Friday, September 25, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (१२)

 (गतांक से आगे)

महात्मा गाँधी संकीर्ण विचारों वाले हिंदू नहीं थे


महात्मा गाँधीजी के विचारों को जानने के बाद हमें पता लगता है कि वे एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनका बचपन एक धार्मिक वातावरण में बीता। लेकिन महात्मा गॉंधी का हिंदू धर्म कोई संकीर्ण विचारों वाला हिंदू धर्म नहीं था। उनका हिंदू धर्म इस देश की प्राचीन संस्कृति और विविधता में एकता वाला हिंदू धर्म था। उन्होंने बौद्ध और जैन धर्मों का भी अध्ययन किया और उसे अपने जीवन में उतारा। पहले बात करते हैं बौद्ध धर्म की।


महात्मा गाँधी मानते थे कि भगवान गौतम बुद्ध ने वेदों की शिक्षाओं से लोगों को परिचित कराया। बौद्ध धर्म के संबंध में गाँधीजी के भाषण और लेख बताते हैं कि वे भी बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म का ही अंग मानते थे।15 नवंबर 1927 को श्रीलंका के बौद्धों को संबोधित करते हुए गाँधीजी ने कहा था- ‘मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि बौद्ध-धर्म या कहिए कि बुद्ध की शिक्षाएं हिंदुस्तान में पूरी तरह फलीभूत हुईं. और इसके सिवा दूसरा कुछ हो भी नहीं सकता था, क्योंकि गौतम स्वयं हिंदुओं में श्रेष्ठ हिंदू थे. उनकी नस-नस में हिंदू धर्म की सभी खूबियां भरी पड़ी थीं. वेदों में दबी हुईं कुछ शिक्षाओं में, जिनके सार को भुलाकर लोगों ने छाया को ग्रहण कर रखा था, उन्होंने जान डाल दी. उनकी महान हिंदू भावना ने निरर्थक शब्दों के जंजाल में दबे हुए वेदों के अनमोल सत्यों को जाहिर किया. उन्होंने वेदों के शब्दों से ऐसे अर्थ निकाले, जिनसे उस युग के लोग बिल्कुल अपरिचित थे और उन्हें हिन्दुस्तान में इसके लिए सबसे अनुकूल वातावरण मिला.’


उन्होंने यह भी कहा - ‘गहरे विचार के बाद मेरी यह धारणा बनी है कि बुद्ध की शिक्षाओं के प्रमुख अंग आज हिंदू धर्म के अभिन्न अंग हो गए हैं. गौतम ने हिंदू धर्म में जो सुधार किए, उनसे पीछे हटना आज भारत के हिंदू समाज के लिए असंभव है. अपने महान त्याग-वैराग्य, अपने जीवन की निर्मल पवित्रता से गौतम बुद्ध ने हिंदू धर्म पर अमिट छाप डाली है और हिंदू धर्म उस महान शिक्षक से कभी उऋण नहीं हो सकता.’


‘मैंने यह बात अनगिनत बार सुनी है और बौद्ध धर्म की भावना को प्रकट करने का दावा करनेवाली किताबों में पढ़ी है कि बुद्ध ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे. मेरी नम्र सम्मति में बुद्ध की शिक्षाओं की मुख्य बात के यह बिल्कुल विरुद्ध है. मेरी नम्र सम्मति में यह भ्रान्ति इस  बात से फैली कि बुद्ध ने अपने जमाने में ईश्वर के नाम पर चलने वाली सभी बुरी चीजों को अस्वीकार कर दिया था और यह उचित ही किया था. उन्होंने बेशक इस धारणा को अस्वीकार किया कि जिसे ईश्वर कहते हैं, उसमें द्वेष-भाव होता है, वह अपने कामों के लिए पछताता है, वह पृथ्वी के राजाओं की तरह लोभ और घूस का शिकार हो सकता है, या वह कुछ व्यक्तियों पर विशेष कृपालु हो सकता है...’


यंग इंडिया में 24 नवंबर, 1927 को गाँधीजी लिखते हैं -


 ‘…बुद्ध संपूर्ण आत्मा इस विश्वास के साथ विद्रोह कर उठी कि जिसे ईश्वर कहते हैं, वह अपनी तुष्टि के लिए अपने ही रचे हुए पशुओं के खून की आवश्यकता महसूस करता है. इसलिए उन्होंने परमात्मा को उसके सच्चे आसन पर पुनः प्रतिष्ठित किया और उस पवित्र सिंहासन पर बैठे हुए लुटेरे को हटा दिया. उन्होंने यह बात जोर देकर समझाई और इस सत्य की एक बार फिर से घोषणा की कि यह संसार कुछ शाश्वत और अटल नैतिक नियमों शासित है. उन्होंने बिना किसी हिचक के कहा है कि यह नियम ही परमात्मा है.’


1938 में  बर्मा में बौद्धों और मुसलमानों के बीच भयंकर दंगे छिड़े थे. उन्होंने 20 अगस्त, 1938 को ‘हरिजन’ में लिखा- ‘भगवान बुद्ध पर मुझे अत्यंत श्रद्धा है. वे शांति के महानतम उपदेशकों में से हैं. बुद्ध का संदेश प्रेम का संदेश है. यह बात मेरे समझ में नहीं आती कि उस धर्म के अनुयायी भी कैसे एकदम बर्बर बन सकते हैं और वह भी जाहिरा तौर पर एक बहुत ही मामूली वजह से. अखबारों की खबरें अगर सही हैं तो यह और भी अफसोस की बात है कि बुद्ध के संदेश के मुख्य प्रचारक और प्रतिपादक, पुरोहित लोग खुद भी उपद्रवियों के बीच देखे गए— और देखे गए उपद्रवियों के शांत करते हुए नहीं।

(क्रमशः )

No comments:

Post a Comment