Tuesday, October 20, 2020

नवरात्रि की शुभकामनाएं - पांचवा दिन


 


” ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी “” का सही अर्थ क्या है….?????


महादेवी वर्मा के नाम से जिस फर्जी कविता के वायरल होने के कारण मैं यह श्रृंखला लिख रहा हूं उसमें सबसे पहले रामचरित मानस में ” ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी “ को लेकर तंज कसा गया है। इन शब्दों को लेकर सामान्य जन भ्रमित हो जाते हैं। और वे मान लेते हैं कि तुलसीदास (यानी उनके आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम रघुवंश कुल गौरव श्री रामचंद्र जी) यहां जो कह रहे हैं उसमें कहीं न कहीं महिलाओं और अजा-जजा के लोगों की तुलना पशु से की गई है।
लेकिन मैं इस धारणा को अनुचित मानता हूं।
पहली बात तो यह कि तुलसीदासजी ने रामचरित मानस संस्कृत में नहीं अवधी में लिखी है। इसलिए मानस की व्याख्या संस्कृत के आधार पर नहीं बल्कि अवधी में उन शब्दों के भावार्थ के आधार पर करना चाहिए। संस्कृत में  ताड़न शब्द का अर्थ पीटना या प्रताड़ित करना होता है। लेकिन अवधी में इसका अर्थ क्या है? अवधी में ताड़ना शब्द का अर्थ है परखना।
दूसरी बात यह कि पूरे रामचरित मानस में कहीं भी स्त्री का अपमान नहीं दिखाया गया है। माता सीता परम आदर्शवादी हैं। उर्मिला के उर्मिला के विरह और  त्याग की महिमा बताई गई है। रावण की पत्नी मंदोदरी ही नहीं बल्कि त्रिजटा को भी खलनायक के रूप में नहीं दिखाया गया है। राक्षसी सुरसा को भी हनुमान जी माता कह कर संबोधित करते हुए बताए गए हैं। कैकेई और मंथरा जब गलती का पश्चाताप करती हैं तो मानस में वे भी सहानुभूति की पात्र हो जाती हैं।
आगे सोचिए क्या तुलसी दास जी उनके विषय में कुछ गलत लिख सकते हैं जिन्हें शूद्र कहा जाने लगा है। भगवान राम की शबरी, विषाद और केवट से भेंट के प्रसंगों को ध्यान कर लीजिए। फिर इस सवाल का जवाब स्वयं ही सोच लीजिए।
अब बात करते हैं उस चौपाई की जिस पर ज्ञानी लोग बहुत ज्ञान देने की कोशिश करते हैं। इस चौपाई के संदर्भ में सामान्य जानकारी यह है कि यह सुंदरकांड में है । जब समुद्र ने भगवान राम का अनुरोध स्वीकार नहीं किया तब वे क्रोधित हो गए। 

घटना – संवाद का सम्पूर्ण सन्दर्भ देखिए


बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥


भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥


चौपाई :

* लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥


भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति ॥1॥


* ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥

क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥


भावार्थ:-ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (यानी  ऊसर में बीज बोने के समान यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥


* अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥

संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥3॥


भावार्थ:-ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥


* मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥

कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥


भावार्थ:-मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥


दोहा :

* काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।

बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥


भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है यानी सही रास्ते पर आता है ॥58॥


* सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।

गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥


भावार्थ:-समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण  क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥1॥


* तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥

प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥


भावार्थ:-आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥2॥


* प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥


भावार्थ:-प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥3॥

दरअसल ताड़ना एक अवधी शब्द है जिसका अर्थ होता है पहचानना  या परखना ।  तुलसीदास जी के कहने का भावार्थ यह है कि अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी इसलिए उसके स्वभाव को जानना जरूरी  है ।इसी तरह गंवार का अर्थ  है जो अज्ञानी हैं। और शूद्र का अर्थ है आपका अधीनस्थ कर्मचारी। उसके व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता।  इसी तरह पशु और नारी के संदर्भ  में भी वही अर्थ है कि जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते उसके साथ जीवन का निर्वाह सुखपूर्वक नहीं हो सकता। कुल मिलाकर भावार्थ यह है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु  और नारी  के स्वभाव को ठीक से समझना चाहिए और उस हिसाब से उनके साथ व्यवहार करना चाहिए।





 







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