Thursday, July 7, 2022

सवाल यह है कि इन सवालों के जवाब कौन देगा

सवाल यह है कि इन सवालों के जवाब कौन देगा

#मनोज_जोशी

बुधवार को भोपाल में नगर निगम चुनाव के लिए मतदान हो गया। अब हर जुबान पर दो ही प्रश्न हैं। महापौर कौन बन रहा है ?और परिषद किसकी बनेगी ? वैसे सैद्धांतिक बात तो यह है कि अगर यह पता ही होता तो चुनाव क्यों कराते? सीधे ही महापौर और हर वार्ड में पार्षद घोषित कर देते 😊  इसी प्रश्न का जवाब तलाशने के लिए ही तो चुनाव हुआ है। मतगणना होगी और सच सामने आ जाएगा।


लेकिन इस पूरे चुनाव में और खास तौर से मतदान वाले दिन के माहौल को देखकर मेरे मन में कुछ बातें हैं। कांग्रेस के बारे में तो शुरू से यही कहा जाता है कि वहां कैंडिडेट चुनाव लड़ता है और इस बात से कोई भी इनकार नहीं करेगा कि महापौर पद के लिए  कांग्रेस के पास विभा पटेल से बेहतर कोई और उम्मीदवार नहीं था।

लेकिन भाजपा में तो ऐसा ही कहा जाता रहा है कि संगठन चुनाव लड़ता है। देवतुल्य कार्यकर्ताओं के इस संगठन में लगी हुई घुन नेताओं को दिखे या ना दिखे आम आदमी को तो दिखने लगी है। मतदाता सूची में अपना नाम तलाशने के लिए लोग यहां-वहां भटक रहे थे और नाम नहीं मिलने पर निराश और नाराज़ होकर लौट रहे थे। जिन इलाकों को भाजपा का कोर वोटर वाला इलाका माना जाता है, वहां भी सैकड़ों लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब हो गए। मेरा मन यह प्रश्न पूछ रहा था कि जिस पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष भी खुद को अपने बूथ की मतदाता सूची का पन्ना प्रभारी बताता है, उस देवतुल्य कार्यकर्ता को यह क्यों नहीं पता चला कि उसके पन्ने से लोगों के नाम कट गए हैं। आखिर देवतुल्य यानी देवता के समान का वह कार्यकर्ता कहां अपनी पूजा करा रहा था ? या मंच से जिसे देवतुल्य कहा जाता है उसे भक्त तो छोड़िए चाटुकार बनने के लिए मजबूर कर दिया गया है। गले में गमछा डाल कर पार्टी के बड़े नेताओं के आसपास चक्कर लगाना, दिन भर नेता जी के बंगले के बाहर या प्रदेश कार्यालय में खड़े होकर गपशप करना और हमेशा राजनीतिक समीकरणों पर ही चर्चा करना यही राजनीतिक गतिविधि रह गई है। पार्टी के कार्यक्रम आते हैं, पैसा देकर फ्लेक्स बन जाते हैं, ठेकेदार उन्हें लगा देता है और सत्ता में है इसलिए किसी न किसी बहाने से प्रशासन भीड़ जुटा देता है। नतीजा उस कार्यकर्ता का अपने क्षेत्र की जनता या मतदाता से सीधा संपर्क ही नहीं हो पाता। कुल मिलाकर इस सब में हुआ यह कि जब मतदाता सूची का पुनरीक्षण चल रहा था तब बड़े नेता जी ने ध्यान नहीं दिया और कार्यकर्ता को आदेश नहीं मिला इसलिए उसने कुछ नहीं किया। कुछ शातिर दिमाग लोगों ने अपने विरोधियों के नाम कटवा दिए। पार्टी के भीतर मची सिर फुटौव्वल का एक उदाहरण ऐसा भी है जिसमें प्रबल दावेदार का नाम ही मतदाता सूची से कटवा दिया गया जब तक वह जागे तब तक देर हो चुकी थी नतीजा टिकट मिलने के बाद भी वापस करना पड़ा। पार्षदों के टिकट वितरण में किस क्षेत्र में किस नेता ने, किसके लिए, कितना जोर लगाया और अपने मनपसंद उम्मीदवार को टिकट नहीं मिलने पर पूरे प्रचार के दौरान उन नेता जी ने और उनसे जुड़े कार्यकर्ताओं ने कितना काम किया इसका विश्लेषण करेंगे तो हर विधानसभा क्षेत्र में मतदान के प्रतिशत की हकीकत सामने आ जाएगी।

प्रशासन ही सब कुछ करेगा इस मानसिकता के नतीजे का व्यक्तिगत उदाहरण देता हूं। महापौर और पार्षदों के लिए पहली बार हुए आरक्षण के समय जब मतदाता सूची का पुनरीक्षण चल रहा था, मुझे अपना नाम मतदाता सूची में नहीं मिला। मैंने आवेदन दिया और वार्ड 82 में नाम जुड़ गया, जबकि मैं वार्ड 83 में निवास करता हूं। सभी संबंधित अधिकारियों को बताने के बावजूद मुझे भी कल वार्ड 82 में वोट डालने जाना पड़ा। मेरे पते के आधार पर वहां नाम नहीं मिल रहा था क्योंकि पता तो 83 नंबर का था। कुछ देर मशक्कत के बाद नाम मिला और मैं वोट डाल पाया। सवाल यह है कि वार्ड 82 के पार्षद प्रत्याशी से मेरा क्या लेना देना ? और इस उदाहरण से यह भी समझ में आता है कि प्रशासन ने नाम जोड़ने घटाने में कितनी रूचि ली होगी।

इसी तरह की एक और बात। निर्वाचन आयोग ने नियम बना दिया है कि पर्चियां भी बीएलओ बांटेंगे। बीएलओ यानी सरकारी बाबू जिनकी आदत दफ्तर में बैठकर काम करने की है वह चाह कर भी घर-घर घूम कर पर्चियां नहीं बांट सकते। यदि राजनीतिक कार्यकर्ता घर-घर जाकर पर्चियां बांटें तो इसमें क्या परेशानी है ? यह मेरे समझ में तो नहीं आता। 

चुनाव परिणाम चाहे जो हों लेकिन सभी प्रश्न जवाब मांगेंगे। आखिर सवा साल बाद विधानसभा के चुनाव भी होना है। 



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