साहब - साहब एक टोपी हे : बिरसा मुंडा
- #मनोज_जोशी
वनवासी समाज के भगवान माने जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा ने नारा दिया था " साहब- साहब एक टोपी हे।" यानी गोरे अंग्रेज और मिशनरी एक जैसे हैं । यही नहीं बिरसा अनुयायी जोर - शोर से नारे लगाते थे ;हेन्दे राम्बड़ा रे केच्चे, केच्चे, पूंडी राम्बड़ा रे केच्चे – केच्चे।" यानी काले ईसाइयों और गोरे ईसाइयों का सिर काट दो। परंतु कोई ईसाई नहीं मारा गया। कुछ ईसाई बिरसा के साथियों के प्रहार से घायल जरूर हुए थे।
आज बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि है। बिरसा यानी एक ऐसा योद्धा, स्वतन्त्रता सेनानी , समाज सुधारक जिसे शहरी समाज ने बिसरा ( यानी भूला) ही दिया । चिंता की बात यह है कि बिरसा मुंडा के नाम पर आज भी भोले - भाले वनवासियों को बरगलाया जा रहा है, उनके हाथ में हथियार पकङा कर उन्हें नक्सलवाद की और धकेला जा रहा है। जबकि बिरसा मुंडा के जीवन और उनके संघर्ष को समझेंगे तो पता चलेगा कि बिरसा मुंडा वनवासियों को उनके अधिकार दिलाने के साथ उन्हें संस्कृति से भी जोड़ कर रखना चाहते थे।
आइए थोड़ा बिरसा के बारे में जानें ताकि उनके संघर्ष को समझ सकें । बिरसा का जन्म वर्तमान झारखण्ड प्रदेश के अड़की प्रखंड अंतर्गत ग्राम – उलीहातु में 15 नवंबर 1875 को हुआ था। बिरसा के जन्म के बहुत दिन पहले ही उसके बड़े पिता कानू उलिह्तू में ईसाई बन चुके थे। इनका मसीही नाम पौलूस था। बिरसा के पिता सुगना और उसके छोटे भाई फसना ने बम्बा में जाकर ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। यहाँ तक की सुगना तो जर्मन ईसाई मिशन के प्रचारक भी बन गए थे। इसलिए बिरसा भी अपने पिता के साथ ईसाई हो गये। सुगना का मसीही नाम मसीहदस और बिरसा का दाऊद मुंडा पड़ा।
बिरसा अपनी मौसी का बड़ा प्यारा था। वे उसे अपने साथ अपने गांधी खटंगा ले गईं । यहाँ एक ईसाई प्रचारक से उनका संपर्क हुआ। वह प्रचारक मुंडाओं की पुरानी धर्म (पंथ/ संप्रदाय/ उपासना पद्धति ) व्यवस्था की आलोचना किया करता था। यह बिरसा को अच्छा नहीं लगा। नाराज बिरसा वहां से बुडजो स्थित जर्मन मिशन स्कूल में भर्ती हो गया और निम्न प्राथमिक (lower primary) की शिक्षा के लिए जर्मन ईसाई मिशन स्कूल चाईबासा में एडमिशन ले लिया । यह 1886 से 1890 के बीच का घटनाक्रम है। उस समय जर्मन – लूथेरन और रोमन कैथोलिक ईसाईयों के भूमि आन्दोलन चल रहे थे। एक दिन चाईबासा मिशन में उपदेश देते हुए डॉ. नोट्रेट ने ईश्वर के राज्य के सिद्धांत पर उपदेश दिया। डॉ. नोट्रोट ने वनवासियों से कहा कि यदि वे ईसाई बने रहेंगे और और उनके निर्देशों का पालन करते रहेंगे तो उनकी छिनी हुई जमीन वापस कर दी जाएगी। यह बात बिरसा और अन्य लोगों को नागवार गुजरी। बिरसा ने उसी समय डॉ. नोट्रोट और मिशनरियों की बहुत ही तीखे शब्दों में आलोचना की। इसका नतीजा यह हुआ कि बिरसा को स्कूल से निकाल दिया गया। इस घटना के बाद बिरसा ने नारा दिया - "साहब - साहब एक टोपी हे।" यानी गोरे अंग्रेज और मिशनरी एक जैसे हैं । । बिरसा ने1890 में चाईबासा छोड़ दिया और जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी। उसने रोमन कैथोलिक मिशन धर्म (religion ) स्वीकार किया। पर बाद में उस religion के प्रति भी उनके मन में विरक्ति आने लगी। आखिरकार वे अपने पुराने धर्म (पंथ) की ओर लौट आये। और इसके बाद अपनी संस्कृति और पंथ पर जोर देने लगे।
बिरसा की मुलाकात आनंद पाण्ड नाम के एक व्यक्ति से हुई , जिसने उनका जीवन बदल दिया । आनंद पांड स्वांसी जाति का एक धार्मिक व्यक्ति था। बिरसा ने उनसे वैष्णव पंथ के प्रारम्भिक सिद्धांतों और रामायण महाभारत की कथाओं का श्रवण कर ज्ञान हासिल किया। इसी दौरान एक वैष्णव साधु से उनकी मुलाकात हुई। साधु ने उन्हें तीन महीने तक उपदेश दिए। साधु से प्रभावित होकर बिरसा ने मांस खाना छोड़ दिया और जनेऊ धारण कर शुद्धता और धर्म परायणता का जीवन व्यतीत करने लगा। वह तुलसी की पूजा करने लगा और माथे पर चन्दन का टीका लगाना शुरू किया। यही नहीं उन्होंने गो – वध भी रूकवाया।
1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला. आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे।
बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन के हक की लड़ाई छेड़ी । बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन का ऐलान किया. ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे. यह सामान्य विद्रोह नहीं बल्कि वनवासी अस्मिता और संस्कृति के संरक्षण के साथ साथ स्वायत्तता का संग्राम था।
बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया. रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस में बिरसा का आतंक हो गया। जब बिरसा पकड़ में नहीं आए तो अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी. बिरसा की ही जाति के लोगों ने उन्हें पकड़वा दिया।
इसके बाद बिरसा की मौत को महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ के इस अंश से समझा जा सकता है -
"सवेरे आठ बजे बिरसा मुंडा खून की उलटी कर, अचेत हो गया. बिरसा मुंडा- सुगना मुंडा का बेटा; उम्र पच्चीस वर्ष-विचाराधीन बंदी. तीसरी फ़रवरी को बिरसा पकड़ा गया था, किन्तु उस मास के अंतिम सप्ताह तक बिरसा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था....क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत सी धाराओं में मुंडा पकड़ा गया था, लेकिन बिरसा जानता था उसे सज़ा नहीं होगी,’ डॉक्टर को बुलाया गया उसने मुंडा की नाड़ी देखी. वो बंद हो चुकी थी. बिरसा मुंडा नहीं मरा था, आदिवासी मुंडाओं का ‘भगवान’ मर चुका था।"
वनवासी आज भी मानते हैं कि उनके बिरसा भगवान वापस आएंगे । वनवासियों की संस्कृति पर आज भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं । वनवासियों को शेष समाज से अलग दिखाने के लिए इतिहास और मानव सभ्यता के विकास के साक्ष्य तोड़ मरोड़ कर पेश किए जा रहे हैं । ताजा मामला जनगणना का है। प्रयास हो रहे हैं कि वनवासी स्वयं को जनगणना में हिंदु के रूप में दर्ज न कराएं। इसमें कुछ लोगों को अपने राजनीतिक हित नजर आ रहे हैं । वनवासी समाज को हिंदु संस्कृति से अलग करने की इस कोशिश का जवाब देने की जरुरत है। इसीलिए बिरसा मुंडा को फिर आना होगा।
कवि भुजंग मेश्राम की इन पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करुंगा
‘बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा
घास काटती दराती हो या लकड़ी काटती कुल्हाड़ी
यहां-वहां से, पूरब-पश्चिम, उत्तर दक्षिण से
कहीं से भी आ मेरे बिरसा
खेतों की बयार बनकर
लोग तेरी बाट जोहते.’
(जानकारियों का स्रौत साभार - जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखण्ड सरकार और सत्याग्रह.कॉम / फोटो - गूगल साभार )
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