिने लोग। इतने लोगों ने अपना जीवन केवल समाज कार्य के लिए क्यों दे दिया, इसका एकमात्र कारण यही है कि बिना समाज की उन्नति हुए व्यक्ति की उन्नति संभव नहीं है। व्यक्ति कितना भी क्यों न बढ़ जाए, जब तक उसका समाज उन्नत नहीं होता तब तक उसकी उन्नति का कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि हमारे यहाँ के बड़े-बड़े नेताओं का दूसरे देशों में आकर अपमान होता है। हरीसिंह गौड़ जो कि हमारे यहाँ के इतने बड़े व्यक्ति हैं वे जब इंग्लैंड के एक होटल में गए तो वहाँ उन्हें ठहरने का स्थान नहीं दिया गया क्योंकि वे भारतीय थे। हिंदुस्थान में ही आप हमारे बड़े-से-बड़े आदमी को ले लीजिए। क्या उसकी वास्तविक उन्नति है? मुसलमान गुंडे बड़े-से-बड़े आदमी की इज्जत को पल भर में खाक में मिला देते हैं, क्योंकि वे स्वयं बड़े हो सकते हैं पर जिस समाज के वे अंग हैं वह तो दुर्बल है, अध:पतित है, शक्तिहीन और स्वार्थी है। हमारे यहाँ हर एक व्यक्तिगत स्वार्थों में लीन है तथा अपनी ही अपनी सोचता है। नाव में छेद हो जाने पर अपने अंगोछे को आप कितना भी ऊँचा क्यों न उठाइए वह तो आपके साथ डूबेगा ही। आज हिंदू समाज की यही हालत है। घर में आग लग रही है परंतु हरेक अपने-अपने घर की परवाह कर रहा है उस आग को बुझाने का किसीको भी खयाल नहीं है। क्या आप अपनी स्थिति को सुरक्षित समझते हैं? क्या आपको विश्वास है कि मौका पड़ने पर समाज आपका साथ देगा? नहीं, इसलिए नहीं कि हमारा समाज संगठित नहीं है। हम दुर्बल हैं इसलिए हमारे आरती और बाजों पर लड़ाइयाँ होती हैं। इसलिए हमारी माँ-बहनों को मुसलमान भगाकर ले जाते हैं, अंग्रेज सिपाही उनपर निश्शंक होकर दिन-दहाड़े अत्याचार करते हैं और हम अपनी बड़ी भारी इज्जत की दम भरनेवाले समाज में ऊँची नाक रखनेवाले अपनी फूटी ऑंखों से देखते रहते हैं। हम उसका प्रतिकार नहीं कर सकते हैं। अधिक हुआ तो इस सनसनीखेज मामले की खबर अखबारों में दे दी या महात्माजी ने हरिजन में एक लेख लिख दिया। क्यों? क्या हिंदुओं में ऐसे ताकतवर आदमियों की कमी है जो उन दुष्टों का मुकाबला कर सकें? नहीं, कमी तो इस बात की है कि किसी को विश्वास नहीं है और कि वह कुछ करे तो समाज उसका साथ देगा। सच तो ह है कि किसीके हृदय में इन सब कांडों को देखकर टीस ही नहीं उठती है। जब किसी मनुष्य के किसी अंग को लकवा मार जाता है तो वह चेतनाशून्य हो जाता है। इसी भाँति हमारे समाज को लकवा मार गया है। उसको कोई कितना भी कष्ट क्यों न दे पर महसूस ही नहीं होता। हरेक तभी महसूस करता है जब चोट उसके सिर पर आकर पड़ती है। आज मुसलमानों के आक्रमण सिंध में हैं। हमको उनकी परवाह नहीं परंतु यदि वे ही हमारे घर में होने लग जाएँ तब तो खलबली मचेगी और होश तो तब आएगा जब हमारे बहू-बेटियों में से किसीको वह उठाकर ले जाएँ। फिर व्यक्तिगत रूप से यदि कोई बड़ा हो भी गया तो उसका क्या महत्त्व? वह तो हानिकर ही है। हमारा सारा शरीर का शरीर ही मोटा होता जाए तो ठीक है परंतु यदि खाली पैर ही सूजकर कुप्पा हो गया और बाकी शरीर वैसा ही रहा तो वह तो पील-पाँव रोग हो जाएगा। यही कारण है कि इतने कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत आकांक्षाओं को छोड़कर अपने आपको समाज की उन्नति में ही लगा दिया है। हमारे पतन का कारण हममें संगठन की कमी ही है। बाकी बुराइयाँ अशिक्षा आदि तो पतित अवस्था के लक्षण मात्र ही हैं। इसलिए संगठन करना ही संघ का ध्येय है। इसके अतिरिक्त और यह कुछ भी नहीं करना चाहता है। संघ का क्या व्यावहारिक रूप है, आप यदि कभी आगरा आएँ तो देख सकते हैं। मेरा खयाल है कि एक बार संघ के रूप को देखकर तथा उसकी उपयोगिता समझने के बाद आपको हर्ष ही होगा कि आपके एक पुत्र ने भी इसी कार्य को अपना जीवन कार्य बनाया है। परमात्मा ने हम लोगों को सब प्रकार समर्थ बनाया है क्या फिर हम अपने में से एक को भी देश के लिए नहीं दे सकते हैं? उस कार्य के लिए, जिसमें न मरने का सवाल है न जेल की यातनाएँ सहन करने का, न भूखों मरना है और न नंगा रहना है। सवाल है केवल चंद रुपए के न कमाने का। वे रुपए जिनमें निजी खर्च के बाद शायद ही कुछ बचा रहता। रही व्यक्तिगत नाम और यश की बात, सो तो आप जानते ही हैं कि गुलामों का कैसा नाम और क्या यश? फिर मास्टरों की तो इज्जत ही क्या है? आपने मुझे शिक्षा-दीक्षा देकर सब प्रकार से योग्य बनाया, क्या अब मुझे समाज के लिए नहीं दे सकते हैं? जिस समाज के हम उतने ही ऋणी हैं। यह तो एक प्रकार से त्याग भी नहीं है, विनियोग है। समाजरूपी भूमि में खाद देना है। आज हम केवल फसल काटना जानते हैं पर खेत में खाद देना भूल गए हैं अत: हमारा खेत जल्द ही अनुपजाऊ हो जाएगा। जिस समाज और धर्म की रक्षा के लिए राम ने बनवास सहा, कृष्ण ने अनेकों कष्ट उठाए, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरे, शिवाजी ने सर्वस्वार्पण कर दिया, गुरुगोविंद सिंह के छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले की दीवारों में चुने गए, क्या उसके खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओं का, झूठी आकांक्षाओं का त्याग भी नहीं कर सकते हैं? आज समाज हाथ पसारकर भीख माँगता है और यदि हम समाज की ओर से, ऐसे ही उदासीन रहे तो एक दिन वह आएगा जब हमको वे चीजें जिन्हें हम प्यार करते हैं जबरदस्ती छोड़नी पड़ेंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आप संघ की कार्यप्रणाली से पहले से परिचित होते तो आपके हृदय में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं उठती। आप यकीन रखिए कि मैं कोई ऐसा कार्य नहीं करूँगा जिससे कोई भी आपकी ओर अंगुली उठाकर देख भी सके। उलटा आपको गर्व होगा कि आपने देश और समाज के लिए अपने एक पुत्र को दे दिया है। बिना किसी दबाव के केवल कर्तव्य के खयाल से आपने मेरा लालन-पालन किया, अब क्या अंत में भावना कर्तव्य को धर दबाएगी। अब तक आपका कर्तव्य अपने परिवार तक सीमित था अब वही कर्तव्य सारे हिंदू समाज के प्रति हो गया है। यह तो केवल समय की प्रगति के साथ-साथ आपके कर्तव्य का विकास मात्र ही है। भावना के कर्तव्य सदैव ऊँचा रहता है। लोगों ने अपने इकलौते बेटों को सहर्ष सौंप दिया है फिर आपके पास एक स्थान पर तीन-तीन पुत्र हैं। क्या उनमें आप एक को भी समाज के लिए नहीं दे सकते हैं? मैं जानता हूँ कि आप 'नहीं' नहीं कहेंगे।


आप शायद सोचते होंगे कि यह क्या उपदेश लिख दिया है। न मेरी इच्छा है, न मेरा उद्देश्य ही यह है। इतना सब इसलिए लिखना पड़ा कि आप संघ से ठीक-ठीक परिचित हो जाएँ। किसी भी कार्य की भलाई-बुराई का निर्णय उसकी परिस्थितियाँ और उद्देश्य को देखकर ही तो किया जाता है। पं. श्यामनारायण मिश्र जिनके पास मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ वे स्वयं यहाँ के प्रमुख एडवोकेट हैं तथा बहुत ही माननीय (जेल जानेवाले नहीं) तथा जिम्मेदार व्यक्तियों में हैं, उनकी संरक्षता में रहते हुए मैं कोई भी गैर जिम्मेदारी का कार्य कर सकूँ यह कैसे मुमकिन है।


शेष कुशल है। कृपापत्र दीजिएगा। मेरा तो खयाल है कि देवी का एलोपैथिक इलाज बंद करवाकर होमियोपैथिक इलाज करवाइए। यदि आप देवी का पूरा वृत्त और बीमारी तथा संपूर्ण लक्षण भेजें तो यहाँ पर बहुत ही मशहूर होमियोपैथ हैं, उनसे पूछकर दवा लिख भेजूँगा। होमियोपैथ इलाज की यदि दवा लग गई तो बिना खतरे के इस प्रकार ठीक हो सकता। भाई साहब व भाभीजी को नमस्ते, देवी व महादेवी को स्नेह। पत्रोत्तर दीजिएगा। भाई साहब तो कभी पत्र लिखते ही नहीं।


आपका भांजा


( दीना )


(क्रमशः)


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