हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३७)
(गतांक से आगे)
-#मनोज_जोशी
इस श्रृंखला के क्रम के हिसाब से देखें तो मुझे आज लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नाती जीवी केटकर के बयान के बाद के घटनाक्रम पर चर्चा करना थी, लेकिन आज संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर "गुरुजी" की जयंती है। गाँधीजी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध के बाद गुरुजी को गिरफ्तार किया गया था।
गुरुजी की जयंती पर हम चर्चा करेंगे कि ३० जनवरी १९४८ को जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधीजी की हत्या की उस समय गुरु गोलवलकर जी कहाँ थे ? वो क्या कर रहे थे ? और जब उन्हें गाँधीजी की हत्या का यह समाचार मिला तब उनकी प्रतिक्रिया क्या थी ?
उस दिन गुरुजी मद्रास (अब चेन्नई) में संघ की एक बैठक में भाग ले रहे थे। उस बैठक में मौजूद रहे लोग बताते हैं किमहात्मा गाँधीजी की हत्या की जानकारी जब मिली गुरुजी चाय पी रहे थे। उन्होंने चाय का कप नीचे रखा और दुःखी मन से बोले - "यह देश का दुर्भाग्य है।" इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू , गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और गाँधीजी के पुत्र देवदास गाँधी को तार भेजकर अपनी शोक संवेदना व्यक्त की। उन्होंने अपने सारे प्रवास रद्ध कर दिए और ३६५ दिन चलने वाली संघ की शाखाओं में १३ दिन के शोक की घोषणा के साथ अवकाश की घोषणा कर दी।
नागपुर लौटने के बाद उन्होंने पंं. नेहरू और सरदार पटेल को दो अलग - अलग पत्र लिखे। इन दोनों पत्रों में उन्होंने महात्मा गाँधीजी के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करने के साथ ही उनकी हत्या को विश्वासघात बताया और इस विकट परिस्थिति में शांति और सद्भावना के साथ देश को आगे बढ़ाने की सामूहिक जिम्मेदारी पर बल दिया।
इसके बाद संघ पर प्रतिबंध लग गया। गुरुजी को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके ऊपर उस बंगाल राज्य कैदी अधिनियम के तहत मुकदमा दायर किया गया, जिसे खुद प. नेहरू काला कानून बताते थे।
थोड़ा पीछे चलते हैं (हालाँकि इस श्रृंखला में यह वाकया पहले आ चुका है) १२ सितंबर, १९४७ की प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा था - ‘मैंने सुना था कि इस संस्था (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के हाथ भी खून से सने हुए हैं. गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिलाया कि यह बात झूठ है. उनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है. उसका उद्देश्य मुसलमानों की हत्या करना नहीं है. वह तो सिर्फ अपनी सामर्थ्य-भर हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहती है. उसका उद्देश्य शांति बनाए रखना है. गुरुजी ने मुझसे कहा कि मैं उनके विचारों को प्रकाशित कर दूं.’ बाद में इस बातचीत को महात्मा गांधी ने हरिजन में प्रकाशित भी किया। इस प्रार्थना सभा से कुछ दिन पहले ही दिन पहले ही महात्मा गांधी और गुरुजी की भेंट हुई थी।
चार दिन बाद १६ सितंबर, १९४७ को आरएसएस के स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए गाँधीजी गुरुजी से हुई भेंट का जिक्र करते हुए कह रहे हैं - ‘कुछ दिन पहले ही आपके गुरुजी (एमएस गोलवलकर) से मेरी मुलाकात हुई थी. मैंने उन्हें बताया था कि कलकत्ता और दिल्ली में संघ के बारे में क्या-क्या शिकायतें मेरे पास आईं थीं. गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिया कि यद्यपि वे संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की जिम्मेदारी नहीं ले सकते, फिर भी संघ की नीति हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना मात्र है और वह भी किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाकर नहीं. संघ आक्रमण में विश्वास नहीं रखता. अहिंसा में उसका विश्वास नहीं है. वह आत्म-रक्षा का कौशल सिखाता है. प्रतिशोध लेना उसने कभी नहीं सिखाया.’
एक खास बात यह भी है कि संघ की शाखाओं में नियमित वाचन किए जाने वाले प्रातः स्मरण (एकात्मता स्तोत्रम) में गाँधीजी का नाम गुरुजी ने ही जुङवाया था। इस श्रृंखला की अगली किसी कङी में इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे ।
गुरुजी जैसी महान आत्मा को सादर नमन !
(क्रमशः)
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