(गतांक से आगे)
हिंदू महासभा और संघ की हिंदू की परिभाषा में अंतर
आजादी से पहले तक हिंदू महासभा और संघ अनेक मुद्दों पर साथ में काम करते रहे। वैचारिक रूप से हिंदू महासभा, संघ के काफी करीब थी लेकिन दोनों के बीच में एक महत्वपूर्ण वैचारिक अंतर भी था। वीर सावरकर जिनका संघ काफी सम्मान करता है लेकिन उनकी हिंदुत्व की धारणा और संघ की धारणा में अंतर है।
वीर सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा करते हुए लिखा है
आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता,
भारत भूमिका यस्य,
पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव
सा वै हिंदू रीती स्मृत:
अर्थात जो भारत भूमि को पितृ-भूमि व पुण्य भूमि मानता है वह हिंदु है। जो इस देश के महापुरुषों को अपना पूर्वज मानता है वह हिंदु है। इस हिसाब से भारत के ईसाई और मुसलमान हिंदू नहीं हो सकते क्योंकि उनकी पुण्य भूमि भारत के बाहर है। मुसलमान हज यात्रा को मानते हैं और ईसाई वेटिकन सिटी को। लेकिन संघ का विचार है कि हर भारतवासी हिंदू है। हिंदू हमारे लिए राष्ट्रीयता का बोधक है किसी पंथ या संप्रदाय का नहीं।
आजादी के बाद हिंदू महासभा ने तय किया कि उनके सदस्य केवल हिंदू को पंथ के रूप में मानने वाले लोग ही हो सकेंगे। डॉक्टर हेडगेवार की तरह गुरुजी भी संघ को एक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन बनाए रखना चाहते थे। लेकिन देश के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने गुरु जी को जनसंघ की स्थापना के लिए मना लिया। लेकिन इस बात का यह अर्थ ना लगाया जाए कि संघ राजनीतिक संगठन है। जनसंघ और अब भाजपा के करीबी होने के बावजूद संघ ने अपना मूल स्वरूप कायम रखा है। देखा जाए तो संघ उसी लोक सेवक संघ की तरह काम कर रहा है जैसा गांधीजी कांग्रेस के लिए चाहते थे। अपनी हत्या से 1 दिन पहले उन्होंने लोक सेवक संघ के संविधान का प्रारूप तैयार किया था और उसे गांधी जी की वसीयत माना जाता है।
(क्रमशः)
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