Wednesday, April 5, 2023

प्लास्टिक की पन्नी और मन्नत : हिंदु संस्कृति की परंपरा में विकृति



प्लास्टिक की पन्नी और मन्नत : हिंदु संस्कृति की परंपरा में विकृति

#मनोज_जोशी



 


पिछले सप्ताह संयोग से चैत्र शुक्ल अष्टमी पर यानी बुधवार को कर्फ्यू वाली माता के मंदिर में दर्शन के लिए परिवार के साथ पहुंच गया। बिना किसी योजना के ऐसे पहुंचा जैसे स्वयं माता ने बुलाया हो। और यहाँ शेर के पाँव में बड़ी संख्या में पन्नी बंधी हुईं दिखी। याद आया कि कुछ दिन पहले ही Dainik Bhaskar में खबर छपी थी कि मन्नत के लिए यहाँ लोग शेर के पाँव में प्लास्टिक की पन्नी बांध रहे हैं। कलावा और चुनरी बांधना तो सुना था, प्लास्टिक की पन्नी की बात पहली बार सुनी तो अजीब सा लगा। और फिर उस दिन देख लिया तो मन खिन्न हो गया।

आखिर पन्नी बांधने की परंपरा कहाँ से आ गई।

मुझे अपने बचपन की दो घटनाएं याद आ गईं। 

1.घर के पास कालीजी का मंदिर था और उसी में हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित हो गई थी। कई मित्र खास तौर से गणित की परीक्षा वाले दिन हनुमान जी के दर्शन करने जाते और उनसे परीक्षा में पास कराने की प्रार्थना करते। अपने राम को कभी इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई। बाद के वर्षों में उस मंदिर में और शहर के दूसरे हनुमान मंदिरों में चिट्ठियां चिपकने लगीं।

यह चिट्ठी परिणाम को कितना प्रभावित करती है पता नहीं ... लेकिन भक्त और भगवान के रिश्ते में भावनात्मक लगाव इतना होता है कि इस चिट्ठी को आस्था और विश्वास का प्रकटीकरण मानकर स्वीकार कर लिया।

और फिर इसमें कोई बुराई भी नहीं। भक्त अपने ढंग से अपने मन की बात भगवान से कहा रहा है। कई बार तो यह चिट्ठियां बहुत मार्मिक भी होती हैं।


2. यह किस्सा बिल्कुल प्लास्टिक की पन्नी जैसा ही है। घर पर माँ के स्पष्ट निर्देश थे कि भगवान को चीनी के बर्तन में भोग नहीं लगेगा। वो कहती थीं चीनी का बर्तन शुद्ध नहीं है, भगवान उसके भोग को स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन बचपना तो बचपना होता है, जैसा कहा वैसा मान लिया तो काहे के बच्चे। अपने राम ने एक दिन पूजा की और चीनी की प्लेट में भोग लगा दिया। पता नहीं क्या हुआ वह चीनी की प्लेट नीचे गिर कर टूट गई और भोग सामग्री जमीन पर फैल गई। उस घटना से यह बात मन में कहीं बैठ गई कि वाकई चीनी के बर्तन में भगवान भोग स्वीकार नहीं करते।

अब वापस पन्नी वाली बात पर आता हूँ।‌ यह तो हम सब जानते हैं कि प्लास्टिक पर्यावरण के लिए घातक है। और जो पर्यावरण के लिए घातक है उसे ईश्वर कैसे स्वीकार करेंगे ? हम तो हिंदु संस्कृति के वाहक हैं। प्रकृति के हर अंग पेड़ पौधे पशु पक्षी सब में देवताओं का वास मानने वाला हिंदु समाज उस पॉलिथीन को बांध कर मन्नत मांग रहा है जिसके खाने से गौ माता बीमार पड़ रहीं हैं। गौ माता में तो सभी देवताओं का वास हैं। और केवल गौ माता क्यों भगवान विष्णु के दशावतार का ध्यान कीजिए मछली से लेकर मानव तक सब में विष्णु अवतार का अंश मौजूद हैं। 

आखिर इसका आधार क्या है? और दुख का विषय यह है कि यह उस मंदिर में हो रहा है जिसकी स्थापना के लिए हमारी पुरानी पीढ़ी ने संघर्ष किया, कर्फ्यू लगा इसीलिए तो कर्फ्यू वाली माता का मंदिर नाम प्रचलित हुआ।

और मंदिर की स्थापना क्यों होती है ? संस्कृति की रक्षा के लिए ही ना ? फिर यह पन्नी बांध कर क्या हम रक्षा कर रहे हैं? इस पर विचार नितांत आवश्यक है।

हिंदु religion नहीं संस्कृति है, जीवनशैली है। यह परिवर्तनशील है इसीलिए युगों तक अक्षुण्ण है। इसकी अक्षुण्णता को बनाए रखने के लिए विकृतियों को भी रोकना होगा।


एक गीत जिसने १९८० के दशक के अंतिम वर्षों में मुझे प्रेरणा दी उसके बोल थे

"रुढ़ियों को तोड़ दो, परंपराएं मोड़ दो

जिसमें देश का भला न हो

वो हर काम छोड़ दो"

मुझे लगता है इसमें एक बात और जोड़ना पड़ेगी

"विकृतियों को रोक दो"

Monday, February 6, 2023

‘परंम् वैभवम नेतुमेतत्वस्वराष्ट्रं’

‘परंम् वैभवम नेतुमेतत्वस्वराष्ट्रं’


यानी राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाना है. अगर आप मुझसे पूछें कि यह कैसे होगा? तो मेरा स्पष्ट मत यह है कि जाति व्यवस्था को समाप्त करना होगा और इसकी शुरुआत जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को समाप्त करके होगी।

एक ही मंदिर, एक जलाशय, सबका एक श्मशान हो। जब तक यह एकता नहीं आएगी। जाति के आधार पर श्रेष्ठता और निम्नता के भाव जब तक समाप्त नहीं होंगे, हम परम वैभव के लक्ष्य को नहीं पा सकते। हमारे सांस्कृतिक इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं जो साबित करते हैं कि प्राचीन वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी, जन्म आधारित नहीं। बाद में यह जन्म आधारित जाति व्यवस्था में बदल गई।

अक्तूबर, 2003 में नागपुर में अपने विजयादशमी उद्बोधन में संघ के पांचवें सरसंघचालक सुदर्शन जी ने कथित दलित समस्या पर कहा, 'अपने ही समाज के एक वर्ग को दलित जैसे घृणित शब्द से संबोधित करना कहां तक उचित है? वास्तव में जो लोग विकास के निम्न स्तर पर हैं उनमें ऊपर उठने का आत्मविश्वास जगाना पहली आवश्यकता है। हमारी सोच यह है कि यह कार्य समाज को स्वयं करना होता है और यह कार्य तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित नेता लोग नहीं कर सकते। इस कार्य को सामाजिक एवं धार्मिक नेतृत्व को अपने हाथ में लेना चाहिए।'

संघ के चौथे सरसंघचालक रज्जू भैया एक जगह लिखते हैं -'इस देश का हिन्दू समाज हजारों वर्षों तक समृद्धि एवं वैभव का जीवन जीने के बाद ईसा की नवमी और दशमी शताब्दियों में ऐसी रुढ़िग्रस्त अवस्था में पहुंच गया जहां गुण-कर्म पर आधारित वर्ण एवं जाति व्यवस्था को ऊंच-नीच का पर्याय मानकर हमारे ही लोगों ने राष्ट्र के उत्थान में बाधाएं खड़ी कर दीं। परिणामत: हिन्दू समाज अनेक प्रकार से विभक्त हो गया और राष्ट्र को निरंतर आठ सौ वर्षों तक परकीयों की दासता सहनी पड़ी।'

संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहेब देवरस का तो यह वाक्य प्रसिद्ध है - "यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो संसार में कुछ भी पाप नहीं है।"

बालासाहब देवरस ने 1986 राष्ट्रीय सेविका समिति के स्वर्ण जयंती समारोह में दिए भाषण में कहा था 'जाति-व्यवस्था को समाप्त कर देना चाहिए. हिंदू समाज की जातिप्रथा समाप्त होने पर सारा संसार हिंदू समाज को वरण करेगा. इसके लिए भारतीय महिला समाज को पहल अपने हाथ में लेकर अपने घर से ही अंतरजातीय और अंतरप्रांतीय विवाह की शुरुआत करनी चाहिए.'

द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवलकर जी कहते थे - ‘चातुर्वर्ण्य में न तो किसी वर्ण का अस्तित्व है और न ही किसी जाति का. आज तो हम सभी का एक ही वर्ण और एक ही जाति है और वह है हिंदू.’

संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने कहा ‘हम अस्पृश्यता दूर करने की बात नहीं करते बल्कि हम स्वयंसेवकों को इस प्रकार विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं कि हम सभी हिंदू हैं और एक ही परिवार के सदस्य हैं. इससे किसी भी स्वयंसेवक में इस तरह का विचार नहीं आता है कि कौन किस जाति का है?’

#मनोज_जोशी

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Friday, January 13, 2023

गाँधी - गोडसे : आखिर वैचारिक असहमति हत्या का अधिकार तो नहीं देती


 #मनोज_जोशी 

फिल्म डायरेक्टर राजकुमार संतोषी की आने वाली फिल्म गांधी-गोडसे एक युद्ध का ट्रेलर रिलीज होने के दो दिन बाद ही इसका विरोध शुरु हो गया है। और इस विरोध के साथ ही गांधीजी और गोडसे को लेकर चलने वाली बहस एक बार फिर आम हो गई है। 

पिछले महीने मेरी पुस्तक "हिंदुत्व और गाँधी" का लोकार्पण हुआ है। इस पुस्तक के लेखन के लिए जब मैं अध्ययन कर रहा था तो स्वाभाविक रूप से गोडसे के बारे में काफी कुछ समझा और पढ़ा। 

लेकिन अंत में मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि गोडसे का पक्ष सामने लाना और उस पर चर्चा करना वास्तव में हिंदुत्व का नुक़सान ही है। और यही वज़ह है कि मैंने अपनी पुस्तक में गोडसे का जिक्र नहीं किया, बल्कि मैं उसका नाम भी लेना उचित नहीं समझता।

लेकिन इस विवाद को देखते हुए आज कुछ ऐसी बातें जो किताब में नहीं लिखी और कुछ ऐसी जो उसमें लिखी है सब मिलाकर अपनी बात कहना चाहता हूं। 

यह बात सही है कि नाथूराम गोडसे के बयान वाले दिन यानी ८ नवम्बर १९४८ को अदालत में काफी भीड़ थी और गोडसे का बयान सुनते हुए अदालत में मौजूद लोगों की आँखें नम हो गई थी। १० फरवरी १९४९ को गोडसे को फाँसी की सजा सुनाते हुए जस्टिस जीडी खोसला ने लिखा कि .."मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि यदि उस दिन अदालत में उपस्थित दर्शकों को संगठित कर ज्यूरी बना दिया जाता। इसके साथ ही उन्हें नाथूराम गोडसे पर फैसला सुनाने को कहा जाता, तो भारी बहुमत के आधार पर गोडसे 'निर्दोष' (Not Guilty) करार दिया जाता। 

लेकिन मेरी मान्यता है कि इतने भर से गोडसे का अपराध तो कम नहीं हो जाता। यह भी सच है कि गाँधीजी विभाजन को नहीं रोक पाए और विभाजन के बाद और पहले गाँधीजी के कई फैसलों से हम असहमत हो सकते हैं। लेकिन इस असहमति का अर्थ क्या है कि हम जिससे असहमत हैं उसकी हत्या कर दें। यह तो जंगलराज ही होगा। एक तथ्य यह भी है कि गाँधीजी स्वयं इस आजादी से खुश नहीं थे और वह दिल्ली में हुए आजादी के जश्न में शामिल नहीं हुए थे।‌ शायद वे विभाजन को मन से स्वीकार नहीं कर सके थे । इसलिए ऐसी व्यवस्था चाहते थे कि दोनों देशों में बिना पासपोर्ट वीजा के आना-जाना हो सके

यदि आप हिंदुत्व की बात करें तो एक परिभाषा यह भी है - जिसका ह्रदय इंदु यानी चंद्रमा के समान पवित्र है वह हिंदु है। चंद्रमा के समान पवित्र हृदय वाला व्यक्ति तो असहमति पर हत्या नहीं करेगा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ विचारक स्व एमजी वैद्य के एक बयान का मैंने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है। एमजी वैद्य ने कहा है ...'मैं नाथूराम गोडसे का सम्मान करने और उन्हें सम्मान देने के खिलाफ हूँ. वह एक हत्यारा है। इसके आगे वे और भी महत्वपूर्ण बात कहते हैं - 'कुछ लोग कहते हैं कि इससे (गोडसे के महिमामंडन) हिंदुत्व का गौरव बढ़ेगा। नहीं इससे हिंदुत्व का नाम खराब होगा...मैं तो यहां तक कहता हूं कि गांधी की हत्या से हिंदुत्व को नुकसान पहुंचा है।'

वैद्य ने गाँधीजी के विचारों को लेकर असहमति को भी स्वीकारा और कहा, 'महात्मा गांँधी ने अपने जीवनकाल में आजादी के बारे में जागरूकता फैलाई। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम उनकी सभी नीतियों से सहमत हों। लेकिन विचारों की लड़ाई को विचार से लड़ा जाना चाहिए, इसके लिए खून की होली खेलने की इजाजत नहीं दी जा सकती।'

कुछ और तथ्य जिनका पुस्तक में जिक्र है वह भी दोहराना चाहूंगा। महात्मा गाँधी की हत्या की जानकारी मिलने पर गुरु गोलवलकर जी की पहली प्रतिक्रिया थी "यह देश का दुर्भाग्य है।" उन्होंने 13 दिन तक शोक मनाने की घोषणा की।‌ 

इसके बावजूद संघ पर प्रतिबंध लगा। गाँधीजी की हत्या के पाँचवें दिन संघ पर हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगाकर ४ फरवरी १९४८ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

११ जुलाई १९४९ को यह प्रतिबंध उठा लिया गया, जबकि गाँधीजी की हत्या पर अदालत का फैसला संघ से प्रतिबंध हटाने के लगभग ४ महीने बाद ८ नवंबर १९४९ को आया। क्या इसका यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को अपनी गलती का एहसास हो गया था।

 यदि आप गांधी जी की हत्या को लेकर आज भी संघ पर आरोप लगाते हैं या गोडसे को संघ से जोड़ते हैं तो यह सुप्रीम कोर्ट का अपमान है और उस समय की सरकार का अपमान है। संघ तो आज भी रोजाना अपने प्रातः स्मरण में गाँधीजी को याद करता है।

बात यहीं खत्म नहीं होती मैं तो यह पूछना चाहता हूँ कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नाती जीवी केतकर पर गांधी जी की हत्या के षड्यंत्र की जानकारी होने का आरोप लगाते समय लोगों को शर्म नहीं आई क्या? उन पर हत्या के षड्यंत्र की जानकार छिपाने के आधार पर रासुका लगाई गई। इसके बाद एक आयोग बना। आयोग की रिपोर्ट केतकर के साथ सावरकर और संघ को भी निर्दोष साबित करती है।

(फोटो साभार गूगल)





Thursday, July 7, 2022

सवाल यह है कि इन सवालों के जवाब कौन देगा

सवाल यह है कि इन सवालों के जवाब कौन देगा

#मनोज_जोशी

बुधवार को भोपाल में नगर निगम चुनाव के लिए मतदान हो गया। अब हर जुबान पर दो ही प्रश्न हैं। महापौर कौन बन रहा है ?और परिषद किसकी बनेगी ? वैसे सैद्धांतिक बात तो यह है कि अगर यह पता ही होता तो चुनाव क्यों कराते? सीधे ही महापौर और हर वार्ड में पार्षद घोषित कर देते 😊  इसी प्रश्न का जवाब तलाशने के लिए ही तो चुनाव हुआ है। मतगणना होगी और सच सामने आ जाएगा।


लेकिन इस पूरे चुनाव में और खास तौर से मतदान वाले दिन के माहौल को देखकर मेरे मन में कुछ बातें हैं। कांग्रेस के बारे में तो शुरू से यही कहा जाता है कि वहां कैंडिडेट चुनाव लड़ता है और इस बात से कोई भी इनकार नहीं करेगा कि महापौर पद के लिए  कांग्रेस के पास विभा पटेल से बेहतर कोई और उम्मीदवार नहीं था।

लेकिन भाजपा में तो ऐसा ही कहा जाता रहा है कि संगठन चुनाव लड़ता है। देवतुल्य कार्यकर्ताओं के इस संगठन में लगी हुई घुन नेताओं को दिखे या ना दिखे आम आदमी को तो दिखने लगी है। मतदाता सूची में अपना नाम तलाशने के लिए लोग यहां-वहां भटक रहे थे और नाम नहीं मिलने पर निराश और नाराज़ होकर लौट रहे थे। जिन इलाकों को भाजपा का कोर वोटर वाला इलाका माना जाता है, वहां भी सैकड़ों लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब हो गए। मेरा मन यह प्रश्न पूछ रहा था कि जिस पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष भी खुद को अपने बूथ की मतदाता सूची का पन्ना प्रभारी बताता है, उस देवतुल्य कार्यकर्ता को यह क्यों नहीं पता चला कि उसके पन्ने से लोगों के नाम कट गए हैं। आखिर देवतुल्य यानी देवता के समान का वह कार्यकर्ता कहां अपनी पूजा करा रहा था ? या मंच से जिसे देवतुल्य कहा जाता है उसे भक्त तो छोड़िए चाटुकार बनने के लिए मजबूर कर दिया गया है। गले में गमछा डाल कर पार्टी के बड़े नेताओं के आसपास चक्कर लगाना, दिन भर नेता जी के बंगले के बाहर या प्रदेश कार्यालय में खड़े होकर गपशप करना और हमेशा राजनीतिक समीकरणों पर ही चर्चा करना यही राजनीतिक गतिविधि रह गई है। पार्टी के कार्यक्रम आते हैं, पैसा देकर फ्लेक्स बन जाते हैं, ठेकेदार उन्हें लगा देता है और सत्ता में है इसलिए किसी न किसी बहाने से प्रशासन भीड़ जुटा देता है। नतीजा उस कार्यकर्ता का अपने क्षेत्र की जनता या मतदाता से सीधा संपर्क ही नहीं हो पाता। कुल मिलाकर इस सब में हुआ यह कि जब मतदाता सूची का पुनरीक्षण चल रहा था तब बड़े नेता जी ने ध्यान नहीं दिया और कार्यकर्ता को आदेश नहीं मिला इसलिए उसने कुछ नहीं किया। कुछ शातिर दिमाग लोगों ने अपने विरोधियों के नाम कटवा दिए। पार्टी के भीतर मची सिर फुटौव्वल का एक उदाहरण ऐसा भी है जिसमें प्रबल दावेदार का नाम ही मतदाता सूची से कटवा दिया गया जब तक वह जागे तब तक देर हो चुकी थी नतीजा टिकट मिलने के बाद भी वापस करना पड़ा। पार्षदों के टिकट वितरण में किस क्षेत्र में किस नेता ने, किसके लिए, कितना जोर लगाया और अपने मनपसंद उम्मीदवार को टिकट नहीं मिलने पर पूरे प्रचार के दौरान उन नेता जी ने और उनसे जुड़े कार्यकर्ताओं ने कितना काम किया इसका विश्लेषण करेंगे तो हर विधानसभा क्षेत्र में मतदान के प्रतिशत की हकीकत सामने आ जाएगी।

प्रशासन ही सब कुछ करेगा इस मानसिकता के नतीजे का व्यक्तिगत उदाहरण देता हूं। महापौर और पार्षदों के लिए पहली बार हुए आरक्षण के समय जब मतदाता सूची का पुनरीक्षण चल रहा था, मुझे अपना नाम मतदाता सूची में नहीं मिला। मैंने आवेदन दिया और वार्ड 82 में नाम जुड़ गया, जबकि मैं वार्ड 83 में निवास करता हूं। सभी संबंधित अधिकारियों को बताने के बावजूद मुझे भी कल वार्ड 82 में वोट डालने जाना पड़ा। मेरे पते के आधार पर वहां नाम नहीं मिल रहा था क्योंकि पता तो 83 नंबर का था। कुछ देर मशक्कत के बाद नाम मिला और मैं वोट डाल पाया। सवाल यह है कि वार्ड 82 के पार्षद प्रत्याशी से मेरा क्या लेना देना ? और इस उदाहरण से यह भी समझ में आता है कि प्रशासन ने नाम जोड़ने घटाने में कितनी रूचि ली होगी।

इसी तरह की एक और बात। निर्वाचन आयोग ने नियम बना दिया है कि पर्चियां भी बीएलओ बांटेंगे। बीएलओ यानी सरकारी बाबू जिनकी आदत दफ्तर में बैठकर काम करने की है वह चाह कर भी घर-घर घूम कर पर्चियां नहीं बांट सकते। यदि राजनीतिक कार्यकर्ता घर-घर जाकर पर्चियां बांटें तो इसमें क्या परेशानी है ? यह मेरे समझ में तो नहीं आता। 

चुनाव परिणाम चाहे जो हों लेकिन सभी प्रश्न जवाब मांगेंगे। आखिर सवा साल बाद विधानसभा के चुनाव भी होना है। 



Monday, October 25, 2021

बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं.....

 बचपन जैसी दिवाली  मनाते हैं.....


हुई करवा चौथ अब साफ़-सफाई में जुट जाते हैं

चूने और नील वाली बात हुई पुरानी तो क्या,

बाजार से ऑइल पेंट लाकर खुद पुताई करते हैं

अलमारी खिसकाएं शायद कोई खोई चीज़ 

वापस  मिल जाए, और हम मुस्कराएं

जैसे बचपन में खिलौना मिल जाता था

और हम इठलाते थे

आओ, बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

घर का कबाड़ बेच कुछ पैसे कमाते हैं 

दौड़- दौड़  के घर का हर सामान लाते हैं 

कुछ पैसे पटाखों के लिए बचाते हैं

आओ, बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

बैरागढ़ जाकर थोक की दुकान से पटाखे लाते है

मुर्गा ब्रांड , लक्ष्मी बम और रस्सी बम और सांप की गोली लेकर आते हैं

दो -तीन दिन तक पटाखे  छत धूप में सुखाते हैं

बार-बार सब दोस्तों के पटाखे गिनते जाते है

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं 

मोहल्ले से निकल कर न्यू मार्केट की रौनक देखने जाते हैं

दुकान पर रखी  चीजों को उठाते हैं

और रेट पूछकर वापस रख देते हैैं

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं 

बिजली की सिरीज़ और कैंडल लटकाते है

याद करो

केसे सिरीज बनाते थे, छत से लटकाते थे

मास्टर  बल्ब लगाते थे

टेस्टर रखकर पूरे इलेक्ट्रीशियन बन जाते थे

एक बार फिर दो-चार बिजली के झटके भी  खाते हैं

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

धनतेरस के दिन कटोरदान लेकर आते हैं

घर पर बने चकली गुजिया  खाते हैं

प्रसाद की  थाली   पड़ोस में  देने जाते हैं

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

खील में से  धान बिनवाते हैं 

खांड  के खिलोने के साथ धान खाते है 

अन्नकूट की तैयारी में हाथ बंटाते हैं

नए नए पकवान खाते हैं

भैया-दूज के दिन बहन से तिलक करवाते हैं 

चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं

दिवाली बीत जाने पर बिन फूटे पटाखों का बारूद जलाते हैं घर की छत पे जले हुए राकेट पाते हैं 

बचपन के सारे दोस्त इकट्ठा हो जाते हैं

 चलो इस बार बचपन जैसी दिवाली मनाते हैं


Wednesday, July 7, 2021

भागवत के बयान पर विवाद क्योंकि व्हाट्सएप और ब्रेकिंग न्यूज़ से हमारी याददाश्त हुई कमजोर

  भागवत के बयान पर विवाद क्योंकि
 व्हाट्सएप और ब्रेकिंग न्यूज़ से हमारी याददाश्त हुई कमजोर

3 दिन पहले संघ सरसंघचालक मोहन भागवत का बयान आया कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। मीडिया में आए इस बयान से हलचल मच गई। ब्रेकिंग न्यूज़ और व्हाट्सएप मैसेज के इस युग में ज्यादातर लोग ना तो संदर्भ देखते हैं और ना उन्हें पुरानी बातें याद रहती हैं। 

आरएसएस और मुसलमान यह हमेशा से ही विघ्न संतोषी लोगों का प्रिय विषय रहा है। ऐसे में भागवत के मीडिया में आए बयान की जब तक पूरी पड़ताल नहीं की जाए तब तक किसी भी तरह की धारणा बनाना उचित नहीं है।

जरा विचार कीजिए

 (१) क्या भागवत ने किसी भी पुस्तक के विमोचन समारोह में केवल एक या दो लाइन का ही भाषण दिया होगा? 

भागवत तो आमतौर पर सरल शब्दों में संदर्भों के साथ 45 मिनट से लेकर 1 घंटे तक भाषण देते हैं। इसलिए इस पुस्तक विमोचन समारोह में भी उनका भाषण कुछ लंबा ही रहा होगा ना।

(२) क्या भागवत ने ऐसा पहली बार कहा है ?

सितंबर 2018 में विज्ञान भवन नई दिल्ली में 3 दिन तक चली व्याख्यानमाला में सरसंघचालक ने क्या कहा था। जरा इसे पढ़ लीजिए


भागवत ने द्वितीय सरसंघचालक गुरु जी की पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स और मुसलमानों से जुड़े एक प्रश्न के जवाब में कहा था - "अरे भाई हम एक देश की संतान हैं, भाई-भाई जैसे रहें. इसलिए संघ का अल्पसंख्यक शब्द को लेकर रिज़र्वेशन है. संघ इसको नहीं मानता. सब अपने हैं, दूर गए तो जोड़ना है. अब रही बात 'बंच ऑफ थॉट्स' की, तो बातें जो बोली जाती हैं वे परिस्थिति विशेष, प्रसंग विशेष के संदर्भ में बोली जाती हैं. वे शाश्वत नहीं रहतीं. एक बात यह है कि गुरुजी (गोलवलकर) के जो शाश्वत विचार हैं, उनका एक संकलन प्रसिद्ध हुआ है- 'श्री गुरुजी विजन और मिशन,' उसमें तात्कालिक सन्दर्भ वाली सारी बातें हमने हटाकर उनके जो सदा काल के लिए उपयुक्त विचार हैं उन्हें हमने लिया है. संघ बंद संगठन नहीं है कि हेडगेवर जी ने कुछ वाक्य बोल दिए, हम उन्हीं को लेकर चलने वाले हैं. समय के साथ चीज़ें बदलती हैं।"

इसके पहले भी सरसंघचालक मोहन भागवत के इस तरह के बयान आते रहे हैं। 

(३)क्या मुसलमानों के संदर्भ में इस तरह के बयान देने वाले भागवत पहले सरसंघचालक हैं?

इस सवाल का जवाब है नहीं ऐसा नहीं है। विस्तार में जाएंगे तो डॉ हेडगेवार और गुरु जी सहित सभी सरसंघचालकों के ऐसे ही विचार आपको मिल जाएंगे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में डॉ. हेडगेवार ने कुछ मुस्लिम धार्मिक नेताओं के साथ एक सहज संबंध बनाने की शुरुआत की थी और साठ के दशक में गोलवलकर ने विश्वयुद्ध से पहले के दिनों के उस रिश्ते को पुनर्जीवित करने की कोशिश की थी।"

(४) क्या कभी यह सोचा है कि हिंदू महासभा के होते हुए भी भारतीय जनसंघ की स्थापना क्यों हुई? संघ और हिंदू महासभा तो कई मुद्दों पर एक साथ काम करते थे ना।

पिछले दिनों महात्मा गांधी के संदर्भ में किए अध्ययन और लेखन के दौरान मैं इस नतीजे पर पहुंचा था कि आजादी के बाद भी हिंदू महासभा ने अपनी सदस्यता केवल उन्हीं लोगों के लिए खोली थी जो रिलीजियस रूप से हिंदू हों, जबकि संघ का मानना था कि भारत में जन्मा हर व्यक्ति हिंदू है। बशर्ते वह भारत माता को अपनी मां का दर्जा दे और यह स्वीकार करे कि हम सब के पूर्वज एक ही हैं और इस नाते भारत की संस्कृति का सम्मान करे। भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक बलराज मधोक भारत के मुसलमानों को हिंदवी मुसलमान कहते थे। जनसंघ की माइनॉरिटी सेल बहुत मजबूत थी। ध्यान रहे उस समय गुरुजी संघ के सरसंघचालक थे। जनसंघ पर संघ का शत प्रतिशत नियंत्रण था आज की भाजपा तो उससे काफी हद तक मुफ्त है

(५) क्या संघ की शाखाओं में मुसलमान जा सकते हैं?

संघ ने 1979 से अपनी शाखाएं मुसलमानों के लिए खोल रखी हैं। कुछ मुस्लिम स्वयंसेवक शाखा में जाते हैं यह बात सही है कि उनकी संख्या बहुत कम है। लेकिन भारतीय मजदूर संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सहित अन्य अनुषांगिक संगठनों में बड़ी संख्या में मुस्लिम पदाधिकारी है। वे इन संगठनों के कार्यक्रमों के दौरान भगवा ध्वज को प्रणाम भी करते हैं। 

(६) क्या आपको पता है मोहन भागवत किस संगठन के कार्यक्रम में गए थे ?

उस संगठन का नाम है मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ‌। स्वर्गीय कुप सी सुदर्शन ने सरसंघचालक रहते हुए इस संगठन की स्थापना कराई। संघ प्रचारक इंद्रेश कुमार इसके कर्ताधर्ता हैं। जब आप इस संगठन की गतिविधियों की जानकारी इकट्ठा करेंगे तो पता चलेगा कि यह संगठन मुसलमानों को राष्ट्रीय विचारधारा से जोड़ने का काम कर रहा है। 

(७) अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात आखिर भागवत ने कहा क्या था ?

उनके भाषण की ट्रांसस्क्रिप्ट पढ़ लीजिए। यह है पूरा उद्बोधन

भागवत ने कहा -

ये कोई इमेज मेकओवर का एक्सरसाइज नहीं है, संघ क्या है 90 वर्षों से पता है लोगों को. संघ को इमेज की कभी परवाह रही नहीं है. हमको बाकी कुछ करना नहीं है, सबको जोड़ना है, अच्छा काम करना है. हमारा संकल्प सत्य है, इरादा पक्का है, पवित्र है. किसी के विरोध में नहीं किसी की प्रतिक्रिया में नहीं.


इसलिए ये इमेज बदलने का कोई एक्सरसाइज नहीं है, ये अगले चुनावों के लिए मुसलमानों का वोट पाने का प्रयास भी नहीं है क्योंकि हम उस राजनीति में नहीं पड़ते.


हां हमारे कुछ विचार है, राष्ट्र में क्या होना चाहिए क्या नहीं होना चाहिए उसके बारे में. और अब एक ताकत बनी है तो वो ठीक हो जाए इतनी ताकत हमें जहां लगानी है, चुनावों में भी लगाते है. ये बात जरूर है लेकिन हम किसी के पक्षधर है इसलिए नहीं, हम राष्ट्र हित के पक्षधर है. उसके खिलाफ जाने वाली बात कोई भी करे हम उसका विरोध करेंगे. और उसके पक्ष में जाने वाली बात कोई भी करे हम उसका समर्थन करेंगे.


कुछ काम ऐसे है जो राजनीति बिगाड़ देती है, मनुष्यों को जोड़ने का काम राजनीति से होने वाला नहीं है. राजनीति चाहे तो उसपर असर डाल सकती है, बिगाड़ सकती है उतनी मात्रा में राजनीति की चिंता लोगों को जोड़ने वालों को करनी पड़ती है. वो कोई भी हो हम हों या अगर आप जोड़ने चले है उनको भी चिंता है वो करनी पड़ेगी. परंतु राजनीति इस काम का औजार नहीं बन सकती. इस काम को बिगाड़ने का हथियार बन सकती है.


हिंदू मुसलमान एकता ये शब्द ही बड़ा भ्रामक है, ये दो है ही नहीं तो एकता की बात क्या. इनको जोड़ना क्या ये जुड़े हुए है. और जब ये मानने लगते है की हम जुड़े हुए नहीं है तब दोनो संकट में पड़ जाते है. बात यही हुई है. हम लोग अलग नहीं है क्योंकि हमारे देश में ये परंपरा नहीं है की आप की पूजा अलग है इसलिए आप अलग है.


हम लोग एक है और हमारी एकता का आधार हमारी मातृभूमि है. आज हमारी पूरी जनसंख्या को ये भूमि आराम से पाल सकती है, भविष्य में खतरा है उसको समझ के ठीक करना पड़ेगा.


हम समान पूर्वजों के वंशज है. ये विज्ञान से भी सिद्ध हो चुका है. 40 हजार साल पूर्व से हम भारत के सब लोगों का डीएनए समान है.


हिंदुओ के देश में हिंदुओ की दशा ये हो गई जरूर दोष अपने ही समाज में है, उस दोष को ठीक करना है. ये संघ की विचारधारा है.


तथाकथित अल्पसंख्यकों के मन में यह डर भरा गया है की संघ वाले तुमको खा जायेंगे. दूसरा ये डर लगता है की हिंदू मेजोरिटी देश में आप रहोगे तो आपका इस्लाम चला जायेगा. अन्य किसी देश में ऐसा होता होगा. हमारे यहां ऐसा नहीं है. हमारे यहां जो जो आया है वो आज भी मौजूद है.


मैं बहुत आग बबूला होके भाषण करके हिंदुओ में पापुलर तो हो सकता हूं, लेकिन हिन्दू कभी मेरा साथ नहीं देगा. क्योंकि वो आतातायित्व पर चलने वाला नहीं है. वो जानता है की अपना शत्रु है तो भी उसको जीने का हक है. लड़ाई भी होती है और लड़ाई हारने के बाद शत्रु कहता है माफ करो तो उसको शरण देना है. ये परंपरा है.


अगर हिंदू कहते है की यहां एक भी मुसलमान नहीं रहना चाहिए तो हिंदू हिंदू नही रहेगा. ये हमने संघ में पहले नहीं कहा है, ये डॉक्टर साब के समय से चलती आ रही विचारधारा है. ये विचार मेरा नहीं है, ये संघ की विचारधारा का एक अंग है क्योंकि हिंदुस्तान एक राष्ट्र है. यहां हम सब एक है. इतिहास भी होंगे लेकिन पूर्वज सबके समान है.


लोगों को पता चले इस ढंग से इस्लाम भारत में आया वो आक्रामकों के साथ आया. जो इतिहास दुर्भाग्य से घटा है वो लंबा है, जख्म हुए है उसकी प्रतिक्रिया तीव्र है. सब लोगों को समझदार बनाने में समय लगता है लेकिन जिनको समझ में आता है उनको डटे रहना चाहिए.


देश की एकता पर बाधा लाने वाली बाते होती है तो हिंदू के खिलाफ हिंदू खड़ा होता है. लेकिन हमने ये देखा नहीं है की ऐसी किसी बात पर मुस्लिम समाज का समझदार नेतृत्व ऐसे आताताई कृत्यों का निषेध कर रहा है.


लोगों को कन्वर्ट करने के लिए तैयारी करने का समय मिले इसलिए लोगों को बातों में उलझा कर रखना ये भी एक अर्थ होता है बातचीत का. ऐसा किसी ने किया हो तो पता नहीं.


कट्टरपंथी आते गए और उल्टा चक्का घुमाते गए. ऐसे ही खिलाफत आंदोलन के समय हुआ. उसके कारण पाकिस्तान हुआ. स्वतंत्रता के बाद भी राजनीति के स्तर पर आपको ये बताया जाता है की हम अलग है तुम अलग हो.


समाज से कटुता हटाना है, लेकिन हटाने का मतलब ये नहीं की सच्चाई को छिपाना है. भारत हिंदू राष्ट्र है, गौमाता पूज्य है । लेकिन लिंचिंग करने वाले हिंदुत्व के खिलाफ जा रहे है, वो आतातायी है. कानून के जरिए उनका निपटारा होना चाहिए. क्योंकि ऐसे केसेज बनाए भी जाते है तो बोल नहीं सकते आज कल की कहां सही है कहां गलत है.


आज अगर संघ के नाते हम कोई बात कहते है, अभी ये बात मैं कह रहा हूं, इसकी हिन्दू समाज में तो बहुत बड़ी चर्चा होगी. बहुत बड़ा वर्ग है जो इसका समर्थन करेगा, हमको कहेगा की आपने बहुत अच्छा किया ये पहल की.


ऐसा भी वर्ग है जो खराब नहीं है, अच्छा ही है, अच्छे इंसान है लेकिन वो कहेंगे की बस आप भी भोले बन गए अब. ये जरूर कहेगा. क्योंकि ठोकरें लगी है. वो कहेंगे की अरे ऐसा कभी हुआ था क्या? ऐसा मामला नहीं है ये. आप लोग नहीं समझते. ऐसे भी होंगे. चलेगा.. ये शास्त्रार्थ चलेगा.


लेकिन एक बात है की हिंदू समाज की भावना संघ बोलता है. क्योंकि नीचे तक हमारे स्वयंसेवक है, समाज क्या सोचता है क्या नहीं, हमारे पास आता है, उसके अनुसार मै बता रहा हूं.


हिंदू समाज की हिम्मत बढ़ाने के लिए उसका आत्मविश्वास उसका आत्म सामर्थ्य बढ़ाने का काम संघ कर रहा है. संघ हिंदू संगठनकर्ता है. इसका मतलब बाकी लोगों को पीटने के लिए नहीं है वो.


एक ने पूछा की आप क्या करने जा रहे है? क्या होगा इससे? इससे तो हिंदू समाज दुर्बल होगा. मैने कहा कमाल है.. एक तथाकथित माइनोरिटी समाज है मुसलमान, उसकी पुस्तक का मैं उद्घाटन करने जा रहा हूं उसमे कोई डरता नहीं है और तुम मेजोरिटी समाज के होकर के डरते हो की क्या होगा? ऐसा व्यक्ति एकता नही कर सकता जो डरता है. एकता डर से नहीं होती, प्रेम से होती है, निस्वार्थ भाव से होती है.


हम डेमोक्रेसी है, कोई हिंदू वर्चस्व की बात नहीं कर सकता कोई मुस्लिम वर्चस्व की बात नहीं कर सकता. भारत वर्चस्व की बात सबको करनी चाहिए.


हम कहते है भारत हिंदू राष्ट्र है । इसका मतलब केवल तिलक लगाने वाला, पूजा करने वाला नही है. जो भारत को अपनी मातृभूमि मानता है जो अपने पूर्वजों का विरासतदार है, संस्कृति का विरासतदार है वो हिंदू है । 


हम हिंदू कहते है आपको नहीं कहना है मत कहो, भारतीय कहो, ये नाम का शब्द का झगड़ा छोड़ो. हमको इस देश को विश्व गुरु बनाना है. और ये विश्व की आवश्यकता है, नहीं तो ये दुनिया नहीं बचेगी.

इति।


©️ इस आलेख में व्यक्त विचार मेरे निजी हैं। किसी भी मीडिया माध्यम में पूर्वानुमति के बिना इसके उपयोग की अनुमति नहीं है। 

- मनोज जोशी


Wednesday, June 9, 2021

बिरसा तुम्हें आना होगा

"यह धरती हमारी है, हम इसके रक्षक हैं। हर अन्याय के खिलाफ उलगुलान। यही पुरखों का रास्ता है।अप्राकृतिक ताकतों के खिलाफ एकजुट हो जाओ। उठो प्रकृति नेतुम्हे जीने के लिए सभी हथियार दिये हैं। मैं सभी दिशाओ से पुकार रहा हूँ।" - बिरसा मुंडा


वनवासी समाज के भगवान बिरसा मुंडा की आज पुण्यतिथि है। बिरसा यानी एक ऐसा योद्धा, स्वतन्त्रता सेनानी , समाज सुधारक जिसके बारे में वनवासी आज भी मानते हैं कि वह लौट कर आएगा।

1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला. आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे।

 बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन के हक  की लड़ाई छेड़ी । बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन का ऐलान किया. ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे. यह सामान्य विद्रोह नहीं बल्कि वनवासी अस्मिता और संस्कृति  के संरक्षण के साथ साथ स्वायत्तता का संग्राम था।

बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया. रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस में  बिरसा का आतंक हो गया। जब बिरसा पकड़ में नहीं आए तो  अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी.  बिरसा की ही जाति के लोगों ने उन्हें पकड़वा दिया।

‘उलगुलान’ के रुमानीवाद को साहित्य और जंगल से निकलकर साम्यवाद के हाथों में लाने वाले चारू मजुमदार, कनु सान्याल और जगत संथाल ने इसे नक्सलवाद का रंग दे दिया। ‘नक्सलवाद’ शब्द पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से निकला। पं. बंगाल के हाल के विधानसभा चुनाव के परिणाम चाहे जो रहा हो, लेकिन एक बात जिस पर शायद कम ही लोगों का ध्यान गया कि नक्सलबाड़ी के लोगों ने भी अब कम्युनिज्म को नकार दिया है।

बिरसा मुंडा के जीवन और उनके संघर्ष को समझेंगे तो पता चलेगा कि बिरसा मुंडा वनवासियों को उनके अधिकार दिलाने के साथ उन्हें संस्कृति से भी जोड़ कर रखना चाहते थे।

 बिरसा का जन्म वर्तमान झारखण्ड प्रदेश के  अड़की प्रखंड अंतर्गत ग्राम – उलीहातु में 15 नवंबर 1875 को हुआ था।  बिरसा के जन्म के बहुत दिन पहले ही उसके बड़े पिता कानू उलिह्तू में ईसाई बन चुके थे। इनका मसीही नाम पौलूस था। बिरसा के पिता सुगना और उसके छोटे भाई फसना ने बम्बा में जाकर ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। यहाँ तक की सुगना तो जर्मन ईसाई मिशन के प्रचारक भी बन गए थे। इसलिए बिरसा भी अपने पिता के साथ ईसाई हो गये। सुगना का मसीही नाम मसीहदस  और बिरसा का दाऊद मुंडा पड़ा।

बिरसा अपनी मौसी का बड़ा प्यारा था। वे उसे अपने साथ अपने गांधी खटंगा ले गईं । यहाँ एक ईसाई प्रचारक से उनका संपर्क हुआ। वह प्रचारक मुंडाओं की पुरानी धर्म (पंथ/ संप्रदाय/ उपासना पद्धति  ) व्यवस्था की आलोचना किया करता था। यह बिरसा को अच्छा नहीं लगा। नाराज बिरसा वहां से  बुडजो स्थित जर्मन मिशन स्कूल में भर्ती हो गया और  निम्न प्राथमिक (lower primary) की शिक्षा के लिए जर्मन ईसाई मिशन स्कूल चाईबासा में एडमिशन ले लिया । यह 1886 से 1890 के बीच का घटनाक्रम है। उस समय जर्मन – लूथेरन और रोमन कैथोलिक ईसाईयों के भूमि आन्दोलन चल रहे थे। एक दिन चाईबासा मिशन में उपदेश देते हुए डॉ. नोट्रेट ने ईश्वर के राज्य के सिद्धांत पर उपदेश दिया।  डॉ. नोट्रोट ने वनवासियों से कहा  कि यदि वे ईसाई बने रहेंगे और और उनके निर्देशों का पालन करते रहेंगे तो उनकी छिनी हुई जमीन वापस कर दी जाएगी। यह बात बिरसा और अन्य लोगों को नागवार गुजरी। बिरसा ने उसी समय डॉ. नोट्रोट और मिशनरियों की  बहुत ही तीखे शब्दों में आलोचना की। इसका नतीजा यह हुआ कि बिरसा को स्कूल से निकाल दिया गया। इस घटना के बाद बिरसा ने नारा दिया -  "साहब - साहब एक टोपी हे।"  यानी  गोरे अंग्रेज और मिशनरी एक जैसे हैं । । बिरसा ने1890 में चाईबासा छोड़ दिया और जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी। उसने रोमन कैथोलिक मिशन धर्म (religion ) स्वीकार किया। पर बाद में उस religion के प्रति भी उनके मन में विरक्ति आने लगी। आखिरकार वे अपने  पुराने धर्म (पंथ)  की ओर लौट आये। और इसके बाद अपनी संस्कृति और पंथ पर जोर देने लगे।

बिरसा की मुलाकात आनंद पाण्ड नाम के एक व्यक्ति से हुई , जिसने उनका जीवन बदल दिया । आनंद पांड स्वांसी जाति का एक धार्मिक व्यक्ति था।  बिरसा ने उनसे  वैष्णव पंथ के प्रारम्भिक सिद्धांतों और रामायण महाभारत की कथाओं का श्रवण कर ज्ञान हासिल किया। इसी दौरान एक वैष्णव साधु से उनकी मुलाकात हुई। साधु ने उन्हें  तीन महीने तक उपदेश दिए। साधु से प्रभावित होकर बिरसा ने मांस खाना छोड़ दिया और जनेऊ धारण कर शुद्धता और धर्म परायणता का जीवन व्यतीत करने लगा। वह तुलसी की पूजा करने लगा और माथे पर चन्दन का टीका लगाना शुरू किया। यही नहीं उन्होंने गो – वध भी रूकवाया।

वनवासी समाज के भगवान माने जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा ने नारा दिया था " साहब- साहब एक टोपी हे।" यानी गोरे अंग्रेज और मिशनरी एक जैसे हैं । यही नहीं बिरसा अनुयायी जोर - शोर से नारे लगाते थे ;हेन्दे राम्बड़ा रे केच्चे, केच्चे, पूंडी राम्बड़ा रे केच्चे – केच्चे।" यानी काले ईसाइयों और गोरे  ईसाइयों का सिर काट दो। परंतु कोई ईसाई नहीं मारा गया। 


कवि भुजंग मेश्राम की इन पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करुंगा 


‘बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा


घास काटती दराती हो या लकड़ी काटती कुल्हाड़ी


यहां-वहां से, पूरब-पश्चिम, उत्तर दक्षिण से


कहीं से भी आ मेरे बिरसा


खेतों की बयार बनकर


लोग तेरी बाट जोहते.’


#मनोज_जोशी