Saturday, February 27, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (४०)

 (गतांक से आगे)

गाँधीजी के ग्राम स्वराज को समझना है तो संघ प्रचारक नानाजी शमुख के चित्रकुट प्रकल्प को देखिए

#मनोज_जोशी 

आज महामानव #नानाजी_देशमुख की पुण्यतिथि है। २००५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अभा कार्यकारिणी मंडल की बैठक के कवरेज के "बहाने " से मैं चित्रकुट पहुँच गया था। वहाँ तीन दिन तक बैठक की खबरें करने के साथ नानाजी के काम को भी करीब से देखने का अवसर मिला। बैठक समाप्त होने के बाद नानाजी की पत्रकार वार्ता हुई । मेरे मन में तो कुछ और ही उमङ घुमङ रहा था। धूप लगने और और बैठने के लिए जगह न मिलने  का बहाना बनाया और नानाजी के चरणों में जाकर बैठ गया । जब नानाजी का निधन हुआ तो आज तक / स्टार ने वही क्लिपिंग दिखाई । मुझे लगा जैसे मैं धन्य हो गया ।

११ अक्टूबर १९१६ को महाराष्ट्र के परभणी के कडोली गाँव मे जन्मे नाना जी ने बचपन में ही माता पिता को खो दिया।  उनका लालन-पालन अपने मामा जी के यहाँ हुआ | संघ संस्थापक डा. हेडगेवार जी के संपर्क में आने के बाद उन्हे जैसे जीवन का लक्ष्य मिल गया | नानाजी एक ऐसे मनीषी थे जिन्होंने शिक्षा, राजनीति, संगठन और ग्राम विकास जैसे तमाम क्षेत्रों में एक साथ काम किया। 

१९४८ में गाँधीजी की हत्या के आरोप में संघ पर प्रतिबंध लगने पर नानाजी ने भूमिगत रहकर भी पाञ्चजन्य, युगधर्म और स्वदेश जैसे पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन जारी रखा। गाँधीजी की हत्या के मिथ्या आरोप का दंश झेलने के बावजूद संघ में  गाँधीजी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी। इसका प्रमाण यह है कि नानाजी ने विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। दूसरे गाँधीवादी जयप्रकाश नारायण से उनकी निकटता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक आंदोलन के दौरान पुलिस ने जैसे ही जयप्रकाश नारायण पर लाठी चलाई नानाजी बीच में आ गए और उस लाठी को अपने ऊपर झेल लिया। इस लाठीचार्ज से नानाजी के कंधे में फ्रेक्चर हो गया । नानाजी ने उप्र के गौंडा जिले में जिस जयाप्रभा गाँव का विकास किया। उसका नामकरण भी उन्होंने जयप्रकाश नारायण और उनकी पत्नी प्रभा देवी के नाम पर ही किया। नानाजी देशमुख ने पं दीनदयाल उपाध्याय के विचारों और कार्यों को मूर्तरूप देने के लिए दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। यह संस्थान आज भी उनके काम को आगे बढ़ा रहा है। पं दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गाँधीजी के हिंद स्वराज , हरिजन व अन्य पत्र पत्रिकाओं में व्यक्त विचारों को पढ़ेंगे तो दोनों में अंतर करना मुश्किल हो जाएगा । दोनों ही भारत की वास्तविक आंतरिक अध्यात्मिक शक्ति और धर्म परायणता का उपयोग कर समाज को शक्तिशाली बनाने की बात करते हैं । दोनों ही पश्चिम के भौतिकवादी विकास को गैर जरुरी मानते हैं ।  चित्रकूट में उन्होने देश के प्रथम ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसका नामकरण महात्मा गाँधीजी के नाम पर रखा गया।

ग्रामीण भारत को आत्मनिर्भर बनाने को स्वप्न आँखों में संजोए नाना जी का देहावसान २७ फरवरी २०१०  को चित्रकूट में हुआ। 

दिल्ली की 'दधीचि देहदान समिति' को अपने देहदान सम्बन्धी शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए नानाजी ने कहा था- "मैंने जीवन भर संघ शाखा में प्रार्थना में बोला है 'पत्तवेष कायो नमस्ते नमस्ते।' अतः मृत्यु के बाद भी यह शरीर समाज के लिए उपयोग में आना उचित है। इस प्रकार उन्होंने मृत्यु के बाद अपनी पार्थिव देह मेडिकल छात्रों के अध्ययन के लिए समर्पित कर दी।


(क्रमशः)


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Friday, February 26, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३९)

(गतांक से आगे)

सावरकर और संघ पर गाँधीजी की हत्या के षड्यंत्र का आरोप यानी न्यायपालिका और नेतृत्व पर सवाल


२६ फरवरी शुक्रवार यानी आज वीर सावरकर की पुण्यतिथि है। ऐसे मौके पर गाँधीजी की हत्या को लेकर  सावरकर (और संघ)  पर लगने वाले आरोपों की पङताल सामयिक है। गाँधीजी की हत्या की एफआईआर, चार्जशीट, लाल किला में लगी जस्टिस आत्माचरण की विशेष अदालत का आदेश और उसके बाद पंजाब हाईकोर्ट का जजमेंट, हाईकोर्ट की इस खंडपीठ के जज जीडी खोसला की पुस्तक और उसके बाद हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले इन सब में एक बात समान रूप से साबित होती है कि संघ और सावरकर गाँधीजी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल नहीं थे। 

गाँधीजी की ३० जनवरी १९४८ को हत्या के बाद पाँचवें दिन ४ फरवरी को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। संघ के छोटे - बङे नेता गिरफ्तार कर लिए गए। एक बात तो तय है कि संघ किसी भी स्थिति में जाँच प्रक्रिया , चार्जशीट और अदालती कार्रवाई को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं था। सावरकर भी जेल में थे और वे भी इस स्थिति में नहीं थे कि कहीं से सहानुभूति या बाहरी मदद हासिल कर सके। 

यदि तथ्यों पर बात की जाए तो सावरकर और संघ पर गाँधीजी की हत्या का आरोप लगाने वाले लोग वास्तव में न्यायपालिका की कार्यशैली और देश के तत्कालीन नेतृत्व यानी नेहरू जी और सरदार पटेल की क्षमता पर सवाल खङा करते हैं ।

१० फरवरी १९४९ को अपने निर्णय में न्यायमूर्ति आत्माचरण ने कहा कि "सावरकर को आरोपों में निर्दिष्ट अपराध का दोषी नहीं पाया गया है" और उन्हें दोषमुक्त कर रिहा करने के आदेश दिए। गाँधीजी की हत्या के मामले में पंजाब हाईकोर्ट में अपील हुई । लेकिन सरकार ने सावरकर के खिलाफ अपील नहीं की। यदि जस्टिस आत्माचरण के फैसले से नेहरू जी या सरदार पटेल असहमत होते या सरकार के पास सावरकर के खिलाफ कोई सबूत होता तो उनके खिलाफ अपील करने से कौन रोक सकता था ? हाईकोर्ट ने अपने आदेश में दो और अभियुक्तों को निर्दोष करार दिया।

गाँधीजी की हत्या के एक महीने बाद, सरदार पटेल ने नेहरू जी को लिखा था "मैंने बापू की हत्या के मामले के बारे में जांच की प्रगति के साथ खुद को लगभग दैनिक संपर्क में रखा है। सभी मुख्य आरोपियों ने अपनी गतिविधियों के लंबे और विस्तृत बयान दिए हैं।" उन बयानों से भी स्पष्ट रूप से पता चलता है कि आरएसएस इसमें शामिल नहीं था। '

सरसंघचालक गुरु गोलवलकर जी को लिखे एक अन्य पत्र में, सरदार पटेल ने कहा, "मेरे आस-पास के लोगों को ही पता है कि संघ पर प्रतिबंध हटने के बाद मैं कितना खुश था। मैं आपको शुभकामनाएं देता हूं।" कानून मंत्री डा भीमराव अम्बेडकर ने भी इस पूरे केस का अध्ययन कर नेहरू जी को बताया था कि गाँधीजी की हत्या के मामले में संघ का हाथ नहीं है। डा अम्बेडकर तो सावरकर के वकील भोपटकर से भी मिले थे और पूरे प्रकरण पर चर्चा के बाद कहा था कि सावरकर के खिलाफ आरोपों में कोई दम नहीं है और आप जरुर जितोगे।

बाल गंगाधर तिलक के नाती गजानंद विश्वनाथ केतकर के बयान पर उठे विवाद (जिस पर इस श्रृंखला में पहले चर्चा हो चुकी है) के बाद गठित कपूर आयोग की रिपोर्ट में भी संघ को पूरी तरह क्लीनचिट दी गई है। 

कपूर आयोग की रिपोर्ट १९६९ में जारी हुई थी। दो भाग में लगभग ७०० पेज की इस रिपोर्ट केप्रमुख निष्कर्ष थे:


१) वे (अभियुक्त) आरएसएस के सदस्य साबित नहीं हुए हैं, न ही उस संगठन को हत्या में हाथ दिखाया गया है। (खंड I, पृष्ठ 186)


२) ... इस बात का कोई सबूत नहीं है कि आरएसएस महात्मा गांधी या कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के खिलाफ हिंसक गतिविधियों में लिप्त था। (खंड I, पृष्ठ 66)


कपूर आयोग के सामने पेश हु सबसे महत्वपूर्ण गवाहों में से एक आईसीएस अधिकारी आरएन बनर्जी थे। उनकी गवाही महत्वपूर्ण थी क्योंकि वे हत्या के समय भारत सरकार के गृह सचिव थे।

बनर्जी ने कपूर आयोग को बताया कि यदि आरएसएस पर पहले भी प्रतिबंध लगा दिया गया था, तो भी इसने षड्यंत्रकारियों या घटनाओं को प्रभावित नहीं किया होगा, "क्योंकि वे आरएसएस के सदस्य साबित नहीं हुए हैं, और न ही उस संगठन को दिखाया गया है हत्या में हाथ है ”।

इस रिपोर्ट में ऐसे लोगों की सूची जिन्हें गाँधीजी की हत्या की जानकारी थी उसमें सावरकर का नाम नहीं हैं । दूसरी तरफ सावरकर के करीबी लोगों के बयानों के आधार पर लगभग वही बातें कही गई है जो गाँधीजी की हत्या के मामले में सरकारी गवाह बने बाडगे ने विशेष अदालत में अपने बयान में कहीं थीं । लेकिन अदालत ने उसे स्वीकार नहीं किया। इसके साथ ही आयोग ने अपनी कार्रवाई के दौरान सावरकर के बयान नहीं लिए और जब तक रिपोर्ट आई सावरकर की मृत्यु हो चुकी थी। कानून के जानकार यह भी जानते हैं कि न्यायिक जाँच आयोग और न्यायालय का काम अलग- अलग होता है। आयोग केवल बयान पर रिपोर्ट तैयार करता है, जबकि न्यायालय सबूत के आधार पर फैसला सुनाते हैं ।

हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट में लगी याचिकाओं में भी कोर्ट ने हर बार यही कहा कि संघ और सावरकर का गाँधीजी की हत्या से कोई वास्ता नहीं है। सावरकर और संघ को लेकर भ्रम पैदा करने वाले लोगों का मकसद केवल राजनीति है। वे न तो स्वतंत्रता आंदोलन की समझ रखते हैं औ  न हिंदुत्व की। 

( क्रमशः)

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Monday, February 22, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३८)

(गतांक से  आगे)

गाँधीजी की हत्या के मामले में तिलक के नाती गजानंद विश्वनाथ केतकर पर लगी थी रासुका

#मनोज_जोशी 


जैसा  मैंने पूर्व में लिखा था कि १२ अक्टूबर १९६४ को नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे के साथ विष्णु करकरे और मदनलाल पाहवा आजीवन क़ैद की सज़ा काटकर रिहा हुए। गोपाल गोडसे और विष्णु करकरे पुणे पहुँचे तो उनके दोस्तों ने एक नेता  की तरह उनका स्वागत करने का फ़ैसला किया। ठीक एक महीने बाद १२ नवंबर को सत्यविनायक पूजा आयोजित हुई. इस सत्य विनायक पूजा में शामिल होने के लिए मराठी भाषा में लोगों को आमंत्रण पत्र भेजा गया, जिस पर लिखा गया था कि देशभक्तों की रिहाई की ख़ुशी में इस पूजा का आयोजन किया गया है और आप सभी आकर इन्हें बधाई दें। इस आयोजन में क़रीब १२५ -१५० लोग शामिल  हुए । कार्यक्रम में नाथूराम गोडसे को भी देशभक्त बताया गया और गाँधीजी की हत्या करने पर सबका सम्मान किया गया।

आप यह जानकर हैरत में पङ जाएंगे कि इस आयोजन की अध्यक्षता कर रहे थे लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के नाती गजानंद विश्वनाथ केतकर। गाँधीजी के नमक सत्याग्रह सहित अनेक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी कर चुके केतकर ने लोकमान्य तिलक द्वारा शुरू की गईं  दो पत्रिकाओं केसरी' और 'तरुण भारत' का संपादन भी किया था। वे महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। १९५७ में सार्वजनिक राजनीतिक गतिविधियों से निवृत्ति के बाद से वे विभिन्न अखबारों में लेख लिख कर गाँधीजी की हत्या के आरोप में जेल में बंद सभी अपराधियों की मुक्ति का समर्थन कर रहे थे। 

इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक बात यह है कि कार्यक्रम में जीवी केतकर ने कहा, "कुछ हफ़्ते पहले ही गोडसे ने अपना इरादा शिवाजी मंदिर में आयोजित एक सभा में व्यक्त कर दिया था। गोडसे ने कहा था कि गाँधी कहते हैं कि वो 125 तक ज़िंदा रहेंगे लेकिन उन्हें 125 साल तक जीने कौन देगा? तब हमारे साथ बालुकाका कनेटकर भी थे और गोडसे के भाषण के इस हिस्से को सुनकर परेशान हो गए थे। हमने कनेटकर को आश्वस्त किया था कि वो नाथ्या (नाथूराम) को समझाएँगे और ऐसा करने से रोकेंगे। मैंने नाथूराम से पूछा था कि क्या वो गाँधी को मारना चाहता है? उसने कहा था कि हाँ, क्योंकि वो नहीं चाहता कि गांधी देश में और समस्याओं का कारण बनें।"  केतकर का कहना था कि  उन्होंने तत्कालीन बंबई प्रांत के मुख्यमंत्री बीजी खेर को इस बारे में सतर्कता बरतने की सलाह देते हुए सूचना भिजवा दी थी।


पूजा के बाद गोपाल गोडसे और करकरे ने जेल के अनुभवों को भी साझा किया। दो दिन बाद इसी स्थान पर गोडसे की श्राद्ध पूजा का भी आयोजन हुआ। 


केतकर ने इंडियन एक्सप्रेस से १४ नवंबर १९६४ को कहा था, "तीन महीने पहले ही नाथूराम गोडसे ने गाँधीजी  की हत्या योजना मुझसे बताई थी। जब मदनलाल पाहवा ने २० जनवरी १९४८ को गाँधीजी  जी की प्रार्थना सभा में बम फेंका तो बड़गे उसके बाद मेरे पास पुणे आया था और उसने भविष्य की योजना के बारे में बताया था।मुझे पता था कि गाँधीजी की हत्या होने वाली है। मुझे गोपाल गोडसे ने इस बारे में किसी को बताने से मना किया था". 

केतकर के इस बयान के बाद संसद और महाराष्ट्र विधानसभा में हंगामा हुआ ।अखबारों में भी सवाल उठाए गए कि गाँधीजी की हत्या की सूचना सरकार को पहले से थी तो सुरक्षा पुख्ता क्यों नहीं की गई? 

इसके बाद केतकर पर रासुका लगाई गई।  उन पर जानकारी छुपाने यानी षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगा। गोपाल गोडसे को भी फिर गिरफ़्तार कर लिया गया। यह एक लंबी कहानी है इस पर कभी आगे चर्चा करेंगे ।

केंद्र सरकार ने सांसद और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील गोपाल स्वरूप पाठक की अगुवाई में गाँधीजी की हत्या के पीछे षड्यंत्र की नए सिरे से जांच के लिए एक आयोग गठित किया। . कुछ ही दिनों बाद पाठक केंद्रीय मंत्री बन गए (वे आगे जाकर भारत के उप राष्ट्रपति भी रहे)  तब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग बनाया गया।  इस आयोग की जाँच ३ साल तक चली. कमीशन ने १०१ गवाहों के बयान लिए गए। कपूर आयोग की दो पार्ट में  ७०० से अधिक पन्नों की रिपोर्ट में कोई नई बात सामने नहीं आई।   आयोग ने किसी भी व्यक्ति संगठन के हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने की कोई बात नहीं की। वीर सावरकर के बारे में भी पहले से कही जा रही बातें ही आयोग की रिपोर्ट में सामने आईं और सावरकर उन आरोपों का अदालत में जवाब दे चुके थे, जिसके आधार पर उन्हें बरी  कर दिया गया था। हालाँकि आयोग की रिपोर्ट आने से पहले ही सावरकर का निधन हो चुका था।

(क्रमशः)

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Friday, February 19, 2021

गाँधीजी की हत्या पर गुरुजी की पहली प्रतिक्रिया - "यह देश का दुर्भाग्य है"

 हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३७)

(गतांक से आगे)

-#मनोज_जोशी



इस श्रृंखला के क्रम के हिसाब से देखें तो मुझे आज लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नाती जीवी केटकर के बयान के बाद के घटनाक्रम पर चर्चा करना थी, लेकिन आज संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर "गुरुजी" की जयंती है। गाँधीजी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध के बाद गुरुजी को गिरफ्तार किया गया था। 

गुरुजी की जयंती पर हम चर्चा करेंगे कि ३० जनवरी १९४८ को जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधीजी की हत्या की उस समय गुरु गोलवलकर जी कहाँ थे ? वो क्या कर रहे थे ? और जब उन्हें गाँधीजी की हत्या का यह समाचार मिला तब उनकी प्रतिक्रिया क्या थी ? 

उस दिन गुरुजी मद्रास (अब चेन्नई) में संघ की एक बैठक में भाग ले रहे थे। उस बैठक  में मौजूद रहे लोग बताते हैं किमहात्मा गाँधीजी की हत्या की जानकारी जब मिली गुरुजी चाय पी रहे थे। उन्होंने चाय का कप नीचे रखा और दुःखी मन से बोले - "यह देश का दुर्भाग्य है।" इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू , गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और गाँधीजी के पुत्र देवदास गाँधी को तार भेजकर अपनी शोक संवेदना व्यक्त की। उन्होंने अपने सारे प्रवास रद्ध कर दिए और ३६५ दिन चलने वाली संघ की शाखाओं में १३ दिन के शोक की घोषणा के साथ अवकाश की घोषणा कर दी। 

नागपुर लौटने के बाद उन्होंने पंं. नेहरू और सरदार पटेल को दो अलग - अलग पत्र लिखे। इन दोनों पत्रों में उन्होंने  महात्मा गाँधीजी के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करने के साथ ही उनकी हत्या को विश्वासघात बताया और इस विकट परिस्थिति में शांति और सद्भावना के साथ देश को आगे बढ़ाने की सामूहिक जिम्मेदारी पर बल दिया।

इसके बाद संघ पर प्रतिबंध लग गया। गुरुजी को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके ऊपर उस बंगाल राज्य कैदी अधिनियम के तहत मुकदमा दायर किया गया, जिसे खुद प. नेहरू काला कानून बताते थे। 

थोड़ा पीछे चलते हैं (हालाँकि इस श्रृंखला में यह वाकया पहले आ चुका है) १२ सितंबर, १९४७ की प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा था - ‘मैंने सुना था कि इस संस्था (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के हाथ भी खून से सने हुए हैं. गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिलाया कि यह बात झूठ है. उनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है. उसका उद्देश्य मुसलमानों की हत्या करना नहीं है. वह तो सिर्फ अपनी सामर्थ्य-भर हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहती है. उसका उद्देश्य शांति बनाए रखना है. गुरुजी ने मुझसे कहा कि मैं उनके विचारों को प्रकाशित कर दूं.’ बाद में इस बातचीत को महात्मा गांधी ने हरिजन में प्रकाशित भी किया। इस प्रार्थना सभा से कुछ दिन पहले ही दिन पहले ही महात्मा गांधी और गुरुजी की भेंट हुई थी। 

चार दिन बाद १६ सितंबर, १९४७ को आरएसएस के स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए गाँधीजी गुरुजी से हुई भेंट का जिक्र करते हुए कह रहे हैं - ‘कुछ दिन पहले ही आपके गुरुजी (एमएस गोलवलकर) से मेरी मुलाकात हुई थी. मैंने उन्हें बताया था कि कलकत्ता और दिल्ली में संघ के बारे में क्या-क्या शिकायतें मेरे पास आईं थीं. गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिया कि यद्यपि वे संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की जिम्मेदारी नहीं ले सकते, फिर भी संघ की नीति हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना मात्र है और वह भी किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाकर नहीं. संघ आक्रमण में विश्वास नहीं रखता. अहिंसा में उसका विश्वास नहीं है. वह आत्म-रक्षा का कौशल सिखाता है. प्रतिशोध लेना उसने कभी नहीं सिखाया.’

एक खास बात यह भी है कि संघ की शाखाओं में नियमित वाचन किए जाने वाले प्रातः स्मरण (एकात्मता स्तोत्रम) में गाँधीजी का नाम गुरुजी ने ही जुङवाया था। इस श्रृंखला की अगली किसी कङी में इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे ।

गुरुजी जैसी महान आत्मा को सादर नमन ! 

(क्रमशः)


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Wednesday, February 17, 2021

गाँधीजी की हत्या और कुछ अचर्चित बातें

 हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का राम राज्य (३६)

#मनोज_जोशी

(गतांक से आगे )

इस श्रृंखला की पिछली किसी कङी में मैंने जिक्र किया था कि नाथूराम गोडसे के बयान वाले दिन यानी ८ नवम्बर १९४८ को अदालत में काफी भीड़ थी और गोडसे का बयान सुनते हुए अदालत में मौजूद लोगों की आँखें नम हो गई थी। जज साहब ने यहाँ तक भी लिखा कि यदि अदालत में मौजूद लोगों को फैसला करने को कहा जाता तो वे गोडसे को माफ कर देते । यानी गाँधीजी की हत्या को साल भर भी नहीं बीता और आम लोगों ने गोडसे को माफ कर दिया ! ! ! ! !  सोचिए , एक तरफ हम गाँधीजी को राष्ट्रपिता कह रहे हैं और दूसरी तरफ उनके हत्यारे से सहानुभूति ? ? ? ? ? 


गंगाधर दंडवते, गंगाधर जादव और सूर्यदेव शर्मा यह तीन वो नाम हैं जिन्हें गाँधीजी की हत्या का आरोपी बनाया गया था। लेकिन यह फरार हो गए। और आज तक इनका कुछ पता नहीं चला है ? यानी आजादी के तुरंत बाद राष्ट्रपिता की हत्या की जाँच और आरोपियों तक पहुँचने को लेकर हमारा तंत्र कितना गंभीर था यह इस एक उदाहरण से पता लगता है। क्या पता इन तीन में से कोई एक या तीनों अब तक जीवित हों। और चर्चा तो यह भी होना चाहिए कि इन तीनों की बाद के वर्षों की गतिविधियां क्या रहीं होंगी।


फोरेंसिक रिपोर्ट बताती है कि गाँधीजी की पार्थिव देह पर  चार घाव थे, लेकिन गोडसे ने तीन गोलियां चलाईं थीं ! फिर चौथी गोली किसने चलाई ? और गाँधीजी की मौत किस गोली से हुई ? 


गोली लगने के बाद गाँधीजी को अस्पताल नहीं ले जाया गया और न पोस्टमार्टम हुआ 


इसी श्रृंखला में यह बात भी सामने आ चुकी है कि गाँधीजी की हत्या की एफआईआर में आरोपी का नाम नहीं था। शिकायतकर्ता नंदलाल मेहता के बयान में भी नाथूराम का नाम नहीं था। उन्होंने अपने बयान में आरोपी का नाम नारायण विनायक गोडसे बताया था।


गाँधीजी की हत्या के दस दिन पहले २० जनवरी को मदनलाल पाहवा ने देसी बम फेंक कर गाँधीजी को मारने की कोशिश की और वह पकङा भी गया। उसने पूछताछ में हत्या की साजिश की बात भी बताई। लेकिन गाँधीजी की सुरक्षा के इंतजाम नहीं किए गए। तर्क दिया जाता है कि गाँधीजी इसके लिए राजी नहीं थे। लेकिन सादी वर्दी में पुलिस बल तो लगाया जा सकता था।


गाँधीजी की हत्या पर संघ की शाखाओं में १३ दिन के शोक की घोषणा हुई । 


गाँधीजी की हत्या के पाँचवें दिन संघ पर हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगाकर ४ फरवरी १९४८ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया।


११ जुलाई १९४९ को यह प्रतिबंध उठा लिया गया, जबकि गाँधीजी की हत्या पर अदालत का फैसला संघ से प्रतिबंध हटाने के लगभग ४ महीने बाद ८ नवंबर १९४९ को आया। क्या इसका यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को अपनी गलती का एहसास हो गया था।


गाँधीजी की हत्या के बाद केवल राजनीतिक बयानबाजी को छोड़कर  आरएसएस पर कोई आरोप नहीं लगा। और कोई भी बात साबित नहीं हुई ।


गाँधीजी की हत्या के आरोप में सजा काट कर १२ अक्टूबर १९६४ को गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे और मदनलाल पाहवा जेल से छूटे उनका भव्य स्वागत हुआ । पुणे में आयोजित स्वागत समारोह की अध्यक्षता की लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नाती जीवी केटकर ने। और वहाँ उन्होंने क्या कहा ? ? केटकर ने कहा " मुझे गाँधीजी की हत्या के बारे में पहले से पता था ।" अब आप क्या तिलक और उनके पोते की देशभक्ति पर प्रश्न चिह्न लगा सकते हैं ?  स्वाभाविक रूप से इसका जवाब है - नहीं ! ! यह संभव नहीं । 

केटकर के बयान के बाद नया बवाल मच गया। इस पर चर्चा आगे करेंगे ।

(क्रमशः )


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Thursday, February 11, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३५)

(गतांक से आगे)

आखिर संघ की स्थापना क्यों हुई? पढ़िए दीनदयाल उपाध्याय द्वारा अपने मामाजी को लिखा पत्र

#मनोज_जोशी 


जब हम १९१५ से १९४९ तक की बात करते हैं तो एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना। पहले अनुशीलन समिति, फिर कांग्रेस और उसके बाद हिंदू महासभा में सक्रियता के बाद डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने आखिर संघ की स्थापना क्यों की? 

इसको समझने के लिए आज पं. दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि पर हमें उनके द्वारा अपने मामाजी को लिखे पत्र को पढ़ना चाहिए। पं. उपाध्याय का लालन- पालन उनके मामाजी ने ही किया था। अध्ययन पूरा होने के बाद वे संघ के प्रचारक हो गए। इस पर उनके मामाजी नाराज थे। इस पर दीनदयालजी ने उन्हें एक विस्तृत पत्र लिखा था। इस पत्र को पढ़ कर आपको संघ की स्थापना की वजह और आजादी से पहले संघ की भूमिका भी काफी हद तक समझ आएगी। 

२९ अप्रैल १९६८  को पांचजन्य ने यह पत्र प्रकाशित किया था। वहीं से साभार प्रस्तुत है।


क्या अपना एक बेटा समाज को नहीं दे सकते?


लखीमपुर खीरी, दिनांक २१ जुलाई, १९४२


श्रीमान् मामाजी,


सादर प्रणाम! आपका पत्र मिला। देवी की बीमारी का हाल जानकर दु:ख हुआ। आपने अपने पत्र में जो कुछ भी लिखा है सो ठीक ही लिखा है। उसका क्या उत्तर दूँ यह मेरी समझ में नहीं आता। परसों आपका पत्र मिला तभी से विचारों का एवं कर्तव्यों का तुमुल युध्द चल रहा है। एक ओर तो भावना और मोह खींचते हैं तो दूसरी ओर प्राचीन ऋषियों हुतात्माओं और पुम्रषाओं की अतृप्त आत्माएँ पुकारती हैं। आपके लिखे अनुसार पहले तो मेरा भी यही विचार था कि मैं किसी स्कूल में नौकरी कर लूँ तथा साथ ही वहाँ का संघ कार्य भी करता रहूँगा। यही विचार लेकर मैं लखनऊ आया था। परंतु लखनऊ में आजकल की परिस्थिति तथा आगे कार्य का असीम क्षेत्र देखकर मुझे यही आज्ञा मिली कि बजाय एक नगर में कार्य करने के एक जिले में कार्य करना होगा। इस प्रकार सोते हुए हिंदू समाज से मिलनेवाले कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा करना होता है। सारे जिले में काम करने के कारण न तो एक स्थान पर दो-चार दिन से अधिक ठहरान संभव है और न किसी भी प्रकार की नौकरी। संघ के स्वयंसेवक के लिए पहला स्थान समाज और देशकार्य का ही रहता है और फिर अपने व्यक्तिगत कार्य का। अत: मुझे अपने समाज कार्य के लिए जो आज्ञा मिली थी उसका पालन करना पड़ा।


मैं यह मानता हूँ कि मेरे इस कार्य से आपको कष्ट हुआ होगा। परंतु आप जैसे विचारवान एवं गंभीर पुरुषों को भी समाज कार्य में संलग्न रहते देखकर कष्ट हो तो फिर समाज कार्य करने के लिए कौन आगे आएगा। शायद संघ के विषय में आपको अधिक मालूम न होने के कारण आप डर गए हैं। इसका कांग्रेस से किसी प्रकार का संबंध नहीं है और न किसी राजनीतिक संस्थाओं से। यह आजकल की किसी राजनीति में भाग भी नहीं लेता है, न यह सत्याग्रह करता है और न जेल जाने में ही विश्वास रखता है। न यह अहिंसावादी है और न हिंसावादी ही। इसका तो एकमात्र कार्य हिंदुओं में संगठन करना है। इसी कार्य को यह लगातार सत्रह साल से करता आ रहा है। इसकी सारे भारतवर्ष में एक हजार से ऊपर शाखाएँ तथा दो लाख से अधिक स्वयंसेवक हैं। मैं अकेला ही नहीं परंतु इसी प्रकार तीन सौ से ऊपर कार्यकर्ता हैं जो एकमात्र संघकार्य ही करते हैं। सब शिक्षित और अच्छे घर के हैं। बहुत से बी.ए., एम.ए. और एल.एल.बी. पास हैं। ऐसा तो कोई शायद ही होगा जो कम-से-कम हाई स्कूल न हो और वह भी इने-गिने लोग। इतने लोगों ने अपना जीवन केवल समाज कार्य के लिए क्यों दे दिया, इसका एकमात्र कारण यही है कि बिना समाज की उन्नति हुए व्यक्ति की उन्नति संभव नहीं है। व्यक्ति कितना भी क्यों न बढ़ जाए, जब तक उसका समाज उन्नत नहीं होता तब तक उसकी उन्नति का कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि हमारे यहाँ के बड़े-बड़े नेताओं का दूसरे देशों में आकर अपमान होता है। हरीसिंह गौड़ जो कि हमारे यहाँ के इतने बड़े व्यक्ति हैं वे जब इंग्लैंड के एक होटल में गए तो वहाँ उन्हें ठहरने का स्थान नहीं दिया गया क्योंकि वे भारतीय थे। हिंदुस्थान में ही आप हमारे बड़े-से-बड़े आदमी को ले लीजिए। क्या उसकी वास्तविक उन्नति है? मुसलमान गुंडे बड़े-से-बड़े आदमी की इज्जत को पल भर में खाक में मिला देते हैं, क्योंकि वे स्वयं बड़े हो सकते हैं पर जिस समाज के वे अंग हैं वह तो दुर्बल है, अध:पतित है, शक्तिहीन और स्वार्थी है। हमारे यहाँ हर एक व्यक्तिगत स्वार्थों में लीन है तथा अपनी ही अपनी सोचता है। नाव में छेद हो जाने पर अपने अंगोछे को आप कितना भी ऊँचा क्यों न उठाइए वह तो आपके साथ डूबेगा ही। आज हिंदू समाज की यही हालत है। घर में आग लग रही है परंतु हरेक अपने-अपने घर की परवाह कर रहा है उस आग को बुझाने का किसीको भी खयाल नहीं है। क्या आप अपनी स्थिति को सुरक्षित समझते हैं? क्या आपको विश्वास है कि मौका पड़ने पर समाज आपका साथ देगा? नहीं, इसलिए नहीं कि हमारा समाज संगठित नहीं है। हम दुर्बल हैं इसलिए हमारे आरती और बाजों पर लड़ाइयाँ होती हैं। इसलिए हमारी माँ-बहनों को मुसलमान भगाकर ले जाते हैं, अंग्रेज सिपाही उनपर निश्शंक होकर दिन-दहाड़े अत्याचार करते हैं और हम अपनी बड़ी भारी इज्जत की दम भरनेवाले समाज में ऊँची नाक रखनेवाले अपनी फूटी ऑंखों से देखते रहते हैं। हम उसका प्रतिकार नहीं कर सकते हैं। अधिक हुआ तो इस सनसनीखेज मामले की खबर अखबारों में दे दी या महात्माजी ने हरिजन में एक लेख लिख दिया। क्यों? क्या हिंदुओं में ऐसे ताकतवर आदमियों की कमी है जो उन दुष्टों का मुकाबला कर सकें? नहीं, कमी तो इस बात की है कि किसी को विश्वास नहीं है और कि वह कुछ करे तो समाज उसका साथ देगा। सच तो ह है कि किसीके हृदय में इन सब कांडों को देखकर टीस ही नहीं उठती है। जब किसी मनुष्य के किसी अंग को लकवा मार जाता है तो वह चेतनाशून्य हो जाता है। इसी भाँति हमारे समाज को लकवा मार गया है। उसको कोई कितना भी कष्ट क्यों न दे पर महसूस ही नहीं होता। हरेक तभी महसूस करता है जब चोट उसके सिर पर आकर पड़ती है। आज मुसलमानों के आक्रमण सिंध में हैं। हमको उनकी परवाह नहीं परंतु यदि वे ही हमारे घर में होने लग जाएँ तब तो खलबली मचेगी और होश तो तब आएगा जब हमारे बहू-बेटियों में से किसीको वह उठाकर ले जाएँ। फिर व्यक्तिगत रूप से यदि कोई बड़ा हो भी गया तो उसका क्या महत्त्व? वह तो हानिकर ही है। हमारा सारा शरीर का शरीर ही मोटा होता जाए तो ठीक है परंतु यदि खाली पैर ही सूजकर कुप्पा हो गया और बाकी शरीर वैसा ही रहा तो वह तो पील-पाँव रोग हो जाएगा। यही कारण है कि इतने कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत आकांक्षाओं को छोड़कर अपने आपको समाज की उन्नति में ही लगा दिया है। हमारे पतन का कारण हममें संगठन की कमी ही है। बाकी बुराइयाँ अशिक्षा आदि तो पतित अवस्था के लक्षण मात्र ही हैं। इसलिए संगठन करना ही संघ का ध्येय है। इसके अतिरिक्त और यह कुछ भी नहीं करना चाहता है। संघ का क्या व्यावहारिक रूप है, आप यदि कभी आगरा आएँ तो देख सकते हैं। मेरा खयाल है कि एक बार संघ के रूप को देखकर तथा उसकी उपयोगिता समझने के बाद आपको हर्ष ही होगा कि आपके एक पुत्र ने भी इसी कार्य को अपना जीवन कार्य बनाया है। परमात्मा ने हम लोगों को सब प्रकार समर्थ बनाया है क्या फिर हम अपने में से एक को भी देश के लिए नहीं दे सकते हैं? उस कार्य के लिए, जिसमें न मरने का सवाल है न जेल की यातनाएँ सहन करने का, न भूखों मरना है और न नंगा रहना है। सवाल है केवल चंद रुपए के न कमाने का। वे रुपए जिनमें निजी खर्च के बाद शायद ही कुछ बचा रहता। रही व्यक्तिगत नाम और यश की बात, सो तो आप जानते ही हैं कि गुलामों का कैसा नाम और क्या यश? फिर मास्टरों की तो इज्जत ही क्या है? आपने मुझे शिक्षा-दीक्षा देकर सब प्रकार से योग्य बनाया, क्या अब मुझे समाज के लिए नहीं दे सकते हैं? जिस समाज के हम उतने ही ऋणी हैं। यह तो एक प्रकार से त्याग भी नहीं है, विनियोग है। समाजरूपी भूमि में खाद देना है। आज हम केवल फसल काटना जानते हैं पर खेत में खाद देना भूल गए हैं अत: हमारा खेत जल्द ही अनुपजाऊ हो जाएगा। जिस समाज और धर्म की रक्षा के लिए राम ने बनवास सहा, कृष्ण ने अनेकों कष्ट उठाए, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरे, शिवाजी ने सर्वस्वार्पण कर दिया, गुरुगोविंद सिंह के छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले की दीवारों में चुने गए, क्या उसके खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओं का, झूठी आकांक्षाओं का त्याग भी नहीं कर सकते हैं? आज समाज हाथ पसारकर भीख माँगता है और यदि हम समाज की ओर से, ऐसे ही उदासीन रहे तो एक दिन वह आएगा जब हमको वे चीजें जिन्हें हम प्यार करते हैं जबरदस्ती छोड़नी पड़ेंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आप संघ की कार्यप्रणाली से पहले से परिचित होते तो आपके हृदय में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं उठती। आप यकीन रखिए कि मैं कोई ऐसा कार्य नहीं करूँगा जिससे कोई भी आपकी ओर अंगुली उठाकर देख भी सके। उलटा आपको गर्व होगा कि आपने देश और समाज के लिए अपने एक पुत्र को दे दिया है। बिना किसी दबाव के केवल कर्तव्य के खयाल से आपने मेरा लालन-पालन किया, अब क्या अंत में भावना कर्तव्य को धर दबाएगी। अब तक आपका कर्तव्य अपने परिवार तक सीमित था अब वही कर्तव्य सारे हिंदू समाज के प्रति हो गया है। यह तो केवल समय की प्रगति के साथ-साथ आपके कर्तव्य का विकास मात्र ही है। भावना के कर्तव्य सदैव ऊँचा रहता है। लोगों ने अपने इकलौते बेटों को सहर्ष सौंप दिया है फिर आपके पास एक स्थान पर तीन-तीन पुत्र हैं। क्या उनमें आप एक को भी समाज के लिए नहीं दे सकते हैं? मैं जानता हूँ कि आप 'नहीं' नहीं कहेंगे।


आप शायद सोचते होंगे कि यह क्या उपदेश लिख दिया है। न मेरी इच्छा है, न मेरा उद्देश्य ही यह है। इतना सब इसलिए लिखना पड़ा कि आप संघ से ठीक-ठीक परिचित हो जाएँ। किसी भी कार्य की भलाई-बुराई का निर्णय उसकी परिस्थितियाँ और उद्देश्य को देखकर ही तो किया जाता है। पं. श्यामनारायण मिश्र जिनके पास मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ वे स्वयं यहाँ के प्रमुख एडवोकेट हैं तथा बहुत ही माननीय (जेल जानेवाले नहीं) तथा जिम्मेदार व्यक्तियों में हैं, उनकी संरक्षता में रहते हुए मैं कोई भी गैर जिम्मेदारी का कार्य कर सकूँ यह कैसे मुमकिन है।


शेष कुशल है। कृपापत्र दीजिएगा। मेरा तो खयाल है कि देवी का एलोपैथिक इलाज बंद करवाकर होमियोपैथिक इलाज करवाइए। यदि आप देवी का पूरा वृत्त और बीमारी तथा संपूर्ण लक्षण भेजें तो यहाँ पर बहुत ही मशहूर होमियोपैथ हैं, उनसे पूछकर दवा लिख भेजूँगा। होमियोपैथ इलाज की यदि दवा लग गई तो बिना खतरे के इस प्रकार ठीक हो सकता। भाई साहब व भाभीजी को नमस्ते, देवी व महादेवी को स्नेह। पत्रोत्तर दीजिएगा। भाई साहब तो कभी पत्र लिखते ही नहीं।


आपका भांजा


( दीना )


(क्रमशः)


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Wednesday, February 10, 2021

हिंसक दौर में अहिंसा की बात करने वाले महात्मा गाँधी

 हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३४)


(गतांक से आगे)

महात्मा गाँधीजी  १९१५ में भारत आए और १९४९ तक सक्रिय रहे। इन ३४ वर्षों की बात करें  तो जब गाँधीजी भारत आए उस समय प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था। उनकी सक्रियता के दिनों में ही द्वितीय विश्व युद्ध हुआ । रुसी क्रांति भी इसी दौर की है। इन अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम का भारत के जनमानस पर असर पङना स्वाभाविक है। अंग्रेजों ने भी जलियाँवाला बाग जैसे तरीके अपनाए। देश में कई जगहों पर आजादी के आंदोलन को दबाने के लिए जलियाँवाला बाग की तरह गोलीकांड हुए। 

हिंसा के इस दौर में महात्मा गाँधीजी अहिंसा की बात करते थे। गाँधीजी के अहिंसा के प्रयोग चम्पारण सहित कुछ स्थानों पर सफल भी हुए थे। 

१९२० में असहयोग आंदोलन की घोषणा से देश के युवा गाँधीजी से जुड़े लेकिन चौरी चौरा कांड के बाद आंदोलन वापस लेने से युवा नाराज हो गए। अशफाक उल्ला खाँ और रामप्रसाद बिस्मिल दोनों ने असहयोग आंदोलन तक गाँधीजी के समर्थक थे। लेकिन आंदोलन की वापसी के बाद उनकी राह बदल गई।

 भगत सिंह का मामला तो खासा चर्चित है। ऐसा माना जाता है कि गाँधीजी चाहते तो भगत सिंह की फाँसी रोक सकते थे। सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष बनने से रोकने फिर उसके बाद सुभाष का कांग्रेस से अलग होना, फारवर्ड ब्लाक और आजाद हिंद फौज का गठन।

यानी एक धारा गाँधीजी की अहिंसा का था और दूसरा हिंसा का।

इसके अलावा गाँधीजी और कांग्रेस के आंदोलनों से भी हर बार सभी सहमत रहे हों ऐसा नहीं है। बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, मुहम्मद अली जिन्ना और एनी बेसेंट ने असहयोग आंदोलन का विरोध किया था। जिन्ना ने  खिलाफत आंदोलन का भी विरोध किया था। असहयोग आंदोलन के विरोध के कारण जिन्ना को कांग्रेस अधिवेशन में विरोध का सामना करना पङा था। यही से जिन्ना की दिशा बदली।


लेकिन एक बात तय है कि जिन्ना  (परोक्ष रूप से अंग्रेज भी) गाँधीजी को हिंदुओं का नेता मानते थे, जबकि गाँधीजी अखण्ड भारत और यहाँ रहने वाले हर नागरिक की बात करते थे।

पूना समझौते के दौरान गाँधीजी इस बात का जिक्र करते हैं कि मुसलमानों को  प्रथक निर्वाचन से देश के विभाजन का खतरा बढ़ गया है। यदि अजा / जजा को भी यह अधिकार मिल गया तो हिंदू समाज बंट जाएगा और देश न जाने कितने टुकड़ों में टूटेगा।

हम जिस दौर की बात कर रहे हैं तब देश का सांप्रदायिक माहौल बिगङा हुआ था। छोटी - छोटी बातों पर दंगे होना  मामूली बात थी। मुस्लिम लीग और अंग्रेज मुसलमानों को  भङका रहे थे। लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन से मुसलमानों को भी जोङे रखने के लिए ही उनका रूख कुछ अधिक नर्म होता था।  

गाँधीजी पूरे देश को जोड़ कर रखना चाहते थे। लेकिन १९४६ के चुनाव परिणाम  ने साबित कर दिया था कि मुसलमान अलग देश चाहते हैं । गाँधीजी ने जिन्ना को समझाने की नाकाम कोशिश की। जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन तो गृह युद्ध के ऐलान जैसा ही था।इन विपरीत परिस्थितियों में भी हिंदुओं को भरोसा था कि गाँधीजी विभाजन रुकवा देंगे ।

गाँधीजी ने कहा विभाजन मेरी लाश पर होगा। लेकिन विभाजन हो गया और हिंदुओं को लगा जैसे उनके साथ धोखा हो गया।जब विभाजन हो गया तब भी गाँधीजी इस विभाजन को मन से स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। १५ अगस्त १९४७ को वे आजादी के समारोह में शामिल नहीं हुए । वे शांति कायम रखने की कोशिश करने के साथ  दोनों देशों के बीच ऐसे संबंध की उम्मीद कर रहे थे जिसमें आने जाने के लिए पासपोर्ट और वीजा की जरुरत ना हो।

जिस तरह से कत्ले आम चल रहा था उस दौर में गाँधीजी की यह सब बातें भावुक लोगों को कोरा आदर्शवाद भी लग सकती है। इन बातों ने उनके प्रति गुस्से को और बढ़ाया। क्या यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि अदालत में गोडसे के बयान वाले दिन भारी भीड़ जमा थी और बयान सुनकर सबकी आँखें नम हो गईं । सोचिए १० फरवरी १९४९ को गोडसे को फाँसी की सजा सुनाते हुए जस्टिस जीडी खोसला ने  लिखा कि .."मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि यदि उस दिन अदालत में उपस्थित दर्शकों को संगठित कर ज्यूरी बना दिया जाता. इसके साथ ही उन्हें नाथूराम गोडसे पर फैसला सुनाने को कहा जाता, तो भारी बहुमत के आधार पर गोडसे 'निर्दोष' (Not Guilty) करार दिया जाता.।"

(क्रमशः)