Saturday, September 26, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (१३)

 


(गतांक से आगे)

जैन मुनि के समक्ष प्रतिज्ञा लेने के बाद ही मॉं ने विदेश जाने दिया


जब मोहनदास करमचंद गाँधी ने अपनी माता पुतलीबाई से विदेश जाने की अनुमति माँगी तब उनकी माँ ने मना कर दिया, क्योंकि माँ को आशंका थी, कि वे विदेश जाकर माँस आदि का भक्षण करने न लग जाये। उस समय एक जैन मुनि बेचरजी स्वामी के समक्ष गाँधीजी द्वारा तीन प्रतिज्ञा ( माँस, मदिरा का सेवन न करने व परस्त्री के समीप न जाने) लेने पर माँ ने विदेश जाने की अनुमति दी। इस तथ्य को उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’  में लिखा है।


स्पष्ट है कि गाँधीजी का परिवार जैन मत के संतों के संपर्क में था और उनके प्रति परिवार में एक विश्वास व आस्था का भाव था। गाँधीजी का आगे का संस्मरण तो इस बात की पुष्टि करता है कि युवा मोहनदास को धर्म परिवर्तन करके ईसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण करने से रोकने वाले भी एक जैन संत ही थे। श्रीमद् राजचंद्र जिन्हें गुजराती में महात्मा नो महात्मा (महात्मा के महात्मा यानी गाँधीजी के महात्मा) कहा जाता है, वास्तव में जैन संत थे। वे उम्र में गॉंधी जी से दो वर्ष बढ़े थे। गॉंधीजी ने लिखा है कि उनके आध्यात्मिक जीवन पर जिन लोगों ने सबसे अधिक प्रभाव डाला है उनमें श्रीमद् राजचंद्र अग्रणी थे। जिन्हें गाँधीजी रायचंद भाई कहते थे।


महात्मा गाँधी ने लिखा है- ‘जिस समय मेरे मन में हिंदू धर्म के बारे में शंका उत्पन्न हो गई थी, उस समय उसके निवारण में मदद देने वाले रायचंद भाई ही थे. 1893 में दक्षिण अफ्रीका में मैं कुछ ईसाई सज्जनों के संपर्क में आया. उनका जीवन निर्मल था. वे धर्मपरायण थे. अन्य धर्मावलंबियों को ईसाई बनने के लिए समझाना उनका मुख्य कार्य था. हालांकि उनसे मेरा संपर्क व्यावहारिक कार्य को लेकर ही हुआ था, फिर भी वे मेरे आत्मिक कल्याण की चिंता में लग गए. इससे मैं अपना एक कर्तव्य समझ सका. मुझे यह प्रतीति हो गई कि जब तक मैं हिन्दू धर्म के रहस्य को पूरी तरह नहीं समझ लेता और मेरी आत्मा को उससे संतोष नहीं होता, तब तक मुझे अपने जन्म का धर्म नहीं छोड़ना चाहिए. इसलिए मैंने हिन्दू और अन्य धर्म-पुस्तकों को पढ़ना आरंभ किया. ईसाइयों और मुसलमानों के धर्मग्रन्थों को पढ़ा. लन्दन में बने अपने अंग्रेज मित्रों के साथ पत्र-व्यवहार किया. उनके सामने अपनी शंकाओं को रखा. उसी तरह हिन्दुस्तान में भी जिन लोगों पर मेरी थोड़ी बहुत आस्था थी उनके साथ भी मैंने पत्र-व्यवहार किया. इनमें रायचन्दभाई मुख्य थे. उनके साथ तो मेरे अच्छे संबंध स्थापित हो चुके थे. उनके प्रति मेरे मन में आदरभाव था. इसलिए उनसे जो मिल सके उसे प्राप्त करने का विचार किया. उसका परिणाम यह हुआ कि मुझे शांति मिली. मन को ऐसा विश्वास हुआ कि मुझे जो चाहिए वह हिन्दू धर्म में है. इस स्थिति का श्रेय रायचन्द भाई को था; इसलिए पाठक स्वयं इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि उनके प्रति मेरा आदरभाव कितना नहीं बढ़ा होगा.’

कुल मिलाकर जैन दर्शन का महात्मा गांधी के जीवन में गहरा प्रभाव था। उनके राजनीतिक और अध्यात्मिक जीवन में यह स्पष्ट झलकता भी है। 

(क्रमश:)

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