Thursday, February 11, 2021

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३५)

(गतांक से आगे)

आखिर संघ की स्थापना क्यों हुई? पढ़िए दीनदयाल उपाध्याय द्वारा अपने मामाजी को लिखा पत्र

#मनोज_जोशी 


जब हम १९१५ से १९४९ तक की बात करते हैं तो एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना। पहले अनुशीलन समिति, फिर कांग्रेस और उसके बाद हिंदू महासभा में सक्रियता के बाद डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने आखिर संघ की स्थापना क्यों की? 

इसको समझने के लिए आज पं. दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि पर हमें उनके द्वारा अपने मामाजी को लिखे पत्र को पढ़ना चाहिए। पं. उपाध्याय का लालन- पालन उनके मामाजी ने ही किया था। अध्ययन पूरा होने के बाद वे संघ के प्रचारक हो गए। इस पर उनके मामाजी नाराज थे। इस पर दीनदयालजी ने उन्हें एक विस्तृत पत्र लिखा था। इस पत्र को पढ़ कर आपको संघ की स्थापना की वजह और आजादी से पहले संघ की भूमिका भी काफी हद तक समझ आएगी। 

२९ अप्रैल १९६८  को पांचजन्य ने यह पत्र प्रकाशित किया था। वहीं से साभार प्रस्तुत है।


क्या अपना एक बेटा समाज को नहीं दे सकते?


लखीमपुर खीरी, दिनांक २१ जुलाई, १९४२


श्रीमान् मामाजी,


सादर प्रणाम! आपका पत्र मिला। देवी की बीमारी का हाल जानकर दु:ख हुआ। आपने अपने पत्र में जो कुछ भी लिखा है सो ठीक ही लिखा है। उसका क्या उत्तर दूँ यह मेरी समझ में नहीं आता। परसों आपका पत्र मिला तभी से विचारों का एवं कर्तव्यों का तुमुल युध्द चल रहा है। एक ओर तो भावना और मोह खींचते हैं तो दूसरी ओर प्राचीन ऋषियों हुतात्माओं और पुम्रषाओं की अतृप्त आत्माएँ पुकारती हैं। आपके लिखे अनुसार पहले तो मेरा भी यही विचार था कि मैं किसी स्कूल में नौकरी कर लूँ तथा साथ ही वहाँ का संघ कार्य भी करता रहूँगा। यही विचार लेकर मैं लखनऊ आया था। परंतु लखनऊ में आजकल की परिस्थिति तथा आगे कार्य का असीम क्षेत्र देखकर मुझे यही आज्ञा मिली कि बजाय एक नगर में कार्य करने के एक जिले में कार्य करना होगा। इस प्रकार सोते हुए हिंदू समाज से मिलनेवाले कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा करना होता है। सारे जिले में काम करने के कारण न तो एक स्थान पर दो-चार दिन से अधिक ठहरान संभव है और न किसी भी प्रकार की नौकरी। संघ के स्वयंसेवक के लिए पहला स्थान समाज और देशकार्य का ही रहता है और फिर अपने व्यक्तिगत कार्य का। अत: मुझे अपने समाज कार्य के लिए जो आज्ञा मिली थी उसका पालन करना पड़ा।


मैं यह मानता हूँ कि मेरे इस कार्य से आपको कष्ट हुआ होगा। परंतु आप जैसे विचारवान एवं गंभीर पुरुषों को भी समाज कार्य में संलग्न रहते देखकर कष्ट हो तो फिर समाज कार्य करने के लिए कौन आगे आएगा। शायद संघ के विषय में आपको अधिक मालूम न होने के कारण आप डर गए हैं। इसका कांग्रेस से किसी प्रकार का संबंध नहीं है और न किसी राजनीतिक संस्थाओं से। यह आजकल की किसी राजनीति में भाग भी नहीं लेता है, न यह सत्याग्रह करता है और न जेल जाने में ही विश्वास रखता है। न यह अहिंसावादी है और न हिंसावादी ही। इसका तो एकमात्र कार्य हिंदुओं में संगठन करना है। इसी कार्य को यह लगातार सत्रह साल से करता आ रहा है। इसकी सारे भारतवर्ष में एक हजार से ऊपर शाखाएँ तथा दो लाख से अधिक स्वयंसेवक हैं। मैं अकेला ही नहीं परंतु इसी प्रकार तीन सौ से ऊपर कार्यकर्ता हैं जो एकमात्र संघकार्य ही करते हैं। सब शिक्षित और अच्छे घर के हैं। बहुत से बी.ए., एम.ए. और एल.एल.बी. पास हैं। ऐसा तो कोई शायद ही होगा जो कम-से-कम हाई स्कूल न हो और वह भी इने-गिने लोग। इतने लोगों ने अपना जीवन केवल समाज कार्य के लिए क्यों दे दिया, इसका एकमात्र कारण यही है कि बिना समाज की उन्नति हुए व्यक्ति की उन्नति संभव नहीं है। व्यक्ति कितना भी क्यों न बढ़ जाए, जब तक उसका समाज उन्नत नहीं होता तब तक उसकी उन्नति का कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि हमारे यहाँ के बड़े-बड़े नेताओं का दूसरे देशों में आकर अपमान होता है। हरीसिंह गौड़ जो कि हमारे यहाँ के इतने बड़े व्यक्ति हैं वे जब इंग्लैंड के एक होटल में गए तो वहाँ उन्हें ठहरने का स्थान नहीं दिया गया क्योंकि वे भारतीय थे। हिंदुस्थान में ही आप हमारे बड़े-से-बड़े आदमी को ले लीजिए। क्या उसकी वास्तविक उन्नति है? मुसलमान गुंडे बड़े-से-बड़े आदमी की इज्जत को पल भर में खाक में मिला देते हैं, क्योंकि वे स्वयं बड़े हो सकते हैं पर जिस समाज के वे अंग हैं वह तो दुर्बल है, अध:पतित है, शक्तिहीन और स्वार्थी है। हमारे यहाँ हर एक व्यक्तिगत स्वार्थों में लीन है तथा अपनी ही अपनी सोचता है। नाव में छेद हो जाने पर अपने अंगोछे को आप कितना भी ऊँचा क्यों न उठाइए वह तो आपके साथ डूबेगा ही। आज हिंदू समाज की यही हालत है। घर में आग लग रही है परंतु हरेक अपने-अपने घर की परवाह कर रहा है उस आग को बुझाने का किसीको भी खयाल नहीं है। क्या आप अपनी स्थिति को सुरक्षित समझते हैं? क्या आपको विश्वास है कि मौका पड़ने पर समाज आपका साथ देगा? नहीं, इसलिए नहीं कि हमारा समाज संगठित नहीं है। हम दुर्बल हैं इसलिए हमारे आरती और बाजों पर लड़ाइयाँ होती हैं। इसलिए हमारी माँ-बहनों को मुसलमान भगाकर ले जाते हैं, अंग्रेज सिपाही उनपर निश्शंक होकर दिन-दहाड़े अत्याचार करते हैं और हम अपनी बड़ी भारी इज्जत की दम भरनेवाले समाज में ऊँची नाक रखनेवाले अपनी फूटी ऑंखों से देखते रहते हैं। हम उसका प्रतिकार नहीं कर सकते हैं। अधिक हुआ तो इस सनसनीखेज मामले की खबर अखबारों में दे दी या महात्माजी ने हरिजन में एक लेख लिख दिया। क्यों? क्या हिंदुओं में ऐसे ताकतवर आदमियों की कमी है जो उन दुष्टों का मुकाबला कर सकें? नहीं, कमी तो इस बात की है कि किसी को विश्वास नहीं है और कि वह कुछ करे तो समाज उसका साथ देगा। सच तो ह है कि किसीके हृदय में इन सब कांडों को देखकर टीस ही नहीं उठती है। जब किसी मनुष्य के किसी अंग को लकवा मार जाता है तो वह चेतनाशून्य हो जाता है। इसी भाँति हमारे समाज को लकवा मार गया है। उसको कोई कितना भी कष्ट क्यों न दे पर महसूस ही नहीं होता। हरेक तभी महसूस करता है जब चोट उसके सिर पर आकर पड़ती है। आज मुसलमानों के आक्रमण सिंध में हैं। हमको उनकी परवाह नहीं परंतु यदि वे ही हमारे घर में होने लग जाएँ तब तो खलबली मचेगी और होश तो तब आएगा जब हमारे बहू-बेटियों में से किसीको वह उठाकर ले जाएँ। फिर व्यक्तिगत रूप से यदि कोई बड़ा हो भी गया तो उसका क्या महत्त्व? वह तो हानिकर ही है। हमारा सारा शरीर का शरीर ही मोटा होता जाए तो ठीक है परंतु यदि खाली पैर ही सूजकर कुप्पा हो गया और बाकी शरीर वैसा ही रहा तो वह तो पील-पाँव रोग हो जाएगा। यही कारण है कि इतने कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत आकांक्षाओं को छोड़कर अपने आपको समाज की उन्नति में ही लगा दिया है। हमारे पतन का कारण हममें संगठन की कमी ही है। बाकी बुराइयाँ अशिक्षा आदि तो पतित अवस्था के लक्षण मात्र ही हैं। इसलिए संगठन करना ही संघ का ध्येय है। इसके अतिरिक्त और यह कुछ भी नहीं करना चाहता है। संघ का क्या व्यावहारिक रूप है, आप यदि कभी आगरा आएँ तो देख सकते हैं। मेरा खयाल है कि एक बार संघ के रूप को देखकर तथा उसकी उपयोगिता समझने के बाद आपको हर्ष ही होगा कि आपके एक पुत्र ने भी इसी कार्य को अपना जीवन कार्य बनाया है। परमात्मा ने हम लोगों को सब प्रकार समर्थ बनाया है क्या फिर हम अपने में से एक को भी देश के लिए नहीं दे सकते हैं? उस कार्य के लिए, जिसमें न मरने का सवाल है न जेल की यातनाएँ सहन करने का, न भूखों मरना है और न नंगा रहना है। सवाल है केवल चंद रुपए के न कमाने का। वे रुपए जिनमें निजी खर्च के बाद शायद ही कुछ बचा रहता। रही व्यक्तिगत नाम और यश की बात, सो तो आप जानते ही हैं कि गुलामों का कैसा नाम और क्या यश? फिर मास्टरों की तो इज्जत ही क्या है? आपने मुझे शिक्षा-दीक्षा देकर सब प्रकार से योग्य बनाया, क्या अब मुझे समाज के लिए नहीं दे सकते हैं? जिस समाज के हम उतने ही ऋणी हैं। यह तो एक प्रकार से त्याग भी नहीं है, विनियोग है। समाजरूपी भूमि में खाद देना है। आज हम केवल फसल काटना जानते हैं पर खेत में खाद देना भूल गए हैं अत: हमारा खेत जल्द ही अनुपजाऊ हो जाएगा। जिस समाज और धर्म की रक्षा के लिए राम ने बनवास सहा, कृष्ण ने अनेकों कष्ट उठाए, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरे, शिवाजी ने सर्वस्वार्पण कर दिया, गुरुगोविंद सिंह के छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले की दीवारों में चुने गए, क्या उसके खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओं का, झूठी आकांक्षाओं का त्याग भी नहीं कर सकते हैं? आज समाज हाथ पसारकर भीख माँगता है और यदि हम समाज की ओर से, ऐसे ही उदासीन रहे तो एक दिन वह आएगा जब हमको वे चीजें जिन्हें हम प्यार करते हैं जबरदस्ती छोड़नी पड़ेंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आप संघ की कार्यप्रणाली से पहले से परिचित होते तो आपके हृदय में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं उठती। आप यकीन रखिए कि मैं कोई ऐसा कार्य नहीं करूँगा जिससे कोई भी आपकी ओर अंगुली उठाकर देख भी सके। उलटा आपको गर्व होगा कि आपने देश और समाज के लिए अपने एक पुत्र को दे दिया है। बिना किसी दबाव के केवल कर्तव्य के खयाल से आपने मेरा लालन-पालन किया, अब क्या अंत में भावना कर्तव्य को धर दबाएगी। अब तक आपका कर्तव्य अपने परिवार तक सीमित था अब वही कर्तव्य सारे हिंदू समाज के प्रति हो गया है। यह तो केवल समय की प्रगति के साथ-साथ आपके कर्तव्य का विकास मात्र ही है। भावना के कर्तव्य सदैव ऊँचा रहता है। लोगों ने अपने इकलौते बेटों को सहर्ष सौंप दिया है फिर आपके पास एक स्थान पर तीन-तीन पुत्र हैं। क्या उनमें आप एक को भी समाज के लिए नहीं दे सकते हैं? मैं जानता हूँ कि आप 'नहीं' नहीं कहेंगे।


आप शायद सोचते होंगे कि यह क्या उपदेश लिख दिया है। न मेरी इच्छा है, न मेरा उद्देश्य ही यह है। इतना सब इसलिए लिखना पड़ा कि आप संघ से ठीक-ठीक परिचित हो जाएँ। किसी भी कार्य की भलाई-बुराई का निर्णय उसकी परिस्थितियाँ और उद्देश्य को देखकर ही तो किया जाता है। पं. श्यामनारायण मिश्र जिनके पास मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ वे स्वयं यहाँ के प्रमुख एडवोकेट हैं तथा बहुत ही माननीय (जेल जानेवाले नहीं) तथा जिम्मेदार व्यक्तियों में हैं, उनकी संरक्षता में रहते हुए मैं कोई भी गैर जिम्मेदारी का कार्य कर सकूँ यह कैसे मुमकिन है।


शेष कुशल है। कृपापत्र दीजिएगा। मेरा तो खयाल है कि देवी का एलोपैथिक इलाज बंद करवाकर होमियोपैथिक इलाज करवाइए। यदि आप देवी का पूरा वृत्त और बीमारी तथा संपूर्ण लक्षण भेजें तो यहाँ पर बहुत ही मशहूर होमियोपैथ हैं, उनसे पूछकर दवा लिख भेजूँगा। होमियोपैथ इलाज की यदि दवा लग गई तो बिना खतरे के इस प्रकार ठीक हो सकता। भाई साहब व भाभीजी को नमस्ते, देवी व महादेवी को स्नेह। पत्रोत्तर दीजिएगा। भाई साहब तो कभी पत्र लिखते ही नहीं।


आपका भांजा


( दीना )


(क्रमशः)


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