Friday, October 9, 2020

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य (१८)

(गतांक से आगे)

जातिवादी रूढ़ियों का विरोध हर हिंदू का कर्तव्य : महात्मा गाँधी

महात्मा गाँधी मानते थे कि जातिवादी रूढ़ियों का विरोध हर हिंदू का कर्तव्य है। दरअसल, गाँधीजी के जीवन के इस प्रसंग की कहीं चर्चा ही नहीं होती कि उन्हें भी जाति्वादी रूढ़ियों के कारण अपमानित होना पड़ा था। 

यह वह समस्या था जब यह माना जाता था कि समुद्र यात्रा करने से (यानी विदेश जाने) धर्म भ्रष्ट हो जाता है। गाँधीजी के परिवार ने उन्हें बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए विलायत भेजने का निर्णय लिया। गाँधीजी से पहले तक मोढ़ वणिक समुदाय से कोई भी व्यक्ति विदेश यात्रा पर नहीं गया था। इस निर्णय से पूरी जाति में हलचल मच गई। जाति की सभा बुलाई गई । यहां जाति पंचायत ने उनसे जवाब तलब किया। जाति के सरपंच ने कहा 'जाति का ख्याल हैं कि तूने विलायत जाने का जो विचार किया हैं वह ठीक नहीं हैं । हमारे धर्म में समुद्र पार करने की मनाही हैं , जिस पर यह भी सुना जाता है कि वहां पर धर्म की रक्षा नहीं हो पाती । वहां साहब लोगों के साथ खाना-पीना पड़ता हैं । गांधी जी ने जवाब दिया , 'मुझे तो लगता हैं कि विलायत जाने में लेशमात्र भी अधर्म नहीं है । मुझे तो वहां जाकर विद्याध्ययन ही करना है । फिर जिन बातों का आपको डर है उनसे दूर रहने की प्रतिक्षा मैने अपनी माताजी के सम्मुख ली है, इसलिए मैं उनसे दूर रह सकूंगा ।' विलायत जाने का अपना निश्चय मैं बदल नहीं सकता । मुझे अपनी माताजी और अपने भाई की अनुमति भी मिल चुकी हैं ।' सरपंच ने क्रोधित होकर गांधी जी से कहा कि तू जाति का हुक्म नहीं मानेगा? गांधी जी ने अपने जवाब में कहा मैं लाचार हूं। इस जवाब से नाराज सरपंच ने आदेश दिया, 'यह लड़का आज से जातिच्युत माना जायेगा । जो कोई इसकी मदद करेगा अथवा इसे बिदा करने जायेगा , पंच उससे जवाब तलब करेगे और उससे सवा रुपया दण्ड का लिया जायेगा ।'


कन्याकुमारी में भी हुआ अपमान


यही नहीं १९२५ में गाँधीजी कन्याकुमारी गए और वहाँ उन्हें भगवती अम्मान मन्दिर में प्रवेश की अनुमति देने से मना कर दिया गया था. क्योंकि वे विलायत गये थे. मन्दिर के रिकार्ड से भी यह बात पता चलती है कि उन्होंने मंदिर के बाहर ही खड़े होकर पूजा-अर्चना की थी। ४ साल बाद २९ मार्च 1९२८ को नवजीवन में प्रकाशित गाँधीजी के आलेख में इस घटना का उल्लेख है। वे इस घटना पर नाराजगी जाहिर करते हुए लिखते हैं  'इसे कैसे सहन किया जा सकता है? क्या कन्याकुमारी प्रदूषित हो सकती है? क्या इस परंपरा का प्राचीन काल से पालन हो रहा है।’  'मेरी अंतरात्मा चीख रही है कि ऐसा नहीं हो सकता. यदि ऐसा किया गया तो यह पापपूर्ण है. जो पापपूर्ण हो उसे नहीं रहना चाहिए अथवा वह अपनी प्राचीनता के कारण प्रशंसा के योग्य बन जाती है.।’ 'परिणामस्वरूप, इस बात को लेकर मेरा विश्वास और बढ़ गया है कि इस कलंक को हटाने लिए बलशाली प्रयास करना, प्रत्येक हिन्दू का दायित्व है.' 


जाति से मानपत्र लेते समय भी किया जातिवाद का विरोध

२४ जनवरी, १९२८ को सौराष्ट्र के मोरबी रियासत के राजा की उपस्थिति में मोढ़ बनिया जाति के लोगों ने महात्मा गांधी को मानपत्र भेंट किया.  मानपत्र लेने के अवसर पर गांधी ने समूची जाति-व्यवस्था को ही रामराज्य अथवा स्वराज्य के लिए घातक बताते हुए कहा था - ‘मैं यह माननेवाला रहा हूं कि इन छोटे-छोटे बाड़ों का नाश होना चाहिए. मुझे इस बारे में कोई शक नहीं कि हिन्दू-धर्म के भीतर जातियों के लिए कोई जगह नहीं है. और यह मैं मोढ़ या दूसरी जो भी जातियां यहां पर हों उन्हें ध्यान में रखकर कहता हूं. ...आप सबसे मोढ़ जाति के निमित्त मैं यह कहना चाहता हूं कि जाति के बाड़ों को भूल जाइये. आज जो जातियां हैं उनको यज्ञ की आहूति के रूप में उपयोग कर स्वाहा कीजिए और नई जाति न बनने दीजिए.’


उन्होंने आगे कहा - ‘...आप इन छोटे-छोटे बाड़ों के खड्डों में पड़े रहेंगे तो बदबू उठेगी. डॉक्टर खड्डे भर देने की सलाह देते हैं, उसी तरह यह भी समझ लीजिए कि जाति के बाड़े भी मनुष्य के लिए घातक हैं. यह समझ लीजिए कि ईश्वर कभी ऐसी घातक रचना नहीं कर सकता. ...बहस और अज्ञान को ज्ञान मत कहिए. आज दुनिया में जुदा-जुदा धर्मों का मुकाबला हो रहा है. लेकिन यदि हम खुले मन से देखें तो जान पड़ेगा कि हमारी जातियां हमारी तरक्की को, धर्म को, स्वराज्य को और रामराज्य को रोकने का कार्य करती है. मैं तो इन बाड़ों को तोड़ने की कोशिशें तेज करना चाहता हूं. आपको पता नहीं होगा कि मैंने अपने एक लड़के का ब्याह जाति से बाहर किया है.’


 भोपाल के मोढ़ समाज की प्रशंसा

१० सितंबर १९२९ को भोपाल यात्रा के दौरान स्थानीय मोढ़ वणिक समाज ने गाँधीजी का सम्मान किया था। मोढ़ों की बगिया में आयोजित इस सम्मान समारोह में गाँधीजी ने विलायत यात्रा के कारण उन्हें जाति से बाहर किए जाने का किस्सा सुनाते हुए भोपाल के मोढ़ समाज की प्रशंसा की थी और कहा था कि भोपाल का मोढ़ समाज अधिक प्रगतिशील है। प्रसिद्ध पत्रकार स्वतंत्रता सेनानी पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने अपनी कर्मवीर पत्रिका में इस किस्से को प्रकाशित भी किया था।


(क्रमशः)

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