Monday, November 2, 2020

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (२३)

(गतांक से आगे)

सत्य, अहिंसा और महात्मा गाँधी

इस श्रृंखला की शुरुआत में ही मैंने एक बात कही थी कि हम महात्मा गाँधी को सत्य और अहिंसा का पुजारी कह कर अपना कर्तव्य पूरा कर लेते हैं। लेकिन क्या वास्तव में यह जानने की कोशिश की कि महात्मा गाँधी के लिए सत्य और अहिंसा का अर्थ क्या है?

क्या अहिंसा का अर्थ - एक झापड़ खाने पर दूसरा गाल आगे कर देना है? और प्रश्न तो यह भी है कि सत्य और अहिंसा में से किसी एक को चुनना पड़े तो महात्मा गाँधी किसे चुनेंगे?

इस सवाल के जवाब के लिए आपको महात्मा गाँधी द्वारा विभिन्न अवसरों पर व्यक्त विचारों को पढ़ना होगा। गाँधीजी के स्वयं के लिखे शब्दों को पढ़ कर ही हम समझ सकते हैं कि गाँधीजी सत्य को धर्म मानते थे। हिंदू संस्कृति के हिसाब से देखें तो जो सत्य नहीं है वह धर्म नहीं हो सकता। हमारे यहां कहा गया है जो धारण करने योग्य है वही धर्म है। ऐसे में असत्य तो धर्म हो ही नहीं सकता। यदि सत्य और अहिंसा में से किसी एक को चुनना होगा तो गाँधीजी कहते हैं कि वे सत्य को चुनेंगे। १७ अगस्त 1935 को हरिजन में उन्होंने लिखा -

“आदमी शरीर से कितना ही कमजोर हो, पर यदि पलायन लज्जा की बात है तो उसे मुकाबले पर डटे रहना चाहिए और कर्तव्यपालन करते हुए मृत्यु का वरण करना चाहिए। यही अहिंसा तथा वीरता है। वह कितना ही कमजोर हो, पर अपने शत्रु पर शक्ति भर वार करे और ऐसा करते-करते मृत्यु को प्राप्त हो जाए यह वीरता है, यद्यपि यह अहिंसा नहीं है। यदि आदमी संकट का सामना करने के बजाए भाग खडा होता है, तो यह कायरता है। पहले मामले में, आदमी के हृदय में प्रेम अथवा दयालुता का भाव होगा। दूसरे और तीसरे मामले में, उसके हृदय में घृणा अथवा अविश्वास और भय के भाव होंगे ।”


गाँधीजी की अहिंसा को विस्तार से जानने समझने के लिए पढ़िए महात्मा गाँधी के स्वयं के विचार इन विचारों को पढ़ो तो ऐसा लगता है जैसे कोई धार्मिक संत प्रवचन दे रहे हैं। गाँधीजी ने अनेक अवसरों पर कहा कि “अहिंसा का मार्ग हिंसा के मार्ग की तुलना में कहीं ज्यादा साहस की अपेक्षा रखता है।” 

२८ जनवरी १९३९ को उन्होंने हरिजन में लिखा

“यदि मनष्य में ... गर्व और अहंकार हो तो उसमें अहिंसा नहीं टिक सकती। विनम्रता के बिना अहिंसा असंभव है। मेरा अपना अनुभव है कि जब-जब मैंने अहिंसा का आश्रय लिया है, किसी अदृष्ट शक्ति ने मेरा मार्गदर्शन किया है और मुझे उस पर आरूढ रखा है। यदि मैं अपनी ही इच्छा के बलबूते रहता तो बुरी तरह नाकामयाब हो गया होता। जब मैं पहली बार जेल गया तो काफी घबराया हुआ था। मैंने जेल-जीवन के बारे में बडी-बडी भयावह बातें सुनी थम्। लेकिन मुझे ईश्वर के संरक्षण में आस्था थी। हमारा अनुभव यह रहा कि जो लोग मन में प्रार्थना का भाव लेकर जेल गए थे, वे विजयी होकर लौटे, और जो अपनी ही शक्ति के बूते पर गए थे, वे नाकामयाब हो गए। जब आप यह कहते हैं कि ईश्वर आपको शक्ति दे रहा है, तो उसमें आत्मदया का कोई भाव नहीं होता। आत्मदया की बात तब पैदा होती है जब आपको दूसरों से मान्यता पाने की आकांक्षा हो। लेकिन यहां तो मान्यता का कोई प्रश्न ही नहीं है।”


.यंग इंडिया में २८ मई १९२४ को उन्होंने लिखा 

“मेरी अहिंसा इस बात की इजाजत नहीं देती कि खतरा सामने देखकर अपने प्रियजनों को असुरक्षित छोडकर खुद भाग जाओ। हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में से मैं हिंसा को ही तरजीह दूंगा। जिस प्रकार मैं किसी अंधे आदमी को सुंदर दृश्यों का आनंद लेने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता, उसी प्रकार कायर को अहिंसा का पाठ नहीं पढा सकता। अहिंसा तो वीरता की चरम सीमा है। मेरे अपने अनुभव में, मुझे हिंसा में विश्वास रखने वाले लोगों को अहिंसा की श्रेष्ठता सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। मैं वर्ष़ों तक कायर रहा और उन दिनों मुझे कई बार हिंसा पर उतारू होने की इच्छा हुई। जब मैंने कायरता को त्यागना आरंभ किया, तब अहिंसा की कं करने लगा। वे हिंदू जो खतरा सामने देखकर अपनी जिम्मेदारी छोडकर भाग खडे हुए, अहिंसक होने के नाते या वार करने से डरने की वजह से नहीं भागे बल्कि इसलिए भागे कि वे मरने या चोट खाने के लिए तैयार नहीं थे। खूंख्वार कुने को देखकर भाग जाने वाला खरगोश इसलिए नहीं भागता कि वह बडा अहिंसक है। वह बेचारा तो कुने को देखते ही भय से कांपने लगता है और अपनी जान बचाने के लिए भागता है।”

४अगस्त और ११ अगस्त १९२० को यंग इंडिया में उन्होंने लिखा - “समूची प्रजाति के नपुंसक हो जाने का खतरा उठाने के मुकाबले मैं हिंसा को हजार गुना बेहतर समझता हूं । पर मैं भारत को बेबस नहीं मानता। मैं स्वयं को बेबस प्राणी नहीं मानता... शक्ति शारीरिक क्षमता में निहित नहीं है । वह अदम्य इच्छा से उत्पन्न होती है ।”


यंग इंडिया और हरिजन  के विभिन्न अंकों सहित अन्य पत्र पत्रिकाओं में महात्मा गाँधी लिखते हैं -


“मैं स्वप्नंष्टा नहीं हूं। मैं स्वयं को एक व्यावहारिक आदर्शवादी मानता हूं। अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और संतों के लिए नहीं है। यह सामान्य लोगों के लिए भी है। अहिंसा उसी प्रकार से मानवों का नियम है जिस प्रकार से हिंसा पशुओं का नियम है। पशु की आत्मा सुप्तावस्था में होती है और वह केवल शारीरिक शक्ति के नियम को ही जानता है। मानव की गरिमा एक उच्चतर नियम आत्मा के बल का नियम के पालन की अपेक्षा करती है...’”


‘‘जिन ऋषियों ने हिंसा के बीच अहिंसा की खोज की, वे न्यूटन से अधिक प्रतिभाशाली थे। वे स्वयं वेलिंग्टन से भी बडे योद्धा थे। शस्त्रों के प्रयोग का ज्ञान होने पर भी उन्होंने उसकी व्यर्थता को पहचाना और श्रांत संसार को बताया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में है।”


“मैं केवल एक मार्ग जानता हूं - अहिंसा का मार्ग। हिंसा का मार्ग मेरी प्रछति के विरुद्ध है। मैं हिंसा का पाठ पढाने वाली शक्ति को बढाना नहीं चाहता... मेरी आस्था मुझे आश्वस्त करती है कि ईश्वर बेसहारों का सहारा है, और वह संकट में सहायता तभी करता है जब व्यक्ति स्वयं को उसकी दया पर छोड देता है। इसी आस्था के कारण मैं यह आशा लगाए बैठा हूं कि एक-न-एक दिन वह मुझे ऐसा मार्ग दिखाएगा जिस पर चलने का आग्रह मैं अपने देशवासियों से विश्वासपूर्वक कर सकूंगा।”

“अहिंसा और सत्य का मार्ग तलवार की धार के समान तीक्ष्ण है। इसका अनुसरण हमारे दैनिक भोजन से भी अधिक महत्वपूर्ण है। सही ढंग से लिया जाए तो भोजन देह की रक्षा करता है, सही ढंग से अमल में लाई जाए तो अहिंसा आत्मा की रक्षा करती है। शरीर के लिए भोजन नपी-तुली मात्रा में और निश्चित अंतरालों पर ही लिया जा सकता है; अहिंसा तो आत्मा का भोजन है, निरंतर लेना पडता है। इसमें तृप्ति जैसी कोई चीज नहीं है। मुझे हर पल इस बात के प्रति सचेत रहना पडता है कि मैं अपने लक्ष्य की ओर बढ रहा हूं और उस लक्ष्य के हिसाब से अपनी परख करती रहनी पडती है।”


“मैं जीवन भर एक 'जुआरी' रहा हूं। सत्य का शोध करने के अपने उत्साह में और अहिंसा में अपनी आस्था के अनवरत अनुगमन में, मैंने बेहिचक बडे-से-बडे दांव लगाए हैं। इसमें मुझसे कदाचित गलतियां भी हुई हैं, लेकिन ये वैसी ही हैं जैसी कि किसी भी युग या किसी भी देश के बडे-से-बडे वैज्ञानिकों से होती हैं।”


“मैंने अहिंसा का पाठ अपनी पत्नी से पढा, जब मैंने उसे अपनी इच्छा के सामने झुकाने की कोशिश की। एक ओर, मेरी इच्छा के दृढ प्रतिरोध, और दूसरी ओर, मेरी मूर्खता को चुपचाप सहने की उसकी पीडा को देखकर अंततः मुझे अपने पर बडी लज्जा आई, और मुझे अपनी इस मूर्खतापूर्ण धारणा से मुक्ति मिली कि मैं उस पर शासन करने के लिए ही पैदा हुआ हूं। अंत में, वह मेरी अहिंसा की शिक्षिका बन गई।”


“अहिंसा के मार्ग का पहला कदम यह है कि हम अपने दैनिक जीवन में परस्पर सच्चाई, विनम्रता, सहिष्णुता और प्रेममय दयालुता का व्यवहार करें। अंग्रेजी में कहावत है कि ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है। नीतियां तो बदल सकती हैं और बदलती हैं। किंतु अहिंसा का पंथ अपरिवर्तनीय है। अहिंसा का अनुगमन उस समय करना आवश्यक है जब तुम्हारे चारों ओर हिंसा का नंगा नाच हो रहा हो। अहिंसक व्यक्ति के साथ अहिंसा का व्यवहार करना कोई बडी बात नहीं है। वस्तुतः यह कहना कठिन है कि इस व्यवहार को अहिंसा कहा भी जा सकता है या नहीं। लेकिन अहिंसा जब हिंसा के मुकाबले खडी होती है, तब दोनों का फर्क पता चलता है। ऐसा करना तब तक संभव नहीं है जब तक कि हम निरंतर सचेत, सतर्क और प्रयासरत न रहें”


“अहिंसा उच्चतम कोटि का सव्यि बल है। यह आत्मबल अर्थात हमारे अंदर बैठे ईश्वरत्व की शक्ति है। अपूर्ण मनुष्य उस तत्व को पूरी तरह नहीं पकड सकता - वह उसके संपूर्ण तेज को सहन नहीं कर पाएगा, किंतु उसका अत्यल्प अंश भी हमारे अंदर सव्यि हो जाए तो उसके अद्भुत परिणाम निकल सकते हैं।”


“अहिंसा के प्रति मेरा प्रेम सभी लौकिक अथवा अलौकिक वस्तुओं से बढकर है। इसकी बराबरी केवल सत्य के प्रति मेरे प्रेम के साथ की जा सकती है जो मेरी दृष्टि में अहिंसा का समानार्थक है; केवल अहिंसा के माध्यम से ही मैं सत्य को देख और उस तक पहुंच सकता हूं।”


“...अहिंसा के बिना सत्य का शोध और उसकी प्राप्ति असंभव है। अहिंसा और सत्य एक-दूसरे से इस प्रकार गुंथे हुए हैं कि उन्हें पृथक करना प्रायः असंभव है। वे सिक्के, बल्कि कहिए कि धातु की चिकनी और बिना छाप वाली चव्का के दो पहलू हैं। कौन बता सकता है कि सीधा पहलू कौन-सा है और उल्टा कौन-सा ? फिर भी, अहिंसा साधन है और सत्य साध्य है। साधन वही है जो हमारी पहुंच के भीतर हो और इस प्रकार अहिंसा हमारा सर्वोपरि कर्तव्य है। यदि हम साधन को ठीक रखें तो देर-सबेर साध्य तक पहुंच ही जाएंगे। एक बार इस मुद्दे को समझ जाएं तो अंतिम विजय असंदिग्ध है।

“ अहिंसा  कायरता की आड नहीं है, बल्कि यह वीर का सर्वोच्च गुण है। अहिंसा के व्यवहार के लिए तलवारबाजी से ज्यादा वीरता की जरूरत है। कायरता और अहिंसा का कोई मेल नहीं है। तलवारबाजी को छोडकर अहिंसा को अपनाना संभव है, और कभी-कभी आसान भी है। अतः अहिंसा की पूर्वशर्त यह है कि अहिंसक व्यक्ति में वार करने की क्षमता हो। अहिंसा मनुष्य की प्रतिशोध लेने की भावना का सचेतन और जाना-बूझा संयमन है। लेकिन निष्व्यि, स्त्रSण और विवश अधीनता से तो प्रतिशोध ही हर हालत में श्रेष्ठ है। क्षमा और भी । उंची चीज है। प्रतिशोध दुर्बलता है। प्रतिशोध की भावना काल्पनिक अथवा वास्तविक हानि की आशंका के कारण उत्पन्न होती है। कुना डर के कारण भौंकता और काटता है। जो आदमी दुनिया में किसी से नहीं डरता, वह उस व्यक्ति पर वेधित होने की तकलीफ क्यों उठाना चाहेगा जो उसे नुकसान पहुंचाने का निरर्थक प्रयास कर रहा है ? सूर्य उन बच्चों से प्रतिशोध नहीं लेता जो उस पर धूल उछालते हैं। धूल उछालने के प्रयास में बच्चे खुद ही गंदे हो जाते हैं।”

“यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम बडे पैमाने पर वीर की अहिंसा से परिचित नहीं हैं। लोगों को, बडे जन-समूहों की तो बात छोडिए, छोटे-छोटे वर्ग़ों द्वारा अहिंसा के प्रयोग के विषय में भी संदेह है। वे अहिंसा के व्यवहार को असाधारण व्यक्तियों तक सीमित मानते हैं। यदि यह केवल व्यक्तियों के लिए ही सुरक्षित है तो फिर, मानव जाति के लिए इसका क्या उपयोग?”


“'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं', एक ऐसा नीतिवचन है जिसे समझना तो काफी आसान है, पर जिस पर आचरण शायद ही कभी किया जाता है। इसीलिए दुनिया में घृणा का विष फैलता चला जा रहा है।”

“मैं अहिंसा को केवल व्यक्तिगत सद्गुण नहीं मानता। यह एक सामाजिक सद्गुण भी है जिसका विकास अन्य सद्गुणों की तरह ही किया जाना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि पारस्परिक व्यवहार में समाज प्रायः अहिंसा की अभिव्यक्ति से ही संचालित होता है । मेरा कहना सिर्फ यह है कि इसका और बडे पैमाने राष्टींय तथा अंतर्राष्टींय पर विस्तार किया जाना चाहिए ।”

“अहिंसा ऐसे व्यक्ति को नहीं सिखाई जा सकती जो मरने से भय खाता है और जिसमें प्रतिरोध की शक्ति ही नहीं है। लाचार चूहे को, जो हमेशा बिल्ली का शिकार बनता है, अहिंसक नहीं कहा जा सकता। उसका बस चले तो जरूर बिल्ली को खा जाए, पर वह उसे देखते ही भाग खडा होता है। हम उसे कायर नहीं कहते, क्योंकि प्रकृति ने उसे जैसा बनाया है वह वैसा ही व्यवहार करता है।”


“मैं यह नहीं कहता कि 'भारत पर आव्मण करने वाले लुटेरों, चोरों या राष्टों से निपटने के लिए हिंसा का सहारा मत लो।' लेकिन इसमें अच्छी तरह कामयाब होने के लिए हमें अपने ।पर संयम रखना सीखना चाहिए। जरा-जरा-सी बात पर पिस्तौल उठा लेना मजबूती नहीं, बल्कि कमजोरी की निशानी है। आपसी घूंसेबाजी हिंसा का नहीं, बल्कि नामर्दगी का अभ्यास है ।”


“यदि युद्ध स्वयं एक अनैतिक छत्य है तो यह नैतिक समर्थन या आशीर्वाद के योग्य कैसे माना जा सकता है ? मैं सभी प्रकार के युद्धों को पूरी तरह गलत मानता हूं। लेकिन हम दो युद्धरत पक्षों के इरादों की छानबीन करें तो संभवतः यह पाएंगे कि उनमें से एक सही है और दूसरा गलत। उदाहरण के लिए, यदि 'अ' देश 'ब' देश पर कब्जा करना चाहता है तो स्पष्टतया यह 'ब' देश पर अन्याय है। दोनों देश सशस्त्र संघर्ष करेंगे। मैं हिंसक संघर्ष में विश्वास नहीं करता, फिर भी, 'ब' देश, जिसका पक्ष न्यायोचित है, मेरी नैतिक सहायता और आशीर्वाद का पात्र होगा ।”


अहिंसा पर गाँधीजी का स्वयं का लिखा इतना उपलब्ध है कि ऐसी एक नहीं कई पोस्ट छोटी पड़ जाएं। मैंने पूर्व में जैसा कहा था कि गाँधीजी पर जैन पंथ और बौद्ध पंथ का प्रभाव था। वह उनके इन विचारों में स्पष्ट झलकता भी है।

(क्रमश:)

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