Wednesday, December 23, 2020

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (२८)

(गतांक से आगे)


जानिए गाँधी को महात्मा बनाने वाले स्वामी श्रृद्धानंद के बारे में



आज जब मैं यह श्रृंखला लिख रहा हूं तब यानी २३ दिसंबर को स्वामी श्रृद्धानंद का बलिदान दिवस है। स्वामी श्रृद्धानंद कौन थे? और उनका महात्मा गाँधी से क्या संबंध थे? उनका बलिदान कैसे हुआ… यह एक लंबी कहानी है और हर उस व्यक्ति को जानना जरूरी है जो भारत के इतिहास और घटनाओं की पृष्ठभूमि की तथ्यों के साथ पड़ताल करने में रूचि रखता है।

स्वामी श्रृद्धानंद ने रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया । समाचार-पत्र ”दैनिक विजय” नामक में ”छाती पर पिस्तौल” नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे । स्वामीजी महात्मा गाँधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे । लेकिन जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट का विरोध वे हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे ।

गाँधीजी जब द अफ्रिका में सत्याग्रह कर रहे थे उस समय स्वामीजी ने गाँधीजी को १५०० रुपए भिजवाए थे। उस जमाने में यह बहुत बड़ी रकम थी और यह कैसे इकट्‌ठा की गई इसकी पूरी एक अलग कहानी है। १९१६ में जब गाँधीजी द. अफ्रिका से वापस आए तो स्वामी जी की कुटिया में आदर स्वरूप उनके पाँव छुए और कहा -‘‘ मैं आपका छोटा भाई, मोहनदास करमचंद गाँधी। स्वामीजी ने उन्हें प्रेमपूर्वक गले लगाया और उन्हें “महात्मा” कह कर संबोधित किया। बस तभी से गाँधीजी महात्मा गाँधी कहलाए।

स्वामी जी जनसभा में अंग्रेजी फौज व अधिकारियों को वे ऐसा जवाब देते थे कि अंग्रेज भी उनसे डरा करते थे । १९१९ में हुए जलियांवाला कांड के बाद आम जनता ने दिल्ली में एक जुलूस निकाला जिसका नेतृत्व स्वामी श्रृद्धानंद ने किया| जब जुलूस चांदनी चौक पहुंचा तो वहां सेना के एक जवान ने बन्दूक स्वामीजी के सीने पर तान दी | स्वामीजी ने अपनी छाती पर से चादर हटा दी और कहा “साहस है तो चलाओ गोली” | कहते हैं इस घटना के बाद ३ दिनों तक पूरे दिल्ली प्रदेश में स्वामीजी का अघोषित राज कायम रहा | हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए स्वामी जी ने भरसक प्रयास किए। १९१९ में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को पांथिक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था। जामा मस्जिद के गुम्बद से स्वामीजी ने यह वेदमंत्र पढ़ा था-

“त्वं हि पिता वसो त्वं माता सखा त्वमेव । शतक्रतो बभूविथ । अधा ते सुम्नमी महे ।।” मस्जिद में वेदमंत्र के उच्चारण का यह एकमात्र उदाहरण मिलता है।  इसके बाद मुसलमानों ने अन्य मस्जिदों में भी उनके व्याख्यान करवाये |  १९२२ में गुरु का बाग सत्याग्रह के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया । कांग्रेस में उन्होंने १९१९ से लेकर १९२२ तक सक्रिय रूप से कार्य किया। १९२२ में उन्हें सिख समाज के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तार किया गया था । खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस की भागीदारी से नाराज होकर  स्वामी श्रृद्धानन्द कांग्रेस से अलग हो गए। लेकिन कांग्रेस से  अलग होने के बाद भी स्वतंत्रता के लिए लगातार कार्य करते रहे। उनके विचारों को सुनकर हिंदू महासभा ने उन्हें नेतृत्व करने का अनुरोध किया, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया ।  २३ दिसम्बर १९२६ को नया बाजार स्थित उनके निवास पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी ने धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश किया। उस समय स्वामीजी निमोनिया से पीड़ित थे। और अब्दुल रशीद ने गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी।

आप सोचिए, ऐसे व्यक्ति की हत्या पर गाँधीजी की प्रतिक्रिया क्या रही होगी? पहले आप चौंक जाएंगे लेकिन जब पूरा पढ़ेंगे तब उसका मर्म समझ पाएंगे।  महात्मा गाँधी ने स्वामीजी के पुत्र इंद्र विद्यावाचस्पति को पत्र लिखकर यहाँ कहा कि ‘अब्दुल भाई’ को माफ़ कर दो। उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात २५ दिसम्बर, १९२६ को गुवाहाटी आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में गाँधीजी द्वारा प्रस्तुत और अधिकृत रूप से जारी किए जारी शोक प्रस्ताव इस प्रकार है “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।“

इस अधिवेशन में दिया गया गाँधीजी का भाषण यंग इंडिया के ३० दिसंबर १९२६ के अंक में छपा है। संपूर्ण गाँधी वांग्मय के खंड २४ में इसका विस्तार से जिक्र है।  उन्होंने अपने भाषण में कहा,”… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।“ उन्होंने आगे कहा कि “समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। स्वामी श्रृद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है। “अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी ने कहा कि “…ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली समूहों के विभाजन को मजबूत कर सकेगा।”

इस घटना को लेकर मुस्लिम समाज को गाँधीजी ने क्या संदेश दिया वह भी पढ़िए। वे लिखते हैं

"मुसलमानों को अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि छुरी और पिस्तौल चलाने में उनके हाथ जरूरत से ज्यादा फुर्तीले हैं। तलवार वैसे इस्लाम का मजहबी चिन्ह नहीं है मगर इस्लाम की पैदाइश ऐसी स्थिति में हुई जहाँ तलवार की ही तूती बोलती थी और अब भी बोलती है। मुसलमानों को बात-बात पर तलवार निकाल लेने की बान पड़ गयी है। इस्लाम का अर्थ है शांति। अगर अपने नाम के अनुसार बनना है तो तलवार म्यान में रखनी होगी। यह खतरा तो है कि मुसलमान लोग गुप्त रूप से इस कृत्य का समर्थन ही करें। मुसलमानों को सामूहिक रूप से इस हत्या की निंदा करनी चाहिए।" 

उन्होंने हिंदुओं को कहा - "क्रोध दिखलाकर हिन्दू अपने धर्म को कलंकित करेंगे और उस एकता को दूर कर देंगे जिसे एक दिन अवश्य आना ही है। आत्मसंयम के द्वारा वे स्वयँ को अपने उपनिषदों और क्षमामूर्ति युधिष्ठिर के योग्य सिद्ध कर सकते हैं।" यहाँ तक तो ठीक है पर गाँधीजी आगे लिखते हैं कि "एक व्यक्ति के पाप को सारी जाति का पाप न मानकर हम अपने मन में बदला लेने की भावना न रखें।"

गाँधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई ने गाँधीजी को बताया कि आपके मित्र मजहरूल हक आपका लेख पढ़कर बहुत नाराज हैं। उनका कहना है कि “मैं गाँधी को ऐसा नहीं समझता था अब मैं उन पर विश्वास नहीं करूंगा।” संपूर्ण गाँधी वांग्मय के खंड 97 में बताया गया है कि १जनवरी १९२७ को गाँधीजी ने मजहरूल हक साहब को पत्र लिखा। "यदि महादेव ने सचमुच आपके कथन को ठीक से समझा है तो स्वामी श्रृद्धानंद पर मेरे लेख के कारण आपने मुझ पर विश्वास करना बंद कर दिया है। उसने मुझे बताया कि आपके अविश्वास का कारण मेरे लेख का केवल यह वाक्य है कि "छुरी और पिस्तौल का इस्तेमाल करने में मुसलमानों को कहीं ज्यादा आजादी प्राप्त है।" यदि मैं अपने यकीन के आधार पर कुछ लिखता हूँ तो मुझ पर विश्वास क्यों न हो? क्या मैं अपने मित्रों का विश्वास टिकाए रखने के लिए, जो वे करें उसे मान लूँ? यदि मेरे वक्तव्य में कुछ गलत है तो आपको विरोध करना चाहिए और सहानुभूतिपूर्वक मुझे उससे दूर करना चाहिए, किंतु जब तक आप यह मानते हैं कि मैं किसी पंथ या जाति के प्रति पक्षपात नहीं रखता तब तक आपको मेरा विश्वास करना चाहिए।

गाँधीजी आगे लिखते हैं अब मैं अपने वक्तव्य को लेता हूँ। जिस दिन से मैंने मुसलमानों को जाना है उनके बारे में मेरी निश्चित धारणा बनी है। उसके कारण ही, मैंने जेल (फरवरी १९२४) से बाहर आने के बाद बिना उनके बारे में बिना कुछ पढ़े वे सब बातें लिखीं। वे सब मेरे लम्बे निजी अनुभव और मित्रों के पूर्वाग्रह रहित मतों पर आधारित हैं। ये मित्र भी उतने ही पूर्वाग्रह रहित हैं, जितना मैं आपको समझता हूँ। वास्तव में अनेक मुसलमानों ने मजहब के नाम पर हिंसा का बेझिझक इस्तेमाल किया है। अब आप ही बताइए कि मैं अपनी आँखों पर और ऐसे मित्रों पर, जिन पर मुझे विश्वास है, कैसे अविश्वास करूँ। इस सबके बावजूद मैं मुसलमानों को प्रेम करता हूँ। गलती उनकी नहीं, उनकी परिस्थितियों की है।..."

(क्रमश:)






 






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