Wednesday, November 25, 2020

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (२५)

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य" (२५)

(गतांक से आगे)

आखिर गाँधीजी के क्या विचार थे संघ के बारे में ??


पिछली २४ कड़ियों में हमने जाना कि महात्मा गाँधी एक सनातनी हिंदु थे। वे धर्म आधारित राजनीति के दूत थे। उन्होंने हिंदुत्व को धर्मों का धर्म कहा। यानी उनकी नजर में भी धर्म और संप्रदाय दोनों अलग-अलग बातें थीं। उन्होंने सत्य, अहिसा और सत्याग्रह जैसे प्रयोग हिंदुत्व की प्रेरणा से ही शुरू किए थे। वे गौरक्षा के हिमायती थे। वे धर्मांतरण के विरोधी थे, उन्होंने विवाह के लिए धर्म परिवर्तन का भी विरोध किया था। वे वर्ण व्यवस्था पर भरोसा करते थे। उन्होंने समाज के वंचित के प्रथक निर्वाचन की मांग को अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि वे यह मानते थे कि इससे हिंदु समाज और हिंदु्स्थान दोनों बिखर जाएंगे। लेकिन वे छुआछूत के विरोधी थे और अजा- जजा वर्ग के लिए निर्वाचन में आरक्षण को उन्होंने स्वीकार किया।  वे रामराज्य के तो हिमायती थे ही जिस पर हम अगली कड़ियों में चर्चा करेंगे। अगर हिंदुत्व की बात हो और संघ की बात न हो तो बात वैसे ही अधूरी रह जाएगी। मैंने तो अपनी पहली कड़ी में ही यह साफ कर दिया था कि मेरी श्रृंखला संघ, गाँधीजी, हिंदुत्व और रामराज्य के आसपास रहेगी।

यदि आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी जवाबदार स्वयंसेवक से वैचारिक चर्चा करेंगे। संघ साहित्य को पढ़ेंगे तो वह भी तो इन मुद्दों पर लगभग गाँधीजी की तरह बातें करते हैं। और विस्तार में जाएंगे तो संघ की शाखा में रोजाना एकात्मता स्तोत्रम में अन्य महापुरुषों के साथ महात्मा गाँधी को भी याद किया जाता है… गाँधीजी रामराज्य की बात करते हैं और संघ हिंदु राष्ट्र की… हम जब गाँधीजी के रामराज्य की चर्चा करेंगे तब संघ के हिंदु राष्ट्र पर भी बात करेंगे।


दूसरी ओर, जब गाँधीजी के नाम पर राजनीति करने वालों और खुद को गाँधीवादी कहने वालों को सुनो, पढ़ो तो ऐसा लगता है जैसे संघ और गाँधी दो विपरीत ध्रुव हैं।

ऐसे में यह जानना रोचक है कि आखिर स्वयं गाँधीजी संघ के बारे में क्या सोचते थे?

दिसंबर १९३४ में गाँधीजी जमनालाल बजाज के बुलावे पर वर्धा गए थे। गाँधीजी जिस घर में ठहरे थे, उसके ठीक सामने एक विशाल मैदान था जो जमनालाल बजाज की ही संपत्ति थी. उन दिनों उस मैदान पर संघ का शीत शिविर चल रहा था। बहुत स्पष्ट है कि गाँधीजी के सहयोगी जमनालाल बजाज संघ की भी मदद करते थे। कुछ दिन तक दूर से ही शिविर की गतिविधियां देखने पर गाँधीजी ने शिविर में जाने की इच्छा व्यक्त की। २५ दिसंबर, १९३४ को सुबहबजे महात्मा गांधी आरएसएस के शिविर में पहुंच गए। संघ के उस शिविर की दो बातों ने महात्मा गाँधी को खासा प्रभावित किया था। पहली यह कि शिविर में गणवेश, भोजन और ठहरने का सारा प्रबंध और खर्च स्वयंसेवकों ने खुद ही उठाया था। और दूसरी  अस्पृश्यता तो दूर की बात, स्वयंसेवकों को आपस में एक-दूसरे की जाति मालूम तक नहीं थी। स्वयंसेवकों का भोजन एक साथ बना था और वे एक साथ भोजन कर रहे थे। उस दिन डॉ. हेडगेवार शिविर में उपस्थित नहीं थे। इसलिए वहाँ उनकी गाँधीजी से मुलाकात नहीं हो सकी। अगले दिन डॉ. हेडगेवार गाँधीजी से मिलने गए और दोनों के बीच लंबी चर्चा हुई।

१२सितंबर, १९४७ की प्रार्थना सभा (यानी आजादी के करीब एक माह बाद  में गांधीजी ने कहा था - "मैंने सुना था कि इस संस्था (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के हाथ भी खून से सने हुए हैंगुरुजी ने मुझे आश्वासन दिलाया कि यह बात झूठ हैउनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है. उसका उद्देश्य मुसलमानों की हत्या करना नहीं हैवह तो सिर्फ अपनी सामर्थ्य-भर हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहती हैउसका उद्देश्य शांति बनाए रखना है. गुरुजी ने मुझसे कहा कि मैं उनके विचारों को प्रकाशित कर दूं.।"बाद में इस बातचीत को महात्मा गांधी ने हरिजन में प्रकाशित भी किया।

फिर चार दिन बाद १६ सितंबर,१९४७ को वे दिल्ली में आरएसएस के कार्यक्रम में पहुंच गए। दिल्ली की एक मलिन बस्ती में यह कार्यक्रम था और गाँधीजी भी वहीं ठहरे हुए थे। यहां उन्होंने कहा था - ‘बरसों पहले मैं वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया थाउस समय इसके संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थेस्वर्गीय श्री जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गए थे और वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छूआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ था। तब से संघ काफी बढ़ गया है। मैं तो हमेशा से यह मानता आया हूं कि जो भी संस्था सेवा और आत्मत्याग के आदर्श से प्रेरित है, उसकी ताकत बढ़ती ही है। लेकिन सच्चे रूप में उपयोगी होने के लिए त्यागभाव के साथ ध्येय की पवित्रता और सच्चे ज्ञान का संयोजन आवश्यक है।  ऐसा त्याग, जिसमें इन दो चीजों का अभाव हो, समाज के लिए अनर्थकारी सिद्ध हुआ है। महात्मा गांधी ने आगे कहा - ‘कुछ दिन पहले ही आपके गुरुजी (द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर) से मेरी मुलाकात हुई थी. मैंने उन्हें बताया था कि कलकत्ता और दिल्ली में संघ के बारे में क्या-क्या शिकायतें मेरे पास आईं थींगुरुजी ने मुझे आश्वासन दिया कि यद्यपि वे संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की जिम्मेदारी नहीं ले सकते, फिर भी संघ की नीति हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना मात्र है और वह भी किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाकर नहींसंघ आक्रमण में विश्वास नहीं रखता, लेकिन अहिंसा में उसका विश्वास नहीं हैवह आत्म-रक्षा का कौशल सिखाता है. प्रतिशोध लेना उसने कभी नहीं सिखाया।"

(आखिर गुरुजी की इस बात पर किसी व्यक्ति को क्या आपत्ति हो सकती है? )

 संभवत: गाँधीजी को संघ के करीब जाता देख कांग्रेस का एक धड़ा उनसे नाराज रहने लगा था। 15 नवंबर, 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक में गांधीजी ने सितंबर में संघ के कार्यक्रम में कही बातों को यह कहते हुए दोहराया था मैं संघ के बारे में कई बातें सुनता हूं। लेकिन मैं उनके कार्यक्रम में गया हूं। अगले दिन 16 नवंबर 1947 को प्रार्थना सभा में गाँधीजी ने कहा – “मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया से मिला हूं. मैं इस संघ की एक बैठक में शामिल हुआ था, तबसे मुझे उसकी बैठक में जाने के लिए डांटा जाता रहा है।” प्रश्न यह है कि आखिर वह कौन था जो गाँधीजी को डॉट रहा था। 

आजादी के बाद हुए दंगों को रोकने के लिए 13 जनवरी, 1948 को महात्मा गाँधी ने उपवास की घोषणा कर दी थी। छह दिन बीतते-बीतते उनके पेट में तेज दर्द होना शुरू हो गया। 18 जनवरी को देश के विभिन्न संगठनों के सौ से अधिक प्रतिनिधियों ने गाँधीजी  की सभी सातों शर्तों को मानते हुए सांप्रदायिक सौहार्द्र स्थापित करनेवाले एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए। . इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिनिधि भी शामिल थे। इस पर अपने संदेश में गाँधीजी ने कहा - ‘मेरी प्रतिज्ञा पूरी होने में जितना समय लगने की आशा थी वह दिल्ली के नागरिकों, जिनमें हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता भी सम्मिलित हैं,की सद्भावना के कारण उससे पहले ही पूरी हो गई.’

(क्रमश:)