Monday, September 28, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (१४)

(गतांक से आगे)

हिंदुत्व से लिए महात्मा गाँधी ने 11 व्रत

आम तौर पर हम महात्मा गाँधी को केवल अहिंसा के पुजारी के रूप में ही याद करते हैं। कुछ अधिक बोलने की बारी आती है तो सत्य और अहिंसा कह कर अपने आपको धन्य मान लेते हैं। या कुछ लोग गाँधीजी के तीन बंदर बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो की बात करते हैं। लेकिन गाँधीजी का दर्शन केवल इतना ही भर नहीं था।

मैंने अपने अध्ययन में जो समझा उससे लगता है कि गाँधीजी की पूरी राजनीति भारत की अध्यात्मिक चेतना का सार्वजनिक जीवन में उपयोग का उदाहरण है। आप विचार कीजिए, आश्रम में रहने के लिए उन्होंने 11 व्रत तय किए थे, वह उन्होंने कहां से लिए थे? फेसबुक जैसे माध्यम पर इन 11 व्रत को विस्तार से लिखने के लिए शायद 11 पोस्ट भी कम पढ़ जाएं और मैं अपने मूल विषय से भटक ही जाऊं। केवल उनको एक-एक लाइन में परिभाषित करने का प्रयास कर रहा हूँ।

1) अहिंसा – किसी के प्रति बुरे विचार लाना और क्रोध करना भी हिंसा है

2) सत्य – सत्य ही परमेश्वर है

3) अस्तेय – अपनी जरूरत से अधिक लेना भी एक प्रकार का अस्तेय (चोरी) है

4) ब्रह्मचर्य – ब्रह्म की खोज का आचरण ही ब्रह्मचर्य है

5) अपरिग्रह – जिस वस्तु की जरूरत न हो उसका संग्रह न करना

6) शरीर – श्रम: - जो श्रम नहीं करता उसे भोजन करने का अधिकार नहीं है

7) अस्वाद – खान- पान पर संयम

8) अभय – भय से मुक्ति

9) सर्व- धर्म समभाव- सभी पूजा पद्धतियों का सम्मान

10) स्वदेशी – अपने आसपास के लोगों की सेवा का भाव ही स्वदेशी का मूल भाव है। स्वदेशी और स्थानीय वस्तुओं का उपयोग उसका केवल प्रतीक मात्र है

11) स्पर्श भावना – छुआछूत का भेद नहीं रखना
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उनका प्रिय भजन- ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीड़ पराई जाने रे… आश्रम में गाँधीजी के जीवन के बारे में पढ़ने पर पता लगता है कि उन्होंने इस भजन को पूरी तरह आत्मसात कर लिया था। हर छोटे से छोटे व्यक्ति की परेशानी का वे ध्यान रखते थे और उसे स्वयं ही हल करते थे। गौ शाला में रहने वाले् बालक के लिए उन्होंने बा की पुरानी साड़ियों से गद्दा बनाया था। ऐसे और भी किस्से पढ़ने को मिल जाते हैं। मुझे तो इनको पढ़ कर यही लगता है कि महात्मा गाँधी ने भारत की आजादी की लड़ाई के लिए भारतीय यानी हिंदू संस्कृति के ज्ञान का उपयोग किया। गाँधीजी की अहिंसा भयग्रस्त नहीं बल्कि भय से मुक्ति की अहिंसा थी। गाँधीजी ने अनेक अवसरों पर यह उल्लेख किया कि वे स्वयं हिंदू हैं। हिंदू धर्म की परंपराओं में उनका वि‌श्वास है। हिंदू धर्म किसी एक ईश्वर या किसी एक पूजा पद्धति को नहीं मानता। यही वजह है कि हिंदू सर्व धर्म समभाव में भरोसा करता है। पूर्व की एक कड़ी में यह भी स्पष्ट हो चुका है कि गाँधीजी धर्मांतरण के विरोधी थे।

(क्रमश:)





Saturday, September 26, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (१३)

 


(गतांक से आगे)

जैन मुनि के समक्ष प्रतिज्ञा लेने के बाद ही मॉं ने विदेश जाने दिया


जब मोहनदास करमचंद गाँधी ने अपनी माता पुतलीबाई से विदेश जाने की अनुमति माँगी तब उनकी माँ ने मना कर दिया, क्योंकि माँ को आशंका थी, कि वे विदेश जाकर माँस आदि का भक्षण करने न लग जाये। उस समय एक जैन मुनि बेचरजी स्वामी के समक्ष गाँधीजी द्वारा तीन प्रतिज्ञा ( माँस, मदिरा का सेवन न करने व परस्त्री के समीप न जाने) लेने पर माँ ने विदेश जाने की अनुमति दी। इस तथ्य को उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’  में लिखा है।


स्पष्ट है कि गाँधीजी का परिवार जैन मत के संतों के संपर्क में था और उनके प्रति परिवार में एक विश्वास व आस्था का भाव था। गाँधीजी का आगे का संस्मरण तो इस बात की पुष्टि करता है कि युवा मोहनदास को धर्म परिवर्तन करके ईसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण करने से रोकने वाले भी एक जैन संत ही थे। श्रीमद् राजचंद्र जिन्हें गुजराती में महात्मा नो महात्मा (महात्मा के महात्मा यानी गाँधीजी के महात्मा) कहा जाता है, वास्तव में जैन संत थे। वे उम्र में गॉंधी जी से दो वर्ष बढ़े थे। गॉंधीजी ने लिखा है कि उनके आध्यात्मिक जीवन पर जिन लोगों ने सबसे अधिक प्रभाव डाला है उनमें श्रीमद् राजचंद्र अग्रणी थे। जिन्हें गाँधीजी रायचंद भाई कहते थे।


महात्मा गाँधी ने लिखा है- ‘जिस समय मेरे मन में हिंदू धर्म के बारे में शंका उत्पन्न हो गई थी, उस समय उसके निवारण में मदद देने वाले रायचंद भाई ही थे. 1893 में दक्षिण अफ्रीका में मैं कुछ ईसाई सज्जनों के संपर्क में आया. उनका जीवन निर्मल था. वे धर्मपरायण थे. अन्य धर्मावलंबियों को ईसाई बनने के लिए समझाना उनका मुख्य कार्य था. हालांकि उनसे मेरा संपर्क व्यावहारिक कार्य को लेकर ही हुआ था, फिर भी वे मेरे आत्मिक कल्याण की चिंता में लग गए. इससे मैं अपना एक कर्तव्य समझ सका. मुझे यह प्रतीति हो गई कि जब तक मैं हिन्दू धर्म के रहस्य को पूरी तरह नहीं समझ लेता और मेरी आत्मा को उससे संतोष नहीं होता, तब तक मुझे अपने जन्म का धर्म नहीं छोड़ना चाहिए. इसलिए मैंने हिन्दू और अन्य धर्म-पुस्तकों को पढ़ना आरंभ किया. ईसाइयों और मुसलमानों के धर्मग्रन्थों को पढ़ा. लन्दन में बने अपने अंग्रेज मित्रों के साथ पत्र-व्यवहार किया. उनके सामने अपनी शंकाओं को रखा. उसी तरह हिन्दुस्तान में भी जिन लोगों पर मेरी थोड़ी बहुत आस्था थी उनके साथ भी मैंने पत्र-व्यवहार किया. इनमें रायचन्दभाई मुख्य थे. उनके साथ तो मेरे अच्छे संबंध स्थापित हो चुके थे. उनके प्रति मेरे मन में आदरभाव था. इसलिए उनसे जो मिल सके उसे प्राप्त करने का विचार किया. उसका परिणाम यह हुआ कि मुझे शांति मिली. मन को ऐसा विश्वास हुआ कि मुझे जो चाहिए वह हिन्दू धर्म में है. इस स्थिति का श्रेय रायचन्द भाई को था; इसलिए पाठक स्वयं इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि उनके प्रति मेरा आदरभाव कितना नहीं बढ़ा होगा.’

कुल मिलाकर जैन दर्शन का महात्मा गांधी के जीवन में गहरा प्रभाव था। उनके राजनीतिक और अध्यात्मिक जीवन में यह स्पष्ट झलकता भी है। 

(क्रमश:)

Friday, September 25, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (१२)

 (गतांक से आगे)

महात्मा गाँधी संकीर्ण विचारों वाले हिंदू नहीं थे


महात्मा गाँधीजी के विचारों को जानने के बाद हमें पता लगता है कि वे एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनका बचपन एक धार्मिक वातावरण में बीता। लेकिन महात्मा गॉंधी का हिंदू धर्म कोई संकीर्ण विचारों वाला हिंदू धर्म नहीं था। उनका हिंदू धर्म इस देश की प्राचीन संस्कृति और विविधता में एकता वाला हिंदू धर्म था। उन्होंने बौद्ध और जैन धर्मों का भी अध्ययन किया और उसे अपने जीवन में उतारा। पहले बात करते हैं बौद्ध धर्म की।


महात्मा गाँधी मानते थे कि भगवान गौतम बुद्ध ने वेदों की शिक्षाओं से लोगों को परिचित कराया। बौद्ध धर्म के संबंध में गाँधीजी के भाषण और लेख बताते हैं कि वे भी बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म का ही अंग मानते थे।15 नवंबर 1927 को श्रीलंका के बौद्धों को संबोधित करते हुए गाँधीजी ने कहा था- ‘मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि बौद्ध-धर्म या कहिए कि बुद्ध की शिक्षाएं हिंदुस्तान में पूरी तरह फलीभूत हुईं. और इसके सिवा दूसरा कुछ हो भी नहीं सकता था, क्योंकि गौतम स्वयं हिंदुओं में श्रेष्ठ हिंदू थे. उनकी नस-नस में हिंदू धर्म की सभी खूबियां भरी पड़ी थीं. वेदों में दबी हुईं कुछ शिक्षाओं में, जिनके सार को भुलाकर लोगों ने छाया को ग्रहण कर रखा था, उन्होंने जान डाल दी. उनकी महान हिंदू भावना ने निरर्थक शब्दों के जंजाल में दबे हुए वेदों के अनमोल सत्यों को जाहिर किया. उन्होंने वेदों के शब्दों से ऐसे अर्थ निकाले, जिनसे उस युग के लोग बिल्कुल अपरिचित थे और उन्हें हिन्दुस्तान में इसके लिए सबसे अनुकूल वातावरण मिला.’


उन्होंने यह भी कहा - ‘गहरे विचार के बाद मेरी यह धारणा बनी है कि बुद्ध की शिक्षाओं के प्रमुख अंग आज हिंदू धर्म के अभिन्न अंग हो गए हैं. गौतम ने हिंदू धर्म में जो सुधार किए, उनसे पीछे हटना आज भारत के हिंदू समाज के लिए असंभव है. अपने महान त्याग-वैराग्य, अपने जीवन की निर्मल पवित्रता से गौतम बुद्ध ने हिंदू धर्म पर अमिट छाप डाली है और हिंदू धर्म उस महान शिक्षक से कभी उऋण नहीं हो सकता.’


‘मैंने यह बात अनगिनत बार सुनी है और बौद्ध धर्म की भावना को प्रकट करने का दावा करनेवाली किताबों में पढ़ी है कि बुद्ध ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे. मेरी नम्र सम्मति में बुद्ध की शिक्षाओं की मुख्य बात के यह बिल्कुल विरुद्ध है. मेरी नम्र सम्मति में यह भ्रान्ति इस  बात से फैली कि बुद्ध ने अपने जमाने में ईश्वर के नाम पर चलने वाली सभी बुरी चीजों को अस्वीकार कर दिया था और यह उचित ही किया था. उन्होंने बेशक इस धारणा को अस्वीकार किया कि जिसे ईश्वर कहते हैं, उसमें द्वेष-भाव होता है, वह अपने कामों के लिए पछताता है, वह पृथ्वी के राजाओं की तरह लोभ और घूस का शिकार हो सकता है, या वह कुछ व्यक्तियों पर विशेष कृपालु हो सकता है...’


यंग इंडिया में 24 नवंबर, 1927 को गाँधीजी लिखते हैं -


 ‘…बुद्ध संपूर्ण आत्मा इस विश्वास के साथ विद्रोह कर उठी कि जिसे ईश्वर कहते हैं, वह अपनी तुष्टि के लिए अपने ही रचे हुए पशुओं के खून की आवश्यकता महसूस करता है. इसलिए उन्होंने परमात्मा को उसके सच्चे आसन पर पुनः प्रतिष्ठित किया और उस पवित्र सिंहासन पर बैठे हुए लुटेरे को हटा दिया. उन्होंने यह बात जोर देकर समझाई और इस सत्य की एक बार फिर से घोषणा की कि यह संसार कुछ शाश्वत और अटल नैतिक नियमों शासित है. उन्होंने बिना किसी हिचक के कहा है कि यह नियम ही परमात्मा है.’


1938 में  बर्मा में बौद्धों और मुसलमानों के बीच भयंकर दंगे छिड़े थे. उन्होंने 20 अगस्त, 1938 को ‘हरिजन’ में लिखा- ‘भगवान बुद्ध पर मुझे अत्यंत श्रद्धा है. वे शांति के महानतम उपदेशकों में से हैं. बुद्ध का संदेश प्रेम का संदेश है. यह बात मेरे समझ में नहीं आती कि उस धर्म के अनुयायी भी कैसे एकदम बर्बर बन सकते हैं और वह भी जाहिरा तौर पर एक बहुत ही मामूली वजह से. अखबारों की खबरें अगर सही हैं तो यह और भी अफसोस की बात है कि बुद्ध के संदेश के मुख्य प्रचारक और प्रतिपादक, पुरोहित लोग खुद भी उपद्रवियों के बीच देखे गए— और देखे गए उपद्रवियों के शांत करते हुए नहीं।

(क्रमशः )

Thursday, September 24, 2020

हिंदुत्व और गॉंधीजी का राम राज्य (११)

 (गतांक से आगे)

मेरे लिए बिना धर्म के कोई राजनीति नहीं है : महात्मा गाँधी


‘मेरे लिए बिना धर्म के कोई राजनीति नहीं है, पाखण्ड और अंध विश्वास धर्म नहीं होता। धर्म वह है जो बुराई से लड़ता और घृणा करता है। लेकिन सहनशीलता ही सार्वभौम धर्म है। बिना नैतिकता के राजनीति एक त्याज्य वस्तु है।’ 

महात्मा गाँंधी के यह शब्द धर्म, राजनीति और राजनीति में धर्म का महत्व तीनों को एक साथ स्पष्ट कर देते हैं। गाँधीजी की हर सभा की शुरुआत प्रार्थना से होती थी। वे मानते थे कि प्रार्थना ही शांति व्यवस्था और लोगों में विश्वास जगा सकती है।’

धर्म और राजनीति के संबंध में गाँधीजी द्वारा लिखे गए लेख और विभिन्न महापुरुषों के साथ उनकी हुई चर्चा के अंश आदि पढ़ने पर मन में विचार आता है कि  जब महात्मा गाँधी धर्म आधारित राजनीति करते थे, फिर यह देश धर्म निरपेक्ष कैसे हो गया?  यह गॉंधीजी ही हैं जिन्होंने अपने दक्षिण अफ्रीकी सहयोगी पोलक से एक बार कहा कि ‘ बहुत से धार्मिक मनुष्य जिनसे मैं मिला हूं, भेष बदले हुए राजनीतिज्ञ हैं, लेकिन मैं तो राजनीतिज्ञ का जामा पहने हूँ, ह्रदय से एक धार्मिक व्यक्ति हूँ।’ गाँधीजी के विचारों को पढ़ने पर महसूस होता है कि उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले की तरह राजनीति के अध्यात्मिकरण की कोशिश की।  लेकिन बाद में उनके नाम पर देश को भ्रमित करने वालों का गिरोह इकट्‌ठा हो गया।

30 नवंबर 1940 को नवजीवन में गाँधीजी बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं - ‘मैं देश की आंखों में धूल न झोंकूंगा। मेरे नजदीक धर्म विहीन राजनीति कोई चीज नहीं है। धर्म के मानी वहमों और गतानुगतिकत्व का धर्म नहीं, द्वेष करने वाला और लड़ने वाला धर्म नहीं, बल्कि विश्वव्यापी सहिष्णुता का धर्म, नीतिशून्य राजनीति सर्वथा त्याज्य है।’ उन्होंने यह भी कहा -‘मेरे लिए धर्म से विरहित कोई राजनीति नहीं है। नैतिकता विहीन राजनीति से बचना चाहिए।’ यह भी गाँधी जी के ही शब्द हैं - ‘ मेरे लिए धर्म से पृथक कोई राजनीति नहीं है, राजनीति धर्म की अनुगामिनी है। धर्म से शू्न्य राजनीति मृत्यु का एक जाल है। क्योंकि उससे आत्मा का हनन होता है।’

उन्होंने कहा ‘यदि मैं आज राजनीति में हिस्सा लेता हुआ दिखाई पड़ता हूं तो इसका एकमात्र कारण यही है कि राजनीति हमें वर्तमान समय में सांप की तरह चारों ओर से लपेटे हुए है। जिसके चंगुल से हम कितनी ही कोशिश क्योंं न करें, नहीं निकल सकते। मैं उस सॉंप से द्वंद्व युद्ध करना चाहता हूं, इसलिए मैं राजनीति में धर्म को लाना चाहता हूँ।’

उन्होंने अनेक अवसरों पर यह कहा कि सिद्धांतहीन राजनीति मौत के फंदे के समान है, जो राष्ट्र की आत्मा को ही मार डालती है। वे कहा करते थे कि मेरे अंदर के राजनेता को मैं कभी भी अपने निर्णयों पर हावी होने का मौका नहीं देता हूँ । यदि मैं राजनीति में भाग लेता नजर आ रहा हूं तो सिर्फ इसलिए, क्योंकि आज राजनीति ने सांप की कुंडली की तरह हमें जकड़ लिया है, जिससे कोई कितनी भी कोशिश कर ले, बचकर नहीं निकल सकता। इसीलिए मैं इस सांप से लड़ना चाहता हूं। उन्होंने यह भी महसूस किया कि इस सांप से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका है वास्तविक धर्म के उच्च आदर्शो को विकसित करना।  जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है वे यही नहीं जानते हैं कि धर्म का असली अर्थ क्या है?

(क्रमश:)

Saturday, September 19, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (१०)

(गतांक से आगे)

" हिंदू धर्म तभी तक जीवित है, जब तक गो रक्षक हिंदू मौजूद है।" 


यह शब्द किसी हिंदुवादी छवि वाले नेता के भाषण का अंश नहीं है। बल्कि ९९ साल पहले महात्मा गाँधी ने यह लिखा है। ६ अक्टूबर १९२१ को यंग इंडिया में  उन्होंने लिखा है – हिन्दू धर्म का केन्द्रीय तत्व गोरक्षा है। मैं गोरक्षा को मानव विकास की सबसे अदभुत घटना मानता हूं। यह मानव का उदात्तीकरण करती है। मेरी दृष्टि में गाय का अर्थ समस्त अवमानवीय जगत है। गाय के माध्यम से मनुष्य समस्त जीवजगत के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करता है। गाय को इसके लिए क्यों चुना गया, इसका कारण स्पष्ट है। भारत में गाय मनुष्य की सबसे अच्छी साथिन थी। उसे कामधेनु कहा गया। वह केवल दूध ही नहीं देती थी, बल्कि उसी के बदौलत कृषि संभव हो पाई। ” इसी अंक में उन्होंने लिखा है " गो रक्षा विश्व को हिन्दू धर्म की देन है। हिन्दू धर्म तब तक जीवित रहेगा जब तक गोरक्षक हिन्दू मौजूद है। ” इसी लेख में उन्होंने लिखा  “ हिन्दुओं की परख उनके तिलक, मंत्रों के शुद्ध उच्चारण, तीर्थयात्राओं तथा जात -पात के नियमों के अत्यौपचारिक पालन से नहीं की जाएगी, बल्कि गाय की रक्षा करने की उनकी योग्यता के आधार पर की जाएगी। ” 

उन्होंने १९२१  में ६ नवम्बर को   यंग इंडिया पत्रिका में लिखा “ गाय करुणा का काव्य है। यह सौम्य पशु मूर्तिमान करुणा है। वह करोड़ों भारतीयों की मां है। गौ रक्षा का अर्थ है ईश्वर की समस्त मूक सृष्टि की रक्षा। प्राचीन ऋषि ने, वह जो भी रहा हो, आरंभ गाय से किया। सृष्टि के निम्नतम प्राणियों की रक्षा का प्रश्न और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ईश्वर ने उन्हें वाणी नहीं दी है। ” 

यंग इंडिया में ही २६ जून १९२४ को गांधी जी ने लिखा – “ गाय अवमानवीय सृष्टि का पवित्रतम रुप है। वह प्राणियों में सबसे समर्थ अर्थात मनुष्यों के हाथों न्याय पाने के वास्ते सभी अवमानवीय जीवों की ओर से हमें गुहार करती है। वह अपनी आंखों की भाषा में हमसे यह कहती प्रतीत होती है : ईश्वर ने तुम्हें हमारा स्वामी इसलिए नहीं बनाया है कि तुम हमें मार डालो, हमारा मांस खाओ अथवा किसी अन्य प्रकार से हमारे साथ दुर्वव्यहार करो, बल्कि इसलिए बनाया है कि तुम हमारे मित्र तथा संरक्षक बन कर रहो।” 

१९२५  में १ जनवरी  को यंग इंडिया में उन्होंने लिखा है – “ मैं गाय की पूजा करता हूं और उसकी पूजा का समर्थन करने के लिए दुनिया का मुकाबला करने को तैयार हूं। ” 

२९ जनवरी १९२५ को यंग इंडिया में उन्होंने लिखा है – “ मेरी आकांक्षा है कि गौ रक्षा के सिद्धांत की मान्यता संपूर्ण विश्व में हो। पर इसके लिए यह आवश्यक है पहले भारत में गौवंश की दुर्गति समाप्त हो और उसे उचित स्थान मिले ” 

आगे चलिए १५ सितंबर १९४० को " हरिजन"  में गाँधीजी  लिखते हैं – “ गोमाता जन्म देने वाली माता से श्रेष्ठ है। हमारी माता हमें दो वर्ष दुग्धपान कराती है और यह आशा करती है कि हम बडे होकर उसकी सेवा करेंगे। गाय हमसे चारे और दाने के अलावा किसी और चीज की आशा नहीं करती। हमारी मां प्राय: रुग्ण हो जाती है और हमसे सेवा करने की अपेक्षा करती है। गोमाता शायद ही कभी बीमार पडती है। गोमाता हमारी सेवा आजीवन ही नहीं करती, अपितु अपनी मृत्यु के उपरांत भी करती है। अपनी मां की मृत्यु होने पर हमें दफनाने या उसका दाह संस्कार करने पर भी धनराशि व्यय करनी पडती है। गोमाता मर जाने पर भी उतनी ही उपयोगी सिद्ध होती है जितनी अपने जीवन काल में थी। हम उसके शरीर के हर अंग – मांस, अस्थियां. आंतें, सींग और चर्म का इस्तमाल कर सकते हैं। ये बात हमें जन्म देने वाली मां की निंदा के विचार से नहीं कह रहा हूं बल्कि यह दिखाने के लिए कह रहा हूं कि मैं गाय की पूजा क्यों करता हूं। ”


देश की आजादी के १५ दिन बाद ३१ अगस्त १९४७ को गाँधीजी " हरिजन" में गौ रक्षा पर चिंता जताते हुए  लिखते हैं – “ जहां तक गौरक्षा की शुद्ध आर्थिक आवश्यकता का प्रश्न है, यदि इस पर केवल इसी दृष्टि से विचार किया जाए तो इसका हल आसान है। तब तो बिना कोई विचार किये उन सभी पशुओं को मार देना चाहिए जिनका दूध सूख गया है या जिन पर आने वाले खर्च की तुलना में उनसे मिलने वाले दूध की कीमत कम है या जो बूढे और नाकारा हो गए हैं। लेकिन इस हृदयहीन व्यवस्था के लिए भारत में कोई स्थान नहीं है , यद्यपि विरोधाभासों की इस भूमि के निवासी वस्तुत: अनेक हृदयहीन कृत्यों के दोषी हैं।"


आखिरी लाइन पर गौर कीजिए, सोचिए आजादी के बाद यह शब्द लिखने से पहले स्वयं गाँधीजी की मनःस्थिति क्या रही होगी ? 


(क्रमशः)

Wednesday, September 16, 2020

हिंदुत्व और गॉंधी का राम राज्य (९)

गंगाजी के प्रति श्रृद्धा लेकिन प्रदूषण और गंदगी से दुखी थे गॉंधी

गतांक से आगे)




भगवद्गीता की तरह गंगाजी के प्रति भी आम हिंदुओं की तरह गंगाजी के प्रति श्रृद्धा का भाव रखते थे। साथ ही वे 1902 में यानी आज से 118 साल पहले गंगाजी में मिल रही गंदगी से दुखी थे। सोचिए इन 118 वर्षों में तो गंगाजी को हमने और मेला ही किया है।

गोपाल कृष्ण गोखले की देश भ्रमण की सलाह पर गाँधीजी 21-22 फरबरी 1902 को कलकत्ता से राजकोट को रवाना हुए तो रास्ते में काशी, आगरा, जयपुर और पालनपुर में भी एक-एक दिन रुके। इसके अलावा 5 अप्रैल 1915 को जब वह हरिद्वार पहुंचे तो उस समय वहां कुम्भ का मेला चल रहा था। 

उन्होंने अपनी डायरी में लिखा -  ‘ सुबह मैं काशी उतरा। मैं किसी पण्डे के यहां उतरना चाहता था। कई ब्राह्मणों ने मुझे घेर लिया। उनमें से जो साफ सुथरा दिखाई दिया मैंने उसके घर जाना पसन्द किया। मैं यथा विधि गंगा स्नान करना चाहता था और तब तक निराहार रहना था। पण्डे ने सारी तैयारी कर रखी थी। मैंने पहले ही कह रखा था कि सवा रुपये से अधिक दक्षिणा नहीं दे सकूंगा।इसलिये उसी योग्य तैयारी करना। पण्डे ने बिना किसी झगड़े के बात मान ली। बारह बजे तक पूजा स्नान से निवृत्त हो कर मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करने गया। पर वहां पर जो कुछ देखा मन को बड़ा दुख हुआ। मंदिर पर पहुंचते ही मैंने देखा कि दरवाजे के सामने सड़े हुए फूल पड़े हुए थे और उनमें से दुर्गधं निकल रही थी। अन्दर बढ़िया संगमरमरी फर्श था। उस पर किसी अन्ध श्रद्धालु ने रुपए जड़ रखे थे; रुपए में मैल कचरा घुसा रहता है।" गाँधीजी अपनी डायरी में एक जगह आगे लिखते हैं कि, मैं इसके बाद भी एक दो बार काशी विश्वनाथ गया, किन्तु गन्दगी और हो-हल्ला जैसे के तैसे ही वहां देखे''।

हरिद्वार जैसे धर्मस्थलों के बारे में गाँधीजी ने डायरी में लिखा है कि “निसंदेह यह सच है कि हरिद्वार और दूसरे प्रसिद्ध तीर्थस्थान एक समय वस्तुतः पवित्र थे। लेकिन मुझे कबूल करना पड़ता है कि हिन्दू धर्म के प्रति मेरे हृदय में गंभीर श्रद्धा और प्राचीन सभ्यता के लिये स्वाभाविक आदर होते हुये भी हरिद्वार में इच्छा रहने पर भी मनुष्यकृत ऐसी एक भी वस्तु नहीं देख सका, जो मुझे मुग्ध कर सकती। पहली बार जब 1915 में मैं हरद्वार गया था, तब भारत-सेवक संघ समिति के कप्तान पं. हृदयनाथ कुंजरू के अधीन एक स्वयंसेवक बन कर पहुंचा था। इस कारण मैं सहज ही बहुतेरी बातें आखों से देख सका था।  लेकिन जहां एक ओर गंगा की निर्मल धारा ने और हिमाचल के पवित्र पर्वत-शिखरों ने मुझे मोह लिया, वहां दूसरी ओर मनुष्य की करतूतों को देख मेरे हृदय को सख्त चोट पहुंची और हरद्वार की नैतिक तथा भौतिक मलिनता को देख कर मुझे अत्यंत दुख हुआ।  गाँधीजी ने डायरी में लिखा है कि ‘‘ऋषिकेश और लक्ष्मण झूले के प्राकृतिक दृष्य मुझे बहुत पसंद आए। परन्तु दूसरी ओर मनुष्य की कृति को वहां देख चित्त को शांति न हुई। हरिद्वार की तरह ऋषिकेश में भी लोग रास्तों को और गंगा के सुन्दर किनारों को गन्दा कर डालते थे। गंगा के पवित्र पानी को बिगाड़ते हुए उन्हें कुछ संकोच न होता था। दिशा-जंगल जाने वाले आम जगह और रास्तों पर ही बैठ जाते थे, यह देख कर मेरे चित्त को बड़ी चोट पहुंची”

नदी किनारे खुले में शौच प रगाँधीजीजी ने लिखा है कि ‘ इस बार की यात्रा में भी मैंने हरद्वार की इस दशा में कोई ज्यादा सुधार नहीं पाया। पहले की भांति आज भी धर्म के नाम पर गंगा की भव्य और निर्मल धार गंदली की जाती है। गंगा तट पर, जहां पर ईश्वर-दर्शन के लिए ध्यान लगा कर बैठना शोभा देता है, पाखाना-पेशाब करते हुए असंख्य स्त्री-पुरुष अपनी मूढ़ता और आरोग्य के तथा धर्म के नियमों को भंग करते हैं। तमाम धर्म-शास्त्रों में नदियों की धारा, नदी-तट, आम सड़क और यातायात के दूसरे सब मार्गों को गंदा करने की मनाही है। विज्ञान शास्त्र हमें सिखाता है कि मनुष्य के मलमूत्रादि का नियमानुसार उपयोग करने से अच्छी से अच्छी खाद बनती है।’

‘यह तो हुई प्रमाद और अज्ञान के कारण फैलने वाली गंदगी की बात। धर्म के नाम पर जो गंगा-जल बिगाड़ा जाता है, सो तो जुदा ही है। विधिवत् पूजा करने के लिए मैं हरद्वार में एक नियत स्थान पर ले जाया गया। जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझ कर पीते हैं उसमें फूल, सूत, गुलाल, चावल, पंचामृत वगैरा चीजें डाली गईं। जब मैंने इसका विरोध किया तो उत्तर मिला कि यह तो सनातन् से चली आयी एक प्रथा है। इसके सिवा मैंने यह भी सुना कि शहर के गटरों का गंदला पानी भी नदी में ही बहा दिया जाता है, जो कि एक बड़े से बड़ा अपराध है।’


(क्रमशः)

Tuesday, September 15, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (८)

 महात्मा गाँधी भगवद्गीता को अपनी माँ मानते थे

(गतांक से आगे)


हिंदुत्व की बात हो और गौ, गीता और गंगा की बात न हो तो बात अधूरी है। शुरुआत भगवद्गीता से करते हैं ।महात्मा गाँधी ने भगवद्गीता का न केवल अध्ययन किया बल्कि अपने जीवन में उसे उतारा भी। वे विद्यार्थियों को भी गीताजी के अध्ययन के लिए कहते थे। अपनी आत्म कथा - "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" में गाँधीजी ने जिक्र किया है कि विलायत में रहते हुए उनकी भेंट दो थियोसफिस्ट भाइयों से हुई जो गीता का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ रहे थे। दोनों भाइयों ने उन्हें संस्कृत में गीताजी पढ़ने  को कहा। गाँधीजी लिखते हैं कि उन्हें आत्म ग्लानि हुई क्योंकि वे तो संस्कृत नहीं जानते थे। लेकिन गाँधीजी ने दोनों से कहा कि वे केवल सामान्य रूप से बता सकेंगे कि अर्थ गलत तो नहीं हो रहा।

इसी दौड़ गीताजी के कुछ  श्लोक का गाँधीजी पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने न केवल कई बार गीता का अध्ययन किया बल्कि अनेक अवसरों पर लिखा भी। 

गाँधीजी का मानना था कि जो व्यक्ति गीता का भक्त होता है वह निराश नहीं हो सकता है। वे लिखते हैं "मुझे जन्म देने वाली माता तो चली गई, लेकिन मैं संकट के समय  गीता माता के पास जाना मैं सीख गया हूँ ।"

गाँधीजी लिखते हैं कि हमें यह समझ कर गीता पढ़नी चाहिए कि हमारी देह में अंतर्यामी श्रीकृष्ण भगवान आज विराजमान हैं और अब जिज्ञासु अर्जुन रूप होकर धर्म संकट में अंतर्यामी भगवान से पूछेगा , उसकी शरण लेगा तो उस समय वह हमें शरण देने को तैयार मिलेंगे ।"

गीताजी पर महात्मा गाँधीजी के लेखों और वक्तव्य को पढ़ने के बाद यह भी स्पष्ट होता है कि सत्य और अहिंसा उन्होंने भगवद्गीता से ही ग्रहण किया था।

(क्रमशः)

Monday, September 14, 2020

हिंदुत्व और गाँधी जी का राम राज्य ( ७)

 गाँधी जी ने स्वयं झेला था धर्मांतरण का दंश

(गतांक से आगे)


जैसा मैंने पिछली कड़ी में कहा कि गाँधी जी के जीवनकाल में धर्मांतरण बहुत तेजी से हो रहा था। गाँधी जी पर भले ही धर्मांतरण समर्थक डोरे नहीं डाल सके, लेकिन उन्होंने अपने परिवार में धर्मांतरण का दंश झेला था। गाँधी जी के सबसे बड़े बेटे हरिलाल ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था। और अपना नाम अबदुल्ला गॉंधी रख लिया था।

हरिलाल के इस्लाम ग्रहण करने से गाँधी जी और उनकी पत्नी कस्तुरबा कितने दुखी थे। यह जानने के लिए महात्मा गाँधी की मुस्लिम समाज से की गई अपील और कस्तुरबा गाँधी द्वारा हरिलाल को लिखे पत्र पढ़ना होंगे। गाँधीजी ने तो साफ कहा था कि कि उनका पुत्र पैसों के लालच में मुसलमान हो गया है।

एक खास बात यह भी है कि आर्य समाज ने कुछ समय बाद हरिलाल की ‘घर वापसी’ कराई। शुद्धिकरण के वे फिर से हिंदु हो गए थे। और उनका नाम हीरालाल हो गया। फिर से हिंदू धर्म में शामिल होने पर उन्होंने जो वक्तव्य दिया वह भी पढ़ने लायक है। 

हरिलाल का प्रारंभिक जीवन

महात्मा गांधी एक समय हरिलाल पर गर्व करते थे। उन्हें लगता था कि उनका ये बेटा जिस तरह उनका साथ दे रहा है, वो लोगों में मिसाल बनेगा. दक्षिण अफ्रीका में हरिलाल पिता के साथ "सत्याग्रह" के दौरान साथ रहते थे। 1908 से 1911 के बीच वो कम से कम छह बार जेल भी गए। लेकिन बाद में ब्रिटेन जाकर बैरिस्टरी की पढ़ाई करने को लेेकर उनके अपने पिता से ऐसे मतभेद हुए कि वे परिवार से अलग हो गए। इसके बाद हरिलाल वह सब करने लग गए जिससे उनके पिता यानी महात्मा गाँधी को कष्ट हो।

1936 में इस्लाम ग्रहण

1935 में पत्र लिख कर गॉंधीजी ने उन्हें शराबी और व्याभिचारी बताया। इसके एक साल  बाद २८ मई १९३६ को नागपुर में अत्यंत गोपनीय ढंग से मुसलमान बनाये गये और उनका नाम अब्दुल्लाह गाँधी रखा गया ! २९ मई को बम्बई की जुम्मा मस्जिद में उनके मुसलमान बनने की विधिवत घोषणा की गई।  इसके पूर्व यह समाचार फैला था कि वे ईसाई होने वाले हैं। 


सार्वदेशिक पत्रिका के जुलाई १९३६ के अंक में प्रकाशित महात्मा गाँधी का वक्तव्य


बंगलौर २ जून। अपने बड़े लड़के हरिलाल गाँधी के धर्म परिवर्तन के सिलसिले में महात्मा गाँधी ने मुसलमान मित्रों के नाम एक अपील प्रकाशित की जिसका आशय निम्न हैं:- 


"पत्रों में समाचार प्रकाशित हुआ हैं कि मेरे पुत्र हरिलाल के धर्म परिवर्तन की घोषणा पर जुम्मा मस्जिद में मुस्लिम जनता ने अत्यंत हर्ष प्रकट किया हैं। यदि उसने ह्रदय से और बिना किसी सांसारिक लोभ के इस्लाम धर्म को स्वीकार किया होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। क्यूंकि मैं इस्लाम को अपने धर्म के समान ही सच्चा समझता हूँ ! किन्तु मुझे संदेह हैं कि वह धर्म परिवर्तन ह्रदय से तथा बगैर किसी सांसारिक लाभ की आशा के किया गया हैं।" 


शराब का व्यसन 


जो भी मेरे पुत्र हरिलाल से परिचित हैं वे जानते हैं कि उसे शराब और व्यभिचार की लत पड़ी हैं। कुछ समय तक वह अपने मित्रों की सहायता पर गुजारा करता रहा। उसने कुछ पठानों से भी भारी सूद पर कर्ज लिया था। अभी कुछ दिनों पूर्व की ही बात है कि बम्बई में पठान लेनदारों के कारण उसको जीवन ले लाले पड़े हुए थे। अब वह उसी शहर में सूरमा बना हुआ हैं। उसकी पत्नी अत्यंत पतिव्रता थी।वह हमेशा हरिलाल के पापों को क्षमा करती रही। उसके ३ संतान हैं, २ लड़की और एक लड़का , जिनके लालन-पालन का भार उसने बहुत पहले ही छोड़ रखा है। 


धर्म की नीलामी 


कुछ सप्ताह पूर्व ही उसने हिन्दुओं के हिन्दुत्व के विरुद्ध शिकायत करके ईसाई बनने की धमकी दी थी। पत्र की भाषा से प्रतीत होता था कि वह उसी धर्म में जायेगा जो सबसे ऊँची बोली बोलेगा। उस पत्र का वांछित असर हुआ। एक हिन्दू काउंसिलर की मदद से उसे नागपुर मुन्सीपालिटी में नौकरी मिल गई। इसके बाद उसने एक और व्यक्तव्य प्रकाशित किया और हिन्दू धर्म के प्रति पूर्ण आस्था प्रकट की। 


आर्थिक लालसा 


किन्तु घटनाक्रम से मालूम पड़ता है कि उसकी आर्थिक लालसाएँ पूरी नहीं हुई और उनको पूरा करने के लिए उसने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया है। गत अप्रैल जब मैं नागपुर में था, वह मुझ से तथा अपनी माता से मिलने आया और उसने मुझे बताया कि किस प्रकार मिशनरी उसके पीछे पड़े हुए हैं। परमात्मा चमत्कार कर सकता है। उसने पत्थर दिलों को भी बदल दिया हैं और एक क्षण में पापियों को संत बना दिया है। यदि मैं देखता कि नागपुर की मुलाकात में और हाल की शुक्रवार की घोषणा में हरिलाल में पश्चाताप की भावना का उदय हुआ है और उसके जीवन में परिवर्तन आ गया है, तथा उसने शराब तथा व्यभिचार छोड़ दिया है, तो मेरे लिए इससे अधिक प्रसन्नता की और क्या बात होती? 


जीवन में कोई परिवर्तन नहीं 


लेकिन पत्रों की ख़बरें इसकी कोई गवाही नहीं देती। उसका जीवन अब भी यथापूर्व है। यदि वास्तव में उसके जीवन में कोई परिवर्तन होता तो वह मुझे अवश्य लिखता और मेरे दिल को खुश करता। मेरे सब पुत्रों को पूर्ण विचार स्वातंत्र्य है। उन्हें सिखाया गया है कि वे सब धर्मों को इज्जत की दृष्टी से देखे। हरिलाल जानता है यदि उसने मुझे यह बताया होता कि इस्लाम धर्म से मेरे जीवन को शांति मिली है, तो में उसके रास्ते में कोई बाधा न डालता। किन्तु हम में से किसी को भी, मुझे या उसके २४ वर्षीय पुत्र को जो मेरे साथ रहता है, उसकी कोई खबर नहीं है।मुसलमानों को इस्लाम के सम्बन्ध में मेरे विचार ज्ञात हैं। कुछ मुसलमानों ने मुझे तार दिया है कि अपने लड़के की तरह मैं भी संसार के सबसे सच्चे धर्म इस्लाम को ग्रहण कर लूँ। 


गाँधी जी को चोट 


मैं मानता हूँ कि इन सब बातों से मेरे दिल को चोट पहुँचती है। मैं समझता हूँ कि जो लोग हरिलाल के धर्म के जिम्मेदार हैं वे अहितयात से काम नहीं ले रहे, जैसा कि ऐसी अवस्था में करना चाहिए। 


हरिलाल के धर्म परिवर्तन से हिंदु धर्म को कोई क्षति नहीं हुई उसका इस्लाम प्रवेश उस धर्म की कमजोरी सिद्ध होगा, यदि उसका जीवन पहिले की भांति ही बुरा रहा। धर्म परिवर्तन, मनुष्य और उसके स्रष्टा से सम्बन्ध रखता है। शुद्ध ह्रदय के बिना किया हुआ धर्म परिवर्तन मेरी सम्मति में धर्म और ईश्वर का तिरस्कार है। धार्मिक मनुष्य के लिए विशुद्ध ह्रदय से न किया हुआ धर्म परिवर्तन दुःख की वस्तु है, हर्ष की नहीं। 


मुसलमानों का कर्तव्य 


मेरा मुस्लिम मित्रों को इस प्रकार लिखने का यह अभिप्राय है कि वे हरिलाल के अतीत जीवन को ध्यान में रखे और यदि वे अनुभव करें की उसका धर्म परिवर्तन आत्मिक भावना से रहित हैं तो वे उसको अपने धर्म से बहिष्कृत कर दें, तथा इस बात को देखे की वह किसी प्रलोभन में न पड़े और इस प्रकार समाज का धर्म भीरु सदस्य बन जाये। उन्हें यह जानना चाहिये कि शराब ने उसका मस्तिष्क ख़राब कर दिया है, उसकी सदअसद विवेक की बुद्धि खोखली कर डाली है। वह अब्दुल्ला है या हरिलाल इससे मुझे कोई मतलब नहीं। यदि वह अपना नाम बदल कर ईश्वरभक्त बन जाता है, तो मुझे क्या आपत्ति है, क्यूंकि अर्थ तो दोनों नामों का वही हैं। 


हरिलाल की माँ कस्तूरबा बा ने भी अपने पुत्र के नाम यह मार्मिक पत्र लिखा 


मेरे प्रिय पुत्र हरिलाल,, 


मैंने सुना है कि तुमको मद्रास में आधी रात में पुलिस के सिपाही ने शराब के नशे में असभ्य आचरण करते देखा और गिरफ्तार कर लिया। दूसरे दिन तुमको अदालत में पेश किया गया। निस्संदेह वे भले आदमी थे, जिन्होंने तुम्हारे साथ बड़ी नरमाई का व्यवहार किया। तुमको बहुत साधारण सजा देते हुए मजिस्ट्रेट ने भी तुम्हारे पिता के प्रति आदर का भाव जाहिर किया। जबसे मैंने इस घटना का समाचार सुना है मेरा दिल बहुत दुखी है। मुझे नहीं मालूम कि तुम उस रात्रि को अकेले थे या तुम्हारे कुसाथी भी तुम्हारे साथ थे? 


कुछ भी हो, तुमने जो किया ठीक नहीं किया। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं तुम्हारे इस आचरण के बारे में क्या कहूँ? मैं वर्षों से तुमको समझाती आ रही हूँ कि तुमको अपने पर कुछ काबू रखना चाहिए। पर, तुम दिन पर दिन बिगड़ते ही जाते हो? अब तो मेरे लिए तुम्हारा आचरण इतना असह्य हो गया है कि मुझे अपना जीवन ही भार स्वरुप लगने लगा है। जरा सोचो तो तुम इस बुढ़ापे में अपने माता पिता को कितना कष्ट पहुँचा रहे हो? तुम्हारे पिता किसी को कुछ भी नहीं कहते, पर मैं जानती हूँ कि तुम्हारे आचरण से उनके ह्रदय पर कैसी चोटें लग रही हैं? उनका ह्रदय टुकड़े टुकड़े हो रहा है। तुम हमारी भावनाओं को चोट पहुँचा कर बहुत बड़ा पाप कर रहे हो। 


हमारे पुत्र होकर भी तुम दुश्मन का सा व्यवहार कर रहे हो। तुमने तो ह्या शर्म सबकी तिलांजलि दे दी है। मैंने सुना हैं कि इधर अपनी आवारा गर्दी से तुम अपने महान पिता का मजाक भी उड़ाने लग गये हो। तुम जैसे अकलमंद लड़के से यह उम्मीद नहीं थी। तुम महसूस नहीं करते कि अपने पिता की अपकीर्ति करते हुए तुम अपने आप ही जलील होते हो। उनके दिल में तुम्हारे लिए सिवा प्रेम के कुछ नहीं है। तुम्हें पता है कि वे चरित्र की शुद्धि पर कितना जोर देते हैं, लेकिन तुमने उनकी सलाह पर कभी ध्यान नहीं दिया। फिर भी उन्होंने तुम्हें अपने पास रखने, पालन पोषण करने और यहाँ तक कि तुम्हारी सेवा करने के लिए रजामंदी प्रगट की। लेकिन तुम हमेशा कृतघ्नी बने रहे। उन्हें दुनिया में और भी बहुत से काम हैं। इससे ज्यादा और तुम्हारे लिये वे क्या करे?वे अपने भाग्य को कोस लेते हैं। 


परमात्मा ने उन्हें असीम इच्छा शक्ति दी है और परमात्मा उन्हें यथेच्छ आयु दे कि वे अपने मिशन को पूरा कर सकें। लेकिन मैं तो एक कमजोर बूढ़ी औरत हूँ और यह मानसिक व्यथा बर्दाश्त नहीं होती। तुम्हारे पिता के पास रोजाना तुम्हारे व्यवहार की शिकायतें आ रही हैं ! उन्हें वह सब कड़वी घूंट पीनी पड़ती हैं। लेकिन तुमने मेरे मुँह छुपाने तक को कही भी जगह नहीं छोड़ी है। शर्म के मारे में परिचितों या अपरिचितों में उठने-बैठने लायक भी नहीं रही हूँ। तुम्हारे पिता तुम्हें हमेशा क्षमा कर देते हैं, लेकिन याद रखो, परमेश्वर तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगे। 


मद्रास में तुम एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के मेहमान थे। परन्तु तुमने उसके आतिथ्य का नाजायज फायदा उठाया और बड़े बेहूदा व्यवहार किये। इससे तुम्हारे मेजबान को कितना कष्ट हुआ होगा? प्रतिदिन सुबह उठते ही मैं काँप जाती हूँ कि पता नहीं आज के अखबार में क्या नयी खबर आयेगी? कई बार मैं सोचती हूँ कि तुम कहां रहते हो? कहां सोते हो और क्या खाते हो? शायद तुम निषिद्द भोजन भी करते हो। इन सबको सोचते हुए बैचैनी में पलकों पर रातें काट देती हूँ। कई बार मेरी इच्छा तुमको मिलने की होती है, लेकिन मुझे नहीं सूझता कि मैं तुम्हे कहा मिलूँ? तुम मेरे सबसे बड़े लड़के हो और अब पचासवे पर पहुँच रहे हो। मुझे यह भी डर लगता रहता है कि कहीं तुम मिलने पर मेरी बेइज्जति न कर दो। 


मुझे मालूम नहीं कि तुमने अपने पूर्वजों के धर्म को क्यूँ छोड़ दिया है, लेकिन सुना है तुम दुसरे भोले भाले आदमियों को अपना अनुसरण करने के लिए बहकाते फिरते हो? क्या तुम्हें अपनी कमियां नहीं मालूम? तुम 'धर्म' के विषय में जानते ही क्या हो? तुम अपनी इस मानसिक अवस्था में विवेक बुद्धि नहीं रख सकते? लोगों को इस कारण धोखा हो जाता है, क्यूंकि तुम एक महान पिता के पुत्र हो। तुम्हें धर्म उपदेश का अधिकार ही नहीं, क्यूंकि तुम तो अर्थ दास हो। जो तुम्हें पैसा देता रहे तुम उसी के रहते हो। तुम इस पैसे से शराब पीते हो और फिर प्लेटफार्म पर चढ़कर लेक्चर फटकारते हो। तुम अपने को और अपनी आत्मा को तबाह कर रहे हो। भविष्य में यदि तुम्हारी यही करतूते रही तो तुम्हे कोई कोड़ियों के भाव भी नहीं पूछेगा। इससे मैं तुम्हें सलाह देती हूँ कि जरा डरो , विचार करो और अपनी बेवकूफी से बाज आओ। 


मुझे तुम्हारा धर्म परिवर्तन बिलकुल पसंद नहीं है। लेकिन जब मैंने पत्रों में पढ़ा कि तुम अपना सुधार करना चाहते हो, तो मेरा अन्तःकरण इस बात से आल्हादित हो गया कि अब तुम ठीक जिंदगी बसर करोगे ! लेकिन तुमने तो उन सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। अभी बम्बई में तुम्हारे कुछ पुराने मित्रों और शुभ चाहने वालों ने तुम्हे पहले से भी बदतर हालत में देखा है। तुम्हें यह भी मालूम है कि तुम्हारी इन कारस्तानियों से तुम्हारे पुत्र को कितना कष्ट पहुँच रहा है। तुम्हारी लड़कियां और तुम्हारा दामाद सभी इस दुःख भार को सहने में असमर्थ हो रहे हैं, जो तुम्हारी करतूतों से उन्हें होता है। 


जिन मुसलमानों ने हरिलाल  के मुस्लमान बनने और उसकी बाद की हरकतों में रूचि दिखाई है, उनको संबोधन करते हुए कस्तूरबा बा ने लिखा - 


"आप लोगों के व्यवहार को मैं समझ नहीं सकी। मुझे तो सिर्फ उन लोगों से कहना है, जो इन दिनों मेरे पुत्र की वर्तमान गतिविधियों में तत्परता दिखा रहे हैं। मैं जानती हूँ और मुझे इससे प्रसन्नता भी है कि हमारे चिर परिचित मुसलमान मित्रों और विचारशील मुसलमानों ने इस आकस्मिक घटना की निंदा की है। आज मुझे उच्च मना डॉ अंसारी की उपस्थित का अभाव बहुत खल रहा है, वे यदि होते तो आप लोगों और मेरे पुत्र को सत्परामर्श देते, मगर उनके समान ही और भी प्रभावशाली तथा उदार मुसलमान हैं, यद्यपि उनसे मैं सुपरिचित नहीं हूँ, जोकि मुझे आशा है, तुमको उचित सलाह देंगे।मेरे लड़के के इस नाम मात्र के धर्म परिवर्तन से उसकी आदतें बद से बदतर हो गई हैं। आपको चाहिए कि आप उसको उसकी बुरी आदतों के लिए डांटे और उसको उलटे रास्ते से अलग करें। परन्तु मुझे यह बताया गया है कि आप उसे उसी उलटे मार्ग पर चलने के लिए बढ़ावा देते हैं। 


कुछ लोगों ने मेरे लड़के को"मौलवी" तक कहना शुरू कर दिया है। क्या यह उचित है? क्या आपका धर्म एक शराबी को मौलवी कहने का समर्थन करता है? मद्रास में उसके असद आचरण के बाद भी स्टेशन पर कुछ मुसलमान उसको विदाई देने आये। मुझे नहीं मालूम उसको इस प्रकार का बढ़ावा देने में आप क्या ख़ुशी महसूस करते हैं। यदि वास्तव में आप उसे अपना भाई मानते हैं, तो आप कभी भी ऐसा नहीं करेगे, जैसा कि कर रहे हैं, वह उसके लिए फायदेमंद नहीं हैं। पर यदि आप केवल हमारी फजीहत करना चाहते हैं, तो मुझे आप लोगो को कुछ भी नहीं कहना हैं। आप जितनी भी बुरे करना चाहे कर सकते हैं। लेकिन एक दुखिया और बूढ़ी माता की कमजोर आवाज़ शायद आप में से कुछ एक की अन्तरात्मा को जगा दे। मेरा यह फर्ज है कि मैं वह बात आप से भी कह दूँ जो मैं अपने पुत्र से कहती रहती हूँ। वह यह है कि परमात्मा की नज़र में तुम कोई भला काम नहीं कर रहे हो। 


अबदुल्लाह गाँधी का जीवन

अपने नये अवतार में हरिलाल ने अनेक स्थानों का दौरा किया और अपनी तकरीरों में इस्लाम और पाकिस्तान की वकालत की। कानपुर में एक सभा में भाषण देते हुए उसने यहाँ तक कहा कि '' अब मैं हरिलाल नहीं बल्कि अब्दुल्ला हूँ। मैं शराब छोड़ सकता हूँ लेकिन इसी शर्त पर कि बापू और बा दोनों इस्लाम कबूल कर लें। हरिलाल को रुपया पैसा मिलने लगा।

कस्तुरबा के कहने पर आर्य समाज ने शुरू किए प्रयास और सफलता भी मिली

हरिलाल की माँ कस्तुरबा के कहने पर आर्य समाज ने हरिलाल को समझाने बुझाने के प्रयास किए। इस बीच एक ऐसी घटना घटी जिससे हरिलाल को अपनी गलती का अहसास करा दिया। एक बार कुछ मुसलमान उन्हें एक हिन्दू मन्दिर तोड़ने के लिए ले गये और उनसे पहली चोट करने को कहा। उन्हें उकसाते हुए कहा गया कि या तो सोमनाथ के मंदिर पर मुहम्मद गोरी ने पहली चोट की थी अथवा आज इस मंदिर पर अब्दुल्लाह गाँधी की पहली चोट होगी। कुछ समय तक चुप रहकर, सोच विचार कर अब्दुल्लाह ने कहा कि जहाँ तक इस्लाम का मैनें अध्ययन किया है, मैंने तो ऐसा कहीं नहीं पढ़ा कि किसी धार्मिक स्थल को तोड़ना इस्लाम का पालन करना है ! और किसी भी मंदिर को तोड़ना देश की किसी जवलंत समस्या का समाधान भी नहीं है। ऐसा कहने पर उनके मुस्लिम साथी उनसे नाराज होकर चले गये और उनसे किनारा करना आरंभ कर दिया। उसी समय उन्हें आर्यसमाज बम्बई के श्री विजयशंकर भट्ट द्वारा वेदों की इस्लाम पर श्रेष्ठता विषय पर दो व्याख्यान सुनने को मिले और उनके मन में बचे हुए बाकि संशयों की भी निवृति हो गई। बस फिर क्या था, मुम्बई में खुले मैदान में, हजारों की भीड़ के सामने, अपनी माँ कस्तूरबा और अपने भाइयों के समक्ष आर्य समाज द्वारा अब्दुल्लाह को शुद्ध कर हिंदू बनाया और नाम रखा हीरालाल गॉंधी। हीरालाल वैदिक धर्म का अभिन्न अंग बनकर भारतीय श्रृद्धानन्द शुद्धि सभा के सदस्य बन गये और आर्यसमाज के शुद्धि कार्य में लग गये।


हीरालाल गांधी द्वारा अपनी शुद्धि के समय दिया गया वक्तव्य भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसे पढ़िए


माननीय भद्रपुरुषों भाइयों और बहनों 


नमस्ते 


कुछ आदमियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैंने पुन: क्यूँ धर्म परिवर्तन किया। बहुत से हिन्दू और मुसलमान बहुत सी बातें सोच रहे होगे परन्तु मैं अपना दिल खोले बगैर नहीं रह सकता हूँ। वर्त्तमान में जो "धर्म" कहा गया है, उसमें न केवल उसके सिद्धांत होते हैं वरन उसमें उसकी संस्कृति और उसके अनुयायियों का नैतिक और सामाजिक जीवन भी सम्मिलित होता है। इन सबके तजुर्बे के लिए मैंने मुसलमानी धर्म ग्रहण किया था। जो कुछ मैंने देखा और अनुभव किया है उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि प्राचीन वैदिक धर्म के सिद्धांत, उसकी संस्कृति, भाषा, साहित्य और उसके अनुयायियों का नैतिक और सामाजिक जीवन इस्लाम और देश के दूसरे प्रचलित मतों के सिद्धांत और अनुयायियों के मुकाबले में किसी प्रकार भी तुच्छ नहीं है, वरन उच्च ही है। 


महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा प्रतिपादित वैदिक धर्म के वास्तविक रूप को यदि हम समझे तो द्रढ़ता पूर्वक कह सकते हैं कि इस्लाम और दूसरे मतों में जो सच्चाई और सार्वभौम सिद्धांत मिलते हैं वे सब वैदिक धर्म से आये हैं इस प्रकार दार्शनिक दृष्टि से सत्य की खोज के अलावा धर्म परिवर्तन और कोई चीज नहीं हैं। जिस भांति सार्वभौम सच्चाइयों अर्थात वैदिक धर्म का सांप्रदायिक असूलों के साथ मिश्रण हो जाने से रूप विकृत हो गया, इसी भांति भारत के कुछ मुसलमानों के साथ अपने संपर्क के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि वे लोग मुहम्मद साहिब कि आज्ञाओं और मजहबी उसूलों से अभी बहुत दूर हैं। 


जहा तक मुझे मालूम है हज़रात ख़लीफ़ा उमर ने दूसरे धर्म वालो के धर्म संस्थाओं और संस्थाओं को नष्ट करने का कभी हुकुम नहीं दिया था, जो वर्त्तमान में हमारे देश की मुख्य समस्याएँ हैं। 


इस सब परिस्थितियों और बातों पर विचार करते हुए मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि "मैं" आगे इस्लाम की किसी प्रकार भी सेवा नहीं कर सकता हूँ। 


जिस प्रकार गिरा हुआ आदमी चढ़कर अपनी असली जगह पर पहुँच जाता है इसी प्रकार महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित वैदिक धर्म की सच्चाइयों को जानने और उन तक पहुँचने की मैं कोशिश कर रहा हूँ। ये सच्चाइयाँ मौलिक, स्पष्ट स्वाभाविक और सार्वभौम हैं तथा सूरज की किरणों की तरह देश, जाति और समाज के भेदभाव से शून्य तमाम मानव समाज के लिए उपयोगी हैं। इन सच्चाईयों और आदर्शों के विषय में स्वामी दयानंद द्वारा उनकी पुस्तकों सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका और दूसरी किताबों में बिना किसी भय वा पक्ष के व्याख्या की गई है। इस प्रकार मैं स्वामी दयानंद सरस्वती की शिक्षाओं की कृपा और आर्यसमाज के उद्घोष से अपने धर्म रुपी पिता और संस्कृति रुपी माता के चरणों में बैठता हूँ। यदि मेरे माता-पिता, सम्बन्धी और दोस्त इस खबर से प्रसन्न हो तो मैं उनके आशीर्वाद की याचना करता हूँ। 


अंत में प्रार्थना करता हूँ प्रभु , मेरी रक्षा करो, मुझ पर दया करो। और मुझे क्षमा करो। मैं मुम्बई आर्यसमाज के कार्यकर्ताओं और उपस्थित सज्जनों को सहृदय धन्यवाद देता हूँ। 


'तमसो माँ ज्योतिर्मय' 


बम्बई हीरालाल गांधी१४-११-३६(सन्दर्भ- सार्वदेशिक मासिक दिसंबर १९३६)

(क्रमशः )

Sunday, September 13, 2020

धर्मांतरण राष्ट्रांतरण है - महात्मा गाँधी

 हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य "  (६)

गतांक से आगे) 

अक्सर हिंदुत्व के समर्थकों के धर्मांतरण विरोधी विचारों की निंदा की जाती है। घर वापसी जैसे कार्यक्रमों का उपहास उङाया जाता है। ऐसे में यह जानना बहुत जरूरी है कि गाँधीजी के धर्मांतरण को लेकर क्या विचार थे ? गाँधीजी के जीवनकाल में धर्मांतरण का जोर अधिक था। जब हम यह कहते हैं कि भारत के ईसाई और मुसलमान कुछ पीढ़ी पहले तक हिंदू ही थे। तो वह पीढ़ी जिसका धर्मांतरण हुआ उनमें से ज्यादातर गाँधीजी के समकालीन थे।

स्वयं गाँधीजी लम्बे समय तक देश से बाहर रहे उनके ऊपर  ईसाई धर्म का प्रभाव पङ सकता था। लेकिन गाँधीजी के विचार पढ़ने पर तो ऐसा लगता है, जैसे वे धर्मांतरण के कट्टर विरोधी थे।


महात्मा गांधी ने 1916 में क्रिश्चियन एसोसिएशन ऑफ मद्रास की एक सभा को संबोधित करते हुए स्पष्ट रूप से कहा था कि “धर्मांतरण राष्ट्रांतरण है.” 


धर्मांतरण पर बिल्कुल यही विचार तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। पिछले दिनों बिरसा मुंडा की जयंती पर झारखण्ड सरकार ने समाचार पत्रों में जारी विज्ञापन में गाँधीजी के विचारों का उल्लेख किया गया तो बवाल मच गया। केवल स्वयं को ही बुद्धिजीवी समझने वालों ने कहा कि संघ गाँधीजी को हथियाने की कोशिश कर रहा है। और उस विज्ञापन में लिखे विचारों को असत्य साबित करने के लिए तमाम कुतर्क दिए गए।


संघ पर चर्चा आगे किसी कङी में करेंगे  ।अभी गाँधीजी के विचारों को और समझने की कोशिश करते हैं ।


सबसे पहले बात उनकी आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" की


गाँधीजी के स्कूली शिक्षा के दिनों का एक किस्सा है।  वे लिखते हैं  “ उन्हीं दिनों मैने सुना कि एक मशहूर हिन्दू सज्जन अपना धर्म बदल कर ईसाई बन गये हैं। शहर में चर्चा थी कि बपतिस्मा लेते समय उन्हें गोमांस खाना पडा और शराब पीनी पडी। अपनी वेशभूषा भी बदलनी पडी तथा तब से हैट लगाने और यूरोपीय वेशभूषा धारण करने लगे। मैने सोचा जो धर्म किसी को गोमांस खाने शराब पीने और पहनावा बदलने के लिए विवश करे वह तो धर्म कहे जाने योग्य नहीं है। मैने यह भी सुना नया कनवर्ट अपने पूर्वजों के धर्म को उनके रहन सहन को तथा उनके देश को गालियां देने लगा है। इस सबसे मुझसे ईसाइयत के प्रति नापसंदगी पैदा हो गई। ”


धर्मांतरण को लेकर यंग इंडिया के 23 अप्रैल, 1931 के अंक में वे लिखते हैं , ‘मेरी राय में मानव-दया के कार्यों की आड़ में धर्म-परिवर्तन करना नहीं कुछ तो, अहितकर तो है ही।" इसी लेख में गाँधीजी कहते हैं - ‘आजकल और बातों की तरह धर्म-परिवर्तन ने भी एक व्यापार का रूप ले लिया है. मुझे ईसाई धर्म-प्रचारकों की पढ़ी हुई एक रिपोर्ट याद है, जिसमें बताया गया था कि प्रत्येक व्यक्ति का धर्म बदलने में कितना खर्च हुआ, और फिर अगली फसल के लिए बजट पेश किया गया था.’ इसी लेख में उन्होंने लिखा था – ‘मेरी राय में मानव-दया के कार्यों की आड़ में धर्म-परिवर्तन करना नहीं कुछ तो, अहितकर तो है ही. ठीक ही यहां के लोग इसे नाराजी की दृष्टि से देखते हैं. कोई ईसाई डॉक्टर मुझे किसी बीमारी से अच्छा कर दे तो मैं अपना धर्म क्यों बदल लूं, या जिस समय मैं उसके असर में रहूं तब वह डॉक्टर मुझसे इस तरह के परिवर्तन की आशा क्यों रखे या ऐसा सुझाव क्यों दे? क्या डॉक्टरी सेवा अपने-आप में ही एक पारितोषक या संतोष नहीं है? या जब मैं किसी ईसाई शिक्षा-संस्था में शिक्षा लेता होऊं तब मुझ पर ईसाई शिक्षा क्यों थोपी जाए? ...धर्म की शिक्षा लौकिक विषयों की तरह नहीं दी जाती. वह हृदय की भाषा में दी जाती है. अगर किसी आदमी में जीता-जागता धर्म है तो उसकी सुगंध गुलाब के फूल की तरह अपने-आप फैलती है.’


इसके पहले यंग इंडिया के 8 सितंबर, 1920 के अंक में उन्होंने लिखा था - ‘यह मेरी पक्की राय है कि आज का यूरोप न तो ईश्वर की भावना का प्रतिनिधि है, और न ईसाई धर्म की भावना का, बल्कि शैतान की भावना का प्रतीक है. और शैतान की सफलता तब सबसे अधिक होती है जब वह अपनी जबान पर खुदा का नाम लेकर सामने आता है. यूरोप आज नाममात्र को ही ईसाई है. असल में वह धन की पूजा कर रहा है. ऊंट के लिए सुई की नोंक से होकर निकलना आसान है, मगर किसी धनवान का स्वर्ग में जाना मुश्किल है. ईसा मसीह ने यह बात ठीक ही कही थी. उनके तथाकथित अनुयायी अपनी नैतिक प्रगति को अपनी धन-दौलत से ही नापते हैं.’


संपूर्ण गाँधी वांग्मय में गाँधीजी के धर्मांतरण पर विचारों का विस्तार से उल्लेख है। उसके अंश पढ़ लीजिए । 


“ दूसरों के हृदय को केवल आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति ही प्रभावित कर सकता है। जबकि अधिकांश मिशनरी बाकपटु होते हैं, आध्यात्मिक शक्ति संपन्न व्यक्ति नहीं। “ 


“भारत में ईसाइयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है।“ (क्रिश्चियम मिशन्स, देयर प्लेस इंडिया, नवजीवन, पृष्ठ-32)। उन्होंने यह भी कहा कि ईसाई पादरी अभी जिस तरह से काम कर रहे हैं उस तरह से तो उनके लिए स्वतंत्र भारत में कोई भी स्थान नहीं होगा। वे तो अपना भी नुकसान कर रहे हैं। वे जिनके बीच काम करते हैं उन्हें हानि पहुंचाते हैं और जिनके बीच काम नहीं करते उन्हें भी हानि पहुंचाते हैं। सेरा देश को वे नुकसान पहुंचाते हैं।


“मिशनरियों द्वारा बांटा जा रहा पैसा तो धन पिशाच का फैलाव है।“ उन्होंने कहा कि “ आप साफ साफ सुन लें मेरा यह निश्चित मत है, जो कि अनुभवों पर आधारित हैं, कि आध्यात्मिक विषयों पर धन का तनिक भी महत्व नहीं है। अतः आध्य़ात्मिक चेतना के प्रचार के नाम पर आप पैसे बांटना और सुविधाएं बांटना बंद करें।“


१९३५ में एक मिशनरी नर्स ने गांधी जी से पूछा “क्या आप कनवर्जन (धर्मांतरण) के लिए मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगा देना चाहते हैं।


गांधी जी ने उत्तर दिया “मैं रोक लगाने वाला कौन होता हूँ, अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं, तो मैं धर्मांतरण का यह सारा धंधा ही बंद करा दूँ। मिशनरियों के प्रवेश से उन हिन्दू परिवारों में, जहाँ मिशनरी पैठे हैं, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खान-पान तक में परिवर्तन हो गया है। आज भी हिन्दू धर्म की निंदा जारी हैं ईसाई मिशनों की दुकानों में मरडोक की पुस्तकें बिकती हैं। इन पुस्तकों में सिवाय हिन्दू धर्म की निंदा के और कुछ है ही नहीं। अभी कुछ ही दिन हुए, एक ईसाई मिशनरी एक दुर्भिक्ष-पीडित अंचल में खूब धन लेकर पहुँचा वहाँ अकाल-पीडितों को पैसा बाँटा व उन्हें ईसाई बनाया फिर उनका मंदिर हथिया लिया और उसे तुडवा डाला। यह अत्याचार नहीं तो क्या है, जब उन लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया तो तभी उनका मंदिर पर अधिकार समाप्त। वह हक उनका बचा ही नहीं। ईसाई मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी वहाँ पहुँचकर उन्हीं लोगों से वह मंदिर तुडवाला है, जहाँ कुछ समय पहले तक वे ही लोग मानते थे कि वहाँ ईश्वर वास है। ‘‘ 


‘लोगों का अच्छा जीवन बिताने का आप लोग न्योता देते हैं। उसका यह अर्थ नहीं कि आप उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित कर लें। अपने बाइबिल के धर्म-वचनों का ऐसा अर्थ अगर आप करते रहे तो इसका मतलब यह है कि आप लोग मानव समाज के उस विशाल अंश को पतित मानते हैं, जो आपकी तरह की ईसाइयत में विश्वास नहीं रखते। यदि ईसा मसीह आज पृथ्वी पर फिर से आज जाएंगे तो वे उन बहुत सी बातों को निषिद्ध् ठहराकर रोक देंगे, जो आ लोग आज ईसाइयत के नाम पर कर रहे हैं। ’लॉर्ड-लॉर्ड‘ चिल्लाने से कोई ईसाई नहीं हो जाएगा। सच्चा ईसाई वह है जो भगवान की इच्छा के अनुसार आचरण करे। जिस व्यक्ति ने कभी भी ईसा मसीह का नाम नहीं सुना वह भी भगवान् की इच्छा के अनुरूप आचरण कर सकता है।‘‘ 


एक यह वाकया भी पढ़ने योग्य है।  भारत के सबसे प्रभावशाली ईसाई धर्मांतरणवादी स्टैनली जोन्स ने महात्मा गांधी के साथ रहकर उन्हें देखने जानने की कोशिश की थी. एक बार उन्होंने महात्मा गांधी से पूछा – ‘आप अक्सर ईसा के शब्द उद्धृत करते रहते हैं, फिर भी ऐसा क्यों है कि आप उनके अनुयायी (ईसाई) होने की बात को इतनी निष्ठुरता से ठुकरा देते हैं?’ गांधीजी का जवाब था– ‘अजी, मैं आपके ईसा को नहीं ठुकराता हूं. मैं तो उनसे प्रेम करता हूं. बात बस इतनी है कि आपके इतने ज्यादा ईसाइयों का जीवन बिल्कुल भी ईसा मसीह की तरह का है ही नहीं.’


गाँधीजी को उनके एक अमेरिकी मित्र और धार्मिक नेता मिल्टन न्यूबरी फ्रांट्ज ने  ईसाई धर्म ग्रहण करने का प्रस्ताव देते हुए एक पत्र लिखा था।साबरमती आश्रम में रहने के दौरान मिल्टन का यह पत्र गांधीजी को मिला था।


इस पत्र का जवाब देते हुए गाँधीजी जी ने लिखा था 'प्रिय मित्र, मुझे नहीं लगता कि मैं आपके प्रस्तावित पंथ को मान सकूंगा. दरअसल, ईसाई धर्म में किसी भी अनुयायी को यह मानना होता है कि जीसस क्राइस्ट ही सर्वोच्च हैं. लेकिन मैं अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह महसूस नहीं कर पा रहा हूं. पत्र में गांधीजी लिखते हैं कि वे मानते हैं कि ईसा मसीह इंसानियत के महान शिक्षक रहे हैं, प्रणेता रहे हैं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि धार्मिक एकता का मतलब सभी लोगों का एक धर्म को ही मानने लगना नहीं है, बल्कि यह तो सारे धर्मों को समान इज्जत देना है.' 


कुछ समय पहले 50 हजार डॉलर नीलाम होने के कारण यह पत्र चर्चा में आया था।


(क्रमशः)

Saturday, September 12, 2020

हिंदुत्व और गांधी जी का राम राज्य (५)

 हिंदुत्व और गॉंधी जी का राम राज्य (५)

(गतांक से आगे)

जब हम हिंदुत्व के बारे में गाँधीजी के विचार जानने की कोशिश करते हैं तो पता चलता है कि वे हिंदू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था के बड़े हिमायती थे। गाँधीजी छुआछूत के विरोधी थे। अंतरजातीय विवाह के पक्षधर थे। जातिवाद को नहीं मानते थे। लेकिन वर्ण व्यवस्था के हिमायती थे। 

अपनी पुस्तक ‘मेरे सपनों का भारत’ में महात्मा गॉंधी ने इस बारे में बहुत विस्तार से लिखा है। गॉंधी जी के शब्दों में ‘वर्णाश्रम धर्म बताता है कि दुनिया में मनुष्य ‍य सच्चा लक्ष्य क्या  है। उसका जन्म इसलिए नहीं हुआ है कि वह रोज-रोज ज्यादा पैसा इकटठा करने के रास्ते खोजे और जीविका के नए-नए साधनों की खोज करे। उसका जन्म तो इसलिए हुआ है कि वह अपनी शक्ति का प्रत्येक अणु अपने निर्माता को जानने में लगाएँ। इसलिए वर्णामश्र-धर्म कहता है। कि अपने शरीर के निर्वाह के लिए मनुष्‍य अपने पूर्वजों का ही धंधा करें। बस, वर्णाश्रम धर्म का आशय इतना ही है।’


वे आगे लिखते हैं ‘वर्ण-व्यवस्था में समाज की चौमुखी रचना ही मुझे तो असली, कुदरती और जरूरी चीज दीखती है। बेशुमार जातियों और उपजातियों से कभी-कभी कुछ आसान हुई होगी, लेकिन इसमें शक नहीं कि ज्यादातर तो जातियों से अड़चन ही पैदा होती है। ऐसी उपजातियाँ जितनी एक हो जाएँ उतना ही उसमें समाज का भला है।’


सब हिंदू स्वयं को शूद्र कहने लगें

इसके आगे गॉंधी जी ने जो लिखा है वह उनके हिंदू धर्म की बुराइयों के सुधार की ललक बताता है। गॉंधीजी लिखते हैं ‘आज तो ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्‍यों और शूद्रों के केवल नाम ही रह गए हैं। वर्ण का मैं जो अर्थ करता हूँ उसकी दृष्टि से देखें, तो वर्णों का पूरा संकर हो गया है और ऐसी हालत में मैं तो यह चाहता हूँ कि सब हिंदू अपने को स्‍वेच्‍छापूर्वक शूद्र कहने लगे। ब्राह्मण-धर्म की सच्‍चाई को उजागर करने और सच्‍चे वर्ण-धर्म को पुन: जीवित करने का यही एक रास्‍ता है।’

सोचिए गॉंधीजी यह बात लगभग 100 साल पहले लिख रहे हैं। 


अज्ञान के शिकार हो गए हैं हिंदू


हिंदू धर्म ने वर्ण-धर्म की तलाश करके और उसका प्रयोग करके दुनिया को चौंकाया है। जब हिंदू अज्ञान के शिकार हो गए, तब वर्ण के अनुचित उपयोग के कारण अनगिनत जातियाँ बनीं और रोटी-बेटी व्‍यवहार के अनावश्‍यक और हानिकारक बंधन पैदा हो गए। वर्ण-धर्म का इन पाबंदियों के साथ कोई नाता नहीं है। अलग-अलग वर्ण के लोग आपस में रोटी-बेटी व्‍यवहार रख सकते हैं। चरित्र और तंदुरुस्‍ती के खातिर ये बंधन जरूरी हो सकते हैं। लेकिन जो ब्राह्मण शूद्र की लड़की से या शूद्र ब्राह्मण की लड़की से ब्‍याह करता है वह वर्ण-धर्म को नहीं मिटाता।


छुआछूत वर्णाश्रम के कारण नहीं

इसी तरह अस्पृश्यता की बुराई से खीझकर जाति-व्यवस्था का ही नाश करना उतना ही गलत होगा, जितना कि शरीर में कोई कुरूप वृद्धि हो जाए तो शरीर का या फसल में ज्‍यादा घास-पास उगा हुआ दिखे तो फसल का ही नाश कर डालना है। इसलिए अस्पृश्यता का नाश तो जरूर करना है। संपूर्ण जाति-व्यवस्था को बचाना हो तो समाज में बढ़ी हुई इस हानिकारक बुराई को दूर करना ही होगा। अस्पृश्यता जाति-व्‍यवस्‍था की उपज नहीं है, बल्कि उस ऊँच-नीच-भेद की भावना का परिणाम है, जो हिंदू धर्म में घुस गई है और उसे भीतर-ही-भीतर कुतर रही है। इसलिए अस्पृश्यता के खिलाफ  हमारा आक्रमण इस ऊँच-नीच की भावना के खिलाफ ही है। ज्‍यों ही अस्पृश्यता नष्‍ट होगी जाति-व्यवस्था स्वयं शुद्ध हो जाएगी; यानी मेरे सपने के अनुसार वह चार वर्णों वाली सच्ची वर्ण-व्‍यवस्था का रूप ले लेगी। ये चारों वर्ण एक-दूसरे के पूरक और सहायक होंगे, उनमें से कोई किसी से छोटा-बड़ा नहीं होगा; प्रत्‍येक वर्ण हिंदू धर्म के शरीर के पोषण के लिए समान रूप से आवश्‍यक होगा।


गॉंधीजी के इन विचारों को जानकर तो आज के बुद्धिजीवी उन्हें कट्‌टरवादी और पता नहीं क्या - क्या कहने लगेंगे। लेकिन मेरी नजर में यह हमारी प्राचीन जीवनशैली यानी हिंदू संस्कृति के प्रति गॉंधीजी की श्रृद्धा और विश्वास ही है। और गॉंधीजी इसमें आई बुराइयों को दूर करना चाहते थे।


(क्रमशः)

Friday, September 11, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (४)

 हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (४)


पिछली कङी हमने देखा कि गाँधीजी  "सभी धर्मों का धर्म" की बात कर रहे हैं और हमने जाना कि विनोबाजी ने गाँधीजी की तुलना श्रीकृष्ण से की। जब इन दोनों बातों को जोङें तो पहला  प्रश्न आता है कि धर्म क्या है ? 


धर्म शब्द संस्कृत की धृ धातु से बना है। धर्म का अर्थ  होता है - "जो शक्ति चराचर समस्त विश्व को धारण करे उसी का नाम धर्म है।

महाभारत में श्रीकृष्ण ने अनेक अवसरों पर धर्म को परिभाषित किया है। उदाहरण के लिए  कर्ण पर्व में भगवन श्री कृष्ण ने कहा है:


धारणाद्धर्ममित्याहुधर्मो धारयते प्रजा:।


यत्स्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इति निष्चय:।।    


धर्म धारण करता है इसलिए धर्म को धर्म कहा जाता है, जो धारण करने की योग्यता रखता है वही धर्म है ।


महाभारत में ही श्रीकृष्ण कहते हैं 


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।


अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।


धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥


अर्थात 


 “जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर जन्म लेता हूँ


सज्जनों और साधुओं की रक्षा के लिए, दुर्जनो और पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता हूँ”


सोचिए, जब ५००० वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी पर जन्म लिया था तब दुनिया में न तो ईसाई पंथ था और न इस्लाम । यानी धर्मांतरण का या किसी दूसरे धर्म से खतरे का तो प्रश्न ही नहीं था ? फिर किस धर्म का नाश हो रहा था ? किसकी रक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने जन्म लिया ? वही, जिस अनुशासन का पालन करना हर मनुष्य का कर्तव्य है वही धर्म है।


गाँधीजी इसे ही धर्मों का धर्म कह रहे हैं और विनोबाजी की नजर  में गाँधीजी ने इसी धर्म की रक्षा के लिए प्रयास किए। यही वजह है कि विनोबाजी ने गाँधीजी की तुलना श्रीकृष्ण से की।


अब प्रश्न है कि गाँधीजी ने धर्म की रक्षा के लिए क्या किया ? मैं पूर्व में जिक्र कर चुका हूँ कि छुआछूत जैसी बुराइयों को मिटाने के लिए गाँधीजी ने गंंभीर और अथक प्रयास किए। इस पर विस्तार से चर्चा आगे किसी कङी में करेंगे ।


(क्रमशः)

Thursday, September 10, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (३)

  हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (३)

(गतांक से आगे)


हिंदू धर्म को लेकर विभिन्न अवसरों पर गॉंधीजी के आलेख और भाषण आदि का अध्ययन करने पर एक बात साफ हो जाती है कि गॉंधीजी हिंदू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था में विश्वास करते थे, लेकिन जातिवाद और छुआछूत के विरोधी थे। गाँधीजी जी हिन्दू धर्म में हजारों सालों से व्याप्त कुरीतियों से लड़ भी रहे थे। गॉंधी जी ने  ‘यंग इंडिया’ में अप्रैल,1925 में लिखा - ‘मंदिरों, कुंओं और स्कूलों में जाने और इस्तेमाल करने पर जाति के आधार किसी भी तरह की रोक गलत है। उन्होंने 7 नवंबर, 1933 से 2 अगस्त, 1934 के बीच छूआछूत खत्म करने के लिए देशभर की यात्रा की थी।  इसे ‘गाँधीजी का ‘हरिजन दौरा’ के नाम से भी जाना जाता है। साढ़े 12 बजे हजार मील की उस यात्रा में गाँधीजी ने छूआछूत के खिलाफ जन-जागृति पैदा की थी। एक तथ्य यह भी है कि गाँधीजी बिड़ला मंदिर के उद्घाटन के लिए भी तभी राजी हुए थे जब उन्हें भरोसा दिलाया गया कि इस मंदिर में दलितों (गाँधीजी जिस शब्द का इस्तेमाल करते थे वह अब असंसदीय करार दिया गया है) के प्रवेश पर रोक नहीं होगी। उस समय मंदिर में दलितों का प्रवेश एक बड़ा मुद्दा था। 


महात्मा गाँधी की सोच धर्म आधारित समाज रचना को देखने की थी। वे भारत की इस वास्तविक शक्ति को पहचानते थे। वे कहते थे ‘मुझे धर्म प्यारा है, इसलिए मुझे पहला दु:ख तो यह है कि हिंदुस्तान धर्म भ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं हिंदू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है, वह हिंदुस्तान से जा रहा है, हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।’

धर्मों के अंदर धर्म की व्याख्या करने के लिए हमें धर्म को समझना पड़ेगा। धर्म की भारतीय धारणा पर अगली कड़ियों में चर्चा होगी तो बात और स्पष्ट होगी। इसको समझने पर ही हिंदुत्व की अवधारणा और गॉंधीजी का राम राज्य में अंतर या समानता पर कोई राय कायम की जा सकती है। 

आज की श्रृंखला मैं विनोबा भावे द्वारा गाँधीजी को दी गई श्रृद्धांजलि से करना चाहता हूं। विनोबा जी से असहमत होना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असंभव है।

30 जनवरी 1948 को गॉंधीजी की हत्या के बाद उनका अंतिम संस्कार अगले दिन यानी 31 जनवरी 1948 को हुआ। उस दिन विनोबा भावे ने गाँधीजी को श्रृदधा सुमन अर्पित करते हुए गाँधीजी की हत्या की तुलना 5000 वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण के देह त्याग के लिए अज्ञानतावश एक शिकारी द्वारा तीर चलाने के प्रसंग से की। विनोबा जी कहते हैं ‘दुनिया में आज हिंदू धर्म का नाम यदि किसी ने उज्जवल रखा है तो वह गाँधीजी ने ही रखा है।’ विनोबाजी के अनुसार ‘उन्होंने (गाँधीजी ने) खुद ही कहा था कि हिंदू धर्म की रक्षा करने के लिए किसी मुनष्य को नियुक्त करने की जरूरत यदि भगवान को महसूस हुई तो वह मुझे ही नियुक्त करेगा।’

(क्रमश:)

Tuesday, September 8, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (२)

 हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (२)

(गतांक से आगे)

यदि गाँधीजी के नजरिए से हिंदुत्व और रामराज्य को समझना है तो यह जानना पहले जरुरी है कि इस बारे में गाँधीजी के विचार क्या थे ? इसके बाद हमें देखना होगा कि संघ जिस हिंदुत्व की बात करता है (कल मैंने सरसंघचालक जी के एक वक्तव्य का जिक्र किया है, इस पर विस्तृत अगली किसी कङी में ) उसमें और गाँधीजी के हिंदुत्व में क्या अंतर और समानता है ? 

यंग इंडिया , नवजीवन और हरिजन में महात्मा गाँधी द्वारा समय - समय पर लिखे लेखों को पढ़ें तो उनके विचार स्पष्ट होंगे ।

उदाहरण के लिए गांधीजी ने 20 अक्टूबर 1927 को 'यंग इंडिया' में एक लेख लिखा "मैं हिंदू क्यों हूं". इसमें उन्होंने लिखा, "मेरा जन्म एक हिंदू परिवार में हुआ, इसलिए मैं हिंदू हूं. अगर मुझे ये अपने नैतिक बोध या आध्यात्मिक विकास के खिलाफ लगेगा तो मैं इसे छोड़ दूंगा." 

वे इसी लेख में यह भी लिखते हैं "अध्ययन करने पर जिन धर्मों को मैं जानता हूं, उनमें मैने इसे सबसे अधिक सहिष्णु पाया है. इसमें सैद्धांतिक कट्टरता नहीं है, ये बात मुझे बहुत आकर्षित करती है. हिंदू धर्म वर्जनशील नहीं है, इसलिए इसके अनुयायी ना केवल दूसरे धर्मों का आदर कर सकते हैं बल्कि वो सभी धर्मों की अच्छी बातों को पसंद कर सकते हैं और अपना सकते हैं."


हिंदू धर्म पर गाँधीजी का एक लेख "यंग इंडिया" के छह अक्टूबर 1921 के अंक में भी मिलता है। गाँधीजी लिखते हैं , "मैं अपने को सनातनी हिंदू इसलिए कहता हूं क्य़ोंकि, मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और हिंदू धर्मग्रंथों के नाम से प्रचलित सारे साहित्य में विश्वास रखता हूं और इसीलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी. मैं गो-रक्षा में उसके लोक-प्रचलित रूपों से कहीं अधिक व्यापक रूप में विश्वास रखता हूं. हर हिंदू ईश्वर और उसकी अद्वितीयता में विश्वास रखता है, पुर्नजन्म और मोक्ष को मानता है."" मैं मूर्ति पूजा में अविश्वास नहीं करता." यंग इंडिया' में उन्होंने यह भी लिखा कि,'सिवाय अपने जीवन के और किसी अन्य ढंग से हिन्दू धर्म की व्याख्या करने के योग्य मैं खुद को नहीं मानता.'


गाँधीजी का हिंदू धर्म पर एक और लेख नवजीवन" में 07 फरवरी 1926 के अंक में भी है। इसमें उन्होंने लिखा लिखा, "जब जब इस धर्म पर संकट आया, तब तब हिंदू धर्मावलंबियों ने तपस्या की है. उसकी मलिनता के कारण ढूंढे और उनका निदान किया. उसके शास्त्रों में वृद्धि होती रही. वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण और इतिहासदि का एक साथ एक ही समय में सृजन नहीं हुआ बल्कि प्रसंग आने पर विभिन्न ग्रंथों की सृष्टि हुई. इसलिए उनमें परस्पर विरोधी बातें तक मिल जाएंगी."

'गांधी वांगमय' के खंड 23 के पेज 516 में गाँधीजी की ओर से  लिखा है   "अगर मुझसे हिंदू धर्म की व्याख्या करने के लिए कहा जाए तो मैं इतना ही कहूंगा-अहिंसात्मक साधनों द्वारा सत्य की खोज. कोई मनुष्य ईश्वर में विश्वास नहीं करते हुए भी अपने आपको हिंदू कह सकता है."

लेकिन ऐसा नहीं है कि गाँधीजी हिंदू धर्म की बुराइयों को नहीं जानते थे। वे उन पर भी मुखरता से बात रखते थे। यंग इंडिया में उन्होंने लिखा "मैं काली के आगे बकरे की बली देना अधर्म मानता हूं और इसे हिंदू धर्म का अंग नहीं मानता. इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी समय धर्म के नाम पर पशु-बली दी जाती थी लेकिन ये कोई धर्म नहीं है और हिंदू धर्म तो नहीं ही है."

 यंग इंडिया में वे लिखते हैं " अपृश्यता को मैं हिंदू धर्म का एक सबसे भारी दोष मानता आया हूं. ये सच है कि ये दोष हमारे यहां परंपरा से चला आ रहा है. यही बात दूसरे बहुत से बुरे रिवाजों के साथ भी लागू होती है।" 

जितना मैं जानता हूँ संघ के संस्थापक डा केशव बलिराम हेडगेवार से लेकर वर्तमान सरसंघचालक तक सब हिंदू धर्म के इसी स्वरूप की बात करते हैं बल्कि आगे बढ़ कर संघ तो अखण्ड भारत की भूमि पर जन्मे सभी व्यक्तियों को हिंदू मानता है।

(क्रमशः )

Monday, September 7, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का रामराज्य (1)

 हिंदुत्व और गाँधीजी का रामराज्य (1)

देश में पिछले छह साल से संघ प्रचारक रहे नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हैं । राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री अन्य महत्वपूर्ण पदों पर स्वयंसेवकों के पहुंचने से संघ की कार्यप्रणाली चर्चा का विषय है। जब संघ की चर्चा होती है तो बात हिंदुत्व पर आ जाती है। फिर कह दिया जाता है कि संघ तो गाँधीजी का विरोधी संगठन है। सांप्रदायिकता का ठप्पा लगाया जाता है।

लेकिन दूसरी तरफ देखें तो पता चलता है संघ की शाखाओं में रोजाना सुबह गाँधीजी का नाम श्रृद्धा से लिया जाता है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने फ्लैगशिप प्रोग्राम स्वच्छता अभियान में गाँधीजी को ही  प्रेरणा का स्रोत माना है। संघ यदि हिंदुत्व और हिंदु राष्ट्र की बात करता है तो गाँधीजी भी तो राम राज्य की बात करते थे।

मैं हिंदुत्व और गाँधीजी के राम राज्य को समझने का प्रयास कर रहा हूँ ।

बात यदि हिंदुत्व से शुरू करें तो हिंदुत्व शब्द की व्याख्या करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहनराव भागवत कहते हैं कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर नागरिक उसी तरह हिंदु कहलाएगा, जैसे अमेरिका में रहनेवाला हर नागरिक अमेरिकी कहलाता है, उसका पंथ चाहे जो हो। उच्चतम न्यायालय भी हिंदुत्व को पंथ मानने से इनकार कर चुका है। (कुछ माह पूर्व मैं इस पर विस्तार से लिख चुका हूँ और आगे भी विस्तार से चर्चा होगी)। स्पष्ट है कि हिंदु राष्ट्र का अर्थ हुआ  हिंदु संस्कृति को स्वीकार करने वाली इकाई । राष्ट्र और देश की अवधारणा को भी बाद में स्पष्ट करुंगा ।

अब सवाल है कि गाँधीजी के रामराज्य की अवधारणा  क्या है ? 

दांडी मार्च के दौरान  20 मार्च, 1930 को हिन्दी पत्रिका ‘नवजीवन’ में ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक से एक लेख में गांधीजी ने कहा था- ‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएं, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य. यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूंगा. रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जाएंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा. ...सच्चा चिंतन तो वही है जिसमें रामराज्य के लिए योग्य साधन का ही उपयोग किया गया हो. यह याद रहे कि रामराज्य स्थापित करने के लिए हमें पाण्डित्य की कोई आवश्यकता नहीं है. जिस गुण की आवश्यकता है, वह तो सभी वर्गों के लोगों- स्त्री, पुरुष, बालक और बूढ़ों- तथा सभी धर्मों (पंथों) के लोगों में आज भी मौजूद है. दुःख मात्र इतना ही है कि सब कोई अभी उस हस्ती को पहचानते ही नहीं हैं. सत्य, अहिंसा, मर्यादा-पालन, वीरता, क्षमा, धैर्य आदि गुणों का हममें से हरेक व्यक्ति यदि वह चाहे तो क्या आज ही परिचय नहीं दे सकता?’

गाँधीजी के राम राज्य और धर्म राज्य को समझने के लिए हमें धर्म और राम को समझना होगा।


(क्रमशः )