Saturday, September 19, 2020

हिंदुत्व और गाँधीजी का राम राज्य (१०)

(गतांक से आगे)

" हिंदू धर्म तभी तक जीवित है, जब तक गो रक्षक हिंदू मौजूद है।" 


यह शब्द किसी हिंदुवादी छवि वाले नेता के भाषण का अंश नहीं है। बल्कि ९९ साल पहले महात्मा गाँधी ने यह लिखा है। ६ अक्टूबर १९२१ को यंग इंडिया में  उन्होंने लिखा है – हिन्दू धर्म का केन्द्रीय तत्व गोरक्षा है। मैं गोरक्षा को मानव विकास की सबसे अदभुत घटना मानता हूं। यह मानव का उदात्तीकरण करती है। मेरी दृष्टि में गाय का अर्थ समस्त अवमानवीय जगत है। गाय के माध्यम से मनुष्य समस्त जीवजगत के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करता है। गाय को इसके लिए क्यों चुना गया, इसका कारण स्पष्ट है। भारत में गाय मनुष्य की सबसे अच्छी साथिन थी। उसे कामधेनु कहा गया। वह केवल दूध ही नहीं देती थी, बल्कि उसी के बदौलत कृषि संभव हो पाई। ” इसी अंक में उन्होंने लिखा है " गो रक्षा विश्व को हिन्दू धर्म की देन है। हिन्दू धर्म तब तक जीवित रहेगा जब तक गोरक्षक हिन्दू मौजूद है। ” इसी लेख में उन्होंने लिखा  “ हिन्दुओं की परख उनके तिलक, मंत्रों के शुद्ध उच्चारण, तीर्थयात्राओं तथा जात -पात के नियमों के अत्यौपचारिक पालन से नहीं की जाएगी, बल्कि गाय की रक्षा करने की उनकी योग्यता के आधार पर की जाएगी। ” 

उन्होंने १९२१  में ६ नवम्बर को   यंग इंडिया पत्रिका में लिखा “ गाय करुणा का काव्य है। यह सौम्य पशु मूर्तिमान करुणा है। वह करोड़ों भारतीयों की मां है। गौ रक्षा का अर्थ है ईश्वर की समस्त मूक सृष्टि की रक्षा। प्राचीन ऋषि ने, वह जो भी रहा हो, आरंभ गाय से किया। सृष्टि के निम्नतम प्राणियों की रक्षा का प्रश्न और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ईश्वर ने उन्हें वाणी नहीं दी है। ” 

यंग इंडिया में ही २६ जून १९२४ को गांधी जी ने लिखा – “ गाय अवमानवीय सृष्टि का पवित्रतम रुप है। वह प्राणियों में सबसे समर्थ अर्थात मनुष्यों के हाथों न्याय पाने के वास्ते सभी अवमानवीय जीवों की ओर से हमें गुहार करती है। वह अपनी आंखों की भाषा में हमसे यह कहती प्रतीत होती है : ईश्वर ने तुम्हें हमारा स्वामी इसलिए नहीं बनाया है कि तुम हमें मार डालो, हमारा मांस खाओ अथवा किसी अन्य प्रकार से हमारे साथ दुर्वव्यहार करो, बल्कि इसलिए बनाया है कि तुम हमारे मित्र तथा संरक्षक बन कर रहो।” 

१९२५  में १ जनवरी  को यंग इंडिया में उन्होंने लिखा है – “ मैं गाय की पूजा करता हूं और उसकी पूजा का समर्थन करने के लिए दुनिया का मुकाबला करने को तैयार हूं। ” 

२९ जनवरी १९२५ को यंग इंडिया में उन्होंने लिखा है – “ मेरी आकांक्षा है कि गौ रक्षा के सिद्धांत की मान्यता संपूर्ण विश्व में हो। पर इसके लिए यह आवश्यक है पहले भारत में गौवंश की दुर्गति समाप्त हो और उसे उचित स्थान मिले ” 

आगे चलिए १५ सितंबर १९४० को " हरिजन"  में गाँधीजी  लिखते हैं – “ गोमाता जन्म देने वाली माता से श्रेष्ठ है। हमारी माता हमें दो वर्ष दुग्धपान कराती है और यह आशा करती है कि हम बडे होकर उसकी सेवा करेंगे। गाय हमसे चारे और दाने के अलावा किसी और चीज की आशा नहीं करती। हमारी मां प्राय: रुग्ण हो जाती है और हमसे सेवा करने की अपेक्षा करती है। गोमाता शायद ही कभी बीमार पडती है। गोमाता हमारी सेवा आजीवन ही नहीं करती, अपितु अपनी मृत्यु के उपरांत भी करती है। अपनी मां की मृत्यु होने पर हमें दफनाने या उसका दाह संस्कार करने पर भी धनराशि व्यय करनी पडती है। गोमाता मर जाने पर भी उतनी ही उपयोगी सिद्ध होती है जितनी अपने जीवन काल में थी। हम उसके शरीर के हर अंग – मांस, अस्थियां. आंतें, सींग और चर्म का इस्तमाल कर सकते हैं। ये बात हमें जन्म देने वाली मां की निंदा के विचार से नहीं कह रहा हूं बल्कि यह दिखाने के लिए कह रहा हूं कि मैं गाय की पूजा क्यों करता हूं। ”


देश की आजादी के १५ दिन बाद ३१ अगस्त १९४७ को गाँधीजी " हरिजन" में गौ रक्षा पर चिंता जताते हुए  लिखते हैं – “ जहां तक गौरक्षा की शुद्ध आर्थिक आवश्यकता का प्रश्न है, यदि इस पर केवल इसी दृष्टि से विचार किया जाए तो इसका हल आसान है। तब तो बिना कोई विचार किये उन सभी पशुओं को मार देना चाहिए जिनका दूध सूख गया है या जिन पर आने वाले खर्च की तुलना में उनसे मिलने वाले दूध की कीमत कम है या जो बूढे और नाकारा हो गए हैं। लेकिन इस हृदयहीन व्यवस्था के लिए भारत में कोई स्थान नहीं है , यद्यपि विरोधाभासों की इस भूमि के निवासी वस्तुत: अनेक हृदयहीन कृत्यों के दोषी हैं।"


आखिरी लाइन पर गौर कीजिए, सोचिए आजादी के बाद यह शब्द लिखने से पहले स्वयं गाँधीजी की मनःस्थिति क्या रही होगी ? 


(क्रमशः)

No comments:

Post a Comment