Wednesday, October 28, 2020

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का राम राज्य (२२)

(गतांक से आगे)

जानिए मनु स्मृति पर क्या कहते थे महात्मा गाँधी

मनु स्मृति को लेकर अक्सर ज्ञानी लोग विवाद करते हैं। मनु स्मृति के नाम से दर्ज कुछ श्लोकों को उदाहरण बता कर पूरे हिंदुत्व को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिश होती है। कहा जाता है कि हिंदू संस्कृति महिला विरोधी है और छुआछूत की समर्थक है।

कुछ साल पहले का मेरा एक व्यक्तिगत अनुभव है। एक “लाल ज्ञानी’’ सामाजिक समरसता और सामाजिक समानता पर मुझसे चर्चा कर रहे थे। मैं समरसता पर जोर दे रहा था। उन्होंने मनु स्मृति के कुछ श्लोक का उदाहरण देकर कहा कि शूद्रों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। मैंने अपने सामान्य ज्ञान से कहा कि मनु स्मृति में मिलावट है। यह श्लोक मूल मनु स्मृति का नहीं है। ‘‘लाल ज्ञानी’’ ने सवाल दागा क्या आपके पास मनु स्मृति की पांडुलिपि या मूल प्रति है। मैं चुप हो गया। अब जो बात मैं कह रहा था, वही बात बहुत अच्छे अंदाज में गाँधीजी ने ६ अप्रैल १९३४ को हरिजन में लिखी है। गाँधीजी ने जो लिखा है उसका एक अंश पढ़िए...


“मैं मनुस्मृति को शास्त्रों का हिस्सा मानता हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं मनु स्मृति के नाम से छपी पुस्तक के हर एक श्लोक को अक्षरश: सही मानता हूं। प्रकाशित पुस्तक में बहुत सारे विरोधाभास हैं। यदि आप एक हिस्सा स्वीकार करते हैं, तो आप उन हिस्सों को अस्वीकार करने के लिए बाध्य हैं, जो पूरी तरह से असंगत हैं। मैं मनु स्मृति में समाहित उदात्त धार्मिक शिक्षाओं के कारण उसे एक धार्मिक पुस्तक मानता हूं।... लेकिन यह स्वीकार करना चाहिए कि दरअसल आज किसी के भी पास मूल ग्रंथ की प्रति है ही नहीं।”


१६ सितंबर, १९२७ को तमिलनाडु के तंजौर में उनका पूरा भाषण ही मनु स्मृति जैसे विषयों  पर केंद्रित था. इन विषयों पर उनसे हुए  सवाल-ज़वाब का महादेव देसाई द्वारा किया गया संकलन यंग इंडिया के २४ नवंबर, १९२७ के अंक में छपा था. इन सवालों में से दो सवाल सीधे मनुस्मृति पर ही केंद्रित थे


सवाल - मनुस्मृति में (वर्ण-धर्म का) जो सिद्धान्त दिया गया है क्या आप उसका समर्थन करते हैं?


गांधीजी - सिद्धांत उसमें है, लेकिन उसका व्यावहारिक रूप मुझे पूरी तरह जमता नहीं. इस ग्रंथ के कई अंश हैं जिन पर गंभीर आपत्तियां हो सकती हैं. मुझे लगता है कि वे अंश उसमें बाद में जोड़ दिए गए हैं.


सवाल - क्या ‘मनुस्मृति’ में बहुत सी अन्यायपूर्ण बातें कही गई हैं?


गांधीजी - हां, उसमें स्त्रियों और तथाकथित नीची ‘जातियों’ के बारे में बहुत सी अन्यायपूर्ण बाते हैं. इसलिए तथाकथित शास्त्रों को बहुत सावधानी के साथ पढ़ने की आवश्यकता है.


गाँधीजी ने अन्य अवसरों पर भी यह बात दोहराई है कि मनु स्मृति ही नहीं बल्कि रामचरित मानस और महाभारत जैसे ग्रंथों में भी मिलावट हुई है। इसीलिए वे धार्मिक पुस्तकों का सावधानी से अध्ययन करने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं कि सत्य और अहिंसा धर्म का आधार है। जो कुछ भी इस आधार के विपरीत है वह धार्मिक नहीं है।


(क्रमशः)

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का राम राज्य (२१)

(गतांक से आगे)

धर्म में आडम्बर के विरोधी थे गाँधीजी


नवदुर्गा में अचानक बनी विशेष परिस्थितियों के कारण मैंने  #स्त्री_शक्ति पर एक श्रृंखला लिखने का व्रत ले लिया। इस वजह से महात्मा गाँधीजी की यह श्रृंखला बीच में ही छूट गई थी। हम पिछली कुछ पोस्ट में गाँधीजी द्वारा हिंदू धर्म में सुधार के लिए किए गए प्रयासों पर चर्चा कर रहे थे। इस २१ वीं कड़ी में उसे ही आगे बढ़ाने का प्रयास करता हूं। इसके साथ ही श्रृंखला को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए इसके तत्काल बाद २२ वीं कङी भी प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

गांधी वांङ्गमय के खंड २२को पढ़ें तो पाएंगे कि वे हिंदू धर्म में आडम्बर के भारी विरोधी थे। गांधीजी कहते हैं - 

“धर्म के नाम पर हम हिंदुओं ने खूब आडंबर रच रखा है | धर्म को केवल खानपान का विषय बनाकर हमने उसकी प्रतिष्ठा कम कर दी है | हमें आंतरिक पवित्रता का अधिक विचार करना चाहिए | हम अनेक आंतरिक प्रलोभनों से घिरे हुए हैं; घोर-से-घोर अस्पृश्य और पापपूर्ण विचारों का प्रवाह हमें स्पर्श कर रहा है, अपवित्र बना रहा है, उस सर्वशक्तिमान परमात्मा के दरबार में हमारी पहचान इस बात से नहीं होगी कि हमने क्या-क्या खाया-पीया है और किस-किस का स्पर्श किया है, बल्कि इस बात से होगी कि हमने किस-किस की सेवा किस-किस तरह से की | यदि हमने किसी भी विपत्तिग्रस्त और दुखी मनुष्य की सेवा की होगी तो वह अवश्य हम पर कृपा-दृष्टि डालेगा | जिस प्रकार हमें बुरे लोगों और बुरी बातों के संसर्ग से बचना चाहिए उसी प्रकार खराब, उत्तेजक और गंदे खान-पान से भी दूर रहना चाहिए | लेकिन हमें इन नियमों की महिमा को भी आवश्यकता से अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए | हम भोजन के रूप में अमुक वस्तुओं के त्याग का उपयोग अपने कपट-जाल, धूर्तता और पापाचरण को छिपाने के लिए नहीं कर सकते | और इस आशंका से कि कहीं उनका स्पर्श हमारी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक न हो, हमें किसी पतित या गंदे भाई-बहन की सेवा से हरगिज मुंह न मोड़ना चाहिए |”

(क्रमशः)

Tuesday, October 20, 2020

नवरात्रि की शुभकामनाएं - पांचवा दिन


 


” ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी “” का सही अर्थ क्या है….?????


महादेवी वर्मा के नाम से जिस फर्जी कविता के वायरल होने के कारण मैं यह श्रृंखला लिख रहा हूं उसमें सबसे पहले रामचरित मानस में ” ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी “ को लेकर तंज कसा गया है। इन शब्दों को लेकर सामान्य जन भ्रमित हो जाते हैं। और वे मान लेते हैं कि तुलसीदास (यानी उनके आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम रघुवंश कुल गौरव श्री रामचंद्र जी) यहां जो कह रहे हैं उसमें कहीं न कहीं महिलाओं और अजा-जजा के लोगों की तुलना पशु से की गई है।
लेकिन मैं इस धारणा को अनुचित मानता हूं।
पहली बात तो यह कि तुलसीदासजी ने रामचरित मानस संस्कृत में नहीं अवधी में लिखी है। इसलिए मानस की व्याख्या संस्कृत के आधार पर नहीं बल्कि अवधी में उन शब्दों के भावार्थ के आधार पर करना चाहिए। संस्कृत में  ताड़न शब्द का अर्थ पीटना या प्रताड़ित करना होता है। लेकिन अवधी में इसका अर्थ क्या है? अवधी में ताड़ना शब्द का अर्थ है परखना।
दूसरी बात यह कि पूरे रामचरित मानस में कहीं भी स्त्री का अपमान नहीं दिखाया गया है। माता सीता परम आदर्शवादी हैं। उर्मिला के उर्मिला के विरह और  त्याग की महिमा बताई गई है। रावण की पत्नी मंदोदरी ही नहीं बल्कि त्रिजटा को भी खलनायक के रूप में नहीं दिखाया गया है। राक्षसी सुरसा को भी हनुमान जी माता कह कर संबोधित करते हुए बताए गए हैं। कैकेई और मंथरा जब गलती का पश्चाताप करती हैं तो मानस में वे भी सहानुभूति की पात्र हो जाती हैं।
आगे सोचिए क्या तुलसी दास जी उनके विषय में कुछ गलत लिख सकते हैं जिन्हें शूद्र कहा जाने लगा है। भगवान राम की शबरी, विषाद और केवट से भेंट के प्रसंगों को ध्यान कर लीजिए। फिर इस सवाल का जवाब स्वयं ही सोच लीजिए।
अब बात करते हैं उस चौपाई की जिस पर ज्ञानी लोग बहुत ज्ञान देने की कोशिश करते हैं। इस चौपाई के संदर्भ में सामान्य जानकारी यह है कि यह सुंदरकांड में है । जब समुद्र ने भगवान राम का अनुरोध स्वीकार नहीं किया तब वे क्रोधित हो गए। 

घटना – संवाद का सम्पूर्ण सन्दर्भ देखिए


बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥


भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥


चौपाई :

* लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥


भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति ॥1॥


* ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥

क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥


भावार्थ:-ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (यानी  ऊसर में बीज बोने के समान यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥


* अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥

संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥3॥


भावार्थ:-ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥


* मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥

कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥


भावार्थ:-मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥


दोहा :

* काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।

बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥


भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है यानी सही रास्ते पर आता है ॥58॥


* सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।

गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥


भावार्थ:-समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण  क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥1॥


* तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥

प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥


भावार्थ:-आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥2॥


* प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥


भावार्थ:-प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥3॥

दरअसल ताड़ना एक अवधी शब्द है जिसका अर्थ होता है पहचानना  या परखना ।  तुलसीदास जी के कहने का भावार्थ यह है कि अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी इसलिए उसके स्वभाव को जानना जरूरी  है ।इसी तरह गंवार का अर्थ  है जो अज्ञानी हैं। और शूद्र का अर्थ है आपका अधीनस्थ कर्मचारी। उसके व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता।  इसी तरह पशु और नारी के संदर्भ  में भी वही अर्थ है कि जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते उसके साथ जीवन का निर्वाह सुखपूर्वक नहीं हो सकता। कुल मिलाकर भावार्थ यह है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु  और नारी  के स्वभाव को ठीक से समझना चाहिए और उस हिसाब से उनके साथ व्यवहार करना चाहिए।





 







मुझे पत्रकारिता के लिए प्रेरित करने वाले शरद जी

मुझे पत्रकारिता के लिए प्रेरित करने वाले मध्यभारत प्रांत के तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्रृद्धेय शरद मेहरोत्रा जी की आज जन्म जयंती है। मैं उन्हें श्रृद्धा सुमन अर्पित करता हूँ ।१९९० के दशक की बात है। समिधा में एक छोटा सा समूह बना था जो अखबारों में संपादक के नाम पत्र लेखन करता था। आदरणीय शरद जी इस समूह का मार्गदर्शन करते थे। 

एक किस्सा मुझे हमेशा याद आता है। पालिटेक्निक चौराहा पर स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमा लगना चाहिए यह माँग उठी थी। कुछ दिन बाद स्वामी जी की एक आवक्ष प्रतिमा वहाँ स्थापित हो गई उसका अनावरण नहीं हुआ था। पालिटेक्निक में पढ़ाई के कारण मैं रोजाना उसे देखता।

मुझे बङा अजीब से लगा कि इतने बङे चौराहे पर इतनी छोटी सी प्रतिमा ! ! ! !  फिर स्वामी जी की प्रतिमा तो आदमकद ही होना चाहिए ! ! ! ! उन दिनों स्वामीजी के शिकागो भाषण की स्वर्ण जयंती मनाई जा रही थी और मुझे  विवेकानन्द साहित्य पढ़ने का चस्का लग चुका था।

पत्र लेखकों के समूह की बैठक में आदरणीय शरद जी ने विषय पूछे। मैंने अपने मन की बात बता दी। उन्होंने कहा - लिखो।

फिर मैंने पत्र लिखा सभी जगह देकर आया।

स्वदेश ने छापा।

थोड़े दिनों बाद आवक्ष प्रतिमा वहाँ से हट गई। चौराहा कुछ दिन खाली पङा रहा फिर आदमकद प्रतिमा स्थापित हुई ।

अपने मन में यह बात जम गई कि लिख कर सरकार को हिलाया जा सकता है।

शरद जी के बारे में अधिक जानकारी के लिए अनिल डागा जी की पोस्ट पढ़ें ।

R


itendra Mathur जी Akshat Sharma जी Mohit Mehta जी आदि भी इस समूह के सदस्य थे। उनकी भी कुछ स्मृतियां होंगी ।

Monday, October 19, 2020

नवरात्रि की शुभकामनाएं : चौथा दिन



धर्म यानी महिलाओं के सम्मान की  पुनर्स्थापना की योगीराज श्रीकृष्ण ने

#मनोज_जोशी


जब अर्जुन ने कुरूक्षेत्र में युद्ध करने से मना कर दिया तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा 


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।


अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।


धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥


अर्थात 


मै प्रकट होता हूं, मैं आता हूं, जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूं, जब जब अधर्म बढता है तब तब मैं आता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं।


श्रीकृष्ण ने यह बात यु्द्ध के मैैदान में कही, लेकिन यदि आप उनके पूरे जीवन पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि योगीराज कृष्ण ने उस युग में महिलाओं के सम्मान की पुनर्स्थापना की। पुनर्स्थापना इसलिए क्योंकि महाभारत काल की घटनाओं को देखेंगे तो पाएंगे कि स्त्री को उसका सम्मान नहीं मिलता था। आखिर पांडवों ने जुएं में अपनी पत्नी द्रोपदी को दांव पर लगा दिया था और वे उसे हार गए। इसके बाद ही युद्ध की स्थिति बनी।

अब आप जिन योगेश्वर श्रीकृष्ण पर ‘‘केरेक्टर ढीला’’ जैसे गानों पर हम थिरकते हैं जरा उनके जीवन के हकीकत को समझ लीजिए। उसके बाद आगे बात करते है।

३११२  ईसा पूर्व इस पृथ्वी पर आए श्रीकृष्ण का जेल में जन्म हुआ , जन्म होते ही जान पर संकट आ गया। फिर जिस माँ ने जन्म दिया वह छूट गई और पालने वाली माँ दूसरी ...! शायद इन विपरीत परिस्थितियों में लालन- पालन के कारण ही कृष्ण महिलाओं के अधिकार को लेकर बहुत संवेदनशील थे। गीता का ज्ञान समझना तो आम आदमी के बस की बाता नहीं है। आप थोड़ी देर के लिए भूल जाइए कि कृष्ण कोई देवता या अवतार हैं । केवल उनके जीवन और कार्यों को सामान्य व्यक्ति की तरह देखिए। आप पाएंगे कि श्रीकृष्ण ने महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने का अद्वितीय कार्य किया। मुझे लगता है कि महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता और उनके अधिकारों के लिए की गई पहल के ही कारण श्रीकृष्ण  ५००० से अधिक वर्ष बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं ।


१६ हजार महिलाओं को मुक्त कराया 


कृष्ण की जिन 16 हजार पटरानियों का जिक्र किया  जाता है दरअसल वे सभी भौमासर जिसे नरकासुर भी कहते हैं के यहां बंधक बनाई गई महिलाएं थीं जिनको श्रीकृष्‍ण ने  मुक्त कराया था। श्रीकृष्ण की छोटी बहन सुभद्रा के विवाह की भी कहानी भी एक बहन को उसकी पसंद का वर चुनने की आजादी की कहानी है। रुक्मिणी और श्रीकृष्ण के विवाह की कहानी भी महिला सम्मान की ही कहानी है । 

(इन सब पर विस्तार से जानकारी के लिए आप हाल ही में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की मेरी पोस्ट देख सकते हैं)

(जन्माष्टमी वाली और यह दोनों पोस्ट मेरे blog - mankaoj.blogspot.com पर भी उपलब्ध है)

Sunday, October 18, 2020

नवरात्रि की शुभकामनाएं : तीसरा दिन

 प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति समझने के लिए शंकराचार्य जी के जीवन का यह प्रसंग जानना जरूरी


यदि आप प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति समझना चाहते हैं तो आदि शंकराचार्य जी के जीवन का यह प्रसंग जानना आपके लिए जरूरी है। महिष्मति में रहने वाले प्रकाण्ड विद्वान मंडन मिश्र और उनकी विदूषी पत्नी उभय भारती के साथ हुए शंकराचार्य जी के शास्त्रार्थ के इस प्रसंग को जब आप पढ़ेंगे तो पाएंगे कि मंडन मिश्र और उनकी की पत्नी ही नहीं बल्कि पूरा गांव ईश्वर और चराचर जगत का ज्ञानी था।

आदि शंकराचार्य ने महापंडित मंडन मिश्र का नाम और ज्ञान की ख्याति सुनी। वे उनके गांव पहुंचे।  जहां कुएं पर पानी भर रहीं महिलाएं संस्कृत में वार्तालाप कर रहीं थीं। शंकराचार्य जी ने उनसे पूछा, ‘मंडन मिश्र का घर कहां है?’ उनमें से एक स्त्री ने बताया, ‘आगे चले जाइए। जिस दरवाजे पर तोते शास्त्रार्थ कर रहे हों, वही पं. मंडन मिश्र का घर होगा।’ शंकराचार्य आगे बढ़े।  वाकई एक घर के बाहर पिंजरे में तोते शास्त्रार्थ कर रहे थे। शंकराचार्य ने जान लिया कि वही मंडन मिश्र का घर था। मंडन और उनकी विदुषी पत्नी उभय भारती ने आदर-सत्कार किया। आस-पड़ोस के पंडित भी आ जुटे। सेवा सत्कार के बाद शास्त्रार्थ होना था। दोनों के बीच निर्णायक की तलाश हुई। पंडितों ने कहा, ‘आप दोनों के शास्त्रार्थ में हार-जीत का निर्णय करने के लिए मंडन मिश्र की पत्नी भारती ही उपयुक्त रहेंगी।
सोचिए जिसे गांव के पंडितों ने इस शास्त्रार्थ के लिए निर्णायक माना वह कितनी ज्ञानी होगी।

 दोनों में शास्त्रार्थ कई दिन चला। अंत में भारती ने शंकराचार्य को विजयी घोषित किया। पर कहा, ‘मंडन मिश्र विवाहित हैं। मैं और मेरे पति मंडन मिश्र, हम दोनों मिलकर एक इकाई बनाते हैं। अर्धनारेश्वर की तरह। आपने अभी आधे भाग को हराया है। अभी मुझसे शास्त्रार्थ बाकी है।

शंकराचार्य ने उनकी चुनौती स्वीकार की।  और इस बार निर्णायक घोषित हुआ सभा मंडप। दोनों के बीच जीवन-जगत के प्रश्नोत्तर हुए। शंकराचार्य जीत रहे थे। परंतु अंतिम प्रश्न भारती ने किया। उनका प्रश्न ग्रहस्थ  जीवन में स्त्री-पुरुष के संबंध के व्यावहारिक ज्ञान से जुड़ा था। शंकराचार्य को उस जीवन का व्यवहारिक पक्ष मालूम नहीं था। उन्होंने ईश्वर और चराचर जगत का अध्ययन किया था। वे अद्वैतवाद को मानते थे। इसलिए उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर के लिए कुछ समय मांगा और वहां से चले गए।
शंकराचार्य ने एक गुफा में अपना शरीर छोड़ा और शिष्यों को वहां रुकने के लिए कहा। सूक्ष्म रूप धारण कर वे आकाश में भ्रमण करने लगे। इस दौरान उन्होंने राजा अमरूक के मृत शरीर को देखा, जिसके आसपास 100 से अधिक सुंदरियां विलाप कर रही थीं। तब शंकराचार्य ने सूक्ष्म रूप के साथ राजा के शरीर में प्रवेश किया। राजा को जीवित देख रानियां व मंत्री प्रसन्न् हो गए। राजा ने पुन: काम संभाला और इसी दौरान काम शास्त्र से संबंधित तथ्यों को जाना और पुन: राजा अमरूक के शरीर को छोड़कर गुफा में पहुंचे और अपने मूल शरीर में प्रवेश कर मंडन मिश्र के घर पहुंचे। वहां उभय भारती व शंकराचार्य के बीच पुन: शास्त्रार्थ हुआ। इसमें शंकराचार्य ने उभय भारती को पराजित किया।

Saturday, October 17, 2020

नवरात्रि की शुभकामनाएं - दूसरा दिन

हमने अपनी पौराणिक कथाओं का अनुसरण करने की बजाय उन्हें दूषित होने दिया और फिर दूषित को ही सत्य मानने लगे - #मनोज_जोशी


हिंदू परंपरा में स्त्रियों के स्थान को लेकर फैलाए जा रहे भ्रम को दूर करने के लिए शुरू की गई श्रृंखला के पहले दिन मिली प्रतिक्रियाओं के आधार पर मैं कहना चाहता हूँ कि हमने अपनी पौराणिक कथाओं को मिथक मान लिया और देवताओं व ऋषि मुनियों को पू्ज्य मान कर यह सोच लिया कि हमें बस इनकी पूजा करना है। हमने अनुसरण बंद कर दिया।

विचार कीजिए जिस देश में हजारों हजार साल पहले रावण नाम का राक्षस हर तरह से अधर्म में लिप्त था, वह न केवल भगवान बल्कि वन में साधना कर रहे ऋषि मुनियों की तपस्या भी भंग करता था। लेकिन जब उसने एक स्त्री (माता सीता) का धोखे से अपहरण किया और अपने विमान में बैठा कर वह उन्हें अपने राज्य में ले गया। वहां उसमे माता सीता को अपने महल में नहीं बल्कि अशोक वाटिका में महिला राक्षसों की देखरेख में रखा। कुल मिलाकर रावण ने माता सीता को छुआ भी नहीं। तब इस घटना ने पूरे समाज को हिला कर रख दिया। पूरा भारत उसके खिलाफ हो गया। स्वयं उसका भाई उसके खिलाफ हो गया और नतीजा उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। यदि राम चाहते तो केवल सीता को वापस लाकर भी रावण को जीवित छोड़ सकते थे, लेकिन समाज का दबाव इतना था कि रावण का वध ही उसकी सजा थी।

इस उदाहरण पर यदि आज के संदर्भ में विचार करेंगे तो वर्तमान दौर में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार को लेकर समाज में वास्तव में कितना

गुस्सा होता है? कोई घटना होने पर उसकी राजनीतिक और जातिगत छिछालेदारी शुरू हो जाती है। चौराहों पर मोमबत्ती जलाकर विरोध करने से यदि घटनाएं रूक रहीं होतीं तो अब तक रूक गईं होतीं।

मैं पुन: दोहराना चाहता हूं। हमने माता सीता वाली घटना को इन संदर्भ में भूला दिया, लेकिन जो हुआ नहीं उसे सही मानते हुए अपने ही आराध्य और पौराणिक पात्रों की हँसी उड़ाना शुरू कर दिया।


मैं पूरे दम से कहता हूँ कि सीता की अग्नि परीक्षा ही नहीं बल्कि संपूर्ण उत्तर रामायण मिथ्या है। पूर्व में भी मैं इस पर लिख चुका हूँ। लेकिन वर्तमान संदर्भ में इसे नए तथ्यों के साथ लिख रहा हूँ। दरअसल रामायण का उत्तर कांड वाल्मीकि जी ने लिखा ही नहीं। भगवान राम को हम मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं । सोचिए इस पदवी वाला व्यक्ति समाज के सामने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करेगा और उसके बाद भी पूजा जाएगा ? यह तार्किक नहीं लगता। 

जिस रामायण काल में स्त्रियां युद्ध में भाग लेती हों उस समय सीता को अग्नि परीक्षा के लिए मजबूर किया जाना संभव है क्या ? याद कीजिए माता  कैकई ने महाराज दशरथ की युद्ध के मैदान में रक्षा की थी। तभी उन्हें महाराज ने दो वचन दिए थे। इस पूरे प्रसंग में विद्वानों द्वारा किए गए शोध बताते हैं कि रामायण में मिलावट है। सीता के अपहरण के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सीता वियोग में परेशान नजर आते हैं। लेकिन अचानक कह देते हैं कि यह सब उन्होंने सीता को पाने के लिए नहीं किया। युद्ध कांड तक कथा एक प्रवाह में चलती है, लेकिन उसके बाद अचानक यू टर्न आता है। यह श्लोक उनकी छवि के एकदम विपरीत है। इसके बाद जब सीताजी को अग्नि में प्रवेश करने की बात होती है तो अचानक सारे देवता आ जाते हैं, जो कि इसके पहले कहानी में कहीं नहीं ।


अब मैं आपसे कहूँ कि राम ने सीता-परित्याग कभी किया ही नहीं …


जिस उत्तर कांड में सीता परित्याग जैसी बातें दर्ज हैं वह वाल्मीकि जी ने लिखा ही नहीं । इसे बहुत बाद में जोड़ दिया गया।


रामकथा पर प्रामाणिक शोधकर्ता माने जाने वाले फ़ादर कामिल बुल्के का स्पष्ट मत है कि  उत्तरकांड बहुत बाद की प्रक्षिप्त रचना है। उत्तरकांड की भाषा, शैली और कथानक के वर्णन की गति युद्धकांड तक की रामायण से  एकदम अलग है। यही नहीं ब्रह्मांड पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, कूर्म पुराण, वाराह पुराण, लिंग पुराण, नारद पुराण,स्कंद पुराण, पद्म पुराण, हरिवंश पुराण, नरसिंह पुराण में भी रामकथा का वर्णन है, लेकिन इनमें कहीं भी


सीता-परित्याग  का कोई  उल्लेख तक नहीं किया गया है, रामायण का पूरा उत्तरकांड कल्पनिक है और वर्षों बाद मूल में जोड़ा गया। शास्त्र तो कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी ने ग्यारह सहस्त्र वर्षों तक जनकनन्दिनी सीता एवं समस्त भ्राताओं के साथ राजनगरी अयोध्या से प्रजा-पालन करते हुए कौशल देश पर सुखपूर्वक राज किया था।


श्रीतुलसीपीठाधीश्वर स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ने सीता निर्वासन पर एक पुस्तक की रचना की है -“सीता निर्वासन नहीं “। उनकी स्पष्ट मान्यता है “सीता जी के द्वितीय वनवास की कल्पना बिल्कुल निराधार है, अशास्त्रीय है । इस पुस्तक का अध्ययन कीजिए । स्वामी जी के प्रवचन यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं उन्हें सुनिए । धर्म ग्रंथों पर उनके अध्ययन के आधार पर जब आप उनके तर्क पर गौर करेंगे तो आप भी मेरी तरह यही कहेंगे कि रामायण का उत्तर कांड वाल्मीकि जी ने लिखा ही नहीं ।



हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (२०)

 (गतांक से आगे)

हिंदू धर्म में स्त्रियों का स्थान उच्च : महात्मा गाँधी


महात्मा गाँधी मानते थे कि हिंदू धर्म में स्त्रियों का स्थान पुरुषों से ऊपर है। इसके साथ ही वे बाल विवाह, पर्दा प्रथा और दहेज प्रथा के विरोधी थे तो विधवा विवाह के समर्थक। गाँधी साहित्य का अध्ययन करने पर पता लगता है कि उन्होंने अनेक अवसरों पर स्त्रियों की स्थिति और विभिन्न कुरीतियों के कुप्रभाव पर स्पष्ट विचार व्यक्त किए हैं।
अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में गाँधीजी बहुत साफगोई से अपने विवाह के प्रारंभिक वर्षों का उल्लेख करते हुए स्वीकार करते हैं कि वे भी स्वयं को ‘पति देव’ समझने लगे थे। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि उन्हीं की वजह से ‘बा’ लगभग निरक्षर ही रह गईं।

१९ अगस्त १९२६ को यंग इंडिया में गाँधीजी लिखते हैं
हिन्दू धर्म में स्त्रियों को इतना उच्च स्थान दिया गया है हम सीता-राम कहते है,

राम-सीता नहीं, राधा-कृष्ण कहते हैं, कृष्ण-राधा नहीं।

विभिन्न अवसरों पर गाँधीजी द्वारा व्यक्त विचारों को पढ़ेंगे तो आप जान जाएंगे कि २० वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में गाँधीजी जो कह रहे थे वह २१ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भी प्रासंगिक है। आज भी उनका जस का तस पालन करने की आवश्यकता है।कभी-कभी लगता है कि हमने शायद गाँधीजी का केवल नाम लिया उनका अनुसरण नहीं किया।

‘‘ऐसे प्रत्येक व्यक्ति से जिसके आश्रय में कोई बाल-विधवा हो, मैं अपील करूँगा कि वह उसका विवाह कर देना अपना धर्म समझे‘‘।

‘‘धर्म  के  नाम  पर  गोरक्षा  के  लिए  तो  हम  शोर  मचाते  हैं,  परन्तु बाल-विधवाओं  के  ऊपर  हमने  वैधव्य  को  बोझ  लाद  रखा  है,जो  बेचारी विवाह संस्कार का अभिप्राय तक नहीं समझ सकती। बालिकाओं पर वैधव्य लादना तो पाशविक अपराध है, जिसका दण्ड हम हिन्दु प्रतिदिन बुरी तरह भुगत ही रहे है‘‘।

’’यदि इस विधवा का धर्म लोप होगा और कोई अज्ञान या उद्धतता के वशिभूत होकर सेवा की इस साक्षात मूर्ति का खण्डन करेगा तो हिन्दू धर्म को बड़ी हानि पहुँचेगी।’

आज के युग में यह सोचना भी कितना भ्रामक है कि स्त्रियों के सतीत्व की रक्षा के लिए पर्दा प्रथा आवश्यक है।’

“पर्दे की प्रथा बहुत पुरानी नहीं है  क्योंकि  जिस  जमाने  में  निष्कलंक  सीता  तथाद्रोपदी  मौजूद  थी,  उस जमाने  में  परदा  नही  हो  सकता  था।  इसी  प्रकार  गार्गी  परदे  में  बैठकर शास्त्रार्थ नहीं कर सकती थी। अर्थात् जो चीज बुद्धि की कसौटी पर खरी न निकले, बशर्ते वह कितनी ही प्राचीन क्यों न हो उसे त्याग देना चाहिए।”

‘‘स्त्री के चरित्र की निर्मलता को लेकर पुरूष क्यों चिंतित रहते है जबकि पुरूष

की पाकीजगी के बारे में स्त्री कभी चिंता नहीं करती चरित्र की निर्मलता तो

अन्दर से पैदा होने वाली चीज है, इसलिए उसे व्यक्ति के अपने प्रयास पर छोड़ देना चाहिए।’’

“पुरूष को पवित्र बनाने में स्त्रियां बहुत सहायक होती है परन्तु परदे में

रहने वाली दबी हुई स्त्री पुरूष को भला कैसे पवित्र बना सकती है।”

“पर्दा स्त्रियों की शिक्षा में बाधा डालता है। इससे स्त्रियों में भीरूता बढ़ती है। पर्दे

में रहने वाली स्त्रियों का स्वास्थ्य बिगड़ता है। यह स्त्रियों और पुरूषों के

बीच स्वच्छ सम्बन्ध रोकता है। इससे स्त्रियों में नीच वृत्ति का पोषण होता

है। यह स्त्रियों को बाहरी दुनियाॅ से दूर रखता है जिससे वे उसके योग्य अनुभव से वंचित रहती हैं।”

‘‘जब वर कन्या के बाप से विवाह करने की मेहरबानी के लिए दण्ड

लेता है तब नीचता की हद हो जाती है।............. पैसे के लालच में किया

गया विवाह-विवाह नहीं है, एक नीच सौदा है।’

‘‘जो युवक विवाह के लिये दहेज की शर्त रखता है, वह अपनी शिक्षा और देश को बदनाम करता है, और साथ ही स्त्री जाति का अपमान करता है‘‘।
‘‘स्त्री के चरित्र की निर्मलता को लेकर पुरूष क्यों चिंतित रहते है जबकि पुरूष की पाकीजगी के बारे में स्त्री कभी चिंता नहीं करती चरित्र की निर्मलता तो अन्दर से पैदा होने वाली चीज है, इसलिए उसे व्यक्ति के अपने प्रयास पर छोड़ देना चाहिए‘‘।
“पुरूष को पवित्र बनाने में स्त्रियां बहुत सहायक होती है परन्तु परदे में रहने वाली दबी हुई स्त्री पुरूष को भला कैसे पवित्र बना सकती है।”

(क्रमशः)

Thursday, October 15, 2020

राम की शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

राम की शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" 

हाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की आज पुण्यतिथि  है। निराला को 'महाप्राण' भी कहा जाता है। उनकी लोकप्रिय लंबी कविता 'राम की शक्ति-पूजा' हिंदी साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है। निराला ने 'राम की शक्ति पूजा' का सृजन २३अक्टूबर १९३६को संपूर्ण किया था।  पहली बार २६ अक्टूबर १९३६ को इलाहाबाद से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र  'भारत' में उसका प्रकाशन हुआ था।

आप भी आनंद लीजिए।

आनंद कृष्ण जी और Muneendra Mishra जी जैसे अन्य साहित्य प्रेमी मित्र इसकी व्याख्या करेंगे तो पोस्ट और सार्थक हो सकेगी ।


राम की शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" 

 

रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर

रह गया राम-रावण का अपराजेय समर

आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,

शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,

प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह

राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,

विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,

लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,

राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,

उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,

अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,

विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,

रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,

मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,

वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,

गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,

उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,

जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।

लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,

बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।

वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न

चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।

प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल

लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल

रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,

श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,

दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल

फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल

उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार

चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।

आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर

सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर

सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान

नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान

करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।

बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल

ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान

अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान

वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,

सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,

पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,

सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,

यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष

देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।

है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,

खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,

अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,

भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।

स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय

रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,

जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,

एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,

कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,

असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत

जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत

देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन

विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन

नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-

पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-

काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-

गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-

ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-

जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,

हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,

फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,

फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,

वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-

फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,

देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,

ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;

फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो

आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,

ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,

पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;

लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,

खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;

फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,

भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।

बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-

युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;

साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,

दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्

पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,

जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।

युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,

देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;

ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-

सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;

टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,

सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल

बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,

व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।

"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,

उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,

हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल

एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,

शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,

जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,

तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष

दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,

शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,

जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव

वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश

पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।

रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,

यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार;

उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,

इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,

करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,

लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,

श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर

बोले- "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर

यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,

अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,

चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य,

मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,

लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार

करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;

विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,

झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"

कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय

सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।

बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल

तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,

यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।

यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।

यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,

पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल

क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,

क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?

तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,

क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"

कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,

उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,

"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन

वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर

भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,

रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,

है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,

हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,

हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,

ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,

अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर

हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,

फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।

रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,

तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण

कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,

तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!

रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,

जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,

बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,

कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,

सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक

मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?

सब सभा रही निस्तब्ध

राम के स्तिमित नयन

छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,

जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव

उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,

ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,

पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,

बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर,

यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,

उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,

अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल

हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,

रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड

धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड

स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,

व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,

निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम

मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।

निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण

बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।

रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,

यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!

करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,

हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,

जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,

हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।

शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,

जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,

जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,

वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!

देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,

लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,

हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,

निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।

विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,

झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,

पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,

फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"

कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,

बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर,

विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,

हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,

आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,

तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।

रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त

तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,

शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।

छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!

तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,

मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।

मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,

नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।

सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय

आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"

खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"

कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।

हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,

देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।

कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन

खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,

बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित

"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;

हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;

जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!

यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,

मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"

कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,

फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।

हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन

बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।

बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,

प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,

"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर

शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,

पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,

गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।

दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,

अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,

लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,

मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"

फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए

बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,

"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,

कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,

जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर

तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"

अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,

प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।

राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,

सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।

निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण

फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।

हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध

वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,

सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,

उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,

पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,

मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,

बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण

गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।

क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,

चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,

कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,

निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।

चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,

प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,

संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,

जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।

दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,

अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।

आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर

कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,

हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,

हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।

रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार

प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,

द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर

हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।

यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल

राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।

कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,

ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।

देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,

आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,

"धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,

धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध

जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,

वह एक और मन रहा राम का जो न थका,

जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,

कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,

बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन

राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।

"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-

"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।

दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण

पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"

कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,

ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।

ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन

ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन

जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,

काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-

"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"

कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।

देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर

वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।

ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,

मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।

हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,

दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,

मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर

श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"

कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।