Monday, September 14, 2020

हिंदुत्व और गाँधी जी का राम राज्य ( ७)

 गाँधी जी ने स्वयं झेला था धर्मांतरण का दंश

(गतांक से आगे)


जैसा मैंने पिछली कड़ी में कहा कि गाँधी जी के जीवनकाल में धर्मांतरण बहुत तेजी से हो रहा था। गाँधी जी पर भले ही धर्मांतरण समर्थक डोरे नहीं डाल सके, लेकिन उन्होंने अपने परिवार में धर्मांतरण का दंश झेला था। गाँधी जी के सबसे बड़े बेटे हरिलाल ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था। और अपना नाम अबदुल्ला गॉंधी रख लिया था।

हरिलाल के इस्लाम ग्रहण करने से गाँधी जी और उनकी पत्नी कस्तुरबा कितने दुखी थे। यह जानने के लिए महात्मा गाँधी की मुस्लिम समाज से की गई अपील और कस्तुरबा गाँधी द्वारा हरिलाल को लिखे पत्र पढ़ना होंगे। गाँधीजी ने तो साफ कहा था कि कि उनका पुत्र पैसों के लालच में मुसलमान हो गया है।

एक खास बात यह भी है कि आर्य समाज ने कुछ समय बाद हरिलाल की ‘घर वापसी’ कराई। शुद्धिकरण के वे फिर से हिंदु हो गए थे। और उनका नाम हीरालाल हो गया। फिर से हिंदू धर्म में शामिल होने पर उन्होंने जो वक्तव्य दिया वह भी पढ़ने लायक है। 

हरिलाल का प्रारंभिक जीवन

महात्मा गांधी एक समय हरिलाल पर गर्व करते थे। उन्हें लगता था कि उनका ये बेटा जिस तरह उनका साथ दे रहा है, वो लोगों में मिसाल बनेगा. दक्षिण अफ्रीका में हरिलाल पिता के साथ "सत्याग्रह" के दौरान साथ रहते थे। 1908 से 1911 के बीच वो कम से कम छह बार जेल भी गए। लेकिन बाद में ब्रिटेन जाकर बैरिस्टरी की पढ़ाई करने को लेेकर उनके अपने पिता से ऐसे मतभेद हुए कि वे परिवार से अलग हो गए। इसके बाद हरिलाल वह सब करने लग गए जिससे उनके पिता यानी महात्मा गाँधी को कष्ट हो।

1936 में इस्लाम ग्रहण

1935 में पत्र लिख कर गॉंधीजी ने उन्हें शराबी और व्याभिचारी बताया। इसके एक साल  बाद २८ मई १९३६ को नागपुर में अत्यंत गोपनीय ढंग से मुसलमान बनाये गये और उनका नाम अब्दुल्लाह गाँधी रखा गया ! २९ मई को बम्बई की जुम्मा मस्जिद में उनके मुसलमान बनने की विधिवत घोषणा की गई।  इसके पूर्व यह समाचार फैला था कि वे ईसाई होने वाले हैं। 


सार्वदेशिक पत्रिका के जुलाई १९३६ के अंक में प्रकाशित महात्मा गाँधी का वक्तव्य


बंगलौर २ जून। अपने बड़े लड़के हरिलाल गाँधी के धर्म परिवर्तन के सिलसिले में महात्मा गाँधी ने मुसलमान मित्रों के नाम एक अपील प्रकाशित की जिसका आशय निम्न हैं:- 


"पत्रों में समाचार प्रकाशित हुआ हैं कि मेरे पुत्र हरिलाल के धर्म परिवर्तन की घोषणा पर जुम्मा मस्जिद में मुस्लिम जनता ने अत्यंत हर्ष प्रकट किया हैं। यदि उसने ह्रदय से और बिना किसी सांसारिक लोभ के इस्लाम धर्म को स्वीकार किया होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। क्यूंकि मैं इस्लाम को अपने धर्म के समान ही सच्चा समझता हूँ ! किन्तु मुझे संदेह हैं कि वह धर्म परिवर्तन ह्रदय से तथा बगैर किसी सांसारिक लाभ की आशा के किया गया हैं।" 


शराब का व्यसन 


जो भी मेरे पुत्र हरिलाल से परिचित हैं वे जानते हैं कि उसे शराब और व्यभिचार की लत पड़ी हैं। कुछ समय तक वह अपने मित्रों की सहायता पर गुजारा करता रहा। उसने कुछ पठानों से भी भारी सूद पर कर्ज लिया था। अभी कुछ दिनों पूर्व की ही बात है कि बम्बई में पठान लेनदारों के कारण उसको जीवन ले लाले पड़े हुए थे। अब वह उसी शहर में सूरमा बना हुआ हैं। उसकी पत्नी अत्यंत पतिव्रता थी।वह हमेशा हरिलाल के पापों को क्षमा करती रही। उसके ३ संतान हैं, २ लड़की और एक लड़का , जिनके लालन-पालन का भार उसने बहुत पहले ही छोड़ रखा है। 


धर्म की नीलामी 


कुछ सप्ताह पूर्व ही उसने हिन्दुओं के हिन्दुत्व के विरुद्ध शिकायत करके ईसाई बनने की धमकी दी थी। पत्र की भाषा से प्रतीत होता था कि वह उसी धर्म में जायेगा जो सबसे ऊँची बोली बोलेगा। उस पत्र का वांछित असर हुआ। एक हिन्दू काउंसिलर की मदद से उसे नागपुर मुन्सीपालिटी में नौकरी मिल गई। इसके बाद उसने एक और व्यक्तव्य प्रकाशित किया और हिन्दू धर्म के प्रति पूर्ण आस्था प्रकट की। 


आर्थिक लालसा 


किन्तु घटनाक्रम से मालूम पड़ता है कि उसकी आर्थिक लालसाएँ पूरी नहीं हुई और उनको पूरा करने के लिए उसने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया है। गत अप्रैल जब मैं नागपुर में था, वह मुझ से तथा अपनी माता से मिलने आया और उसने मुझे बताया कि किस प्रकार मिशनरी उसके पीछे पड़े हुए हैं। परमात्मा चमत्कार कर सकता है। उसने पत्थर दिलों को भी बदल दिया हैं और एक क्षण में पापियों को संत बना दिया है। यदि मैं देखता कि नागपुर की मुलाकात में और हाल की शुक्रवार की घोषणा में हरिलाल में पश्चाताप की भावना का उदय हुआ है और उसके जीवन में परिवर्तन आ गया है, तथा उसने शराब तथा व्यभिचार छोड़ दिया है, तो मेरे लिए इससे अधिक प्रसन्नता की और क्या बात होती? 


जीवन में कोई परिवर्तन नहीं 


लेकिन पत्रों की ख़बरें इसकी कोई गवाही नहीं देती। उसका जीवन अब भी यथापूर्व है। यदि वास्तव में उसके जीवन में कोई परिवर्तन होता तो वह मुझे अवश्य लिखता और मेरे दिल को खुश करता। मेरे सब पुत्रों को पूर्ण विचार स्वातंत्र्य है। उन्हें सिखाया गया है कि वे सब धर्मों को इज्जत की दृष्टी से देखे। हरिलाल जानता है यदि उसने मुझे यह बताया होता कि इस्लाम धर्म से मेरे जीवन को शांति मिली है, तो में उसके रास्ते में कोई बाधा न डालता। किन्तु हम में से किसी को भी, मुझे या उसके २४ वर्षीय पुत्र को जो मेरे साथ रहता है, उसकी कोई खबर नहीं है।मुसलमानों को इस्लाम के सम्बन्ध में मेरे विचार ज्ञात हैं। कुछ मुसलमानों ने मुझे तार दिया है कि अपने लड़के की तरह मैं भी संसार के सबसे सच्चे धर्म इस्लाम को ग्रहण कर लूँ। 


गाँधी जी को चोट 


मैं मानता हूँ कि इन सब बातों से मेरे दिल को चोट पहुँचती है। मैं समझता हूँ कि जो लोग हरिलाल के धर्म के जिम्मेदार हैं वे अहितयात से काम नहीं ले रहे, जैसा कि ऐसी अवस्था में करना चाहिए। 


हरिलाल के धर्म परिवर्तन से हिंदु धर्म को कोई क्षति नहीं हुई उसका इस्लाम प्रवेश उस धर्म की कमजोरी सिद्ध होगा, यदि उसका जीवन पहिले की भांति ही बुरा रहा। धर्म परिवर्तन, मनुष्य और उसके स्रष्टा से सम्बन्ध रखता है। शुद्ध ह्रदय के बिना किया हुआ धर्म परिवर्तन मेरी सम्मति में धर्म और ईश्वर का तिरस्कार है। धार्मिक मनुष्य के लिए विशुद्ध ह्रदय से न किया हुआ धर्म परिवर्तन दुःख की वस्तु है, हर्ष की नहीं। 


मुसलमानों का कर्तव्य 


मेरा मुस्लिम मित्रों को इस प्रकार लिखने का यह अभिप्राय है कि वे हरिलाल के अतीत जीवन को ध्यान में रखे और यदि वे अनुभव करें की उसका धर्म परिवर्तन आत्मिक भावना से रहित हैं तो वे उसको अपने धर्म से बहिष्कृत कर दें, तथा इस बात को देखे की वह किसी प्रलोभन में न पड़े और इस प्रकार समाज का धर्म भीरु सदस्य बन जाये। उन्हें यह जानना चाहिये कि शराब ने उसका मस्तिष्क ख़राब कर दिया है, उसकी सदअसद विवेक की बुद्धि खोखली कर डाली है। वह अब्दुल्ला है या हरिलाल इससे मुझे कोई मतलब नहीं। यदि वह अपना नाम बदल कर ईश्वरभक्त बन जाता है, तो मुझे क्या आपत्ति है, क्यूंकि अर्थ तो दोनों नामों का वही हैं। 


हरिलाल की माँ कस्तूरबा बा ने भी अपने पुत्र के नाम यह मार्मिक पत्र लिखा 


मेरे प्रिय पुत्र हरिलाल,, 


मैंने सुना है कि तुमको मद्रास में आधी रात में पुलिस के सिपाही ने शराब के नशे में असभ्य आचरण करते देखा और गिरफ्तार कर लिया। दूसरे दिन तुमको अदालत में पेश किया गया। निस्संदेह वे भले आदमी थे, जिन्होंने तुम्हारे साथ बड़ी नरमाई का व्यवहार किया। तुमको बहुत साधारण सजा देते हुए मजिस्ट्रेट ने भी तुम्हारे पिता के प्रति आदर का भाव जाहिर किया। जबसे मैंने इस घटना का समाचार सुना है मेरा दिल बहुत दुखी है। मुझे नहीं मालूम कि तुम उस रात्रि को अकेले थे या तुम्हारे कुसाथी भी तुम्हारे साथ थे? 


कुछ भी हो, तुमने जो किया ठीक नहीं किया। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं तुम्हारे इस आचरण के बारे में क्या कहूँ? मैं वर्षों से तुमको समझाती आ रही हूँ कि तुमको अपने पर कुछ काबू रखना चाहिए। पर, तुम दिन पर दिन बिगड़ते ही जाते हो? अब तो मेरे लिए तुम्हारा आचरण इतना असह्य हो गया है कि मुझे अपना जीवन ही भार स्वरुप लगने लगा है। जरा सोचो तो तुम इस बुढ़ापे में अपने माता पिता को कितना कष्ट पहुँचा रहे हो? तुम्हारे पिता किसी को कुछ भी नहीं कहते, पर मैं जानती हूँ कि तुम्हारे आचरण से उनके ह्रदय पर कैसी चोटें लग रही हैं? उनका ह्रदय टुकड़े टुकड़े हो रहा है। तुम हमारी भावनाओं को चोट पहुँचा कर बहुत बड़ा पाप कर रहे हो। 


हमारे पुत्र होकर भी तुम दुश्मन का सा व्यवहार कर रहे हो। तुमने तो ह्या शर्म सबकी तिलांजलि दे दी है। मैंने सुना हैं कि इधर अपनी आवारा गर्दी से तुम अपने महान पिता का मजाक भी उड़ाने लग गये हो। तुम जैसे अकलमंद लड़के से यह उम्मीद नहीं थी। तुम महसूस नहीं करते कि अपने पिता की अपकीर्ति करते हुए तुम अपने आप ही जलील होते हो। उनके दिल में तुम्हारे लिए सिवा प्रेम के कुछ नहीं है। तुम्हें पता है कि वे चरित्र की शुद्धि पर कितना जोर देते हैं, लेकिन तुमने उनकी सलाह पर कभी ध्यान नहीं दिया। फिर भी उन्होंने तुम्हें अपने पास रखने, पालन पोषण करने और यहाँ तक कि तुम्हारी सेवा करने के लिए रजामंदी प्रगट की। लेकिन तुम हमेशा कृतघ्नी बने रहे। उन्हें दुनिया में और भी बहुत से काम हैं। इससे ज्यादा और तुम्हारे लिये वे क्या करे?वे अपने भाग्य को कोस लेते हैं। 


परमात्मा ने उन्हें असीम इच्छा शक्ति दी है और परमात्मा उन्हें यथेच्छ आयु दे कि वे अपने मिशन को पूरा कर सकें। लेकिन मैं तो एक कमजोर बूढ़ी औरत हूँ और यह मानसिक व्यथा बर्दाश्त नहीं होती। तुम्हारे पिता के पास रोजाना तुम्हारे व्यवहार की शिकायतें आ रही हैं ! उन्हें वह सब कड़वी घूंट पीनी पड़ती हैं। लेकिन तुमने मेरे मुँह छुपाने तक को कही भी जगह नहीं छोड़ी है। शर्म के मारे में परिचितों या अपरिचितों में उठने-बैठने लायक भी नहीं रही हूँ। तुम्हारे पिता तुम्हें हमेशा क्षमा कर देते हैं, लेकिन याद रखो, परमेश्वर तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगे। 


मद्रास में तुम एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के मेहमान थे। परन्तु तुमने उसके आतिथ्य का नाजायज फायदा उठाया और बड़े बेहूदा व्यवहार किये। इससे तुम्हारे मेजबान को कितना कष्ट हुआ होगा? प्रतिदिन सुबह उठते ही मैं काँप जाती हूँ कि पता नहीं आज के अखबार में क्या नयी खबर आयेगी? कई बार मैं सोचती हूँ कि तुम कहां रहते हो? कहां सोते हो और क्या खाते हो? शायद तुम निषिद्द भोजन भी करते हो। इन सबको सोचते हुए बैचैनी में पलकों पर रातें काट देती हूँ। कई बार मेरी इच्छा तुमको मिलने की होती है, लेकिन मुझे नहीं सूझता कि मैं तुम्हे कहा मिलूँ? तुम मेरे सबसे बड़े लड़के हो और अब पचासवे पर पहुँच रहे हो। मुझे यह भी डर लगता रहता है कि कहीं तुम मिलने पर मेरी बेइज्जति न कर दो। 


मुझे मालूम नहीं कि तुमने अपने पूर्वजों के धर्म को क्यूँ छोड़ दिया है, लेकिन सुना है तुम दुसरे भोले भाले आदमियों को अपना अनुसरण करने के लिए बहकाते फिरते हो? क्या तुम्हें अपनी कमियां नहीं मालूम? तुम 'धर्म' के विषय में जानते ही क्या हो? तुम अपनी इस मानसिक अवस्था में विवेक बुद्धि नहीं रख सकते? लोगों को इस कारण धोखा हो जाता है, क्यूंकि तुम एक महान पिता के पुत्र हो। तुम्हें धर्म उपदेश का अधिकार ही नहीं, क्यूंकि तुम तो अर्थ दास हो। जो तुम्हें पैसा देता रहे तुम उसी के रहते हो। तुम इस पैसे से शराब पीते हो और फिर प्लेटफार्म पर चढ़कर लेक्चर फटकारते हो। तुम अपने को और अपनी आत्मा को तबाह कर रहे हो। भविष्य में यदि तुम्हारी यही करतूते रही तो तुम्हे कोई कोड़ियों के भाव भी नहीं पूछेगा। इससे मैं तुम्हें सलाह देती हूँ कि जरा डरो , विचार करो और अपनी बेवकूफी से बाज आओ। 


मुझे तुम्हारा धर्म परिवर्तन बिलकुल पसंद नहीं है। लेकिन जब मैंने पत्रों में पढ़ा कि तुम अपना सुधार करना चाहते हो, तो मेरा अन्तःकरण इस बात से आल्हादित हो गया कि अब तुम ठीक जिंदगी बसर करोगे ! लेकिन तुमने तो उन सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। अभी बम्बई में तुम्हारे कुछ पुराने मित्रों और शुभ चाहने वालों ने तुम्हे पहले से भी बदतर हालत में देखा है। तुम्हें यह भी मालूम है कि तुम्हारी इन कारस्तानियों से तुम्हारे पुत्र को कितना कष्ट पहुँच रहा है। तुम्हारी लड़कियां और तुम्हारा दामाद सभी इस दुःख भार को सहने में असमर्थ हो रहे हैं, जो तुम्हारी करतूतों से उन्हें होता है। 


जिन मुसलमानों ने हरिलाल  के मुस्लमान बनने और उसकी बाद की हरकतों में रूचि दिखाई है, उनको संबोधन करते हुए कस्तूरबा बा ने लिखा - 


"आप लोगों के व्यवहार को मैं समझ नहीं सकी। मुझे तो सिर्फ उन लोगों से कहना है, जो इन दिनों मेरे पुत्र की वर्तमान गतिविधियों में तत्परता दिखा रहे हैं। मैं जानती हूँ और मुझे इससे प्रसन्नता भी है कि हमारे चिर परिचित मुसलमान मित्रों और विचारशील मुसलमानों ने इस आकस्मिक घटना की निंदा की है। आज मुझे उच्च मना डॉ अंसारी की उपस्थित का अभाव बहुत खल रहा है, वे यदि होते तो आप लोगों और मेरे पुत्र को सत्परामर्श देते, मगर उनके समान ही और भी प्रभावशाली तथा उदार मुसलमान हैं, यद्यपि उनसे मैं सुपरिचित नहीं हूँ, जोकि मुझे आशा है, तुमको उचित सलाह देंगे।मेरे लड़के के इस नाम मात्र के धर्म परिवर्तन से उसकी आदतें बद से बदतर हो गई हैं। आपको चाहिए कि आप उसको उसकी बुरी आदतों के लिए डांटे और उसको उलटे रास्ते से अलग करें। परन्तु मुझे यह बताया गया है कि आप उसे उसी उलटे मार्ग पर चलने के लिए बढ़ावा देते हैं। 


कुछ लोगों ने मेरे लड़के को"मौलवी" तक कहना शुरू कर दिया है। क्या यह उचित है? क्या आपका धर्म एक शराबी को मौलवी कहने का समर्थन करता है? मद्रास में उसके असद आचरण के बाद भी स्टेशन पर कुछ मुसलमान उसको विदाई देने आये। मुझे नहीं मालूम उसको इस प्रकार का बढ़ावा देने में आप क्या ख़ुशी महसूस करते हैं। यदि वास्तव में आप उसे अपना भाई मानते हैं, तो आप कभी भी ऐसा नहीं करेगे, जैसा कि कर रहे हैं, वह उसके लिए फायदेमंद नहीं हैं। पर यदि आप केवल हमारी फजीहत करना चाहते हैं, तो मुझे आप लोगो को कुछ भी नहीं कहना हैं। आप जितनी भी बुरे करना चाहे कर सकते हैं। लेकिन एक दुखिया और बूढ़ी माता की कमजोर आवाज़ शायद आप में से कुछ एक की अन्तरात्मा को जगा दे। मेरा यह फर्ज है कि मैं वह बात आप से भी कह दूँ जो मैं अपने पुत्र से कहती रहती हूँ। वह यह है कि परमात्मा की नज़र में तुम कोई भला काम नहीं कर रहे हो। 


अबदुल्लाह गाँधी का जीवन

अपने नये अवतार में हरिलाल ने अनेक स्थानों का दौरा किया और अपनी तकरीरों में इस्लाम और पाकिस्तान की वकालत की। कानपुर में एक सभा में भाषण देते हुए उसने यहाँ तक कहा कि '' अब मैं हरिलाल नहीं बल्कि अब्दुल्ला हूँ। मैं शराब छोड़ सकता हूँ लेकिन इसी शर्त पर कि बापू और बा दोनों इस्लाम कबूल कर लें। हरिलाल को रुपया पैसा मिलने लगा।

कस्तुरबा के कहने पर आर्य समाज ने शुरू किए प्रयास और सफलता भी मिली

हरिलाल की माँ कस्तुरबा के कहने पर आर्य समाज ने हरिलाल को समझाने बुझाने के प्रयास किए। इस बीच एक ऐसी घटना घटी जिससे हरिलाल को अपनी गलती का अहसास करा दिया। एक बार कुछ मुसलमान उन्हें एक हिन्दू मन्दिर तोड़ने के लिए ले गये और उनसे पहली चोट करने को कहा। उन्हें उकसाते हुए कहा गया कि या तो सोमनाथ के मंदिर पर मुहम्मद गोरी ने पहली चोट की थी अथवा आज इस मंदिर पर अब्दुल्लाह गाँधी की पहली चोट होगी। कुछ समय तक चुप रहकर, सोच विचार कर अब्दुल्लाह ने कहा कि जहाँ तक इस्लाम का मैनें अध्ययन किया है, मैंने तो ऐसा कहीं नहीं पढ़ा कि किसी धार्मिक स्थल को तोड़ना इस्लाम का पालन करना है ! और किसी भी मंदिर को तोड़ना देश की किसी जवलंत समस्या का समाधान भी नहीं है। ऐसा कहने पर उनके मुस्लिम साथी उनसे नाराज होकर चले गये और उनसे किनारा करना आरंभ कर दिया। उसी समय उन्हें आर्यसमाज बम्बई के श्री विजयशंकर भट्ट द्वारा वेदों की इस्लाम पर श्रेष्ठता विषय पर दो व्याख्यान सुनने को मिले और उनके मन में बचे हुए बाकि संशयों की भी निवृति हो गई। बस फिर क्या था, मुम्बई में खुले मैदान में, हजारों की भीड़ के सामने, अपनी माँ कस्तूरबा और अपने भाइयों के समक्ष आर्य समाज द्वारा अब्दुल्लाह को शुद्ध कर हिंदू बनाया और नाम रखा हीरालाल गॉंधी। हीरालाल वैदिक धर्म का अभिन्न अंग बनकर भारतीय श्रृद्धानन्द शुद्धि सभा के सदस्य बन गये और आर्यसमाज के शुद्धि कार्य में लग गये।


हीरालाल गांधी द्वारा अपनी शुद्धि के समय दिया गया वक्तव्य भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसे पढ़िए


माननीय भद्रपुरुषों भाइयों और बहनों 


नमस्ते 


कुछ आदमियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैंने पुन: क्यूँ धर्म परिवर्तन किया। बहुत से हिन्दू और मुसलमान बहुत सी बातें सोच रहे होगे परन्तु मैं अपना दिल खोले बगैर नहीं रह सकता हूँ। वर्त्तमान में जो "धर्म" कहा गया है, उसमें न केवल उसके सिद्धांत होते हैं वरन उसमें उसकी संस्कृति और उसके अनुयायियों का नैतिक और सामाजिक जीवन भी सम्मिलित होता है। इन सबके तजुर्बे के लिए मैंने मुसलमानी धर्म ग्रहण किया था। जो कुछ मैंने देखा और अनुभव किया है उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि प्राचीन वैदिक धर्म के सिद्धांत, उसकी संस्कृति, भाषा, साहित्य और उसके अनुयायियों का नैतिक और सामाजिक जीवन इस्लाम और देश के दूसरे प्रचलित मतों के सिद्धांत और अनुयायियों के मुकाबले में किसी प्रकार भी तुच्छ नहीं है, वरन उच्च ही है। 


महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा प्रतिपादित वैदिक धर्म के वास्तविक रूप को यदि हम समझे तो द्रढ़ता पूर्वक कह सकते हैं कि इस्लाम और दूसरे मतों में जो सच्चाई और सार्वभौम सिद्धांत मिलते हैं वे सब वैदिक धर्म से आये हैं इस प्रकार दार्शनिक दृष्टि से सत्य की खोज के अलावा धर्म परिवर्तन और कोई चीज नहीं हैं। जिस भांति सार्वभौम सच्चाइयों अर्थात वैदिक धर्म का सांप्रदायिक असूलों के साथ मिश्रण हो जाने से रूप विकृत हो गया, इसी भांति भारत के कुछ मुसलमानों के साथ अपने संपर्क के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि वे लोग मुहम्मद साहिब कि आज्ञाओं और मजहबी उसूलों से अभी बहुत दूर हैं। 


जहा तक मुझे मालूम है हज़रात ख़लीफ़ा उमर ने दूसरे धर्म वालो के धर्म संस्थाओं और संस्थाओं को नष्ट करने का कभी हुकुम नहीं दिया था, जो वर्त्तमान में हमारे देश की मुख्य समस्याएँ हैं। 


इस सब परिस्थितियों और बातों पर विचार करते हुए मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि "मैं" आगे इस्लाम की किसी प्रकार भी सेवा नहीं कर सकता हूँ। 


जिस प्रकार गिरा हुआ आदमी चढ़कर अपनी असली जगह पर पहुँच जाता है इसी प्रकार महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित वैदिक धर्म की सच्चाइयों को जानने और उन तक पहुँचने की मैं कोशिश कर रहा हूँ। ये सच्चाइयाँ मौलिक, स्पष्ट स्वाभाविक और सार्वभौम हैं तथा सूरज की किरणों की तरह देश, जाति और समाज के भेदभाव से शून्य तमाम मानव समाज के लिए उपयोगी हैं। इन सच्चाईयों और आदर्शों के विषय में स्वामी दयानंद द्वारा उनकी पुस्तकों सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका और दूसरी किताबों में बिना किसी भय वा पक्ष के व्याख्या की गई है। इस प्रकार मैं स्वामी दयानंद सरस्वती की शिक्षाओं की कृपा और आर्यसमाज के उद्घोष से अपने धर्म रुपी पिता और संस्कृति रुपी माता के चरणों में बैठता हूँ। यदि मेरे माता-पिता, सम्बन्धी और दोस्त इस खबर से प्रसन्न हो तो मैं उनके आशीर्वाद की याचना करता हूँ। 


अंत में प्रार्थना करता हूँ प्रभु , मेरी रक्षा करो, मुझ पर दया करो। और मुझे क्षमा करो। मैं मुम्बई आर्यसमाज के कार्यकर्ताओं और उपस्थित सज्जनों को सहृदय धन्यवाद देता हूँ। 


'तमसो माँ ज्योतिर्मय' 


बम्बई हीरालाल गांधी१४-११-३६(सन्दर्भ- सार्वदेशिक मासिक दिसंबर १९३६)

(क्रमशः )

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