Wednesday, December 23, 2020

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (२८)

(गतांक से आगे)


जानिए गाँधी को महात्मा बनाने वाले स्वामी श्रृद्धानंद के बारे में



आज जब मैं यह श्रृंखला लिख रहा हूं तब यानी २३ दिसंबर को स्वामी श्रृद्धानंद का बलिदान दिवस है। स्वामी श्रृद्धानंद कौन थे? और उनका महात्मा गाँधी से क्या संबंध थे? उनका बलिदान कैसे हुआ… यह एक लंबी कहानी है और हर उस व्यक्ति को जानना जरूरी है जो भारत के इतिहास और घटनाओं की पृष्ठभूमि की तथ्यों के साथ पड़ताल करने में रूचि रखता है।

स्वामी श्रृद्धानंद ने रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया । समाचार-पत्र ”दैनिक विजय” नामक में ”छाती पर पिस्तौल” नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे । स्वामीजी महात्मा गाँधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे । लेकिन जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट का विरोध वे हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे ।

गाँधीजी जब द अफ्रिका में सत्याग्रह कर रहे थे उस समय स्वामीजी ने गाँधीजी को १५०० रुपए भिजवाए थे। उस जमाने में यह बहुत बड़ी रकम थी और यह कैसे इकट्‌ठा की गई इसकी पूरी एक अलग कहानी है। १९१६ में जब गाँधीजी द. अफ्रिका से वापस आए तो स्वामी जी की कुटिया में आदर स्वरूप उनके पाँव छुए और कहा -‘‘ मैं आपका छोटा भाई, मोहनदास करमचंद गाँधी। स्वामीजी ने उन्हें प्रेमपूर्वक गले लगाया और उन्हें “महात्मा” कह कर संबोधित किया। बस तभी से गाँधीजी महात्मा गाँधी कहलाए।

स्वामी जी जनसभा में अंग्रेजी फौज व अधिकारियों को वे ऐसा जवाब देते थे कि अंग्रेज भी उनसे डरा करते थे । १९१९ में हुए जलियांवाला कांड के बाद आम जनता ने दिल्ली में एक जुलूस निकाला जिसका नेतृत्व स्वामी श्रृद्धानंद ने किया| जब जुलूस चांदनी चौक पहुंचा तो वहां सेना के एक जवान ने बन्दूक स्वामीजी के सीने पर तान दी | स्वामीजी ने अपनी छाती पर से चादर हटा दी और कहा “साहस है तो चलाओ गोली” | कहते हैं इस घटना के बाद ३ दिनों तक पूरे दिल्ली प्रदेश में स्वामीजी का अघोषित राज कायम रहा | हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए स्वामी जी ने भरसक प्रयास किए। १९१९ में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को पांथिक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था। जामा मस्जिद के गुम्बद से स्वामीजी ने यह वेदमंत्र पढ़ा था-

“त्वं हि पिता वसो त्वं माता सखा त्वमेव । शतक्रतो बभूविथ । अधा ते सुम्नमी महे ।।” मस्जिद में वेदमंत्र के उच्चारण का यह एकमात्र उदाहरण मिलता है।  इसके बाद मुसलमानों ने अन्य मस्जिदों में भी उनके व्याख्यान करवाये |  १९२२ में गुरु का बाग सत्याग्रह के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया । कांग्रेस में उन्होंने १९१९ से लेकर १९२२ तक सक्रिय रूप से कार्य किया। १९२२ में उन्हें सिख समाज के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तार किया गया था । खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस की भागीदारी से नाराज होकर  स्वामी श्रृद्धानन्द कांग्रेस से अलग हो गए। लेकिन कांग्रेस से  अलग होने के बाद भी स्वतंत्रता के लिए लगातार कार्य करते रहे। उनके विचारों को सुनकर हिंदू महासभा ने उन्हें नेतृत्व करने का अनुरोध किया, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया ।  २३ दिसम्बर १९२६ को नया बाजार स्थित उनके निवास पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी ने धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश किया। उस समय स्वामीजी निमोनिया से पीड़ित थे। और अब्दुल रशीद ने गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी।

आप सोचिए, ऐसे व्यक्ति की हत्या पर गाँधीजी की प्रतिक्रिया क्या रही होगी? पहले आप चौंक जाएंगे लेकिन जब पूरा पढ़ेंगे तब उसका मर्म समझ पाएंगे।  महात्मा गाँधी ने स्वामीजी के पुत्र इंद्र विद्यावाचस्पति को पत्र लिखकर यहाँ कहा कि ‘अब्दुल भाई’ को माफ़ कर दो। उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात २५ दिसम्बर, १९२६ को गुवाहाटी आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में गाँधीजी द्वारा प्रस्तुत और अधिकृत रूप से जारी किए जारी शोक प्रस्ताव इस प्रकार है “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।“

इस अधिवेशन में दिया गया गाँधीजी का भाषण यंग इंडिया के ३० दिसंबर १९२६ के अंक में छपा है। संपूर्ण गाँधी वांग्मय के खंड २४ में इसका विस्तार से जिक्र है।  उन्होंने अपने भाषण में कहा,”… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।“ उन्होंने आगे कहा कि “समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। स्वामी श्रृद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है। “अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी ने कहा कि “…ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली समूहों के विभाजन को मजबूत कर सकेगा।”

इस घटना को लेकर मुस्लिम समाज को गाँधीजी ने क्या संदेश दिया वह भी पढ़िए। वे लिखते हैं

"मुसलमानों को अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि छुरी और पिस्तौल चलाने में उनके हाथ जरूरत से ज्यादा फुर्तीले हैं। तलवार वैसे इस्लाम का मजहबी चिन्ह नहीं है मगर इस्लाम की पैदाइश ऐसी स्थिति में हुई जहाँ तलवार की ही तूती बोलती थी और अब भी बोलती है। मुसलमानों को बात-बात पर तलवार निकाल लेने की बान पड़ गयी है। इस्लाम का अर्थ है शांति। अगर अपने नाम के अनुसार बनना है तो तलवार म्यान में रखनी होगी। यह खतरा तो है कि मुसलमान लोग गुप्त रूप से इस कृत्य का समर्थन ही करें। मुसलमानों को सामूहिक रूप से इस हत्या की निंदा करनी चाहिए।" 

उन्होंने हिंदुओं को कहा - "क्रोध दिखलाकर हिन्दू अपने धर्म को कलंकित करेंगे और उस एकता को दूर कर देंगे जिसे एक दिन अवश्य आना ही है। आत्मसंयम के द्वारा वे स्वयँ को अपने उपनिषदों और क्षमामूर्ति युधिष्ठिर के योग्य सिद्ध कर सकते हैं।" यहाँ तक तो ठीक है पर गाँधीजी आगे लिखते हैं कि "एक व्यक्ति के पाप को सारी जाति का पाप न मानकर हम अपने मन में बदला लेने की भावना न रखें।"

गाँधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई ने गाँधीजी को बताया कि आपके मित्र मजहरूल हक आपका लेख पढ़कर बहुत नाराज हैं। उनका कहना है कि “मैं गाँधी को ऐसा नहीं समझता था अब मैं उन पर विश्वास नहीं करूंगा।” संपूर्ण गाँधी वांग्मय के खंड 97 में बताया गया है कि १जनवरी १९२७ को गाँधीजी ने मजहरूल हक साहब को पत्र लिखा। "यदि महादेव ने सचमुच आपके कथन को ठीक से समझा है तो स्वामी श्रृद्धानंद पर मेरे लेख के कारण आपने मुझ पर विश्वास करना बंद कर दिया है। उसने मुझे बताया कि आपके अविश्वास का कारण मेरे लेख का केवल यह वाक्य है कि "छुरी और पिस्तौल का इस्तेमाल करने में मुसलमानों को कहीं ज्यादा आजादी प्राप्त है।" यदि मैं अपने यकीन के आधार पर कुछ लिखता हूँ तो मुझ पर विश्वास क्यों न हो? क्या मैं अपने मित्रों का विश्वास टिकाए रखने के लिए, जो वे करें उसे मान लूँ? यदि मेरे वक्तव्य में कुछ गलत है तो आपको विरोध करना चाहिए और सहानुभूतिपूर्वक मुझे उससे दूर करना चाहिए, किंतु जब तक आप यह मानते हैं कि मैं किसी पंथ या जाति के प्रति पक्षपात नहीं रखता तब तक आपको मेरा विश्वास करना चाहिए।

गाँधीजी आगे लिखते हैं अब मैं अपने वक्तव्य को लेता हूँ। जिस दिन से मैंने मुसलमानों को जाना है उनके बारे में मेरी निश्चित धारणा बनी है। उसके कारण ही, मैंने जेल (फरवरी १९२४) से बाहर आने के बाद बिना उनके बारे में बिना कुछ पढ़े वे सब बातें लिखीं। वे सब मेरे लम्बे निजी अनुभव और मित्रों के पूर्वाग्रह रहित मतों पर आधारित हैं। ये मित्र भी उतने ही पूर्वाग्रह रहित हैं, जितना मैं आपको समझता हूँ। वास्तव में अनेक मुसलमानों ने मजहब के नाम पर हिंसा का बेझिझक इस्तेमाल किया है। अब आप ही बताइए कि मैं अपनी आँखों पर और ऐसे मित्रों पर, जिन पर मुझे विश्वास है, कैसे अविश्वास करूँ। इस सबके बावजूद मैं मुसलमानों को प्रेम करता हूँ। गलती उनकी नहीं, उनकी परिस्थितियों की है।..."

(क्रमश:)






 






Wednesday, December 9, 2020

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (२७)

(गतांक से आगे)

जानिए हिंदू महासभा, वीर सावरकर  और महात्मा गाँधी में क्या था संबंध

- #मनोज_जोशी


हिंदुत्व और महात्मा गाँधी पर चर्चा हो, संघ का नाम आए लेकिन हिंदू महासभा और वीर सावरकर का नाम न आए तो बात अधूरी सी रह जाएगी। हाँ, वही सावरकर जिन्हें न केवल गाँधीजी के विरोधी के रूप में प्रचारित किया जाता है, बल्कि जिनका नाम गाँधी हत्या में भी घसिटा गया। चिंता ना करें इसी श्रृंखला में आगे नाथूराम गोड़से पर भी बात करेंगे। शुरुआत हिंदू महासभा की स्थापना से करते हैं।


कहा जाता है कि सावरकर ही वह शख्स थे जिन्होंने सबसे पहले हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचार के रूप में सामने रखा। वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी रहे। जबकि तथ्य यह है कि सावरकर हिंदू महासभा के संस्थापक नहीं थे, यानी हिंदुत्व के विचार पर राजनीतिक दल सावरकर ने नहीं बनाया बल्कि सावरकर उसमें शामिल हुए और अध्यक्ष बने।


आगे बढ़ने से पहले जरा हिंदू महासभा के बारे में एक महत्वपूर्ण चौंकाने वाली बात जान लीजिए। १९०९, १९१८, १९३२ और १९३३में यानी चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे महामना मदनमोहन मालवीय हिंदू महासभा के संस्थापक थे। १९१५ में प्रयाग में महामना मालवीय जी की अध्यक्षता में हिंदू महासभा की स्थापना हुई। १९१५ में हरिद्वार में हुए अधिवेशन में राजा मणीन्द्र चंद्र नाथ इसके अध्यक्ष चुने गए और अगले साल १९१६ में हरिद्वार में ही हुए दूसरे अधिवेशन में महामना मालवीय अध्यक्ष चुने गए। हिंदू महासभा के साथ महामना कांग्रेस में भी सक्रिय थे। तभी तो वे १९१८,१९३२और १९३३ में भी कांग्रेस अध्यक्ष रहे। १९१६ में अंबिका चरण मजूमदार की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन हुआ। यहां कांग्रेस ने मुस्लिम लीग से समझौता किया नतीजा सभी प्रांतों में मुसलमानों को विशेष अधिकार और संरक्षण प्राप्त हुए। इसके बाद हिंदू महासभा ने १९१७ में हरिद्वार में अपना अधिवेशन करके कांग्रेस- मुस्लिम लीग समझौते और चेम्सफोर्ड योजना का पूरजोर विरोध किया। हिंदू महासभा ने कांग्रेस के साथ रोलट एक्ट का विरोध किया। साइमन कमीशन का भी हिंदू महासभा ने कांग्रेस के साथ विरोध किया। लाहौर में हिंदू महासभा के अध्यक्ष लाला लाजपत राय स्वयंसेवकों के साथ साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए इकट्ठा हुए। पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिसमें उनकी मृत्यु हो गई। सोचिए, जिस लाहौर में हिंदू महासभा सक्रिय थी वही लाहौर अब पाकिस्तान में है।


अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए रोलट एक्ट बनाकर पुलिस और फौजी अदालतों को व्यापक अधिकार दे दिए। कांग्रेस के साथ हिंदू महासभा ने भी इसके विरुद्ध आंदोलन चलाया। उसी समय तुर्की के खलीफा को अंग्रेजों द्वारा हटाए जाने के विरुद्ध तुर्की के खिलाफत आंदोलन के समर्थन में भारत में भी खिलाफत आंदोलन चलाया और गाँधीजी ने इसका समर्थन किया। स्वाभाविक रूप से हिंदू महासभा इससे नाराज हो गई। डॉ. हेडगेवार उस समय कांग्रेस में थे उन्हें खिलाफत आंदोलन के समर्थन वाली बात नहीं जमी। इसी तरह के कुछ और मुद्दे थे जिनसे नाराज होकर डॉ. हेडगेवार ने कांग्रेस छोड़ दी। यही वह प्वाइंट है जहां से भारत के स्वतंत्रता संग्राम की दिशा बदली। (यह एक विस्तृत विषय है जो बाद में भारत के विभाजन तक जाता है। आगे इस श्रृंखला में कुछ संदर्भों में मैं इसका जिक्र कर सकता हूं, लेकिन इस पर विस्तार से अलग अध्ययन किया जाना चाहिए। मैं अपनी इस श्रृंखला को हिंदुत्व, महात्मा गाँधी और रामराज्य के आसपास ही रखना चाहता हूँ।) हालांकि पिछली कड़ी में हम यह जान चुके हैं कि इसके बावजूद डॉक्टरजी के मन में गाँधीजी के प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आई थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हिंदू महासभा की स्थापना के दस साल बाद १९२५  में हुई। १९२६  में देश में प्रथम निर्वाचन में अंग्रेजों ने असंबलियों में मुसलमानों के लिए स्थान सुरक्षित कर दिए। हिंदू महासभा ने पृथक निर्वाचन के सिद्धांत और मुसलमानों के लिए सीटें सुरक्षित करने की विरोध किया।


महात्मा गाँधी और सावरकर


वीर सावरकर के कथित माफीनामे पर बे सिर पैर की चर्चा करने के शौकीन लोगों से मेरा अनुरोध है वे जरा इसे चार- पाँच बार पढ़ लें। वैसे इस मुद्दे पर मैं पहले भी लिख चुका हूँ। लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें बार-बार याद करना अच्छा लगता है। और यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सावरकर पर गाँधीजी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगा। वे जेल में भी रहे। हालांकि बाद में उन्हें निर्दोष पाया गया। लेकिन यह भारत देश है, यहां जो फैसला सेक्युलर लोगों के पक्ष में नहीं आता वे उसे मन से स्वीकार नहीं कर पाते। हाल ही में राम जन्मभूमि के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दोनों फैसलों ( राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण और बाबरी ढांचा विध्वंस) में इसे हमारी पीढ़ी भी देख चुकी है।


महात्मा गांधी और विनायकराव सावरकर के बड़े भाई नारायणराव सावरकर की पहली मुलाकात लंदन में २४ अक्टूबर १९०९ को हुई थी। उस दिन दशहरा था। लंदन में रहने वाले  अलग-अलग पंथों के भारतीय अपने-अपने त्यौहारों के अवसर पर कार्यक्रमों का आयोजन करते थे और एक- दूसरे को भी अतिथि के रूप में बुलाते थे। कुछ उत्साही हिंदुओं ने वहां विजयादशमी के दिन एक भोज का आयोजन किया था. कार्यक्रम में शामिल होने के लिए टिकट रखी गई थी और टिकट की कीमत थी चार शिलिंग। गाँधीजी ने इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी। महात्मा गांधी के अनुसार ‘इस कार्यक्रम में नारायणराव सावरकर ने रामायण की महत्ता पर बहुत ही जोशीला भाषण दिया था.’ इस कार्यक्रम में हुसैन दाउद और हाजी हबीब नाम के दो मुस्लिम भी अतिथि के रूप में शामिल हुए थे।


1920 में असहयोग आंदोलन चल रहा था। इसी दौरान अंग्रेज सरकार और गाँधीजी के बीच स्वतंत्रता सेनानियों की रिहाई की बातें चल रहीं थीं। ब्रिटिश सरकार राजनीतिक बंदियों को माफी दे रही थी। (राजनीतिक बंदियों को माफी देने की यह परंपरा आज भी जारी है।) उसी दौरान गणेश और विनायक सावरकर के बड़े भाई नारायणराव सावरकर को अपने पुराने परिचय के कारण लगा कि यदि महात्मा गाँधी कोशिश करेंगे तो उनके दोनों भाइयों को  सजा में छूट मिल सकती है।


18 जनवरी, 1920 को डॉ नारायणराव सावरकर ने महात्मा गांधी को पत्र में लिखा- ‘...कल मुझे भारत सरकार द्वारा सूचित किया गया कि (कालापानी से) रिहा किए जाने वाले लोगों में सावरकर बंधु शामिल नहीं हैं. ...कृपया मुझे बताएं कि इस मामले में क्या करना चाहिए. मेरे दोनों भाई अंडमान में दस वर्ष से ऊपर कठिन सजा भोग चुके हैं, और उनका स्वास्थ्य बिल्कुल चौपट हो चुका है. उनका वजन 118 पौंड से घटकर 95-100 पौंड रह गया है. ...यदि भारत की किसी अच्छी आबोहवा वाली जेल में भी उनका तबादला कर दिया जाए तो गनीमत हो. मुझे आशा है कि आप सूचित करेंगे कि आप इस मामले में क्या करने जा रहे हैं।’


25 जनवरी, 1920 को लाहौर से डॉ. सावरकर को लिखे अपने पत्र में महात्मा गाँधी कहते हैं - ‘प्रिय डॉ सावरकर, आपको परामर्श देना कठिन कार्य है. तथापि मेरा सुझाव है कि आप एक संक्षिप्त याचिका तैयार करें ताकि यह बिल्कुल स्पष्ट रूप से उभर आए कि आपके भाईसाहब ने जो अपराध किया था, उसका स्वरूप बिल्कुल राजनीतिक था। मैं यह सुझाव इसलिए दे रहा हूं कि तब जनता का ध्यान उस ओर केन्द्रित करना संभव हो जाएगा।इस बीच, जैसा कि मैं अपने एक पहले पत्र में कह चुका हूं, मैं अपने ढंग से इस मामले में कदम उठा रहा हूं।’ (इससे पता लगता है कि गाँधीजी ने कोई एक पत्र पहले भी डॉ. सावरकर को लिखा था)


इसके बाद महात्मा गाँधी ने 26 मई, 1920 को यंग इंडिया में ‘सावरकर बंधु’ शीर्षक से एक विस्तृत लेख लिखा है। “भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों ने इस संबंध में जो कार्रवाई की उसके परिणामस्वरूप उस समय कारावास भोग रहे बहुत लोगों को राजानुकम्पा का लाभ प्राप्त हुआ है। लेकिन कुछ प्रमुख ‘राजनीतिक अपराधी’ अब भी नहीं छोड़े गए हैं। इन्हीं लोगों में मैं सावरकर बंधुओं की गणना करता हूँ। वे उसी माने में राजनीतिक अपराधी हैं, जिस माने में वे लोग हैं, जिन्हें पंजाब सरकार ने मुक्त कर दिया है। किंतु इस घोषणा (शाही घोषणा) के प्रकाशन के आज पाँच महीने बाद भी इन दोनों भाइयों को छोड़ा नहीं गया है।” …. “इस मामले को इतनी आसानी से ताक पर नहीं रख दिया जा सकता। जनता को यह जानने का अधिकार है कि ठीक-ठीक वे कौन-से कारण हैं जिनके आधार पर राज-घोषणा के बावजूद इन दोनों भाइयों की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा रही है, क्योंकि यह घोषणा तो जनता के लिए राजा की ओर से दिए गए ऐसे अधिकार पत्र के समान है जो कानून का जोर रखता है।” यंग इंडिया के इस लेख को पढ़िए। गाँधीजी ने इस लेख में कानूनी रूप से सावरकर बंधुओं का पक्ष दृढ़ता के साथ रखा। इस सबके बाद ही सावरकर बंधुओं को छोड़ा गया।


बात यहीं खत्म नहीं हुई। थोड़ा आगे चलते हैं अपने समाचार-पत्र ‘यंग इंडिया’ में महात्मा गांधी ने 18 मई, 1921 को लिखा था -“सावरकर बंधुओं की प्रतिभा का उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए। अगर भारत इसी तरह सोया पड़ा रहा तो मुझे डर है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र सदा के लिए हाथ से चले जाएंगे। एक सावरकर भाई को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। मुझे लंदन में उनसे भेंट का सौभाग्य मिला था। वे बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं। वे क्रांतिकारी हैं और इसे छिपाते नहीं। मौजूदा शासन प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले, देख लिया था। आज भारत को, अपने देश को, दिलोजान से प्यार करने के अपराध में वे कालापानी भोग रहे हैं।”


महात्मा गाँधीजी और सावरकर बंधुओं के बीच वैचारिक मतभेदों को इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इतना जानने के बाद कोई यह कैसे कह सकता है कि वे एक-दूसरे के दुश्मन थे। जब गाँधीजी की पहल पर सावरकर बंधुओं को माफी मिली तो वे बाद के वर्षों में गाँधीजी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होंगे। यह बात किसी भी विचारशील व्यक्ति के गले नहीं उतर सकती। 10 फ़रवरी, 1949 के फ़ैसले में विशेष न्यायालय ने गांधीजी की हत्या से वीर सावरकर को दोषमुक्त करार दिया था और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे आरोपो को भी न्यायालय ने नकार दिया था। अभी भी यह कहानी खत्म नहीं हुई है लेकिन एक फेसबुक पोस्ट पर इससे अधिक लिखना उचित नहीं है। इस बारे में विस्तृत चर्चा आगे।

(क्रमशः)


Saturday, December 5, 2020

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (२६)

(गतांक से आगे)


डॉ. हेडगेवार और गुरुजी से महात्मा गाँधीजी के रिश्ते

- #मनोज_जोशी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के बारे में चर्चा के समय यह जिक्र आता है कि संघ के संस्थापक आदि सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार पहले कांग्रेस में थे, लेकिन कुछ मतभेद के कारण उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और कुछ सालों बाद संघ की स्थापना की। यह वह समय था जब कांग्रेस में महात्मा गाँधीजी एक महत्वपूर्ण नेता थे। डॉ. हेडगेवार के बाद द्वितीय सरंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर “गुरुजी’’ गांधीजी के समकालीन थे। गाँधीजी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद जब संघ पर प्रतिबंध लगा तब गुरुजी ही संघ के सरसंघचालक थे।
संघ विरोधी जिस तरह का माहौल बनाते हैं उससे ऐसा लगता है जैसे डॉ. हेडगेवार और गुरूजी से गाँधीजी के रिश्ते अच्छे नहीं रहे होंगे। लेकिन इस धारणा की पड़ताल के लिए जब हम इतिहास के पन्नों को टटोलते हैं तो बात कुछ और ही निकल कर आती है।
कलकत्ता से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉ. हेडगेवार नागपुर वापस आये और कांग्रेस में सक्रिय हो गये थे। वे कांग्रेस के प्रान्तीय मंत्री भी थे। १९२० में नागपुर में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन  हुआ तो वहां की व्यवस्था की जिम्मेदारी डा. हेडगेवार पर थी. उन्होंने पूरे प्रान्त में प्रवास कर अधिवेशन की तैयारी कराई थी। डॉ. हेडगेवार चाहते थे कि अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा जाए, लेकिन उस समय उसे स्वीकार नहीं किया गया।
१९२२ में गाँधी जी की गिरफ्तारी के बाद नागपुर शहर कांग्रेस ने एक जनसभा का आयोजन किया। वक्ता के रूप में उस सभा में डॉ हेडगेवार ने ‘पुण्यपुरुष’ विशेषण से संबोधित करते हुए कहा कि गाँधीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। जीवन में अपने धैर्य और विचारों के लिये सर्वस्व त्याग करने की उनकी सम्पूर्ण तैयारी है।उन्होंने कहा कि केवल गाँधीजी का गुणवर्णन करने से गाँधीजी का कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। गाँधीजी को उनके इन गुणों का अनुकरण कर अपने जीवन में चलेंगे तो वही गाँधीजी के कार्य को आगे बढ़ाने वाला होगा।
1९२५ में संघ की स्थापना हुई। उसके चार साल बाद ३१ दिसंबर १९२९ को कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता के संघर्ष की घोषणा की। और २६ जनवरी १९३० को देश भर में स्वतंत्रता दिवस मनाने का निर्णय लिया। इस पर डा. हेडगेवार ने संघ की सभी शाखाओं को परिपत्र भेजकर रविवार २६ जनवरी १९३० को सायं ६ बजे राष्ट्रध्वज वन्दन करने और स्वतंत्रता की कल्पना और आवश्यकता विषय पर व्याख्यान की सूचना करवाई । उस दिन संघ की सब शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। १९३४ में जब गाँधी जी ने हरिजन यात्रा शुरू की तो स्थान- स्थान पर संघ के स्वयंसेवकों ने उनका सहयोग किया। गाँधीजी की हरिजन यात्रा पर इस श्रृंखला में पूर्व में विस्तार से लिख चुका हूँ ।  हम यह पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि २५ दिसंबर १९३४ को गाँधीजी वर्धा में संघ के शिविर में पहुंचे थे। उस दिन की दो खास बातों का उल्लेख करना चाहूंगा। पहली शिविर में उस दिन डॉ. हेडगेवार मौजूद नहीं थे और दूसरी गाँधीजी ने भी स्वयंसेवकों की तरह ध्वज प्रणाम किया था।
आम तौर पर संघ में यह मान्यता है कि जिस व्यक्ति ने एक बार ध्वज प्रणाम कर लिया, वह स्वयंसेवक है। वैसे भी स्वयंसेवक होने और न होने के किसी प्रमाण की कोई व्यवस्था प्रारंभ से आज तक नहीं है। इसके लाभ और हानि अलग विषय है। लेकिन अभी गाँधीजी की बात को आगे बढ़ाते हैं।
अगले दिन यानी २६ दिसंबर को डॉ. हेडगेवार गाँधीजी से मिलने के लिए गए। इस मुलाकात में गाँधी जी ने डा. हेडगेवार से पूछा आपके यहां वर्ग में सभी जातियों के बच्चे एक साथ रहते खाते हैं यह सब आपने कैसे किया ?  डा. हेडगेवार ने कहा कि उनके मन में राष्ट्रीय चेतना एवं हिन्दू का भाव जाग्रत करके। गाँधी जी ने डा.हेडगेवार को संघ कार्य की सफलता के लिए आशीर्वाद दिया। लगभग १ घंटा महात्मा गाँधी और डॉक्टर हेडगेवार के बीच चर्चा हुई। इस बातचीत का कुछ महत्वपूर्ण भाग इस प्रकार था।


महात्मा जी- ''आपको पता चल गया होगा कि कल मैं शिविर में गया था''


डॉक्टर जी- ''जी हां, आप शिविर में गए, यह स्वयंसेवकों का सौभाग्य ही है''


महात्मा जी- ''एक दृष्टि से अच्छा ही हुआ कि आप नहीं थे। आपकी अनुपस्थिति के कारण ही आपके विषय में मुझे सच्ची जानकारी मिल सकी। डॉक्टर, आपके शिविर में संख्या, अनुशासन, स्वयंसेवकों की वृत्ति और स्वच्छता आदि अनेक बातों को देखकर बहुत संतोष हुआ''।


महात्मा जी ने पूछा ''संघ दो-तीन आने में भोजन कैसे दे सकता है? हमें क्यों अधिक खर्च आता है? क्या कभी स्वयंसेवकों को पीठ पर सामान लादकर20 मील तक संचलन करवाया है?'' अणासाहब भोपटकर का महात्मा जी से निकट का परिचय तथा सम्बन्ध होने के कारण डॉक्टर जी के द्वारा प्रथम प्रश्न का उत्तर देने के पहले ही उन्होंने कहा''आपको अधिक खर्च आता है, उसका कारण आप सब लोगों का व्यवहार है, नाम तो रखते हैं 'पर्णकुटि' पर अंदर रहता है राजशाही ठाठ, मैं अभी संघ में सबके साथ दालरोटी खाकर आया हूं। आपके समान वहां विभेद नहीं है। संघ के अनुसार चलोगे तो आपको भी दो-तीन आने ही खर्च आएगा। आपको तो ठाठ चाहिए और खर्च भी कम चाहिए फिर दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकेंगी?'' अणा साहब की ये फब्बतियां सब लोगों के मुक्त हास्य में विलीन हो गईं।


इसके उपरांत महात्मा जी ने संघ का विधान, समाचार पत्रों में प्रचार आदि विषयों पर जानकारी के लिए प्रश्न पूछे। इसी समय मीराबेन (गाधी जी की सहायिका) ने गांधी जी को घड़ी दिखाकर बताया कि नौ बज गए हैं, इस पर डॉक्टर जी ने यह कहते हुए कि''अब आपके सोने का समय हो गया है'' उनसे विदा मांगी। पर महात्मा जी ने कहा ''नहीं-नहीं, अभी आप और बैठ सकते हैं, कम से कम आधा घंटे तो मैं सरलता से और जाग सकता हूं''। अतः चर्चा जारी रही।


महात्मा जी- ''डॉक्टर! आपका संगठन अच्छा है, मुझे पता चला है कि आप बहुत दिनों तक कांग्रेस में काम करते थे, फिर कांग्रेस जैसी लोकप्रिय संस्था के अंदर ही इस प्रकार का 'स्वयंसेवक संगठन' क्यों नहीं चलाया? बिना कारण ही अलग संगठन क्यों बनाया?


डॉक्टर जी- ''मैंने पहले कांग्रेस में ही यह कार्य प्रारम्भ किया था। १९२० की नागपुर कांग्रेस में मैं स्वयंसेवक विभाग का स्वयंसेवक- विभाग का संचालक था, तथा मेरे मित्र डॉक्टर परांजपे अध्यक्ष थे। इसके बाद हम दोनों ने इस बात के लिए प्रयत्न किया कि कांग्रेस में भी ऐसा ही संगठन हो, परन्तु सफलता नहीं मिली। अतः यह स्वतंत्र प्रयत्न किया है''।


महात्मा जी- ''कांग्रेस में आपके प्रयत्न क्यों सफल नहीं हुए? क्या पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं मिली?''


डॉक्टर जी- ''नहीं-नहीं, पैसे की कोई कठिनाई नहीं थी, पैसे से अनेक बातें सफल हो सकती हैं किन्तु पैसे के भरोसे ही संसार में सब योजनाएं सफल नहीं हो सकती। यहां प्रश्न पैसे का नहीं, अंतःकरण का है''।


महात्मा जी- ''क्या आपका यह कहना है कि उदात्त अंतःकरण के व्यक्ति कांग्रेस में नहीं थे, अथवा नहीं हैं?''


डॉक्टर जी- ''मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं है, कांग्रेस में अनेक अच्छे व्यक्ति हैं, परन्तु प्रश्न तो मनोवृत्ति का है, कांग्रेस की मनोरचना एक राजनीतिक कार्य को सफल करने की दृष्टि से हुई है। कांग्रेस के कार्यक्रम इस बात को ही ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं तथा उन कार्यक्रमों की पूर्ति के लिए उसे स्वयंसेवकों 'वॉलंटियर्स' की आवश्यकता होती है। स्वयं प्रेरणा से कार्य करने वालों के बलशाली संगठन से सभी समस्याएं हल हो सकेंगी, इस पर कांग्रेस का विश्वास नहीं है। कांग्रेस के लोगों की धारणा तो स्वयंसेवक के संदर्भ में सभा परिषद में बिना पैसे के मेज कुर्सी उठाने वाले मजदूर की है। इस धारणा से राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने वाले स्वयंस्फूर्त कार्यकर्ता कैसे उत्पन्न हो सकते हैं? इसलिए कांग्रेस में कार्य नहीं हो सका?''


महात्मा जी- ''फिर स्वयंसेवक के विषय में आपकी क्या कल्पना है?''


डॉक्टर जी- ''देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए आत्मीयता से अपना सर्वस्व अपर्ण करने के लिए सिद्ध नेता को हम स्वयंसेवक समझते हैं तथा संघ का लक्ष्य इसी प्रकार के स्वयंसेवकों के निर्माण का है, यह जानकार ही हम एक दूसरे को समान समझते हैं तथा सबसे समान रूप से प्रेम करते हैं। हम किसी प्रकार के भेद को प्रश्रय नहीं देते। इतने थोड़े समय में धन तथा साधनों का आधार न होते हुए भी संघ कार्य की इतनी वृद्धि का यही रहस्य है''।


महात्मा जी- ''बहुत अच्छा! आपके कार्य की सफलता में निश्चित ही देश का हित है, सुनता हूं कि आपके संगठन में वर्धा जिले में अच्छा प्रभाव है। मुझे लगता है कि यह प्रमुखता से सेठ जमनालाल बजाज की सहायता से ही हुआ होगा''।


डॉक्टर जी- ''हम किसी से आर्थिक सहायता नहीं लेते''


महात्मा जी- ''फिर इतने बड़े संगठन का खर्च कैसे चलता है?''


डॉक्टर जी- ''अपनी जेब से अधिकाधिक पैसे गुरु दक्षिणा के रूप में अर्पण कर स्वयंसेवक ही यह भार ग्रहण करते हैं''।


महात्मा जी- ''निश्चित ही विलक्षण है! कि आप किसी से धन नहीं लेते?''


डॉक्टर जी- ''जब समाज को अपने विकास के लिए यह कार्य आवश्यक प्रतीत होगा तब हम अवश्य आर्थिक सहायता स्वीकार करेंगे, यह स्थिति होने पर हमारे ना मांगते हुए भी लोग पैसे का ढेर संघ के सामने लगा देंगे। इस प्रकार की आर्थिक सहायता लेने में हमें कोई अड़चन नहीं। परन्तु संघ की पद्धति हमने स्वावलम्बी ही रखी है''।


महात्मा जी- ''आपको इस कार्य के लिए अपना सम्पूर्ण समय खर्च करना पड़ता होगा। फिर आप अपना डॉक्टरी का धंधा कैसे करते होंगे''।


डॉक्टर जी- ''मैं व्यवसाय नहीं करता''।


महात्मा जी- ''फिर आपके कुटुम्ब का निर्वाह कैसे होता है?''


डॉक्टर जी- ''मैंने विवाह नहीं किया''।


यह उत्तर सुनकर महात्मा जी चकित हो गए। इसी प्रवाह में वे बोले, ''अच्छा आपने विवाह नहीं किया? बहुत बढ़िया, इसी कारण इतनी छोटी अवधि में आपको इतनी सफलता मिली है''। इस पर डॉक्टर जी यह कहते हुए कि''मैंने आपका बहुत समय लिया, आपका आर्शीवाद रहा तो सब मनमाफिक होगा, अब आज्ञा दीजिए'', चलने के लिए उठे, महात्मा जी उन्हें द्वार तक पहुंचाने आए तथा विदा करते हुए बोले ''डॉक्टर जी अपने चरित्र तथा कार्य पर अटल निष्ठा के बल पर आप अंगीकृत कार्य में निश्चित सफल होंगे''।

लगे हाथ आप यह भी जान लीजिए

१९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में संघ के स्वयंसेवकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। विदर्भ के एक स्थान को स्वयंसेवकों ने आजाद भी करा लिया था यहां १२ स्वयंसेवक शहीद भी हो गए थे. मेरठ की मवाना तहसील में तिरंगा झंडा फहराते समय पुलिस की गोलियों से कई स्वयंसेवक जख्मी हो गये। गाँधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी संघ ने  समर्थन दिया था। संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार ने डा. परांजपे को सरसंघचालक का दायित्व सौंपा और सत्याग्रह करके जेल गये थे। यह सब और ऐसी अनेक बातें रिकॉर्ड पर उपलब्ध हैं।

गांधी हत्या पर गुरूजी का शोक संदेश और प्रतिक्रिया

श्री गुरूजी समग्र का अध्ययन करने पर पता लगता है कि ३० जनवरी, १९४८ को तत्कालीन सरसंघचालक गुरुजी मद्रास में एक कार्यक्रम में थे, जब उन्हें गांधी जी की हत्या की खबर मिली। उन्होंने तुरंत ही प्रधानमंत्री पंडित नेहरू, गृह मंत्री सरदार पटेल और गांधी जी के सुपुत्र देवदास गांधी को टेलीग्राम द्वारा अपनी शोक संवेदना भेजी। उसमें गुरुजी ने लिखा, ‘प्राणघातक क्रूर हमले के फलस्वरूप एक महान विभूति की दु:खद हत्या का समाचार सुनकर मुझे बड़ा आघात लगा। वर्तमान कठिन परिस्थिति में इससे देश की अपरिमित हानि हुई है। अतुलनीय संगठक के तिरोधान से जो रिक्तता पैदा हुई है, उसे पूर्ण करने और जो गुरुतर भार कंधों पर आ पड़ा है, उसे पूर्ण करने का सामर्थ्य भगवान हमें प्रदान करें।’

यही नहीं, गांधी जी के प्रति सम्मान रूप शोक व्यक्त करने के लिए १३ दिन तक संघ का दैनिक कार्य स्थगित करने की सूचना उन्होंने देशभर के स्वयंसेवकों को दी। दूसरे ही दिन ३१जनवरी, १९४८  को श्री गुरुजी ने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को एक पत्र लिखा। उसमें वे लिखते हैं- ‘कल मद्रास में वह भयंकर वार्ता सुनी कि किसी अविचारी भ्रष्ट-हृदय व्यक्ति ने पूज्य महात्मा जी पर गोली चलकर उस महापुरुष के आकस्मिक-असामयिक निधन का नीरघृण कृत्य किया। यह निंदा कृत्य संसार के सम्मुख अपने समाज पर कलंक लगाने वाला हुआ है।’
इसके बाद संघ पर प्रतिबंध की एक अलग कहानी है, लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि जिन महात्मा गाँधीजी की हत्या के आरोप में संघ पर प्रतिबंध लगा। उनके जन्म शताब्दी वर्ष यानी १९६९ में सांगली में गाँधीजी की प्रतिमा के अनावरण समारोह में गुरूजी पहुंचते हैं और क्या कहते हैं जरा उसे पढ़िए...

६ अक्टूबर १९६९ को  सांगली में गांधी जी की प्रतिमा का अनावरण करते हुए गुरुजी ने कहा-‘आज एक महत्वपूर्ण व पवित्र अवसर पर हम एकत्र हुए हैं। सौ वर्ष पूर्व इसी दिन सौराष्ट्र में एक बालक का जन्म हुआ था। उस दिन अनेक बालकों का जन्म हुआ होगा, पर हम उनकी जन्म-शताब्दी नहीं मनाते। महात्मा गांधी जी का जन्म सामान्य व्यक्ति के समान हुआ, पर वे अपने कर्तव्य और अंत:करण के प्रेम से परमश्रेष्ठ पुरुष की कोटि तक पहुंचे। उनका जीवन अपने सम्मुख रखकर, अपने जीवन को हम उसी प्रकार ढालें। उनके जीवन का जितना अधिकाधिक अनुकरण हम कर सकते हैं, उतना करें’।

गुरुजी कहते हैं, ‘महात्मा जी से मेरी अंतिम भेंट वर्ष १९४७ में  हुई थी। उस समय देश को स्वाधीनता मिलने से शासन-सूत्र संभालने के कारण नेतागण खुशी में थे। उसी समय दिल्ली में दंगा हो गया। मैं उस समय शांति प्रस्थापना करने का काम कर रहा था। गृह मंत्री सरदार पटेल भी प्रयत्न कर रहे थे और उस कार्य में उन्हें सफलता भी मिली। ऐसे वातावरण में मेरी महात्मा गांधी से भेंट हुई थी।

महात्मा जी ने मुझसे कहा-देखो यह क्या हो रहा है? मैंने कहा-यह अपना दुर्भाग्य है। अंग्रेज कहा करते थे कि हमारे जाने पर तुम लोग एक-दूसरे का गला काटोगे। आज प्रत्यक्ष में वही हो रहा है। दुनिया में हमारी अप्रतिष्ठा हो रही है। इसे रोकना चाहिए। गांधीजी ने उस दिन अपनी प्रार्थना सभा में मेरे नाम का उल्लेख गौरवपूर्ण शब्दों में कर, मेरे विचार लोगों को बताए और देश की हो रही अप्रतिष्ठा रोकने की प्रार्थना की। उस महात्मा के मुख से मेरा गौरवपूर्ण उल्लेख हुआ, यह मेरा सौभाग्य था। इन सारे सम्बन्धों से ही मैं कहता हूं कि हमें उनका अनुकरण करना चाहिए।’

आप यह भी मत भूलिए कि गुरूजी के ही समय से संघ की शाखाओं में प्रात: स्मरण एकात्मता स्तोत्रम में अन्य महापुरुषों के साथ गाँधीजी का भी नाम है। खास बात यह है कि इसमें डॉ. हेडगेवार और गुरूजी के नाम अंत में हैं।

(क्रमश:)