हिंदुत्व और महात्मा गांँधीजी का रामराज्य (४१)
( गतांक से आगे)
इस श्रृंखला की अब तक की कड़ियों को जोड़ें तो एक बात तो साफ है कि वैचारिक रूप से गांँधीजी एक हिंदुत्व निष्ठ व्यक्ति थे, लेकिन दूसरी तरफ गोडसे द्वारा कोर्ट में दिए गए बयान को देखें तो गोडसे उन पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाता है। किसी भी भावुक व्यक्ति का गोडसे के तर्क से असहमत होना मुश्किल है।
लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हत्या को उचित ठहराते हुए हत्यारे को महिमामंडित किया जाना चाहिए ?
वर्ष २०१५ में हिंदू महासभा ने गोडसे को महिमामंडित करने के लिए व्यापक कार्यक्रम आयोजित किया और गोडसे के नाम से एक वेबसाइट भी लांँच की। इस कार्यक्रम से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक एमजी वैद्य का एक बयान सामने आया था। एमजी वैद्य ने उस समय कहा था ...'मैं नाथूराम गोडसे का सम्मान करने और उन्हें सम्मान देने के खिलाफ हूँ. वह एक हत्यारा है। इसके आगे वे और भी महत्वपूर्ण बात कहते हैं - 'कुछ लोग कहते हैं कि इससे (गोडसे के महिमामंडन) हिंदुत्व का गौरव बढ़ेगा। नहीं इससे हिंदुत्व का नाम खराब होगा...मैं तो यहां तक कहता हूं कि गांधी की हत्या से हिंदुत्व को नुकसान पहुंचा है।'
वैद्य ने गाँधीजी के विचारों को लेकर असहमति को भी स्वीकारा और कहा, 'महात्मा गांँधी ने अपने जीवनकाल में आजादी के बारे में जागरूकता फैलाई। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम उनकी सभी नीतियों से सहमत हों। लेकिन विचारों की लड़ाई को विचार से लड़ा जाना चाहिए, इसके लिए खून की होली खेलने की इजाजत नहीं दी जा सकती।' वयोवृद्ध संघ विचारक वैद्य का हाल ही में निधन हुआ है उन्होंने गांँधी जी की हत्या के आरोप में संघ पर लगे प्रतिबंध का कार्यकाल भी देखा था। ऐसे में वैद्य की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है।
आज के दौर में भले ही गांँधीजी की किसी नीति का विरोध देश के विरोध के रूप में प्रचारित किया जाने लगा हो लेकिन भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता के दौरान गांँधीजी को कांग्रेस के भीतर और बाहर कई बार विरोध का सामना करना पड़ा है। शहीद भगत सिंह की फांसी नहीं रुकवाने को लेकर गांँधी जी को कांग्रेस अधिवेशन के दौरान काले झंडे दिखाए गए है। चंद्रशेखर आजाद और राम प्रसाद बिस्मिल ने गांँधीजी की अहिंसा से नाराज होकर अलग रास्ता चुना था। सुभाष चंद्र बोस को गांँधीजी के विरोध के बाद कांग्रेस छोड़ना पड़ी थी। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और गांँधीजी के वैचारिक मतभेद आज भी चर्चा में हैं।
बीसवीं शताब्दी के इस कालखंड में देश में सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था। छोटी-छोटी बात पर दंगे और खून खराबा मामूली बात थी। १९४६ के जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के आव्हान को देखें तो वह गृह युद्ध के ऐलान जैसा ही लगता है। विभाजन से ठीक पहले हुए चुनाव में देश भर में मुस्लिम लीग को मिला समर्थन इस बात का साफ संकेत था कि ज्यादातर मुसलमान पाकिस्तान के पक्ष में थे।
ऐसे माहौल में अहिंसा की बात करना और जिन्ना वह सुहारवर्ती जैसे मुस्लिम लीगी नेताओं से समझौते के प्रयास करना कितना उचित या अनुचित था यह विश्लेषण का विषय है। गांँधी जी की हत्या के पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के भारत के इतिहास को निष्पक्ष भाव से देखना समझना होगा। बीसवीं शताब्दी के इस कालखंड का इतिहास जहां एक तरफ भारत की आजादी का इतिहास दिखता है वहीं दूसरी तरफ वह भारत की विभाजन का इतिहास भी है इस विभाजन के लिए अंग्रेजों के साथ तत्कालीन नेतृत्व की भूमिका भी जिम्मेदार है। अकेले मोहम्मद अली जिन्ना ही नहीं जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन कांग्रेस के अन्य नेताओं की भूमिका पर भी समग्रता से निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया जाए तभी विभाजन की असल वजह समझ में आती है। इन सब के विस्तार में जाने के लिए ऐसी ही एक और श्रृंखला की जरूरत है। विचार तो इस बात पर भी होना चाहिए कि अहिंसा के पुजारी की हत्या के बाद किन लोगों ने और क्यों पुणे और देश के दूसरे राज्यों में ब्राह्मणों की हत्या की थी। उन दंगों का क्या औचित्य था? क्या वे महात्मा गांँधी के सच्चे अनुयायी थे ? और उनके इस कृत्य के बाद ब्राह्मणों और कुल मिलाकर करके हिंदुओं में क्या संदेश गया ? क्या उन्होंने कभी इस पर माफी मांगने के बारे में भी सोचा ?
लेकिन गांँधीजी के व्यक्तित्व के बारे में जब समग्रता से चर्चा करें तो केवल स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा चलाए गए आंदोलनों की रणनीति और सफलता असफलता तक सीमित नहीं रखा जा सकता। गांँधीजी एक ऐसे महान आत्मा थे जिन्होंने सार्वजनिक जीवन के अमूमन सभी पहलुओं पर विचार व्यक्त किए हैं, काम किया है और अपने तई एक आदर्श व कार्यप्रणाली प्रस्तुत की है जो आज भी मार्गदर्शन कर सकती है।
(क्रमशः)
यह श्रृंखला मेरे Blog www.mankaoj.blogspot.com और एक अन्य news website - www.newspuran.com पर उपलब्ध है।
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