Wednesday, February 10, 2021

हिंसक दौर में अहिंसा की बात करने वाले महात्मा गाँधी

 हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (३४)


(गतांक से आगे)

महात्मा गाँधीजी  १९१५ में भारत आए और १९४९ तक सक्रिय रहे। इन ३४ वर्षों की बात करें  तो जब गाँधीजी भारत आए उस समय प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था। उनकी सक्रियता के दिनों में ही द्वितीय विश्व युद्ध हुआ । रुसी क्रांति भी इसी दौर की है। इन अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम का भारत के जनमानस पर असर पङना स्वाभाविक है। अंग्रेजों ने भी जलियाँवाला बाग जैसे तरीके अपनाए। देश में कई जगहों पर आजादी के आंदोलन को दबाने के लिए जलियाँवाला बाग की तरह गोलीकांड हुए। 

हिंसा के इस दौर में महात्मा गाँधीजी अहिंसा की बात करते थे। गाँधीजी के अहिंसा के प्रयोग चम्पारण सहित कुछ स्थानों पर सफल भी हुए थे। 

१९२० में असहयोग आंदोलन की घोषणा से देश के युवा गाँधीजी से जुड़े लेकिन चौरी चौरा कांड के बाद आंदोलन वापस लेने से युवा नाराज हो गए। अशफाक उल्ला खाँ और रामप्रसाद बिस्मिल दोनों ने असहयोग आंदोलन तक गाँधीजी के समर्थक थे। लेकिन आंदोलन की वापसी के बाद उनकी राह बदल गई।

 भगत सिंह का मामला तो खासा चर्चित है। ऐसा माना जाता है कि गाँधीजी चाहते तो भगत सिंह की फाँसी रोक सकते थे। सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष बनने से रोकने फिर उसके बाद सुभाष का कांग्रेस से अलग होना, फारवर्ड ब्लाक और आजाद हिंद फौज का गठन।

यानी एक धारा गाँधीजी की अहिंसा का था और दूसरा हिंसा का।

इसके अलावा गाँधीजी और कांग्रेस के आंदोलनों से भी हर बार सभी सहमत रहे हों ऐसा नहीं है। बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, मुहम्मद अली जिन्ना और एनी बेसेंट ने असहयोग आंदोलन का विरोध किया था। जिन्ना ने  खिलाफत आंदोलन का भी विरोध किया था। असहयोग आंदोलन के विरोध के कारण जिन्ना को कांग्रेस अधिवेशन में विरोध का सामना करना पङा था। यही से जिन्ना की दिशा बदली।


लेकिन एक बात तय है कि जिन्ना  (परोक्ष रूप से अंग्रेज भी) गाँधीजी को हिंदुओं का नेता मानते थे, जबकि गाँधीजी अखण्ड भारत और यहाँ रहने वाले हर नागरिक की बात करते थे।

पूना समझौते के दौरान गाँधीजी इस बात का जिक्र करते हैं कि मुसलमानों को  प्रथक निर्वाचन से देश के विभाजन का खतरा बढ़ गया है। यदि अजा / जजा को भी यह अधिकार मिल गया तो हिंदू समाज बंट जाएगा और देश न जाने कितने टुकड़ों में टूटेगा।

हम जिस दौर की बात कर रहे हैं तब देश का सांप्रदायिक माहौल बिगङा हुआ था। छोटी - छोटी बातों पर दंगे होना  मामूली बात थी। मुस्लिम लीग और अंग्रेज मुसलमानों को  भङका रहे थे। लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन से मुसलमानों को भी जोङे रखने के लिए ही उनका रूख कुछ अधिक नर्म होता था।  

गाँधीजी पूरे देश को जोड़ कर रखना चाहते थे। लेकिन १९४६ के चुनाव परिणाम  ने साबित कर दिया था कि मुसलमान अलग देश चाहते हैं । गाँधीजी ने जिन्ना को समझाने की नाकाम कोशिश की। जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन तो गृह युद्ध के ऐलान जैसा ही था।इन विपरीत परिस्थितियों में भी हिंदुओं को भरोसा था कि गाँधीजी विभाजन रुकवा देंगे ।

गाँधीजी ने कहा विभाजन मेरी लाश पर होगा। लेकिन विभाजन हो गया और हिंदुओं को लगा जैसे उनके साथ धोखा हो गया।जब विभाजन हो गया तब भी गाँधीजी इस विभाजन को मन से स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। १५ अगस्त १९४७ को वे आजादी के समारोह में शामिल नहीं हुए । वे शांति कायम रखने की कोशिश करने के साथ  दोनों देशों के बीच ऐसे संबंध की उम्मीद कर रहे थे जिसमें आने जाने के लिए पासपोर्ट और वीजा की जरुरत ना हो।

जिस तरह से कत्ले आम चल रहा था उस दौर में गाँधीजी की यह सब बातें भावुक लोगों को कोरा आदर्शवाद भी लग सकती है। इन बातों ने उनके प्रति गुस्से को और बढ़ाया। क्या यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि अदालत में गोडसे के बयान वाले दिन भारी भीड़ जमा थी और बयान सुनकर सबकी आँखें नम हो गईं । सोचिए १० फरवरी १९४९ को गोडसे को फाँसी की सजा सुनाते हुए जस्टिस जीडी खोसला ने  लिखा कि .."मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि यदि उस दिन अदालत में उपस्थित दर्शकों को संगठित कर ज्यूरी बना दिया जाता. इसके साथ ही उन्हें नाथूराम गोडसे पर फैसला सुनाने को कहा जाता, तो भारी बहुमत के आधार पर गोडसे 'निर्दोष' (Not Guilty) करार दिया जाता.।"

(क्रमशः)

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